रविवार, 20 जुलाई 2014

Barf ki Kitaab

बर्फ की किताब
लेखक: विताली बिआन्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

जंगली जानवर बर्फ़ पर घूम रहे थे और अपने पैरों के निशान छोड़ रहे थे. एकदम से समझ पाना मुश्किल है कि वहाँ क्या था. बाईं ओर झाड़ी के नीचे खरगोश के पंजों के निशान थे. पिछले पंजों के निशान थे खिंचे हुए, लम्बे; अगले पंजों के – गोल, छोटे-छोटे. ख़रगोश के पंजों के निशान खेत पर जा रहे थे. उसके एक तरफ़ को – एक बड़ा निशान था; नाख़ूनों से बर्फ़ पर सुराख़ बनाते लोमड़ी के पंजों का निशान. और ख़रगोश के निशान के दूसरी ओर भी एक निशान था: ये भी लोमड़ी के पंजों का ही था, बस, वापस आ रहा था.
ख़रगोश के पंजे खेत पर गोला बना रहे थे; लोमड़ी के भी. ख़रगोश के निशान एक किनारे पर थे – लोमड़ी के उसके पीछे-पीछे. दोनों ही निशान खेत के बीचों-बीच जाकर ख़तम हो रहे थे.
और ये, किनारे पे – फिर से हैं - ख़रगोश के निशान. ग़ायब हो जाते हैं, फिर आगे जाते हैं...
जाते हैं, जाते हैं, जाते हैं – और अचानक ख़त्म हो जाते हैं – मानो ज़मीन में घुस गए हों! और जहाँ वो ग़ायब हुए हैं, वहाँ बर्फ़ जैसे कुचली गई है, और किनारों पर जैसे किसीने ऊँगलियों से खुरचा हो.
लोमड़ी कहाँ गई?
ख़रगोश कहाँ ग़ायब हो गया?
चलो, निशानों से पता लगाते हैं.
ये है झाड़ी. उसकी छाल खरोची गई है. झाड़ी के नीचे पैरों से कुचलने के, पंजों के निशान हैं. निशान हैं ख़रगोश के. यहाँ ख़रगोश खा-पी रहा था: झाड़ी की छाल नोंच-नोंच कर खा रहा था. खड़ा है पिछले पैरों पे, दाँतों से एक टुकड़ा खींचता है, चबाता है, पंजों से पीछे हटता है, बगल में एक और टुकड़ा खींचकर निकालता है. भरपेट खा लिया और अब उसकी सोने की इच्छा हुई. चल पड़ा छुपने के लिए कोई अच्छी सी जगह ढूँढ़ने.
और ये – लोमड़ी के पैरों के निशान, ख़रगोश के निशानों की बगल में. हुआ कुछ ऐसा: ख़रगोश सोने के लिए चला गया. एक घंटा बीता, दूसरा चल रहा है. खेत से आ रही है लोमड़ी. देखती है, बर्फ पे ख़रगोश के पंजों के निशान! लोमड़ी नाक ज़मीन पर झुकाती है. सूँघ लिया - निशान ताज़े हैं! निशानों के पीछे-पीछे भागने लगी.
लोमड़ी चालाक है, ख़रगोश भी कुछ कम नहीं: उसे अपने निशानों को गड्ड-मड्ड करना आता था. वो खेत पर उछला-उछला, फिर मुड़ गया, एक बड़ा सा गोल बनाया, अपने ही निशानों को पार किया – और एक किनारे चला गया.
निशान अभी एक जैसे हैं, उनमें कोई जल्दबाज़ी नहीं दिखाई देती: ख़रगोश आराम से जा रहा था, अपने पीछे मंडराते ख़तरे को महसूस नहीं कर रहा था.
लोमड़ी भागती रही, भागती रही – देखा कि निशान के पार ताज़े निशान हैं. वो समझ नहीं पाई, कि ख़रगोश ने गोला बनाया था.
एक ओर को मुड़ गई – ताज़े निशानों का पीछा करते हुए; भाग रही है, भाग रही है – और रुक गई: निशान अचानक टूट गए हैं! अब कहाँ जाऊँ?
बात एकदम सीधी थी: ये ख़रगोश की नई चालाकी थी: उसने अपने ही निशानों को पार कर लिया था, थोड़ा आगे गया और फिर वापस मुड़ा – और वापस अपने ही निशानों पर चल पड़ा.
ठीक-ठीक जा रहा है – पंजों पे पंजा रखते हुए.
लोमड़ी खड़ी रही, खड़ी रही – और वापस मुड़ गई.
फिर से चौराहे पर पहुँची.
पूरे गोल पर पीछा किया.
चल रही है, चल रही है, देखती है – खरगोश ने उसे धोखा दिया है, ये निशान तो कहीं भी नहीं जाते!
वो गुर्राई और अपने काम से जंगल में चली गई.
बात ये हुई थी: ख़रगोश ने दो का अंक बनाया – वापस अपने ही निशानों पर चल पड़ा.
गोल तक पहुँचा ही नहीं – बल्कि बर्फ को फाँदकर एक ओर को चला गया.
झाड़ी को लाँघा और सूखी टहनियों के ढेर के नीचे लेट गया.
जब तक लोमड़ी निशानों को देखते हुए उसकी तलाश करती रही, वहीं पर लेटा रहा.
और जब लोमड़ी चली गई – फ़ौरन टहनियों के नीचे से उछला – और पहुँच गया जंगल की गहराई में.
लम्बी लम्बी छलाँगें – पंजों के पास पंजे : निशान ऐसे थे जैसे उसका पीछा हो रहा हो.
बिना इधर-उधर देखे भाग रहा है. रास्ते में है एक ठूँठ. ख़रगोश निकल गया बगल से. मगर ठूँठ पर था...ठूँठ पर बैठा था एक बड़ा बाज़ जैसा उल्लू.    
उसने ख़रगोश को देखा, नीचे उतरा, उसके पीछे पीछे चला. पकड़ लिया और खप् से पीठ में नाख़ून गड़ा दिए!
ख़रगोश बर्फ में दुबक गया, और बाज़ - उल्लू उसके ऊपर बैठ गया, पंखों से बर्फ पर चोट कर रहा है, उसे ज़मीन से खींच रहा है.
जहाँ ख़रगोश गिरा था, वहाँ पर बर्फ कुचली गई है. जहाँ बाज़-उल्लू ने पंखों से वार किया, वहाँ बर्फ पर पंखों के निशान हैं, मानो ऊँगलियों से बनाए गए हों.
ख़रगोश जैसे उड़ते हुए जंगल के भीतर घुस गया. इसीलिए आगे कोई निशान नहीं हैं.

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