हाथी
लेखक: अलेक्सान्द्र
कूप्रिन
अनु.: आ. चारुमति
रामदास
I
छोटी बच्ची बीमार है. हर रोज़ उसके पास
डॉक्टर मिखाईल पेत्रोविच आते हैं, जिन्हें वह बहुत-बहुत दिनों से जानती है. मगर
कभी-कभी वह अपने साथ दो और अनजान डॉक्टरों को ले आते हैं. वे बच्ची को पीठ और पेट
पर पलटते हैं, उसके बदन पर कान लगाकर कुछ-कुछ सुनते हैं, निचली पलक नीचे की ओर
खींचते हैं और देखते हैं. ऐसा करते समय वे कुछ गंभीरता से साँस छोड़ते हैं, उनके
चेहरे कठोर हैं, और वे आपस में किसी समझ में न आने वाली भाषा में बातें करते हैं.
फिर बच्चों के कमरे से ड्राईंग-रूम में
जाते हैं, जहाँ मम्मा उनका इंतज़ार कर रही होती है. सबसे प्रमुख डॉक्टर – ऊँचा,
सफ़ेद बालों वाला, सुनहरे चश्मे में – उसे काफ़ी देर तक गंभीरता से कुछ बताता है.
दरवाज़ा बन्द नहीं है, और बच्ची को अपने पलंग से सब दिखाई देता है और सुनाई देता
है. बहुत कुछ वह समझ नहीं पाती, मगर जानती है कि बात उसीके बारे में हो रही है.
मम्मा अपनी बड़ी-बड़ी, थकी हुई, रोने से लाल हुई आँखों से डॉक्टर की ओर देखती है.
जाते-जाते, प्रमुख डॉक्टर ज़ोर से कहते हैं:
“ख़ास बात, - उसे ‘बोर’ मत होने दीजिए. उसकी हर
ज़िद पूरी कीजिए.”
“आह, डॉक्टर, मगर वह कुछ चाहती ही नहीं है!”
“ख़ैर, मालूम नहीं...याद कीजिए कि उसे पहले क्या
अच्छा लगता था, बीमारी से पहले. खिलौने...कोई खाने की चीज़...”
“नहीं, नहीं, डॉक्टर, वह कुछ भी नहीं चाहती...”
“मगर, फिर भी किसी तरह से उसका दिल बहलाने की
कोशिश कीजिए...किसी भी चीज़ से...मैं दावे के साथ कहता हूँ कि अगर आप उसे हँसाने में,
ख़ुश रखने में क़ामयाब हो गए - तो ये उसके लिए सबसे अच्छी दवाई होगी. समझने की कोशिश
कीजिए, कि आपकी बेटी ज़िन्दगी के प्रति उदासीनता से बीमार है, और कोई रोग नहीं है
उसे...बाय-बाय, मैडम!”
II
“प्यारी नाद्या, मेरी प्यारी बच्ची,” मम्मा कहती
है, “तुझे कुछ चाहिए?”
“नहीं, मम्मा, कुछ भी नहीं चाहिए.”
“मैं तेरे पलंग पर तेरी सारी गुड़ियों को रख दूँ.
हम छोटी सी कुर्सी रखेंगे, छोटी सी मेज़ रखेंगे और टी-सेट रखेंगे. वे चाय पियेंगी
और मौसम के बारे में, अपने-अपने बच्चों की तबियत के बारे में बात करेंगी.”
. “थैंक्यू, मम्मा...मेरा दिल नहीं
चाहता...मुझे ‘बोर’ लगता है...”
“चलो, ठीक है, मेरी बिटिया, गुड़ियों की कोई
ज़रूरत नहीं है. तो, क्या कात्या या झेनेच्का को बुलाऊँ? तुझे तो वे बहुत अच्छी
लगती हैं.”
“ज़रूरत नहीं है, मम्मा. सच में, ज़रूरत नहीं है.
मुझे कुछ भी, कुछ भी नहीं चाहिए. मुझे इतना ‘बोरिंग’ लगता है!”
“तेरे लिए चॉकलेट लाऊँ?”
मगर बच्ची जवाब नहीं देती और निश्चल,
अप्रसन्न आँखों से छत की ओर देखती है. उसे न तो कहीं दर्द हो रहा है, न ही बुखार
है. मगर वह दिन पर दिन दुबली और कमज़ोर होती जा रही है. चाहे उसके साथ कुछ भी करो,
उसे कोई फ़रक नहीं पड़ता, और उसे किसी चीज़ की ख़्वाहिश ही नहीं होती. इस तरह वह
पूरा-पूरा दिन और पूरी-पूरी रात पड़ी रहती है, ख़ामोश, दयनीय. कभी कभी वह आधे घण्टे
के लिए ऊँघने लगती है, मगर सपने में भी उसे कोई भूरी-भूरी, लम्बी, उबाने वाली चीज़,
जैसे पतझड़ की बारिश, दिखाई देती है.
जब बच्चों के कमरे से ड्राईंग रूम का
दरवाज़ा खुला होता है, और ड्राईंग रूम से आगे स्टडी-रूम का, तो बच्ची अपने पापा को
देखती है. पापा तेज़-तेज़ एक कोने से दूसरे कोने तक जाते हैं और बस, सिगरेट पीते
रहते हैं, पीते रहते हैं. कभी कभी वो बच्ची के कमरे में आते हैं, पलंग के किनारे
पर बैठते हैं और हौले हौले नाद्या के पैर सहलाते हैं. फिर अचानक उठ कर खिड़की के
पास जाते हैं. वह सड़क पर देखते हुए सीटी बजाते हैं, मगर उनके कंधे थरथराते हैं.
इसके बाद वह जल्दी से एक आँख पर रुमाल रख लेते हैं, फिर दूसरी पर, और फिर, जैसे
गुस्से में, अपने स्टडी-रूम में चले जाते हैं. इसके बाद वो फिर से एक कोने से
दूसरे कोने में भागते हैं और बस..सिगरेट पीते रहते हैं, पीते रहते हैं... और
तंबाकू के धुँए से स्टडी-रूम पूरी नीली-नीली हो जाती है.
III
मगर एक सुबह बच्ची हमेशा से कुछ ख़ुश-ख़ुश
उठी. उसने सपने में कुछ देखा था, मगर किसी तरह याद नहीं कर पाती कि क्या देखा था,
और बड़ी देर तक ध्यान से मम्मा की आँखों में देखती रही.
“तुझे कुछ चाहिए?” मम्मा ने पूछा.
मगर बच्ची को अचानक अपना सपना याद आ गया
और वह फुसफुसाते हुए कहने लगी, जैसे कोई राज़ की बात बता रही हो:
“मम्मा...क्या मुझे...हाथी मिल सकता है? मगर वो
वाला नहीं, जो तस्वीर में बना है...प्लीज़!?”
“बेशक, मेरी बच्ची, बेशक, मिल सकता है.”
वो स्टडी-रूम में जाती है और पापा से कहती
है कि बच्ची को हाथी चाहिए. पापा फ़ौरन कोट और कैप पहनकर बाहर निकल गए. आधे घण्टे
बाद वो एक महंगा, ख़ूबसूरत खिलौना लेकर लौटे. ये एक बड़ा, भूरा हाथी थी, जो ख़ुद ही
अपना सिर हिलाता है और सूँड हिलाता है; हाथी पर लाल रंग की काठी थी, और काठी पर
सुनहरी अंबारी थी, और उसमें तीन छोटे-छोटे आदमी बैठे थे. मगर बच्ची खिलौने की ओर
वैसी ही उदासीनता से देखती है, जैसे वह छत और दीवारों को देखती है और मरियल आवाज़
में कहती है:
“नहीं. ये बिल्कुल वैसा नहीं है. मुझे असली हाथी
चाहिए था, मगर यह तो बेजान है.”
“तू बस, देखती रह, नाद्या,” पापा ने कहा. “अभी
हम उसमें चाभी भरेंगे, और वह बिल्कुल ज़िन्दा हाथी जैसा हो जाएगा.”
हाथी में चाभी घुमाई जाती है, और, वह सिर
हिलाता है और सूण्ड घुमाता है, पैर आगे रखने लगता है और हौले-हौले मेज़ पर चलता है.
बच्ची को यह सब अच्छा नहीं लगता, बल्कि ‘बोरिंग’ भी लगता है, मगर, पापा को बुरा न
लगे इसलिए वह फुसफुसा कर कहती है:
“थैंक्यू, थैंक्यू वेरी मच, प्यारे पापा. मुझे
ऐसा लगता है कि और किसी के भी पास इतना दिलचस्प खिलौना नहीं है...बस...याद
है...तुमने बहुत पहले वादा किया था कि मुझे सर्कस में ले जाकर सचमुच का हाथी
दिखाओगे...और एक भी बार नहीं ले गए...”
“मगर, तू सुन, मेरी प्यारी बच्ची, समझने की
कोशिश कर, कि ये नामुमकिन है. हाथी बहुत बड़ा होता है, वो छत जितना ऊँचा होता है,
वो हमारे कमरों में नहीं समा सकता...और फिर, वो मुझे मिलेगा कहाँ?”
“पापा, मुझे उतना बड़ा थोड़ी ना चाहिए...तुम कम से
कम मेरे लिए छोटा-सा ला दो, बस, वह सचमुच का होना चाहिए. ये, कम से कम, इतना...कम
से कम हाथी का छोटा सा पिल्ला.”
“प्यारी बच्ची, मैं तुम्हारे लिए हर चीज़
ख़ुशी-ख़ुशी करने को तैयार हूँ, मगर बस, ये नहीं कर सकता. ये बस, वैसा ही है, जैसे
कि तुम मुझसे कहो: “पापा, मेरे लिए आसमान से सूरज लाओ.”
बच्ची उदासी से मुस्कुराती है.
“पापा, तुम कैसे बेवकूफ़ हो. क्या मुझे मालूम
नहीं है कि सूरज को लाना नामुमकिन है, क्योंकि वह जलता रहता है. और चाँद को लाना
भी मुमकिन नहीं है. नहीं, मुझे बस, छोटा-सा हाथी मिल जाता...सचमुच का.”
और उसने हौले से आँखें बन्द कर लीं और
फुसफुसाकर बोली:
“मैं थक गई...पापा, मुझे माफ़ करो...”
पापा ने अपने बाल पकड़ लिए और अपने
स्टडी-रूम में भागे. वहाँ वह कुछ देर तक एक कोने से दूसरे कोने में घूमते रहे. फिर
कुछ निर्णय करके आधी पी हुई सिगरेट फर्श पर फेंक दी (जिसके लिए उन्हें हमेशा मम्मा
से डाँट पड़ती है) और चिल्लाकर नौकरानी से बोले:
“ओल्गा! मेरा कोट और हैट!”
प्रवेश कक्ष में पत्नी प्रकट होती है.
“तुम कहाँ चले, साशा?” उसने पूछा.
कोट के बटन बन्द करते हुए वह गहरी-गहरी
साँस लेते हैं.
“माशेन्का, मैं ख़ुद भी नहीं जानता कि कहाँ
जाऊँगा...बस, ऐसा लगता है, कि आज शाम तक मैं वाक़ई में अपने यहाँ, सचमुच का हाथी ले
आऊँगा.”
पत्नी ने चिंता से उसकी ओर देखा.
“डियर, तुम्हारी तबियत तो ठीक है ना? कहीं
तुम्हारे सिर में दर्द तो नहीं है? हो सकता है कि तुम अच्छी तरह सो नहीं पाए?”
“मैं बिल्कुल भी नहीं सोया,” उसने गुस्से से
जवाब दिया. “मैं देख रहा हूँ, कि तुम यह पूछना चाह रही हो कि कहीं मेरा दिमाग़ तो
ख़राब नहीं हो गया है? अभी तक तो नहीं हुआ. चलता हूँ! शाम को सब पता चल जाएगा.”
और वह धड़ाम् से प्रवेश द्वार बन्द करके
गायब हो जाते हैं.
IV
दो घण्टे बाद वह सर्कस में बैठे थे, पहली
पंक्ति में, और देख रहे थे कि कैसे मालिक के आदेश पर प्रशिक्षित जानवर अलग-अलग तरह
के करतब दिखाते हैं. होशियार कुत्ते छलांग लगाते हैं, कलाबाज़ी खाते हैं, डान्स
करते हैं, म्यूज़िक के साथ गाते हैं, पुट्ठे के बड़े-बड़े अक्षरों से शब्द बनाते हैं.
छोटे-छोटे बन्दर – एक लाल स्कर्ट में, बाकी की नीली पतलूनों में – रस्सी पर चलते
हैं और बड़े पूडल पर सवारी करते हैं. विशाल लाल सिंह जलती हुई हूप्स से छलांग लगाते
हैं. भद्दी सील मछली पिस्तौल चलाती है. अंत में हाथियों को बाहर लाया जाता है. वे
तीन हैं : एक बड़ा है, और दो बिल्कुल छोटे, जैसे बौने हों, मगर फिर भी डील-डौल में
घोड़े से काफ़ी बड़े थे. देखने में अजीब लग रहा था कि ये भारी-भरकम प्राणी, जो देखने
में ज़रा भी फुर्तीले नहीं लग रहे थे, सबसे कठिन करतब दिखा रहे थे, जो कि किसी
फुर्तीले इन्सान के लिए भी मुश्किल है. सबसे ख़ास था बड़ा वाला हाथी. पहले वह पिछले
पंजों पर खड़ा होता, बैठ जाता, सिर के बल खड़ा होता, पैर ऊपर...लकड़ी की बोतलों पर
चलता, लुढ़कते हुए ड्रम पर चलता, अपनी सूण्ड से बड़ी, तस्वीरों वाली किताब के पन्ने
पलटता, और अंत में मेज़ पर बैठ जाता और, टेबल-नैपकिन बांधकर, खाना खाता, जैसे कि एक
अच्छा बच्चा खाता है.
शो ख़त्म हुआ. दर्शक चले गए. नाद्या के
पिता मोटे जर्मन, सर्कस के मालिक, के पास आए. मालिक लकड़ी की फेन्सिंग के पीछे खडा
है और मुँह में काला मोटा सिगार दबाए है.
“माफ़ कीजिए,” नाद्या के पिता ने कहा, “क्या आप
अपने हाथी को कुछ देर के लिए मेरे घर ले जाने देंगे?”
जर्मन की आँखें अचरज से फैल गईं, और मुँह
भी, जिसके कारण सिगार भी ज़मीन पर गिर पड़ा. वह, कराहते हुए, झुकता है, सिगार उठाता
है, उसे फिर से मुँह में रखता है और तभी कहता है:
“ले जाने दूँ? आपके घर? हाथी को? मैं आपकी बात
समझा नहीं.”
जर्मन की आँखों से यह भी लग रहा था, कि वो
ये पूछना चाह रहा है कि कहीं नाद्या के पिता का सिर तो नहीं दर्द कर रहा है...मगर
पिता ने उसे फ़ौरन समझाया कि बात क्या है : उनकी इकलौती बेटी, नाद्या, किसी अजीब
बीमारी से जूझ रही है, जिसे डॉक्टर्स भी ठीक से समझ नहीं पा रहे हैं. वह एक महीने
से बिस्तर पर पड़ी है, दुबली होती जा रही है, दिन पर दिन कमज़ोर होती जा रही है, उसे
किसी चीज़ में दिलचस्पी नहीं है, वह ‘बोर’ हो रही है और धीरे-धीरे बुझती जा रही है.
डॉक्टर्स कहते हैं कि उसका दिल बहलाएँ, मगर उसे कुछ अच्छा ही नहीं लगता; डॉक्टर्स
उसकी हर इच्छा पूरी करने को कहते हैं, मगर उसके दिल में कोई इच्छा ही नहीं है. आज
उसने ज़िन्दा हाथी को देखने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की है. क्या ये असम्भव है?”
और वह थरथराती आवाज़ में, जर्मन के कोट की
बटन पकड़कर, आगे कहता है:
“तो, ऐसी बात है...मैं, बेशक, उम्मीद करता हूँ,
कि मेरी बेटी ठीक हो जाएगी. मगर...ख़ुदा ना करे...अगर उसकी बीमारी ख़तरनाक साबित
हुई...अचानक बेटी मर जाये तो?... ज़रा सोचिए: मुझे ज़िन्दगी भर बस ये ही ख़याल सताता
रहेगा कि मैं उसकी आख़िरी ख़्वाहिश पूरी न कर सका!...”
जर्मन ने भौंहे चढ़ा लीं और ख़यालों में
डूबे-डूबे छोटी ऊँगली से दाईं भौंह खुजाई. आख़िरकार उसने पूछा:
“हुम्...कितने साल की है आपकी बेटी?”
“छह.”
“हुम्... मेरी लीज़ा भी छह साल की है. हुम्...
मगर, जानते हैं ये आपके लिए बहुत महंगा पड़ेगा. हाथी को रात में ले जाना पड़ेगा और
बस, दूसरे ही दिन वापस लाना पड़ेगा. दिन में तो नहीं ले जा सकते. पब्लिक जो आती है,
और फिर एक ही हंगामा खड़ा हो जाएगा...इसका नतीजा ये होगा कि मेरा एक दिन बर्बाद हो
जाएगा, और आपको मेरा नुक्सान चुकाना पड़ेगा.”
“ओह, बेशक, बेशक...इसकी फ़िक्र मत कीजिए...”
“फिर : क्या पुलिस एक घर में एक हाथी को ले जाने
की इजाज़त देगी?”
“वो मैं संभाल लूँगा. इजाज़त मिल जाएगी.”
“एक सवाल और : क्या आपका मकान-मालिक अपने घर में
एक हाथी को घुसने देगा?”
”बिल्कुल देगा. मैं ख़ुद ही उस घर का मालिक
हूँ.”
“अहा! ये तो बढ़िया बात हुई. और फिर, एक सवाल और
: आप कौन सी मंज़िल पर रहते हैं?”
“दूसरी.”
“हुम्...ये ज़्यादा बढ़िया बात नहीं हुई...क्या
आपके घर में चौड़ी-चौड़ी सीढ़ियाँ हैं, ऊँची छत है, बड़ा कमरा है, चौड़े दरवाज़े हैं और
खूब मज़बूत फ़र्श है? क्योंकि मेरा टॉमी तीन हाथ और चार ऊँगल ऊँचा है, और उसकी
लम्बाई है – चार हाथ. इसके अलावा, उसका वज़न बारह मन है.
नाद्या के पिता ने एक मिनट को सोचा.
“ऐसा करते हैं,” उन्होंने कहा. “अभी हम मिलकर
मेरे घर चलते हैं और हर चीज़ देख लेते हैं. अगर ज़रूरत पड़ी तो मैं पैसेज चौड़ा करवा
लूँगा.
“बहुत अच्छी बात है!” सर्कस का मालिक
तैयार हो जाता है.
V
रात को हाथी बीमार बच्ची के घर लाया जाता
है.
पीठ पर डले सफ़ेद कपड़े में वह बड़ी शान से
रास्ते के बीचोंबीच आता है, सिर हिलाता है और अपनी सूँड को कभी खोलता है, कभी
समेटता है. काफ़ी रात होने के बावजूद, उसके चारों ओर बड़ी सारी भीड़ इकट्ठा हो गई थी.
मगर हाथी उस पर ज़रा भी ध्यान नहीं देता : सर्कस में वह हर रोज़ सैकड़ों लोगों को जो देखता
है. सिर्फ एक बार उसे थोड़ा-सा गुस्सा आ गया.
सड़क का कोई छोकरा भागकर उसके पैरों के
नीचे खड़ा हो गया और मुँह बना-बनाकर देखने वालों का दिल बहलाने लगा.
तब हाथी ने शांति से अपनी सूँड से उसके
सिर से टोपी निकाल दी और उसे बगल वाली, कीलें जड़ी
फेन्सिंग के उस पार फेंक दिया.
पुलिस का सिपाही भीड़ में जाकर कहता है:
“महाशय, रास्ता दीजिए. आपको यहाँ कौन सी अजीब
बात नज़र आ रही है? ताज्जुब है! जैसे कि आपने कभी ज़िन्दा हाथी को सड़क पर देखा ही
नहीं है.”
वे घर के पास पहुँचते हैं. सीढ़ियों पर, और
हाथी के पूरे रास्ते पर, बिल्कुल डाईनिंग हॉल तक, सारे दरवाज़े पूरे खुले हुए हैं,
जिसके लिए हथौड़े की सहायता से दरवाज़ों के खटके तोड़ने पड़े थे. बिल्कुल ऐसा ही पहले
भी एक बार करना पड़ा था, जब घर में बड़ी, चमत्कारी प्रतिमा लाई जा रही थी.
मगर सीढ़ियों के सामने हाथी परेशान होकर
रुक गया और ज़िद करने लगा.
“उसे खाने की कोई चीज़ देनी पड़ेगी...” जर्मन ने
कहा. “कोई मीठा ‘बन’ या कुछ और...मगर...टॉमी!...ओहो-हो!...टॉमी!”
नाद्या के पिता बगल वाली बेकरी में भागते
हैं और बड़ा गोल, पिस्ते का केक खरीदते हैं. हाथी उसे एक ही बार में, गत्ते के
डिब्बे समेत, निगलना चाहता है, मगर जर्मन ने उसे बस एक चौथाई केक ही दिया. टॉमी को
केक पसन्द आ गया, और वह दूसरे निवाले के लिए सूण्ड फैलाता है. मगर जर्मन ज़्यादा
चालाक निकला. हाथ में केक पकड़े-पकड़े वह एक-एक सीढ़ी ऊपर चढ़ता जाता है, और सूण्ड
खोले, कान फैलाए हाथी मजबूरी में उसके पीछे-पीछे चलने लगता है. सीढियों वाले चौक
पर उसे केक का दूसरा टुकड़ा दिया जाता है.
इस तरह उसे डाईनिंग हॉल में लाया जाता है,
जहाँ से पहले ही पूरा फर्नीचर बाहर निकाल दिया गया है, और फर्श पर घास-फूस की मोटी
तह बिखेर दी गई है...हाथी का पैर कुंदे से बांध दिया जाता है, जिसे फर्श में फिट
किया गया है. उसके सामने ताज़ी-ताज़ी गाजर, गोभी और शलजम डाली जाती हैं. जर्मन पास
ही में सोफ़े पर पसर जाता है. बत्तियाँ बुझा दी जाती हैं, और सब सो जाते हैं.
VI
अगले दिन पौ फटते ही बच्ची जाग जाती है और
सबसे पहले पूछती है:
“हाथी कहाँ है? क्या वो आ गया?”
“आ गया,” मम्मा ने जवाब दिया, “मगर बस, उसने कहा
है कि पहले नाद्या हाथ-मुँह धो ले, फिर हाफ-बॉइल्ड अण्डा खा ले और गरम-गरम दूध पी
ले.”
“क्या वो बहुत भला है?”
“भला है. खा ले, बच्ची. हम अभी उसके पास
चलेंगे.”
“क्या वो मज़ेदार है?”
“थोड़ा सा. गरम स्वेटर पहन ले.”
अण्डा जल्दी से खा लिया गया, दूध पी लिया
गया. नाद्या को उसी पहियों वाली गाड़ी में बैठाया गया, जिसमें वह बचपन में, तब घूमा
करती थी, जब इत्ती छोटी थी कि उसे बिल्कुल भी चलना नहीं आता था. उसे डाईनिंग हॉल
में लाया गया.
जैसा नाद्या ने हाथी को तस्वीर में देखा
था, उससे तो ये सचमुच का हाथी कहीं ज़्यादा बड़ा निकला. ऊँचाई में वो दरवाज़े से बस
कुछ ही छोटा है, और लम्बाई में डाईनिंग हॉल का आधा. उसकी चमड़ी खुरदुरी है, उस पर
मोटी-मोटी सलवटें पड़ी हुई हैं. पैर मोटे-मोटे, जैसे खम्भे हों. लम्बी पूँछ के आख़िर
में झाडू जैसी कोई चीज़ थी. सिर पर बड़े-बड़े गूमड़ थे. कान बड़े-बड़े, जैसे बुर्डोक के
चौड़े-चौड़े पत्ते, और वे नीचे की ओर लटक रहे थे. आँखें बिल्कुल छोटी-छोटी, मगर उनसे
होशियारी और भलापन छलक रहा था. दाँत नुकीले और बाहर निकले हुए. सूण्ड, जैसे लम्बा
साँप और उसके अंत में थे दो नथुने, और उनके बीच जैसे एक लचीली ऊँगली हिल रही थी.
अगर हाथी अपनी पूरी सूण्ड फैला दे, तो शायद वो खिड़की तक पहुँच जाएगी.
बच्ची को ज़रा भी डर नहीं लग रहा है. वह,
बस, इस जानवर की विशालता से कुछ स्तब्ध रह गई थी. मगर उसकी आया, सोलह साल की
पोल्या, डर के मारे चीखने लगी.
हाथी का मालिक, जर्मन, गाड़ी के पास आता है
और कहता है:
“गुड मॉर्निंग, मैडम. प्लीज़, घबराईये नहीं. टॉमी
बहुत भला है और बच्चों से बेहद प्यार करता है.
बच्ची जर्मन की ओर अपना छोटा सा
दुबला-पतला, विवर्ण हाथ बढ़ाती है.
“नमस्ते, कैसे हैं आप?” वह जवाब देती है. “मैं
इत्ता सा भी नहीं डर रही हूँ. अच्छा, तो इसका नाम क्या है?”
“टॉमी.”
“नमस्ते, टॉमी.” बच्ची कहती है और सिर झुकाती
है. क्योंकि हाथी इतना बड़ा है, इसलिए वह उससे ‘तू’ नहीं कहती. “आपको रात में ठीक
से नींद तो आई ना?”
वह उसकी ओर हाथ भी बढ़ाती है. हाथी अपनी
हिलती हुई मज़बूत ऊँगली में सावधानी से उसकी पतली-पतली ऊँगलियाँ लेकर से हौले से
दबाता है और वह डॉक्टर मिखाईल पेत्रोविच के मुकाबले में काफ़ी नज़ाकत से ऐसा करता
है. ऐसा करते हुए हाथी सिर हिलाता है, और उसकी छोटी-छोटी आँखें बिल्कुल बारीक हो
जाती हैं, जैसे हँस रही हों.
“क्या ये सब समझता है?” बच्ची ने जर्मन से पूछा.
“ओ,
बेशक, सब कुछ, मैडम!”
“मगर, बस ये बोलता नहीं है?”
“हाँ, बस, बोलता ही नहीं है. मालूम है, मेरी भी
एक बेटी है, इतनी ही छोटी, जितनी आप हैं. उसका नाम है लीज़ा. टॉमी उसका अच्छा, बहुत
अच्छा दोस्त है.”
“और, टॉमी, क्या आपने चाय पी ली?” बच्ची हाथी से
पूछती है.
हाथी फिर से अपनी सूण्ड खोलकर बच्ची के
मुँह पर गर्म, तेज़ साँस छोड़ता है, जिससे बच्ची के सिर के हल्के बाल चारों ओर उड़ने
लगते हैं.
नाद्या ठहाके लगाती है और ताली बजाती है.
जर्मन प्यार से हँसता है. वह ख़ुद भी ऐसा ही बड़ा, मोटा, और भला है, जैसा हाथी है,
और नाद्या को ऐसा लगता है कि वे दोनों एक दूसरे जैसे हैं. शायद, वे रिश्तेदार
हों?”
“नहीं, उसने चाय नहीं पी, मैडम. उसे गन्ने का रस
बहुत पसन्द है. उसे ‘बन्स’ भी बहुत पसन्द हैं.
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