टेलिफ़ोन
लेखक: निकोलाय
नोसोव
अनु. : आ. चारुमति
रामदास
एक बार मैं और मीश्का खिलौनों की दुकान
में गए और वहाँ हमने एक लाजवाब खिलौना देखा – टेलिफोन. लकड़ी के एक बड़े डिब्बे में
दो टेलिफोन-उपकरण पड़े थे, दो रिसीवर थे बोलने और सुनने के लिए, और तार की एक बड़ी
रील थी. सेल्सगर्ल ने हमें समझाया कि अगर एक टेलिफोन को एक फ्लैट में और दूसरे को
पड़ोसियों के फ्लैट में रखकर उन्हें तार से जोड़ दिया जाए तो आपस में बातचीत की जा
सकती है.
“
हमें इसे ख़रीदना ही चाहिए! वैसे भी हम पड़ोसी हैं,” मीश्का ने कहा. “अच्छी चीज़ है!
ये कोई मामूली खिलौना नहीं है, जिसे तुम तोड़ कर फेंक दोगे. ये बड़े काम की चीज़ है!”
“हाँ,” मैंने कहा, “बड़े काम की चीज़ है! जब भी
बात करने का मन हो, रिसीवर उठाओ ...बात कर लो, और, कहीं भी जाने की ज़रूरत नहीं
है.”
“ग़ज़ब
की सुविधा!” मीश्का जोश में आ गया. “घर में बैठे हो और बात कर रहे हो. कमाल की चीज़
है!”
मैंने और मीश्का ने तय कर लिया कि टेलिफोन
ख़रीदने के लिए पैसे जमा करेंगे. लगातार दो हफ़्ते हमने न तो आईस्क्रीम खाई, न ही हम
फिल्म देखने गए...बस, पैसे जमा करते रहे. आख़िरकार जितने की ज़रूरत थी उतने पैसे जमा
हो गए और हमने टेलिफोन ख़रीद लिया.
डिब्बे को लेकर फुदकते हुए घर लौटे. एक
टेलिफोन मेरे फ्लैट में रखा, दूसरा- मीश्का के घर में और मेरे टेलिफोन से
वेंटीलेटर में से होकर तार नीचे खींच दिया, सीधे मीश्का के टेलिफोन तक.
“तो,” मीश्का ने कहा, “चल बात करने की कोशिश करते
हैं. ऊपर भाग और सुन.”
मैं अपने घर आया, रिसीवर उठाया और सुनने
लगा, और रिसीवर तो मीश्का की आवाज़ में चीख़ रहा है:
“
हैलो! हैलो!”
मैं भी चीख़ा:
“हैलो!”
“क्या कुछ सुनाई दे रहा है?” मीश्का चीखा.
“सुनाई दे रहा है. और तुझे सुनाई दे रहा है?”
“सुनाई दे रहा है. ये हुई न बात! क्या तुझे
अच्छे से सुनाई दे रहा है?”
“अच्छे से दे रहा है. और तुझे?”
“मुझे भी अच्छी तरह सुनाई दे रहा है. हा-हा-हा!
क्या सुनाई दे रहा है कि मैं कैसे हँस रहा हूँ?”
“सुनाई दे रहा है. हा-हा-हा! और क्या तुझे सुनाई
दे रहा है?”
“सुनाई दे रहा है. सुन, मैं अभी तेरे पास आता
हूँ.”
मीश्का भाग कर मेरे घर आया, और हम खुशी के
मेरे एक दूसरे को गले लगाने लगे.
“अच्छा किया, जो टेलिफोन ख़रीद लिया! है ना?”
मीश्का ने कहा.
“बेशक,” मैंने कहा, “बहुत अच्छा किया.”
“सुन, अब मैं वापस जाता हूँ और तुझे फोन करता
हूँ.”
वह भागकर अपने घर गया और उसने फिर से फोन
किया. मैंने रिसीवर उठाया:
”हैलो!
“हैलो!”
“सुनाई दे रहा है?”
“दे रहा है.”
“अच्छी तरह से?”
“अच्छी तरह से.”
“और मुझे भी बढ़िया सुनाई दे रहा है. चल, बात
करते हैं.”
“चल,” मैंने कहा. “मगर किस बारे में बात
करेंगे?”
“क्या,
किस बारे में...किसी भी बारे में...अच्छा किया, जो हमने टेलिफोन ख़रीद लिया, ठीक है
ना?”
“सही है.”
“अगर हम न ख़रीदते, तो बुरा होता. है ना?”
“सही है.”
“तो?”
“क्या ‘तो’?”
“तू बात क्यों नहीं कर रहा है?”
“और तू क्यों नहीं बात कर रहा है?”
“हाँ, मुझे मालूम नहीं कि किस बारे में बात करना
है,” मीश्का ने कहा. “ये ऐसा ही होता है : जब बात करनी होती है तो समझ में ही नहीं
आता कि किस बारे में बात करें, और जब बात नहीं करनी होती, तो बस बातें करते रहते
हैं, करते रहते हैं...”
मैंने कहा:
“चल, ऐसा करते हैं: सोचते हैं, और जब सोच लेंगे
तब फोन करेंगे.”
“ठीक है.”
मैंने रिसीवर लटका दिया और सोचने लगा.
अचानक घंटी बजी. मैंने रिसीवर उठाया.
“तो, सोच लिया?” मीश्का ने पूछा.
“अभी नहीं, नहीं सोचा.”
”मैंने भी अभी नहीं सोचा.”
“अगर तूने सोचा नहीं है, तो फोन क्यों कर रहा
है?”
“और मैंने सोचा कि तूने सोच लिया है.”
“तब मैं ख़ुद ही तुझे फोन करता.”
“तू क्या सोचता है, क्या मैं गधा हूँ?”
“नहीं, तू कहाँ से गधा होने लगा! तू
बिल्कुल भी गधा नहीं है! क्या मैंने कहा, कि तू गधा है!”
“तो फिर तू क्या कह रहा है?”
“कुछ भी नहीं. बस, ये कह रहा हूँ कि तू गधा नहीं
है.”
“अच्छा, ठीक है, गधे के बारे में ज़ोर देने की
कोई ज़रूरत नहीं है! चल, इससे तो अच्छा है कि हम होमवर्क कर लें.”
“चल.”
मैंने रिसीवर लटका दिया और पढ़ने बैठ गया. अचानक
मीश्का ने फिर से फोन किया.:
“सुन, अब मैं टेलिफोन पर गाना गाऊँगा और पियानो
बजाऊँगा.”
“ठीक है, गा,” मैंने कहा.
कुछ फ़ुफ़कार सी सुनाई दी, फिर कुछ खड़खड़ाहट
जैसा म्यूज़िक बजा, और अचानक मीश्का गाने लगा, अजीब सी आवाज़ में:
“ कहाँ, कहाँ चले
गए,
मेरी बहार के
सुनहरे दिन?”
‘ये क्या है?’ मैंने सोचा. ‘ये ऐसे गाना इसने
कहाँ से सीखा?’ इतने में मीश्का ख़ुद ही प्रकट हुआ. बत्तीसी खोले.
“तूने सोचा कि ये मैं गा रहा हूँ? ये तो ग्रामोफोन
गा रहा है फोन पे! ज़रा मुझे दे, मैं सुनूँगा.”
मैंने रिसीवर उसे दे दिया. वह सुनता रहा,
सुनता रहा, फिर उसने रिसीवर फेंक दिया--- और नीचे भागा. मैंने रिसीवर हाथ में
लिया, और वहाँ:
“प्श-श्-श्! प्श-श्-श्! दर्-र्-! दर् –र्-र्!”
शायद रेकॉर्ड ख़तम हो गई थी. मैं फिर से पढ़ाई करने लगा. फिर से घंटी. मैंने
रिसीवर उठाया:
“हैलो!”
मगर रिसीवर से सुनाई दिया:
“आव्! आव्! आव्!”
“ये तू,” मैंने कहा, “कुत्ते की तरह क्यों भौंक
रहा है?”
“ये मैं नहीं हूँ. ये तेरे साथ ‘दोस्त’ बात कर
रहा है. सुन रहा है न कि वो कैसे दाँतों से रिसीवर को कुतर रहा है?”
“सुन रहा हूँ.”
“मैं उसके थोबड़े में रिसीवर घुसा रहा हूँ, और वो
उसे दाँतों से चबा रहा है.”
“तू रिसीवर ख़राब कर देगा.”
“कोई बात नहीं, वो लोहे का है...आय्! भाग यहाँ
से! मैं तुझे दिखाता हूँ, कैसे काटना है! ये ले! (आव्!आव्!आव्!) काटता है, समझा?”
“समझ रहा हूँ,” मैंने कहा.
मैं फिर से होमवर्क करने लगा. एक मिनट बाद
फिर घंटी बजी. मैंने रिसीवर उठाया, मगर वहाँ तो कोई चीज़ ज़ूं sss — कर रही थी.
“ज़ूंज़ूं-ऊ-ऊ-ऊ!”
“हैलो!”
मैं चीखा.
“ज़ूंऊऊ-ऊ!” “ज़ूंज़ूं-ऊ!”
“
ये तू ज़ूंज़ूं क्या कर रहा है?”
“मक्खी से.”
“कैसी मक्खी से?”
“ओह, साधारण मक्खी से. मैंने उसे रिसीवर के
सामने पकड़ के रखा है, और वो अपने पंख फड़फड़ा रही है और ज़ूंज़ूं कर रही है.”
पूरी शाम मैं और मीश्का एक दूसरे को फ़ोन
करते रहे और अलग-अलग तरह की हरकतें करते रहे : हम गाते, चीख़ते, चिंघाड़ते,
बुदबुदाते, यहाँ तक कि फुसफुसाकर भी बातें करते – सब कुछ सुनाई दे रहा था. मैंने
बड़ी देर से होमवर्क ख़तम किया और सोचने लगा:
‘इससे पहले कि मीश्का सो जाए, एक बार और उसे फोन
कर लेता हूँ.’
फोन किया, मगर उसने जवाब ही नहीं दिया.
‘ये क्या हुआ?’ मैंने सोचा. ‘कहीं टेलिफोन बिगड़ तो
नहीं गया?’
एक बार और फोन किया – फिर से कोई जवाब
नहीं आया!. मैंने सोचा:
“जाकर देखना चाहिए कि बात क्या है.’
उसके पास भागा...माय गॉड! उसने टेलिफोन
मेज़ पर रखा है और उसे तोड़ रहा है. उपकरण से बैटरी को बाहर निकाल दिया है, घंटी के
पुर्जे अलग-अलग कर दिए हैं और अब रिसीवर का स्क्रू भी खोल रहा है.
“रुक जा,” मैंने कहा. “ये तू टेलिफोन क्यों तोड़
रहा है?”
“नहीं, मैं तोड़ थोड़े ही रहा हूँ. मैं बस देखना
चाहता हूँ कि ये बना कैसे है. समझ जाऊँगा, और फिर से इसे जोड़ दूंगा.”
“तू क्या जोड़ पाएगा? इसे समझने की ज़रूरत होती
है.”
“मैं समझ ही तो रहा हूँ. और इसमें समझ में न आने
वाली कौन सी बात है!”
उसने रिसीवर के स्क्रू खोल दिए, उसके
अन्दर से कुछ लोहे के टुकड़े निकाले और गोल प्लेट को बाहर निकालने लगा, जो भीतर थी.
प्लेट बाहर निकल गई और रिसीवर से काली-काली पाउडर बाहर गिरने लगी. मीश्का घबरा गया
और पाउडर को वापस रिसीवर में भरने लगा.
“देख, देख रहा है ना,” मैंने कहा, “कि तूने क्या
कर दिया!”
“कोई बात नहीं,” उसने कहा, “मैं सब कुछ वापस
वैसे ही रख दूंगा जैसे था.”
और वो सारी चीज़ें समेटने लगा. समेटता रहा,
समेटता रहा...छोटे-छोटे स्क्रू, उन्हें फिट करना मुश्किल था. आख़िर में उसने रिसीवर
वापस जोड़ दिया, बस एक लोहे का टुकड़ा और दो स्क्रू बच गए.
“और, ये कहाँ से आया - लोहे का टुकड़ा?” मैंने
पूछा.
“ओह, मैं बेवकूफ़!” मीश्का ने कहा. “भूल गया! इसे
अन्दर फिट करना था. रिसीवर को फिर से खोलना पड़ेगा.”
“अच्छा,” मैंने कहा, “मैं घर जाता हूँ, और तू,
जैसे ही ये ठीक हो जाएगा, तो मुझे फोन कर लेना.”
मैं घर पहुँचा और इंतज़ार करने लगा. इंतज़ार
करता रहा, करता रहा, ..और ज़्यादा इंतज़ार न कर सका और सो गया.
सुबह-सुबह टेलिफोन बजने लगा! मैं कपड़े
पहने बिना ही उछला, रिसीवर पकड़ा और चीखा:
“सुन रहा हूँ!”
और
रिसीवर से आवाज़ आई:
“तू खुर्र-खुर्र क्या कर रहा है?”
“मैं क्यों खुर्र-खुर्र करने लगा? मैं
खुर्र-खुर्र नहीं कर रहा हूँ,” मैंने कहा.
“खुरखुराना बन्द कर! इन्सान की तरह बात कर!” मीश्का चीख़ा.
“इन्सान की तरह ही बोल रहा हूँ. मुझे खुरखुर
करने की क्या ज़रूरत है?”
“बस हो गई शरारत! मैं ये मान ही नहीं सकता कि तू
कमरे में सुअर के पिल्ले को घसीट लाया है.”
“कह तो रहा हूँ तुझसे, कोई सुअर का
पिल्ला-विल्ला नहीं है!” मुझे गुस्सा आ गया.
मीश्का ख़ामोश हो गया. एक मिनट बाद वो मेरे
पास आया:
“तू फोन पे खुरखुरा क्यों रहा था?”
“मैं नहीं खुरखुराया.”
“मगर मैंने तो सुना.”
“अरे, मैं क्यों खुरखुराने लगा?”
“मालूम नहीं,” उसने कहा. “मेरे रिसीवर में सिर्फ
ख्रू-ख्रू , ख्रू-ख्रू ही आ रहा था. अगर यक़ीन नहीं आता, तो ख़ुद ही चलकर सुन ले.”
मैं उसके घर गया और फोन किया:
“हैलो!”
पहले तो कुछ भी सुनाई नहीं दिया, मगर फिर
धीरे धीरे सुनाई देने लगा:
‘ख्र्युक! ख्र्युक! ख्र्युक!”
मैंने कहा:
“खुरखुरा रहा है.”
और जवाब में फिर से सुनाई दिया:
“ख्र्युक! ख्र्युक! ख्र्युक!”
“खुरखुरा रहा है,” मैं चीख़ा.
और रिसीवर से फिर जवाब आया:
“ख्र्युक! ख्र्युक! ख्र्युक! ख्र्युक!”
अब मैं समझ गया कि बात क्या है और मीश्का
के पास भागा:
“ये तूने,” मैंने कहा, “टेलिफोन बिगाड़ दिया है!”
“क्यों?”
“तू उसे तोड़ जो रहा था, बस, अपने रिसीवर में कुछ
बिगाड़ दिया.”
“शायद मैंने कोई चीज़ ग़लत जोड़ दी,” मीश्का ने
कहा. “उसे सुधारना पड़ेगा.”
“अब सुधारेगा कैसे?”
“मैं देखूंगा कि तेरा टेलिफोन कैसे बना है, अपना
भी उसी तरह बना लूंगा.”
“मैं अपना टेलिफोन तोड़ने के लिए नहीं दूँगा!”
“तू डर मत! मैं सावधानी से करूंगा. सुधारना तो
पड़ेगा ही ना!”
और वह सुधारने लगा. सुधारता रहा, सुधारता
रहा - - और ऐसे सुधारा कि कुछ भी सुनाई नहीं देता था. अब तो खुरखुर भी बन्द हो गई.
“तो, अब क्या करना है?” मैंने पूछा.
“सुन,” मीश्का ने कहा, “दुकान में चलते हैं, हो
सकता है, वहाँ सुधार दें.”
हम खिलौनों की दुकान में गए, मगर वहाँ
टेलिफोन्स सुधारे नहीं जाते थे और उन्हें ये भी मालूम नहीं था कि वो कहाँ सुधारे
जाते हैं. पूरे दिन हम बोरियत से घूमते रहे. अचानक मीश्का ने सोच लिया:
“हम
लाजवाब हैं! हम टेलिग्राफ़ से भी तो बात कर सकते हैं!”
“कैसे
– टेलिग्राफ़ से?”
“बिल्कुल
आसान है : डॉट, डैश. आख़िर घंटी तो काम कर रही है ना! छोटी घंटी –डॉट, और लम्बी
घंटी – डैश. मोर्स की वर्णमाला याद कर लेते हैं और बस, बातें किया करेंगे!”
हम कहीं से मोर्स की वर्णमाला लाए और याद करने लगे : ‘ए’ – डॉट, डैश; ‘बी’ – डैश, तीन
डॉट्स; ‘सी’ – डॉट, दो डैश... पूरी वर्णमाला याद कर ली और लगे एक दूसरे से बात
करने. पहले तो हम बहुत धीरे-धीरे चल रहे थे, मगर फिर हम पूरी तरह सीख गए, जैसे कि
सचमुच के टेलिग्राफ़िस्ट हों : ‘ट्रिन-ट्रिन-ट्रिन!’ और सब समझ में आ जाता था.
बल्कि ये तो साधारण टेलिफोन से भी ज़्यादा दिलचस्प लग रहा था. बस, ये ज़्यादा दिन
नहीं चला. एक बार मैंने सुबह मीश्का की घंटी बजाई, मगर उसने जवाब नहीं दिया.
“ओह,”
मैंने सोचा, “शायद अभी सो रहा है.” थोड़ी देर बाद फिर से घंटी बजाई – तब भी उसने
जवाब नहीं दिया. उसके घर गया और दरवाज़ा खटखटाया. मीश्का ने दरवाज़ा खोला और कहा:
“ये तू दरवाज़ा क्यों पीटे जा रहा है? क्या
दिखाई नहीं देता?” और उसने दरवाज़े पर लगी घंटी की ओर इशारा किया.
“ये
क्या है?” मैंने पूछा.
“बटन.”
“कैसा
बटन?”
“इलेक्ट्रिक.
अब हमारे पास इलेक्ट्रिक घंटी है, तो, अब तू इसे बजा सकता है.”
“कहाँ
से लाया?”
“ख़ुद
बनाई.”
“किससे?”
“टेलिफोन
से.”
“क्या
– टेलिफोन से कैसे?”
“बिल्कुल
आसान है. टेलिफोन से घंटी बाहर निकाल ली,
बटन भी निकाल लिया. टेलिफोन से बैटरी भी निकाल ली. खिलौना था – अब एक चीज़ बन गया!”
“तुझे टेलिफोन को
इस तरह तोड़ने-मरोड़ने का क्या हक़ था?” मैंने पूछा.
“कैसा हक़! मैंने अपना फोन तोड़ा
है. तेरे वाले को तो हाथ भी नहीं लगाया.”
“मगर टेलिफोन तो हम दोनों ही का
है ना! अगर मुझे मालूम होता, कि तू उसे इस तरह से तोड़ने वाला है, तो मैं तेरे साथ
ख़रीदता ही नहें! अगर मुझसे बात करने वाला कोई है ही नहीं, तो मुझे टेलिफोन की क्या
ज़रूरत है!”
“और, हमें बात ही क्यों करना है?
वैसे भी हम पास में ही तो रहते हैं, एक दूसरे के घर जाकर भी बात कर सकते हैं.”
“इसके बाद तो मैं तुझसे बात भी नहीं
करना चाहता!”
मैं उस पर गुस्सा हो गया और तीन दिन उससे बात नहीं की. बोरियत के मारे मैंने अपना
टेलिफोन भी खोल दिया और उससे इलेक्ट्रिक घंटी बना ली. मगर वैसी नहीं बनी जैसी
मीश्का की थी. मैंने हर चीज़ बड़े सलीके से जमाई थी. बैटरी को दरवाज़े की बगल में रखा
फर्श पर, उससे तार जोड़ कर दीवार पर खींच दिया, इलेक्ट्रिक घंटी और बटन तक. और बटन
को स्क्रू से दरवाज़े जोड़ दिया, जिससे कि वो सिर्फ एक कील पर न लटकती रहे, जैसी कि
मीश्का की बटन थी. मम्मा और पापा ने भी मेरी तारीफ़ की, कि मैंने घर में इतनी काम
की चीज़ बनाई है.
मैं मीश्का के यहाँ गया, यह बताने के मेरे घर में भी इलेक्ट्रिक-घंटी है.
दरवाज़े के पास आया, घंटी बजाई... बटन
दबाया, दबाया, दबाया—किसी ने भी दरवाज़ा नहीं खोला. “शायद, घंटी बिगड़ गई है?” मैंने सोचा.
दरवाज़ा खटखटाया. मीश्का ने दरवाज़ा खोला. मैंने पूछा:
“क्या घंटी काम नहीं कर
रही है?
“नहीं
कर रही.”
“क्यों?”
“वो,
मैं बैटरी देख रहा था.”
“किसलिए?”
“बस,
देखना चाह रहा था कि बैटरी किससे बनी है.”
“अब
कैसे रहेगा तू बिना टेलिफोन के और बिना घंटी के?”
“कोई
बात नहीं,” उसने गहरी सांस ली. “किसी तरह रह लूंगा!”
मैं घर वापस आया, और सोचने लगा, “ये मीश्का
इतना फूहड़ क्यों है? वो हर चीज़ क्यों तोड़ता है?!” मुझे उस पर दया भी आई.
शाम को मैं लेटा, मगर बड़ी देर तक सो नहीं पाया,
बस, याद करता रहा : कैसे हमारे पास टेलिफोन था और कैसे उससे इलेक्ट्रिक घंटी बनी. फिर
मैं इलेक्ट्रिसिटी के बारे में सोचने लगा, उसे बैटरी में कैसे और कहाँ से प्राप्त
करते हैं. सब लोग कबके सो चुके थे, मगर मैं बस इसीके बारे में सोचे जा रहा था और
सो नहीं पा रहा था. तब मैं उठा, लैम्प जलाया, शेल्फ से बैटरी निकाली और उसे तोड़
दिया. बैटरी में कोई द्रव पड़ा था, जिसमें एक चिथड़े में लिपटी हुई काली डंडी डूबी
थी. मैं समझ गया कि इलेक्ट्रिसिटी इस द्रव से मिलती है. फिर मैं बिस्तर पर लेट गया
और फ़ौरन मेरी आँख लग गई.
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