कुत्ता चोर
लेखक:
विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद:
आ. चारुमति रामदास
ज़रा सुनिए तो सही,
कि एक बार क्या हुआ. जब मैं अपने चाचा वोलोद्या के साथ समर-कॉटेज में रहता था, तो
हमारी कॉटेज से कुछ दूर बोरिस क्लिमेंत्येविच रहते थे, दुबले-पतले अंकल, ख़ुशमिजाज़,
हाथ में छड़ी लिए रहते और इतने ऊँचे थे, जितनी फेन्सिंग होती है.
उनके पास एक
कुत्ता था जिसका नाम था चाप्का. बहुत ही बढ़िया कुत्ता था, काला, झबरा, थोबड़ा - जैसे
ईंट, पूँछ - जैसे ठूँठ. मेरी उसके साथ बहुत दोस्ती हो गई.
एक बार बोरिस
क्लिमेंत्येविच ने तैरने के लिए जाने का, और चाप्का को अपने साथ न ले जाने का
विचार किया. क्योंकि वो एक बार उनके साथ ‘बीच’ पे गया था और इस कारण वहाँ बड़ा
हंगामा हो गया था. उस समय चाप्का पानी में घुस गया था, और पानी में तैर रही थी एक
आण्टी. वो एक रबड़ के डिब्बे पर तैर रही थी, जिससे डूब न जाए. वो फ़ौरन चाप्का पर
चिल्लाई:
“भाग जा! बस, इसी की कमी थी. बस, कुत्ते का
इन्फेक्शन ही यहाँ छोड़ना बाकी था!” और वो चाप्का पर पानी उड़ाने लगी: “भाग यहाँ से,
भाग जा!”
चाप्का को ये
अच्छा नहीं लगा, और वो तैरते-तैरते आण्टी को काटने की कोशिश करने लगा, मगर उस तक तो पहुँच नहीं पाया, हाँ अपने
तेज़ दाँतों से उसने रबड़ के डिब्बे को ज़रूर
पकड़ लिया. बस, एक ही बार काटा था, कि डिब्बा फुस् करके फ्लैट हो गया. आण्टी ने
सोचा कि वह डूब रही है और वो चीख़ने लगी:सथ
“डूब रही हूँ, बचाओ!”
पूरी ‘बीच’ बेहद
घबरा गई. बोरिस क्लिमेंत्येविच उसे बचाने के लिए लपके. वहाँ, जहाँ ये आण्टी
उछल-कूद मचा रही थी, नदी का पानी बस उनके घुटनों तक था, और आण्टी के कंधों तक. उन्होंने
आण्टी को बचा लिया, मगर चाप्का को छड़ी से मारा – बेशक, सिर्फ दिखाने के लिए. तब से
वो चाप्का को ‘बीच’ पर नहीं ले जाते.
तो, उन्होंने
मुझसे विनती की कि मैं चाप्का के साथ कम्पाऊण्ड में घूमूं, जिससे वो उनके
पीछे-पीछे न आए. और मैं कम्पाऊण्ड में आया, मैं चाप्का के खेलने लगा, उछलने लगा,
भौंकने लगा, गिरने लगा, हँसने लगा. बोरिस क्लिमेंत्येविच इत्मीनान से चले गए. मैं
और चाप्का बड़ी देर तक खेलते रहे, तभी फेन्सिंग के पास से हाथ में बंसी लिए वान्का
दीखोव गुज़रा.
उसने कहा:
“डेनिस्का, चल, मछली पकड़ते हैं!”
मैंने कहा:
“नहीं आ सकता, मैं चाप्का की रखवाली कर रहा
हूँ.”
उसने कहा:
“चाप्का को घर में बन्द कर दे. अपनी जाली ले ले
और भाग के आ जा.”
और वो आगे निकल
गया. मैंने चाप्का का पट्टा पकड़कर उसे हौले से घास पे खींचा. वो पंजे ऊपर उठाकर
लेट गया, और ऐसे चल पड़ा जैसे छोटी से स्लेज पर फिसल रहा हो. मैंने दरवाज़ा खोला,
उसे खींचकर कॉरीडोर में लाया, दरवाज़ा बन्द किया और जाली लेने चला गया. जब मैं वापस
रास्ते पे आया, तो वान्का जा चुका था. वह नुक्कड़ के पीछे छुप गया था. मैं उसके
पीछे भागा और अचानक क्या देखता हूँ कि जनरल स्टोर्स के पास रास्ते के ठीक बीचोंबीच
बैठा है मेरा चाप्का, जीभ बाहर निकाले मेरी ओर ऐसे देख रहा है, जैसे कुछ हुआ ही ना
हो...
तो, ये बात है!
मतलब, मैंने दरवाज़ा ठीक से बन्द नहीं किया, या फिर ये चालाकी से बाहर आ गया और
लोगों के कम्पाऊण्ड से होते हुई यहाँ आकर बैठ गया, मुझसे मिलने के लिए! बहुत
होशियार है! मगर मुझे तो जल्दी जाना है. वहाँ, शायद, वान्का तो मछली भी खींच रहा
होगा, और मुझे इसकी ही फिकर करनी है. ख़ास बात ये है, कि मैं इसे अपने साथ ले भी
चलता, मगर बोरिस क्लिमेंत्येविच कभी भी वापस लौट सकते हैं, और अगर उन्हें ये घर पे
नहीं मिला, तो वो परेशान हो जाएँगे, इसे ढूँढ़ने निकल पड़ेंगे, और फिर मुझे
डाँटेंगे... नहीं, ऐसे नहीं चलेगा! इसे वापस ले जाकर बन्द करना होगा.
मैंने उसे पट्टे
से पकड़ा और खींचते हुए घर ले आया. इस बार चाप्का अपने चारों पंजे ज़मीन में गड़ाकर
विरोध कर रहा था. वो मेरे पीछे इस तरह घिसट रहा था जैसे मेंढ़क हो. मैं बड़ी मुश्किल
से उसे दरवाज़े तक लाया. दरवाज़ा थोड़ा-सा खोलकर उसे भीतर धकेल दिया और दरवाज़े को कस
के बन्द कर दिया. वो अन्दर से भौंकने लगा, बिसूरने लगा, मगर मैंने उसे चुप कराने
की कोशिश नहीं की. मैंने पूरे घर का चक्कर लगाया, सारी खिड़कियाँ और जाली भी बन्द
कर दी. और, हालाँकि मैं ये सब करते-करते बहुत थक गया, फिर भी मैं नदी की ओर भागा.
मैं काफ़ी तेज़ दौड़ रहा था, और जब मैं ट्रान्सफॉर्मर वाले डिब्बे तक पहुँचा, तो उसके
पीछे से उछल कर बाहर आया...फिर से चाप्का! मैं जल्दी-जल्दी भागने लगा. मुझे अपनी
आँखों पे भरोसा नहीं हुआ. मुझे लगा कि शायद मुझे चाप्का का सपना आ रहा है...मगर
चाप्का तो मानो काटने के लिए तैयार था, क्योंकि मैं उसे घर पे छोड़ आया था. गुर्रा
रहा है और मुझ पर भौंक रहा है! अच्छा, रुक जा, अभी दिखाता हूँ तुझे! और मैं उसे पट्टे
से पकड़ने लगा, मगर वो मेरे हाथ नहीं आया, वो घूम गया, गुर्राया, पीछे हटा, उछला और
पूरे समय भौंकता रहा. तब मैं उसे मनाने लगा:
“चापोच्का, चापोच्का, त्यु-त्यु-त्यु, झबरीले,
आ-आ-आ!”
मगर वो नख़रे करता
रहा और मेरी पकड़ में नहीं आया. ख़ास बात ये थी कि मेरी जाली मुझे परेशान कर रही थी,
मैं उतनी फुर्ती नहीं दिखा सकता था. हम बड़ी देर तक ट्रान्सफॉर्मर वाले डिब्बे के
चारों ओर उछलते रहे. और अचानक मुझे याद आया कि मैंने हाल ही में टीवी पर फिल्म
देखी थी – जंगल की पगड़ण्डी. उसमें दिखाया गया था कि कैसे शिकारी जालियों से
बन्दरों को पकड़ते हैं. मैंने भी अपनी जाली धप् से उसके ऊपर फेंकी! चाप्का को ढाँक
दिया, जैसे बन्दर को ढाँकते हैं. वो पूरे ज़ोर से बिसूरने लगा, मगर मैंने
जल्दी-जल्दी उसे जाली में लपेटा, कंधे पर डाला, और, एक सचमुच के शिकारी की तरह
पूरी बस्ती से होता हुआ उसे घर ले आया. चाप्का मेरे पीछे जाली में टँगा हुआ था, और
रुक रुक कर रोने लगता था. मगर मैंने उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया, उसे खिड़की से घर
के भीतर फेंक दिया और खिड़की को बाहर से डण्डा लगाकर बन्द कर दिया. वो फ़ौरन अलग-अलग
तरह की आवाज़ें निकालते हुए वहाँ से रोने लगा, भौंकने लगा, मगर मैं तीसरी बार
वान्का के पास भागा. ये तो मैं जल्दी-जल्दी बता रहा हूँ, वर्ना तो इस सब में काफ़ी
समय निकल गया. नदी पे मैं वान्का से मिला. वो ख़ुश-ख़ुश चला आ रहा था, और उसके हाथ
में घास की रस्सी थी, और उस पे लटक रही थीं दो मछलियाँ, बड़ी-बड़ी, हरेक चाय के
चम्मच जितनी. मैंने कहा:
“ओहो! बढ़िया काम किया है!”
वान्का ने कहा:
“हाँ, और ज़्यादा खींच नहीं सका. चल, ये मछली
मेरी मम्मा को देते हैं, सूप बनाने के लिए, और खाने के बाद दुबारा जाएँगे. हो सकता
है कि तू भी कुछ पकड़ ले.”
और इस तरह बातें
करते हुए हम बोरिस क्लिमेंत्येविच के घर तक पहुँच गए. मगर घर के पास कुछ लोगों की
भीड़ खड़ी थी. वहाँ धारियों वाला कच्छा पहने एक अंकल थे, उनका पेट तकिये जैसा था, और
वहाँ एक आण्टी भी थी, वो भी कच्छे में थी और उसकी पीठ खुली थी. एक चश्मे वाला लड़का
था और, और भी कोई था. वे सब हाथ हिला-हिलाकर चिल्ला रहे थे. फिर चश्मे वाले लड़के
ने मुझे देखा और चीख़ा:
“ये ही है, ये ही है वो!”
अब सब लोग हमारी
तरफ़ मुड़े, और धारियों वाले अंकल चिल्लाए:
“कौन सा? मछली वाला या छोटा?!”
चश्मे वाले लड़के
ने कहा:
“छोटा वाला! पकड़ो उसे! ये ही है वो!”
और वे सब मुझ पर
झपट पड़े. मैं थोड़ा सा घबरा गया और उनसे दूर भागा, जाली फेंक दी और फ़ेन्सिंग पर चढ़
गया. फ़ेन्सिंग काफ़ी ऊँची थी: नीचे से मुझे पकड़ना मुश्किल था. खुली पीठ वाली आण्टी
फ़ेन्सिंग के पास आई और भयानक आवाज़ में चिल्लाने लगी:
“फ़ौरन मेरे बोब्का को वापस दे! उसे कहाँ छुपा कर
रखा है तूने, दुष्ट?”
और अंकल अपने पेट
समेत फेन्सिंग से चिपक गया, मुक्कों से खटखटाने लगा:
“और मेरा ल्युस्का कहाँ है? तू उसे कहाँ ले गया?
क़ुबूल कर ले!”
मैंने कहा:
“फेन्सिंग से दूर हट आईये. मैं किसी
बोब्का-वोव्का को और किसी ल्युस्का-प्स्लुस्का को नहीं जानता. मैं तो उन्हें
पहचानता भी नहीं! वान्का, इनसे कह दे!”
वान्का चिल्लाया:
“ये आप बच्चे पे क्यों टूट पड़ॆ हैं? मैं अभी
मम्मा के पास भागता हूँ, तब पता चलेगा तुम लोगों को!”
मैं चीख़ा:
“तू जल्दी से भाग, वान्का, वर्ना ये लोग मेरे
टुकड़े-टुकड़े कर डालेंगे!”
वान्का चीख़ा:
“डटा रह,
फेन्सिंग से नीचे मत उतरना!” और वो भाग गया.
मगर अंकल बोले:
“ये उसका साथी है, और कोई हो ही नहीं सकता. उनकी
पूरी गैंग है! ऐ तू, फेन्सिंग के ऊपरवाला, फ़ौरन जवाब दे, मेरा ल्युस्या कहाँ है?”
मैंने कहा:
“अपनी लड़की को आप ख़ुद ही ढूँढ़ लीजिए!”
“अच्छा, तो तू मज़ाक करने लगा? फ़ौरन नीचे उतर,
पुलिस के पास जाएँगे.”
मैंने कहा:
“बिल्कुल नहीं उतरूँगा!”
तब चश्मे वाला
लड़का बोला:
”अभ्भी मैं इसे
पकड़ता हूँ!”
और वो फेन्सिंग
पर चढ़ने लगा. मगर उसे आता ही नहीं है. क्योंकि उसे मालूम ही नहीं है की कील कहाँ
है, पकड़ने के लिए कोई चीज़ कहाँ है. मगर मैं तो सैकड़ों बार इस फेन्सिंग पर चढ़ चुका
हूँ. फिर मैं इस लड़के को लात भी मार रहा हूँ. और वो, ख़ुदा का शुक्र है, गिर जाता
है!
“रुक, पाव्ल्या,” अंकल ने कहा, “आ, मैं तुझे ऊपर
बिठाता हूँ!”
और ये पाव्ल्या
इस अंकल पर चढ़ने लगा. और मैं फिर से डर गया, क्योंकि पाव्ल्या हट्टा-कट्टा लड़का
था, शायद तीसरी या चौथी क्लास में पढ़ता था. और मैंने सोचा कि अब मेरा अंत निकट है,
मगर तभी मैंने देखा कि बोरिस क्लिमेंत्येविच भागते हुए आ रहे हैं, और नुक्कड़ से
वान्का और उसकी मम्मा भी भागते हुए आ रहे हैं. वे चिल्लाते हैं:
“रुक जाईये! क्या बात है?”
अंकल गरजे:
“कोई बात नहीं है! सिर्फ, ये लड़का कुत्ते चुराता
है! उसने मेरे कुत्ते ल्युस्का को चुराया है.”
और कच्छे वाली
आण्टी बोली:
“और मेरे बोब्का को चुराया है!”
वान्का की मम्मा
ने कहा:
“मैं कभी भी यक़ीन नहीं कर सकती, चाहे मुझे चीर
ही क्यों न डालो.”
मगर चश्मे वाला
लड़का बीच में टपक पड़ा:
“मैंने ख़ुद देखा था. वो हमारे कुत्ते को जाली
में डालकर ले जा रहा था, कंधे पे! मैं छत पर बैठा था और देख रहा था!”
मैंने कहा:
“शरम नहीं आती झूठ बोलते हुए? मैं चाप्का को ले
जा रहा था. वो घर से भाग गया था!”
बोरिस
क्लिमेंत्येविच ने कहा:
“ये बहुत अच्छा लड़का है. वो अचानक कुत्ते क्यों
चुराएगा? घर के अन्दर चलते हैं, फ़ैसला करेंगे! आ, डेनिस, यहाँ आ जा!”
वो फेन्सिंग के
पास आए, और मैं सीधा उनके कंधों पर आ गया, क्योंकि वो बहुत ऊँचे हैं, मैंने पहले
ही बताया था.
अब सब लोग
कम्पाऊण्ड में आ गए. अंकल गुरगुरा रहा था, कच्छे वाली आण्टी ऊँगलियाँ चटखा रही थी,
चश्मे वाला पाव्ल्या उनके पीछे-पीछे था, और मैं बोरिस क्लिमेंत्येविच के कंधों पर
सवार था. हम ड्योढ़ी में आए, बोरिस क्लिमेंत्येविच ने दरवाज़ा खोला, और अचानक वहाँ
से तीन कुत्ते उछल कर बाहर आए! तीन-तीन चाप्का! बिल्कुल एक जैसे! मैंने सोचा कि मेरी
आँखों को ही तीन-तीन दिखाई दे रहे हैं.
अंकल चिल्लाया:
“ल्युसेच्का!”
और एक चाप्का लपक
कर आगे आया और सीधे उसके पेट पर चढ़ गया!
और कच्छे वाली
आण्टी और पाव्ल्या चीखे:
“बोबिक! बोबिक!”
दोनों दूसरे
चाप्का को दोनों ओर से खींचने लगे: वो अगले पैर पकड़ कर अपने ओर खींच रही थी और लड़का
पिछले पैरों से – अपनी ओर! बस, सिर्फ तीसरा कुत्ता हमारे पास खड़ा था और पूँछ
गोल-गोल घुमा रहा था.
बोरिस
क्लिमेंत्येविच ने कहा:
“देख, तेरी पोल कैस खुल गई? मुझे ज़रा भी इसकी
उम्मीद नहीं थी. तूने पराए कुत्तों से घर क्यों भर दिया?”
मैंने कहा:
“मैं समझा कि वो चाप्का है! कितने मिलते-जुलते
हैं! एक सा चेहरा. बिल्कुल जुड़वाँ कुत्ते हैं.”
और मैंने सब कुछ
सिलसिले से बताया. अब तो सब लोग हँसने लगे, और जब उनकी हँसी रुकी, तो बोरिस
क्लिमेंत्येविच ने कहा:
“बेशक, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि तू
धोखा खा गया. स्कॉच-टेरिअर्स एक दूसरे से बहुत मिलते जुलते हैं, इतने कि उनमें फ़रक
करना मुश्किल हो जाता है. जैसे आज हुआ, सच कहा जाए, तो ये हमने, इन्सानों ने,
कुत्तों को नहीं पहचाना, बल्कि कुत्तों ने हमें पहचाना है. तो, तेरा कोई क़ुसूर
नहीं है. मगर फिर भी एक बात समझ ले, कि अब से मैं तुझे कुत्ता-चोर कहकर बुलाया
करूँगा.
....और सही में,
वो मुझे इसी नाम से बुलाते हैं...
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