शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

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...अगर
लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

एक बार मैं बैठा था, बैठा था और अचानक मेरे दिमाग़ में ऐसा ख़याल आया कि मैं ख़ुद भी चौंक गया. मैंने सोचा, कि कितना अच्छा होता अगर दुनिया की सारी चीज़ें उलटी-पुलटी हो जातीं. जैसे कि, मिसाल के तौर पर, बच्चे हर चीज़ में महत्वपूर्ण होते और बड़ों को उनकी हर बात माननी पड़ती. मतलब, बच्चे बड़ों जैसे होते और बड़े बच्चों जैसे होते. ये होती कमाल की बात, कितना मज़ा आता!
सबसे पहले, मैं कल्पना करता हूँ कि मम्मा को ये बात कितनी ‘अच्छी’ लगती, कि मैं घूम रहा हूँ और उस पर अपनी मर्ज़ी से हुकुम चला रहा हूँ, और पापा को भी कितना ‘अच्छा’ लगता, और दादी के बारे में तो कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं है. मैं सबसे गिन गिनकर बदला लेता! मिसाल के तौर पर, मम्मा खाना खाने बैठी है, और मैं उससे कहता:
”ये बगैर ब्रेड के खाने का क्या फ़ैशन सीख लिया है तूने? और देख! ज़रा आईने में अपनी शकल देख, किसके जैसी दिखाई दे रही है? खूसट बुड्ढी! फ़ौरन खा, तुझसे कह रहे हैं!” – और वो सिर झुकाकर खाने लगती, और मैं बस हुकुम चलाता: “जल्दी! गाल पे हाथ मत रख! फिर सोचने लगी? सारी दुनिया की प्रॉब्लेम्स तुझे ही तो सुलझानी हैं ना? खा, जैसी तेरी मर्ज़ी! और कुर्सी पर झूला न झूल!”
और तभी पापा काम से लौटते, और वह कपड़े भी न उतारते कि मैं चिल्लाना शुरू करता:
 “आहा, आ गया! हमेशा, बस, तेरी राह ही देखते रहो! फ़ौरन हाथ धो! कैसे धो रहा है, कैसे धो रहा है, गन्दगी फैलाने की ज़रूरत नहीं है. तेरे हाथ पोंछने के बाद तौलिए की ओर देखा नहीं जाता. ब्रश से घिस और खूब साबुन लगा. चल, नाखून दिखा! ओह, कितने डरावने हैं, ये नाखून हैं? ये तो किसी जानवर के तीखे नाखून हैं! कैंची कहाँ है? खींच मत! मैं कोई ऊँगली का माँस नहीं खींच रहा हूँ, बल्कि बड़ी सावधानी से काट रहा हूँ. नाक न सुड़क, तू कोई लड़की नहीं है...ये, हो गया. अब मेज़ पे बैठ जा.”
वो बैठ जाते और हौले से मम्मा से कहते:
 “कैसी है तू?”
और वो भी धीरे से जवाब देती:
 “ठीक हूँ, थैन्क्यू!”
मैं फ़ौरन कहता:
 “मेज़ पे बात नहीं! जब मैं खाना खा रहा होता हूँ तो गूँगे और बहरे बन जाओ! ये बात ज़िन्दगी भर याद रखना. सुनहरा नियम! पापा! वो अख़बार रख दो, सज़ा हो तुम मेरे लिए!”
और वे चुपचाप बैठे रहते, और जब दादी आती, तो मैं आँखें बारीक कर लेता, हाथ नचाता और ज़ोर से कहता:
 “पापा! मम्मा! ज़रा देखो हमारी दादी जान को! क्या शकल बना रखी है! सीना खुला हुआ, हैट सिर से खिसकी जा रही है! गाल लाल, सारी गर्दन गीली! बढ़िया, क्या कहने! मान ले कि फिर से हॉकी खेलने गई थी! और ये गन्दी लकड़ी कैसी है? तू इसे घर क्यों घसीट लाई? क्या? ये आईस-हॉकी वाली स्टिक है! फ़ौरन मेरी आँखों के सामने से दूर कर – पिछले दरवाज़े से!”
अब मैं कमरे में टहलता और उन तीनों से कहता:
”खाना खाने के बाद सब होम वर्क करने बैठो, और मैं फिल्म देखने जाऊँगा!”
बेशक, वे फ़ौरन बिसूरने लगते और ठिनकने लगते:
 “हम भी तुम्हारे साथ जाएँगे! हमें भी फिल्म देखना है!”
मैं उनसे कहता:
 “किसी हालत में नहीं, किसी हालत में नहीं! कल बर्थ-डे पार्टी में गए थे, इतवार को मैं तुम्हें सर्कस ले गया था! छिः! हर रोज़ घूमने-फिरने की आदत पड़ गई है. घर में बैठो! चलो, ये तुम्हें तीस कोपेक देता हूँ आईस्क्रीम के लिए, बस!”
तब दादी विनती करती:
 “कम से कम मुझे तो ले चल! हर बच्चा अपने साथ किसी बड़े को मुफ़्त में तो ले जा सकता है!”
 मगर मैं उसकी बात काट देता, मैं कहता:
 “मगर इस फिल्म में सत्तर साल से बड़े लोगों को नहीं आने दिया जाता. घर में बैठ, घुमक्कड़ कहीं की!”
      
और मैं जानबूझ कर ज़ोर ज़ोर से एड़ियाँ खटखटाते हुए उनके सामने से निकल जाता, जैसे कि मैं देख ही नहीं रहा हूँ कि उन सब की आँखें गीली हैं, और मैं कपड़े पहनने लगता, बड़ी देर तक आईने के सामने घूम घूम कर देखता रहता, और गाना गाने लगता, और वे इससे और भी ज़्यादा दुखी होते, मैं सीढ़ियों का दरवाज़ा थोड़ा सा खोलता और कहता:
मगर मैं सोच ही नहीं पाया, कि मैं क्या कहता, क्योंकि इसी समय मम्मा आ गई, असली, सचमुच की मम्मा और बोली:
 “तू अभी तक बैठा ही है. खा फ़ौरन, देख तो किसके जैसा दिख रहा है? बिल्कुल खूसट बुड्ढा!"


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बुधवार, 25 दिसंबर 2013

A Smart Way

चालाक तरीका

लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनु. : आ. चारुमति रामदास

 “तो,” मम्मा ने कहा, “ज़रा ग़ौर फ़रमाइए! छुट्टी कैसे बीत जाती है? बर्तन, बर्तन, बर्तन, दिन में तीन-तीन बार बर्तन! सुबह कप-प्लेट्स धोओ, और दिन में प्लेटों का पूरा पहाड़. बस, मुसीबत ही मुसीबत!”
 “हाँ,” पापा ने कहा,” वाक़ई में ये बड़ी भयानक बात है! कितने दुख की बात है कि इस बारे में किसीने कुछ सोचा भी नहीं है. ये इंजीनियर लोग क्या करते हैं? हाँ, हाँ...बेचारी औरतें...”
पापा ने गहरी साँस ली और दीवान पर बैठ गए.
मम्मा ने देखा कि वो कितने आराम से बैठ गए हैं और बोली:
 “”यहाँ बैठ कर घिनौने तरीक़े से आहें भरने की ज़रूरत नहीं है! इंजीनियरों के ऊपर भी सारा दोष मढ़ने की ज़रूरत नहीं है! मैं तुम दोनों को समय देती हूँ. लंच तक तुम दोनों को कुछ न कुछ सोचना है और मेरा ये नासपीटा बर्तन-धुलाई का काम हल्का करना है! जो नहीं सोचेगा, उसे मैं खाना नहीं दूँगी. बैठा रहे भूखा. डेनिस्का! ये तेरे बारे में भी है. तैयार हो जा कुछ सोचने के लिए!”
मैं फौरन विन्डो-सिल पर बैठ गया और सोचने लगा, कि इस बारे में क्या किया जाए. 
पहली बात तो ये थी कि मैं डर गया था कि मम्मा सचमुच में मुझे खाना नहीं देगी और मैं भूख से मर जाऊँगा; और दूसरी बात: मुझे इस बारे में सोचना बड़ा अच्छा लग रहा था, क्योंकि इंजीनियर्स कुछ कर नहीं पाए थे. और मैं बैठा था, सोच रहा था और कनखियों से पापा की ओर देख लेता था, कि उनका  क्या हाल है. मगर पापा ने तो सोचने के बारे में सोचा ही नहीं. उन्होंने दाढ़ी बनाई, फिर साफ कमीज़ पहनी, फिर दस अख़बारों की गड्डी पढ़ ली, और उसके बाद आराम से रेडियो लगा दिया और पिछले हफ़्ते की कुछ ख़बरें सुनने लगे.
तब मैंने और जल्दी सोचना शुरू कर दिया. पहले मैं किसी इलेक्ट्रिक मशीन के बारे में सोचने लगा जो ख़ुद-ब-ख़ुद बर्तन धो ले और उन्हें पोंछ भी ले. इसके लिए मैंने हमारी फ़र्श धोने वाली मशीन और पापा के इलेक्ट्रिक शेवर ‘खारकोव’ के स्क्रू खोल दिए. मगर मैं उसमें तौलिया अटकाने के लिए कोई जगह नहीं ढूँढ पाया.
पत चला कि मशीन चालू करने पर शेवर तौलिए के हज़ारों टुकड़े कर देगा. तब मैंने सारी चीज़ें फिर से जोड़ दीं और कुछ और सोचने लगा. और दो घण्टे बाद मुझे याद आया कि मैंने अख़बार में कन्वेयर के बारे में पढ़ा था, और इसके कारण मैंने अचानक बड़ी मज़ेदार चीज़ सोची. और जब लंच का टाइम हो गया और मम्मा ने मेज़ पर सब कुछ सजा दिया, और हम सब बैठ गए, तो मैंने कहा:
 “तो, पापा? तुमने सोच लिया?”
 “किस बारे में?” पापा ने कहा.
 “वही, बर्तन धोने के बारे में,” मैंने कहा. “वर्ना मम्मा हम दोनों का खाना बन्द कर देगी.”
  “वो तो उसने मज़ाक किया था,” पापा ने कहा. “वो अपने ख़ुद के बेटे को और बेहद प्यारे पति को कैसे नहीं खिलाएगी?”
और वो ज़ोर से हँसने लगे.
मगर मम्मा ने कहा:
 “मैंने कोई मज़ाक-वज़ाक नहीं किया है, अभी पता चलेगा! शर्म कैसे नहीं आती! मैं सौंवी बार कह रही हूँ – बर्तन धोते-धोते मेरा दम निकल जाता है! ये ज़रा भी कॉम्रेडों जैसा बर्ताव नहीं है : ख़ुद खिड़की की सिल पर बैठे रहना, और दाढ़ी बनाते रहना, और रेडियो सुनना, जब कि मैं अधमरी हो रही होती हूँ, बिना रुके आप लोगों के कप और प्लेटें धोती रहती हूँ.”
 “ठीक है,” पापा ने कहा, कोई तरक़ीब सोचते हैं! तब तक खाना तो खा लें! ओह, छोटी-छोटी बातों के पीछे ये नाटक!”
 “आह, छोटी-छोटी बातों के पीछे?” मम्मा ने कहा और वह एकदम भड़क गई. “क्या कहने, बहुत ख़ूब! और अगर मैं सचमुच ही खाना न दूँ तो फिर तुम लोग ऐसी बकवास नहीं करोगे!”
और उसने ऊँगलियों से अपनी कनपटियाँ दबाईं और मेज़ से उठ गई. और मेज़ के पास खड़े-खड़े बड़ी देर तक पापा को देखती रही. और पापा ने सीने पर हाथ रख लिए और कुर्सी पर झूलने लगे और वो भी मम्मा की ओर देखते रहे. और वो दोनों ख़ामोश थे. और कोई खाना-वाना भी नहीं था. मगर मुझे तो ज़ोर की भूख लगी थी. मैंने कहा:
 “मम्मा! ये, बस, अकेले पापा ने ही तो कुछ नहीं सोचा है. मगर मैंने तो सोच लिया है! सब ठीक है, तुम परेशान न होना. चलो, खाना खाएँगे.”
मम्मा ने कहा:
 “तूने आख़िर क्या सोच लिया?”
मैंने कहा:
 “मम्मा, मैंने एक चालाक तरीक़ा सोचा है!”
उसने कहा:
 “चल, चल, बता दे...”
मैंने पूछा:
 “तुम हर बार खाने के बाद खाने के कितने सेट्स धोती हो? हाँ, मम्मा?”
 उसने जवाब दिया:
 “तीन.”
 “तब कहो ‘हुर्रे’,” मैंने कहा, “अब से तुम बस एक ही सेट धोया करोगी! मैंने एक चालाक तरीका सोच लिया है!”
 “चल, बता भी दे,” पापा ने कहा.
 “चलो, पहले खाना खा लेते हैं,” मैंने कहा. “खाना खाते-खाते मैं बताऊँगा, मुझे तो बड़े ज़ोर की भूख लगी है.”
 “चलो, ठीक है,” मम्मा ने गहरी साँस ली, “चलो, खा लेते हैं.”
और हम खाना खाने लगे.
 “तो?” पापा ने कहा.
 “बड़ा आसान है,” मैंने कहा. “तुम बस सुनती रहना, मम्मा, देख लेना सब कुछ कितना बढ़िया हो जाएगा! देखो: जैसे, ये खाना तैयार है. तुम बस एक ही सेट मेज़ पर रखती हो. रखती हो, तुम, याने कि, बस एक ही सेट, गहरी प्लेट में सूप डालती हो, मेज़ के पास बैठती हो, सूप खाने लगती हो और पापा से कहती हो, “खाना तैयार है!”
पापा, बेशक, हाथ धोने जाते हैं, और, जब तक वो हाथ धोते हैं, तुम, मम्मा, अपना सूप ख़तम कर चुकी होती हो, और पापा को अपनी ही प्लेट में नया सूप डालकर देती हो.”
और ये, पापा कमरे में लौटते हैं और फ़ौरन मुझसे कहते हैं:
  “डेनिस्का, खाना तैयार है! जा, हाथ धो ले!”
मैं जाता हूँ. तुम, इस समय उथली प्लेट से कटलेट्स खा रही होती हो. और पापा सूप खाते रहते हैं. और मैं हाथ धोता रहता हूँ. और जब मैं उन्हें धो लेता हूँ, मैं आप लोगों के पास आता हूँ, और यहाँ, पापा ने सूप ख़त्म कर लिया है, और तुमने कटलेट्स खा लिए हैं. और जब मैं अन्दर आया तो पापा ने अपनी ख़ाली प्लेट में नया सूप डाला, तुमने पापा को अपनी ख़ाली प्लेट में कटलेट्स दिए. मैं सूप खा रहा हूँ, पापा कटलेट्स खा रहे हैं, और तुम आराम से ग्लास में फलों का स्ट्यू पी रही हो.
जब पापा कटलेट्स ख़तम कर चुके होते हैं, तभी मैं भी अपना सूप ख़त्म कर चुका हूँ. तब वो अपनी उथली प्लेट में कटलेट्स डालते हैं, और इस समय तुम स्ट्यू ख़त्म कर चुकती हो और पापा को उसी गिलास में स्ट्यू डाल कर देती हो. मैं सूप वाली ख़ाली प्लेट सरका देता हूँ, कटलेट्स वाली प्लेट लेता हूँ, पापा स्ट्यू पीने लगते हैं, और तुम, शायद, खाना ख़त्म कर चुकी हो, इसलिए तुम सूप वाली गहरी प्लेट उठाती हो और उसे धोने के लिए किचन में जाती हो!
जब तक तुम वो प्लेट धोती हो, मैं कटलेट्स खा चुका  होता हूँ, और पापा – स्ट्यू. अब वो मेरे लिए गिलास में स्ट्यू डालते हैं और उथली वाली प्लेट तुम्हारे पास ले जाते हैं, मैं एक ही घूँट में स्ट्यू गटक जाता हूँ और ख़ुद वो खाली गिलास किचन में ले जाता हूँ! सब कुछ कितना आसान है! और तुम्हें तीन सेट्स के बदले बस एक ही सेट धोना पड़ता है. हुर्रे!”
 “हुर्रे!” मम्मा ने कहा. “हुर्रे तो हुर्रे, मगर ये बहुत अनहाइजीनिक है!”
 “बकवास!” मैंने कहा, “आख़िर सब अपने ही तो हैं. मुझे, मिसाल के तौर पर, पापा के बाद खाने में कोई ऐतराज़ नहीं है. मैं उनसे प्यार करता हूँ. तो, फिर बात क्या है...मैं तुमसे भी प्यार करता हूँ.”
 “”वाक़ई में , बड़ा चालाक तरीका है,” पापा ने कहा. “मगर. चाहे कुछ भी कहो, तीन किश्तों में खाने के मुक़ाबले में, सबके एक साथ बैठकर खाने का मज़ा ही कुछ और है.”
 “हाँ,” मैंने कहा, “मगर, मम्मा के लिए ये आसान है! बर्तन तो एक तिहाई रह जाते हैं ना.”
 “जानते हो,” पापा ने सोच में डूबे-डूबे कहा, “मुझे लगता है कि मैंने भी एक तरीका सोच लिया है. हाँ ये सच है कि वो इतना चालाक नहीं है, मगर फिर भी...”
 “बताओ,” मैंने कहा.
 पापा उठे, आस्तीनें चढ़ाईं और मेज़ से सारे बर्तन इकट्ठे कर लिए.

 “मेरे पीछे आ जा,” उन्होंने कहा, “मैं तुझे अपना ना-चालाक तरीका दिखाता हूँ. वो ये है कि अब से हम और तुम मिलकर सारे बर्तन साफ़ किया करेंगे!”

और वो चल पड़े.

मैं उनके पीछे भागा. और हमने सारे बर्तन धो डाले. हाँ, बस केवल दो सेट्स. क्योंकि तीसरा तो मैंने तोड़ दिया. ये, बस, मेरे हाथ से हो गया, मैं पूरे समय यही सोच रहा था कि पापा ने कितना सीधा-सादा तरीका सोचा है.

और मेरे दिमाग़ में ये क्यों नहीं आया?...

सोमवार, 16 दिसंबर 2013

Telephone

टेलिफ़ोन
लेखक: निकोलाय नोसोव
अनु. : आ. चारुमति रामदास

एक बार मैं और मीश्का खिलौनों की दुकान में गए और वहाँ हमने एक लाजवाब खिलौना देखा – टेलिफोन. लकड़ी के एक बड़े डिब्बे में दो टेलिफोन-उपकरण पड़े थे, दो रिसीवर थे बोलने और सुनने के लिए, और तार की एक बड़ी रील थी. सेल्सगर्ल ने हमें समझाया कि अगर एक टेलिफोन को एक फ्लैट में और दूसरे को पड़ोसियों के फ्लैट में रखकर उन्हें तार से जोड़ दिया जाए तो आपस में बातचीत की जा सकती है.
 “ हमें इसे ख़रीदना ही चाहिए! वैसे भी हम पड़ोसी हैं,” मीश्का ने कहा. “अच्छी चीज़ है! ये कोई मामूली खिलौना नहीं है, जिसे तुम तोड़ कर फेंक दोगे. ये बड़े काम की चीज़ है!”
 “हाँ,” मैंने कहा, “बड़े काम की चीज़ है! जब भी बात करने का मन हो, रिसीवर उठाओ ...बात कर लो, और, कहीं भी जाने की ज़रूरत नहीं है.”
 “ग़ज़ब की सुविधा!” मीश्का जोश में आ गया. “घर में बैठे हो और बात कर रहे हो. कमाल की चीज़ है!”
मैंने और मीश्का ने तय कर लिया कि टेलिफोन ख़रीदने के लिए पैसे जमा करेंगे. लगातार दो हफ़्ते हमने न तो आईस्क्रीम खाई, न ही हम फिल्म देखने गए...बस, पैसे जमा करते रहे. आख़िरकार जितने की ज़रूरत थी उतने पैसे जमा हो गए और हमने टेलिफोन ख़रीद लिया.   
डिब्बे को लेकर फुदकते हुए घर लौटे. एक टेलिफोन मेरे फ्लैट में रखा, दूसरा- मीश्का के घर में और मेरे टेलिफोन से वेंटीलेटर में से होकर तार नीचे खींच दिया, सीधे मीश्का के टेलिफोन तक.
 “तो,” मीश्का ने कहा, “चल बात करने की कोशिश करते हैं. ऊपर भाग और सुन.”
मैं अपने घर आया, रिसीवर उठाया और सुनने लगा, और रिसीवर तो मीश्का की आवाज़ में चीख़ रहा है:
 “ हैलो! हैलो!”
मैं भी चीख़ा:
 “हैलो!”
 “क्या कुछ सुनाई दे रहा है?” मीश्का चीखा.
 “सुनाई दे रहा है. और तुझे सुनाई दे रहा है?”
 “सुनाई दे रहा है. ये हुई न बात! क्या तुझे अच्छे से सुनाई दे रहा है?”
 “अच्छे से दे रहा है. और तुझे?”
 “मुझे भी अच्छी तरह सुनाई दे रहा है. हा-हा-हा! क्या सुनाई दे रहा है कि मैं कैसे हँस रहा हूँ?”
 “सुनाई दे रहा है. हा-हा-हा! और क्या तुझे सुनाई दे रहा है?”
 “सुनाई दे रहा है. सुन, मैं अभी तेरे पास आता हूँ.”
मीश्का भाग कर मेरे घर आया, और हम खुशी के मेरे एक दूसरे को गले लगाने लगे.
 “अच्छा किया, जो टेलिफोन ख़रीद लिया! है ना?” मीश्का ने कहा.
 “बेशक,” मैंने कहा, “बहुत अच्छा किया.”
 “सुन, अब मैं वापस जाता हूँ और तुझे फोन करता हूँ.”
वह भागकर अपने घर गया और उसने फिर से फोन किया. मैंने रिसीवर उठाया:
”हैलो!
 “हैलो!”
 “सुनाई दे रहा है?”
 “दे रहा है.”
 “अच्छी तरह से?”
 “अच्छी तरह से.”
 “और मुझे भी बढ़िया सुनाई दे रहा है. चल, बात करते हैं.”
 “चल,” मैंने कहा. “मगर किस बारे में बात करेंगे?”
 “क्या, किस बारे में...किसी भी बारे में...अच्छा किया, जो हमने टेलिफोन ख़रीद लिया, ठीक है ना?”
“सही है.”
 “अगर हम न ख़रीदते, तो बुरा होता. है ना?”
 “सही है.”
 “तो?”
 “क्या ‘तो’?”
 “तू बात क्यों नहीं कर रहा है?”
 “और तू क्यों नहीं बात कर रहा है?”
 “हाँ, मुझे मालूम नहीं कि किस बारे में बात करना है,” मीश्का ने कहा. “ये ऐसा ही होता है : जब बात करनी होती है तो समझ में ही नहीं आता कि किस बारे में बात करें, और जब बात नहीं करनी होती, तो बस बातें करते रहते हैं, करते रहते हैं...”
मैंने कहा:
 “चल, ऐसा करते हैं: सोचते हैं, और जब सोच लेंगे तब फोन करेंगे.”
 “ठीक है.”
मैंने रिसीवर लटका दिया और सोचने लगा. अचानक घंटी बजी. मैंने रिसीवर उठाया.
 “तो, सोच लिया?” मीश्का ने पूछा.
 “अभी नहीं, नहीं सोचा.”
”मैंने भी अभी नहीं सोचा.”
 “अगर तूने सोचा नहीं है, तो फोन क्यों कर रहा है?”
 “और मैंने सोचा कि तूने सोच लिया है.”
 “तब मैं ख़ुद ही तुझे फोन करता.”
 “तू क्या सोचता है, क्या मैं गधा हूँ?”
“नहीं, तू कहाँ से गधा होने लगा! तू बिल्कुल भी गधा नहीं है! क्या मैंने कहा, कि तू गधा है!”
 “तो फिर तू क्या कह रहा है?”
 “कुछ भी नहीं. बस, ये कह रहा हूँ कि तू गधा नहीं है.”
 “अच्छा, ठीक है, गधे के बारे में ज़ोर देने की कोई ज़रूरत नहीं है! चल, इससे तो अच्छा है कि हम होमवर्क कर लें.”
 “चल.”
मैंने रिसीवर लटका दिया और पढ़ने बैठ गया. अचानक मीश्का ने फिर से फोन किया.:
 “सुन, अब मैं टेलिफोन पर गाना गाऊँगा और पियानो बजाऊँगा.”
 “ठीक है, गा,” मैंने कहा.
कुछ फ़ुफ़कार सी सुनाई दी, फिर कुछ खड़खड़ाहट जैसा म्यूज़िक बजा, और अचानक मीश्का गाने लगा, अजीब सी आवाज़ में:

“ कहाँ, कहाँ चले गए,
मेरी बहार के सुनहरे दिन?”

 ‘ये क्या है?’ मैंने सोचा. ‘ये ऐसे गाना इसने कहाँ से सीखा?’ इतने में मीश्का ख़ुद ही प्रकट हुआ. बत्तीसी खोले.
 “तूने सोचा कि ये मैं गा रहा हूँ? ये तो ग्रामोफोन गा रहा है फोन पे! ज़रा मुझे दे, मैं सुनूँगा.”
मैंने रिसीवर उसे दे दिया. वह सुनता रहा, सुनता रहा, फिर उसने रिसीवर फेंक दिया--- और नीचे भागा. मैंने रिसीवर हाथ में लिया, और वहाँ:
 “प्श-श्-श्! प्श-श्-श्! दर्-र्-! दर् –र्-र्!” शायद रेकॉर्ड ख़तम हो गई थी. मैं फिर से पढ़ाई करने लगा. फिर से घंटी. मैंने रिसीवर  उठाया:
 “हैलो!”
मगर रिसीवर से सुनाई दिया:
 “आव्! आव्! आव्!”
 “ये तू,” मैंने कहा, “कुत्ते की तरह क्यों भौंक रहा है?”
 “ये मैं नहीं हूँ. ये तेरे साथ ‘दोस्त’ बात कर रहा है. सुन रहा है न कि वो कैसे दाँतों से रिसीवर को कुतर रहा है?”
 “सुन रहा हूँ.”
 “मैं उसके थोबड़े में रिसीवर घुसा रहा हूँ, और वो उसे दाँतों से चबा रहा है.”
 “तू रिसीवर ख़राब कर देगा.”
 “कोई बात नहीं, वो लोहे का है...आय्! भाग यहाँ से! मैं तुझे दिखाता हूँ, कैसे काटना है! ये ले! (आव्!आव्!आव्!) काटता है, समझा?”
 “समझ रहा हूँ,” मैंने कहा.
मैं फिर से होमवर्क करने लगा. एक मिनट बाद फिर घंटी बजी. मैंने रिसीवर उठाया, मगर वहाँ तो कोई चीज़ ज़ूं sss कर रही थी.
 “ज़ूंज़ूं-ऊ-ऊ-ऊ!”
 “हैलो!” मैं  चीखा.
“ज़ूंऊऊ-ऊ!” “ज़ूंज़ूं-ऊ!”
 “ ये तू ज़ूंज़ूं क्या कर रहा है?”
 “मक्खी से.”
 “कैसी मक्खी से?”
 “ओह, साधारण मक्खी से. मैंने उसे रिसीवर के सामने पकड़ के रखा है, और वो अपने पंख फड़फड़ा रही है और ज़ूंज़ूं कर रही है.”
पूरी शाम मैं और मीश्का एक दूसरे को फ़ोन करते रहे और अलग-अलग तरह की हरकतें करते रहे : हम गाते, चीख़ते, चिंघाड़ते, बुदबुदाते, यहाँ तक कि फुसफुसाकर भी बातें करते – सब कुछ सुनाई दे रहा था. मैंने बड़ी देर से होमवर्क ख़तम किया और सोचने लगा:
 ‘इससे पहले कि मीश्का सो जाए, एक बार और उसे फोन कर लेता हूँ.’
फोन किया, मगर उसने जवाब ही नहीं दिया.
 ‘ये क्या हुआ?’ मैंने सोचा. ‘कहीं टेलिफोन बिगड़ तो नहीं गया?’
एक बार और फोन किया – फिर से कोई जवाब नहीं आया!. मैंने सोचा:
 “जाकर देखना चाहिए कि बात क्या है.’
उसके पास भागा...माय गॉड! उसने टेलिफोन मेज़ पर रखा है और उसे तोड़ रहा है. उपकरण से बैटरी को बाहर निकाल दिया है, घंटी के पुर्जे अलग-अलग कर दिए हैं और अब रिसीवर का स्क्रू भी खोल रहा है.
 “रुक जा,” मैंने कहा. “ये तू टेलिफोन क्यों तोड़ रहा है?”
 “नहीं, मैं तोड़ थोड़े ही रहा हूँ. मैं बस देखना चाहता हूँ कि ये बना कैसे है. समझ जाऊँगा, और फिर से इसे जोड़ दूंगा.”
 “तू क्या जोड़ पाएगा? इसे समझने की ज़रूरत होती है.”
 “मैं समझ ही तो रहा हूँ. और इसमें समझ में न आने वाली कौन सी बात है!”
उसने रिसीवर के स्क्रू खोल दिए, उसके अन्दर से कुछ लोहे के टुकड़े निकाले और गोल प्लेट को बाहर निकालने लगा, जो भीतर थी. प्लेट बाहर निकल गई और रिसीवर से काली-काली पाउडर बाहर गिरने लगी. मीश्का घबरा गया और पाउडर को वापस रिसीवर में भरने लगा.
 “देख, देख रहा है ना,” मैंने कहा, “कि तूने क्या कर दिया!”
 “कोई बात नहीं,” उसने कहा, “मैं सब कुछ वापस वैसे ही रख दूंगा जैसे था.”
और वो सारी चीज़ें समेटने लगा. समेटता रहा, समेटता रहा...छोटे-छोटे स्क्रू, उन्हें फिट करना मुश्किल था. आख़िर में उसने रिसीवर वापस जोड़ दिया, बस एक लोहे का टुकड़ा और दो स्क्रू बच गए.
 “और, ये कहाँ से आया - लोहे का टुकड़ा?” मैंने पूछा.
 “ओह, मैं बेवकूफ़!” मीश्का ने कहा. “भूल गया! इसे अन्दर फिट करना था. रिसीवर को फिर से खोलना पड़ेगा.”
 “अच्छा,” मैंने कहा, “मैं घर जाता हूँ, और तू, जैसे ही ये ठीक हो जाएगा, तो मुझे फोन कर लेना.”
मैं घर पहुँचा और इंतज़ार करने लगा. इंतज़ार करता रहा, करता रहा, ..और ज़्यादा इंतज़ार न कर सका और सो गया.
सुबह-सुबह टेलिफोन बजने लगा! मैं कपड़े पहने बिना ही उछला, रिसीवर पकड़ा और चीखा:
 “सुन रहा हूँ!”
 और रिसीवर से आवाज़ आई:
 “तू खुर्र-खुर्र क्या कर रहा है?”     
  “मैं क्यों खुर्र-खुर्र करने लगा? मैं खुर्र-खुर्र नहीं कर रहा हूँ,” मैंने कहा.
  “खुरखुराना बन्द कर! इन्सान की तरह बात कर!” मीश्का चीख़ा.
 “इन्सान की तरह ही बोल रहा हूँ. मुझे खुरखुर करने की क्या ज़रूरत है?”
 “बस हो गई शरारत! मैं ये मान ही नहीं सकता कि तू कमरे में सुअर के पिल्ले को घसीट लाया है.”
 “कह तो रहा हूँ तुझसे, कोई सुअर का पिल्ला-विल्ला नहीं है!” मुझे गुस्सा आ गया.
मीश्का ख़ामोश हो गया. एक मिनट बाद वो मेरे पास आया:
 “तू फोन पे खुरखुरा क्यों रहा था?”
 “मैं नहीं खुरखुराया.”
 “मगर मैंने तो सुना.”
 “अरे, मैं क्यों खुरखुराने लगा?”
 “मालूम नहीं,” उसने कहा. “मेरे रिसीवर में सिर्फ ख्रू-ख्रू , ख्रू-ख्रू ही आ रहा था. अगर यक़ीन नहीं आता, तो ख़ुद ही चलकर सुन ले.”
मैं उसके घर गया और फोन किया:
 “हैलो!”
पहले तो कुछ भी सुनाई नहीं दिया, मगर फिर धीरे धीरे सुनाई देने लगा:
 ‘ख्र्युक! ख्र्युक! ख्र्युक!”
मैंने कहा:
 “खुरखुरा रहा है.”
और जवाब में फिर से सुनाई दिया:
 “ख्र्युक! ख्र्युक! ख्र्युक!”
 “खुरखुरा रहा है,” मैं चीख़ा.
और रिसीवर से फिर जवाब आया:
  “ख्र्युक! ख्र्युक! ख्र्युक! ख्र्युक!”
अब मैं समझ गया कि बात क्या है और मीश्का के पास भागा:
 “ये तूने,” मैंने कहा, “टेलिफोन बिगाड़ दिया है!”
 “क्यों?”
 “तू उसे तोड़ जो रहा था, बस, अपने रिसीवर में कुछ बिगाड़ दिया.”
 “शायद मैंने कोई चीज़ ग़लत जोड़ दी,” मीश्का ने कहा. “उसे सुधारना पड़ेगा.”
 “अब सुधारेगा कैसे?”
 “मैं देखूंगा कि तेरा टेलिफोन कैसे बना है, अपना भी उसी तरह बना लूंगा.”
 “मैं अपना टेलिफोन तोड़ने के लिए नहीं दूँगा!”
 “तू डर मत! मैं सावधानी से करूंगा. सुधारना तो पड़ेगा ही ना!”
और वह सुधारने लगा. सुधारता रहा, सुधारता रहा - - और ऐसे सुधारा कि कुछ भी सुनाई नहीं देता था. अब तो खुरखुर भी बन्द हो गई.
 “तो, अब क्या करना है?” मैंने पूछा.
 “सुन,” मीश्का ने कहा, “दुकान में चलते हैं, हो सकता है, वहाँ सुधार दें.”
हम खिलौनों की दुकान में गए, मगर वहाँ टेलिफोन्स सुधारे नहीं जाते थे और उन्हें ये भी मालूम नहीं था कि वो कहाँ सुधारे जाते हैं. पूरे दिन हम बोरियत से घूमते रहे. अचानक मीश्का ने सोच लिया:
 “हम लाजवाब हैं! हम टेलिग्राफ़ से भी तो बात कर सकते हैं!”
 “कैसे – टेलिग्राफ़ से?”
 “बिल्कुल आसान है : डॉट, डैश. आख़िर घंटी तो काम कर रही है ना! छोटी घंटी –डॉट, और लम्बी घंटी – डैश. मोर्स की वर्णमाला याद कर लेते हैं और बस, बातें किया करेंगे!”
हम कहीं से मोर्स की वर्णमाला लाए और याद  करने लगे : ‘ए’ – डॉट, डैश; ‘बी’ – डैश, तीन डॉट्स; ‘सी’ – डॉट, दो डैश... पूरी वर्णमाला याद कर ली और लगे एक दूसरे से बात करने. पहले तो हम बहुत धीरे-धीरे चल रहे थे, मगर फिर हम पूरी तरह सीख गए, जैसे कि सचमुच के टेलिग्राफ़िस्ट हों : ‘ट्रिन-ट्रिन-ट्रिन!’ और सब समझ में आ जाता था. बल्कि ये तो साधारण टेलिफोन से भी ज़्यादा दिलचस्प लग रहा था. बस, ये ज़्यादा दिन नहीं चला. एक बार मैंने सुबह मीश्का की घंटी बजाई, मगर उसने जवाब नहीं दिया.
 “ओह,” मैंने सोचा, “शायद अभी सो रहा है.” थोड़ी देर बाद फिर से घंटी बजाई – तब भी उसने जवाब नहीं दिया. उसके घर गया और दरवाज़ा खटखटाया. मीश्का ने दरवाज़ा खोला और कहा:
“ये तू दरवाज़ा क्यों पीटे जा रहा है? क्या दिखाई नहीं देता?” और उसने दरवाज़े पर लगी घंटी की ओर इशारा किया.
 “ये क्या है?” मैंने पूछा.
 “बटन.”
 “कैसा बटन?”
 “इलेक्ट्रिक. अब हमारे पास इलेक्ट्रिक घंटी है, तो, अब तू इसे बजा सकता है.”
 “कहाँ से लाया?”
 “ख़ुद बनाई.”
  “किससे?”
 “टेलिफोन से.”
 “क्या – टेलिफोन से कैसे?”
 “बिल्कुल आसान है. टेलिफोन से  घंटी बाहर निकाल ली, बटन भी निकाल लिया. टेलिफोन से बैटरी भी निकाल ली. खिलौना था – अब एक चीज़ बन गया!”
 “तुझे टेलिफोन को इस तरह तोड़ने-मरोड़ने का क्या हक़ था?” मैंने पूछा.
 “कैसा हक़! मैंने अपना फोन तोड़ा है. तेरे वाले को तो हाथ भी नहीं लगाया.”
 “मगर टेलिफोन तो हम दोनों ही का है ना! अगर मुझे मालूम होता, कि तू उसे इस तरह से तोड़ने वाला है, तो मैं तेरे साथ ख़रीदता ही नहें! अगर मुझसे बात करने वाला कोई है ही नहीं, तो मुझे टेलिफोन की क्या ज़रूरत है!”
 “और, हमें बात ही क्यों करना है? वैसे भी हम पास में ही तो रहते हैं, एक दूसरे के घर जाकर भी बात कर सकते हैं.”
 “इसके बाद तो मैं तुझसे बात भी नहीं करना चाहता!”
मैं उस पर गुस्सा हो गया और तीन दिन उससे बात नहीं की. बोरियत के मारे मैंने अपना टेलिफोन भी खोल दिया और उससे इलेक्ट्रिक घंटी बना ली. मगर वैसी नहीं बनी जैसी मीश्का की थी. मैंने हर चीज़ बड़े सलीके से जमाई थी. बैटरी को दरवाज़े की बगल में रखा फर्श पर, उससे तार जोड़ कर दीवार पर खींच दिया, इलेक्ट्रिक घंटी और बटन तक. और बटन को स्क्रू से दरवाज़े जोड़ दिया, जिससे कि वो सिर्फ एक कील पर न लटकती रहे, जैसी कि मीश्का की बटन थी. मम्मा और पापा ने भी मेरी तारीफ़ की, कि मैंने घर में इतनी काम की चीज़ बनाई है.
मैं मीश्का के यहाँ गया, यह बताने के मेरे घर में भी इलेक्ट्रिक-घंटी है.
दरवाज़े के पास आया, घंटी बजाई... बटन दबाया, दबाया, दबाया—किसी ने भी दरवाज़ा नहीं खोला. “शायद, घंटी बिगड़ गई है?” मैंने सोचा. दरवाज़ा खटखटाया. मीश्का ने दरवाज़ा खोला. मैंने पूछा:
“क्या घंटी काम नहीं कर रही है?
 “नहीं कर रही.”
 “क्यों?”
 “वो, मैं  बैटरी देख रहा था.”
 “किसलिए?”
 “बस, देखना चाह रहा था कि बैटरी किससे बनी है.”
 “अब कैसे रहेगा तू बिना टेलिफोन के और बिना घंटी के?”
 “कोई बात नहीं,” उसने गहरी सांस ली. “किसी तरह रह लूंगा!”
मैं घर वापस आया, और सोचने लगा, “ये मीश्का इतना फूहड़ क्यों है? वो हर चीज़ क्यों तोड़ता है?!” मुझे उस पर दया भी आई.
शाम को मैं लेटा, मगर बड़ी देर तक सो नहीं पाया, बस, याद करता रहा : कैसे हमारे पास टेलिफोन था और कैसे उससे इलेक्ट्रिक घंटी बनी. फिर मैं इलेक्ट्रिसिटी के बारे में सोचने लगा, उसे बैटरी में कैसे और कहाँ से प्राप्त करते हैं. सब लोग कबके सो चुके थे, मगर मैं बस इसीके बारे में सोचे जा रहा था और सो नहीं पा रहा था. तब मैं उठा, लैम्प जलाया, शेल्फ से बैटरी निकाली और उसे तोड़ दिया. बैटरी में कोई द्रव पड़ा था, जिसमें एक चिथड़े में लिपटी हुई काली डंडी डूबी थी. मैं समझ गया कि इलेक्ट्रिसिटी इस द्रव से मिलती है. फिर मैं बिस्तर पर लेट गया और फ़ौरन मेरी आँख लग गई.



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