मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

Karasik

करासिक
लेखक : निकोलाय नोसोव
अनु.: आ. चारुमति रामदास

मम्मा ने कुछ ही दिन पहले वितालिक को एक्वेरियम गिफ्ट में दिया, उसमें एक छोटी-सी मछली थी. बहुत प्यारी थी वो मछली, बहुत सुन्दर! करासिक (सिल्वर फिश) - - ये ही था उसका नाम. वितालिक बहुत ख़ुश था, कि उसके पास करासिक है. शुरू में तो वह मछली में बहुत दिलचस्पी लेता था...उसे खिलाता, अक्वेरियम का पानी बदलता, मगर फिर उसे उसकी आदत हो गई और वह कभी-कभी उसे समय पर खिलाना भी भूल जाता.
वितालिक के पास मूर्ज़िक नाम का एक छोटा-सा बिल्ली का पिल्ला भी था. वो भूरा, रोएँदार था, और उसकी आँखें बड़ी-बड़ी, हरी-हरी थीं. मूर्ज़िक को मछली की ओर देखना बहुत अच्छा लगता था. वह घंटों तक एक्वेरियम के पास बैठा रहता, और करासिक से अपनी नज़र नहीं हटाता.
 “तू मूर्ज़िक पर नज़र रख,” मम्मा ने वितालिक से कहा. “कहीं वो तेरी करासिक को खा न जाए.”
 “नहीं खाएगा,” वितालिक ने जवाब दिया. “मैं उस पर नज़र रखूँगा.”
एक बार, जब मम्मा घर पे नहीं थी, तो वितालिक के पास उसका दोस्त सिर्योझा आया. उसने एक्वेरियम में मछली को देखा और बोला:
 “चल, अदला-बदली करते हैं. तू मुझे करासिक दे दे, और मैं, अगर तू चाहे, तो तुझे अपनी व्हिसल दूँगा.”
 “मुझे व्हिसल की क्या ज़रूरत है?” वितालिक ने कहा. “मेरे हिसाब से तो मछली व्हिसल से कहीं बेहतर है.”
 “बेहतर कैसे है? व्हिसल तो बजा सकते हो. और मछली का क्या? क्या मछली सीटी बजा सकती है?”
 “मछली क्यों सीटी बजाने लगी?” वितालिक ने जवाब दिया. “मछली सीटी नहीं बजा सकती, मगर वो तैरती है. क्या व्हिसल तैर सकती है?”
 “लो, कर लो बात!” सिर्योझा हँसने लगा. “कहीं व्हिसल को तैरते हुए देखा है! फिर मछली को बिल्ली खा सकती है, तो तेरे पास ना तो व्हिसल होगी और ना ही मछली. मगर बिल्ली व्हिसल नहीं खा सकती - - वो लोहे की जो होती है.”
 “मम्मा मुझे बदलने की इजाज़त नहीं देगी. वो कहती है कि अगर मुझे किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो वह ख़ुद ख़रीद कर देगी,” वितालिक ने कहा.
 “ऐसी व्हिसल वो कहाँ खरीदेगी?” सिर्योझा ने जवाब दिया. “ऐसी व्हिसलें बिकती नहीं हैं. ये सचमुच की पुलिस की व्हिसल है. मैं, जैसे ही कम्पाऊण्ड में जाता हूँ, तो ऐसी व्हिसल बजाता हूँ, ऐसी व्हिसल बजाता हूँ, कि सब सोचने लगते हैं कि पुलिस वाला आया है.”
सिर्योझा ने जेब से व्हिसल निकाली और बजाने लगा.
“अच्छा, दिखा,” वितालिक ने कहा.
उसने व्हिसल ली और उसमें फूँक मारी. व्हिसल ज़ोर से, कम-ज़्यादा होते हुए बजी. वितालिक को व्हिसल की आवाज़ बड़ी अच्छी लगी. उसका दिल व्हिसल लेने को करने लगा, मगर वह फ़ौरन फ़ैसला नहीं कर पाया और बोला:
“और तेरे घर में मछली रहेगी कहाँ? तेरे पास तो एक्वेरियम भी नहीं है.”
 “मगर मैं उसे जैम के खाली डिब्बे में रखूँगा. हमारे पास बड़ा-सारा डिब्बा है.”
 “अच्छा, ठीक है,” वितालिक राज़ी हो गया.
बच्चे एक्वेरियम में मछली पकड़ने लगे, मगर करासिक बड़ी तेज़ी से तैर रही थी और हाथों में नहीं आ रही थी. उन्होंने चारों ओर पानी छपछप कर दिया, और सिर्योझा की आस्तीनें तो कोहनियों तक गीली हो गईं. आख़िरकार करासिक उनकी पकड़ में आ ही गई.    
 “पकड़ लिया!” वह चिल्लाया. “जल्दी से कोई पानी से भरा बाउल दे! मैं मछली को उसमें रखूँगा.”
वितालिक ने जल्दी से बाउल में पानी डाला. सिर्योझा ने करासिक को बाउल में डाल दिया. बच्चे सिर्योझा के घर गए - - मछली को डिब्बे में डालने के लिए. डिब्बा बहुत बड़ा नहीं था, और करासिक को उसमें उतनी जगह नहीं मिल रही थी, जितनी एक्वेरियम में मिलती थी. बच्चे काफ़ी देर तक देखते रहे कि करासिक डिब्बे में कैसे तैरती है. सिर्योझा ख़ुश था, मगर वितालिक को दुख हो रहा था, कि अब उसके पास मछली नहीं होगी, मगर ख़ास बात ये थी कि वह मम्मा के सामने कैसे स्वीकार करेगा कि उसने व्हिसल के बदले मछली सिर्योझा को दे दी.
 “कोई बात नहीं, हो सकता है कि मम्मा का इस बात पर फ़ौरन ध्यान ही न जाए कि मछली ग़ायब है,” वितालिक ने सोचा और अपने घर चल पड़ा.
जब वह वापस लौटा तो मम्मा घर आ चुकी थी.
 “तेरी मछली कहाँ है?” उसने पूछा.
 वितालिक परेशान हो गया और समझ ही नहीं पाया कि क्या जवाब दे.
 “हो सकता है कि मूर्ज़िक ने उसे खा लिया हो?” मम्मा ने पूछा.
 “मालूम नहीं,” वितालिक बुदबुदाया.
 “देखा,” मम्मा ने कहा, “उसने ऐसा समय चुना जब घर में कोई नहीं था, और एक्वेरियम से मछली निकाल ली! कहाँ है, वो डाकू? चल, अभ्भी उसे ढूँढ़कर मेरे पास ला!”
“मूर्ज़िक! मूर्ज़िक!” वितालिक पुकारने लगा, मगर पिल्ला कहीं भी नहीं था.
 “शायद, वेंटीलेटर से भाग गया,” मम्मा ने कहा. “कम्पाऊण्ड में जाकर उसे पुकार.”
वितालिक ने कोट पहना और कम्पाऊण्ड में गया.
 “ये कैसी बुरी बात हो गई!” वह सोच रहा था. “अब मेरी वजह से मूर्ज़िक को सज़ा मिलेगी.”
वह वापस घर लौटकर कहना चाहता था कि मूर्ज़िक कम्पाऊण्ड में नहीं है, मगर तभी मूर्ज़िक ‘वेंट’ से बाहर उछला, जो घर के नीचे था, और तेज़ी से दरवाज़े की ओर भागा.
“मूर्ज़िन्का, घर मत जा,” वितालिक ने कहा. “मम्मा से तुझे मार पड़ेगी.”
मूर्ज़िक गुरगुराने लगा, वितालिक के पैर से अपनी पीठ रगड़ने लगा, फिर उसने बन्द दरवाज़े की ओर देखा और म्याँऊ-म्याँऊ करने लगा.
 “समझता नहीं है, बेवकूफ़,” वितालिक ने कहा. “तुझसे इन्सान की ज़ुबान में कह रहे हैं, कि घर जाना मना है.”
मगर मूर्ज़िक, ज़ाहिर है, कुछ भी नहीं समझा. वह वितालिक से लाड़ लड़ाता रहा, अपना बदन उससे रगड़ता रहा और हौले से उसे अपने सिर से धक्का देता रहा, मानो दरवाज़ा खोलने की जल्दी मचा रहा हो. वितालिक उसे दरवाज़े से दूर धकेलने लगा, मगर मूर्ज़िक हटना ही नहीं चाहता था. तब वितालिक दरवाज़े के पीछे मूर्ज़िक से छुप गया.
 “म्याँऊ!” मूर्ज़िक दरवाज़े के नीचे से चिल्लाया.
वितालिक फ़ौरन वापस चला गया:
 “धीरे! चिल्ला रहा है! मम्मा सुन लेगी, तब पता चलेगा!”
उसने मूर्ज़िक को पकड़ लिया और उसे वापस घर के नीचे बने उसी ‘वेन्ट’ में घुसाने लगा, जहाँ से मूर्ज़िक अभी-अभी बाहर निकला था. मूर्ज़िक अपने चारों पंजों से प्रतिकार कर रहा था, वह ‘वेन्ट’ में वापस नहीं जाना चाहता था.          
 “अन्दर जा, बेवकूफ़!” वितालिक उसे मनाने लगा. “वहाँ थोड़ी देर बैठा रह.”
आख़िर में उसने उसे पूरी तरह ‘वेन्ट’ में घुसा दिया. बस मूर्ज़िक की पूँछ बाहर झाँक रही थी. कुछ देर तक मूर्ज़िक गुस्से में अपनी पूँछ घुमाता रहा, फिर पूँछ भी वेन्ट में छुप गई. वितालिक ख़ुश हो गया. उसने सोचा कि बिल्ली का पिल्ला अब नीचे ‘सेलार’ में ही रह जाएगा, मगर तभी मूर्ज़िक ने फिर से छेद में से अपना सिर बाहर निकाला.
 “ओह, कब तू अन्दर जाएगा, ठस दिमाग़!” वितालिक ने फुफकारते हुए कहा और हाथों से छेद बन्द कर दिया. “तुझसे कह रहे हैं कि घर में जाना मना है.”
 “म्याँऊ!” मूर्ज़िक चिल्लाया.
 “ठेंगे से ‘म्याँऊ’! वितालिक ने उसे चिढ़ाया. “ओह, अब तेरा क्या करूँ?”
वह चारों ओर नज़र घुमाकर कोई ऐसी चीज़ ढूँढ़ने लगा जिससे छेद बन्द किया जा सके. बगल में ही एक ईंट पड़ी थी. वितालिक ने उसे उठाया और छेद को ईंट से बन्द कर दिया.
 “अब नहीं निकल सकेगा तू बाहर,” उसने कहा. “वहीं, सेलार में बैठ, और कल मम्मा मछली के बारे में भूल जाएगी, तब मैं तुझे छोड़ दूँगा.”
वितालिक घर लौटा और बोला कि मूर्ज़िक कम्पाऊँड में नहीं है.
 “कोई बात नहीं,” मम्मा ने कहा, “लौट आएगा. मगर मैं इसके लिए उसे माफ़ नहीं करूँगी.”
खाना खाते समय वितालिक उदास था और वह कुछ भी खाना नहीं चाहता था.
 ‘मैं यहाँ खाना खा रहा हूँ,’ उसने सोचा, ‘और बेचारा मूर्ज़िक सेलार में बैठा है.’
जब मम्मा मेज़ से उठ गई, तो उसने चुपचाप जेब में एक कटलेट ठूँस लिया और कम्पाऊँड में भागा. वहाँ उसने ईंट हटाई, जिससे छेद बन्द किया था, और हौले से पुकारा:
 “मूर्ज़िक! मूर्ज़िक!”
मगर मूर्ज़िक ने जवाब ही नहीं दिया. वितालिक ने छेद में झाँका. सेलार में अँधेरा था और कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था.
 “मूर्ज़िक! मूर्ज़िन्का!” वितालिक पुकार रहा था. “मैं तेरे लिए कटलेट लाया हूँ!” मूर्ज़िक बाहर नहीं निकला.
 “नहीं चाहिए - - ठीक है, बैठा रह, ठस दिमाग़!” वितालिक ने कहा और घर लौट आया.
मूर्ज़िक के बिना उसे घर में सूना-सूना लग रहा था. दिल पर मानो बोझ महसूस हो रहा था, क्योंकि उसने मम्मा को धोखा दिया था. मम्मा ने देखा कि वह दुखी है, और कहा:
 “दुखी मत हो! मैं तुझे दूसरी मछली ला दूँगी.”
 “कोई ज़रूरत नहीं है,” वितालिक ने जवाब दिया.
वह मम्मा के सामने सब कुछ क़ुबूल कर लेना चाहता था, मगर हिम्मत नहीं हुई, और उसने कुछ भी नहीं कहा. तभी खिड़की के पीछे सरसराहट सुनाई दी और आवाज़ आई:
 “म्याँऊ!”
वितालिक ने खिड़की की ओर देखा और बाहर की ओर सिल पर मूर्ज़िक को देखा. ज़ाहिर है कि वह किसी और छेद से सेलार से बाहर निकल आया था.
 “आ--! आ ही गया वापस, डाकू कहीं का!” मम्मा ने कहा. “यहाँ आ, आ जा!”
मूर्ज़िक खुले हुए वेन्टीलेटर से कूद कर कमरे में आ गया. मम्मा उसे पकड़ना चाहती थी, मगर, ज़ाहिर था कि उसने भाँप लिया था, कि उसे सज़ा मिलने वाली है, और वह मेज़ के नीचे भाग गया.
”ओह, तू, चालाक!” मम्मा ने कहा. “समझ रहा है कि गुनहगार है. चल, पकड़ उसे.”
वितालिक मेज़ के नीचे रेंग गया, मूर्ज़िक ने उसे देखा और दीवान के नीचे दुबक गया. वितालिक ख़ुश था कि मूर्ज़िक उससे छूट गया है. वह दीवान के नीचे रेंग गया, मूर्ज़िक दीवान के नीचे से उछल कर भागा. वितालिक उसके पीछे-पीछे पूरे कमरे में भागने लगा.
 “तूने ये क्या शोर मचा रखा है? क्या तू इस तरह से उसे पकड़ सकेगा?”
अब मूर्ज़िक खिड़की की सिल पर कूदा, जहाँ एक्वेरियम रखा था, और वापस  वेन्टीलेटर पर कूदना चाहता था, मगर उसकी पकड़ छूट गई और वह धम् से एक्वेरियम में गिरा! पानी चारों तरफ उछला. मूर्ज़िक एक्वेरियम से बाहर उछला और अपना बदन झटकने लगा. अब मम्मा ने उसे गर्दन से पकड़ लिया:
 “ठहर, अभी तुझे सबक सिखाती हूँ!”
 “मम्मा, प्यारी मम्मा, मूर्ज़िक को मत मारो!” वितालिक रोने लगा.
 “दया दिखाने की कोई ज़रूरत नहीं है,” मम्मा ने कहा, “उसने तो मछली पर दया नहीं दिखाई.”
 “मम्मा, उसका कोई क़ुसूर नहीं है!”
 “ऐसे कैसे ‘क़ुसूर नहीं है’? तो फिर करासिक को कौन खा गया?”
 “उसने नहीं खाया.”
 “तो फिर किसने खाया?”
 वो, मैं...”
 “तूने खा लिया?” मम्मा को बड़ा ताज्जुब हुआ.
 “नहीं, मैंने खाया नहीं. मैंने उसे व्हिसल से बदल लिया.”
 “कौन सी व्हिसल से?”
 “इस वाली से.”
वितालिक ने जेब से व्हिसल निकालकर मम्मा को दिखाई.
 “तुझे शरम नहीं आती?” मम्मा ने कहा.
 “मैंने अनजाने में ही...सिर्योझा ने कहा, ‘चल, बदलते हैं’, और मैंने बदल ली.”
 “मैं उस बारे में नहीं कह रही हूँ! मैं ये कह रही हूँ कि तूने सच क्यों नहीं बताया? मैंने तो मूर्ज़िक को ही दोषी समझ लिया. क्या ऐसे अपनी गलती दूसरों पर धकेलना अच्छी बात है?”
 “मैं डर गया था कि तुम मुझे मारोगी.”
 “सिर्फ डरपोक लोग सच कहने से डरते हैं! अगर मैं मूर्ज़िक को सज़ा देती तो क्या वो अच्छी बात होती?”
 “मैं आगे से ऐसा नहीं करूँग़ा.”
 “देख, इस बात का ध्यान रहे! सिर्फ इसलिए तुझे माफ़ कर रही हूँ कि तूने अपना गुनाह क़ुबूल तो किया,” मम्मा ने कहा.
वितालिक ने मूर्ज़िक को उठाया और उसे सुखाने के लिए बैटरी के पास लाया. उसने उसे बेंच पर रखा और ख़ुद उसकी बगल में बैठ गया. मूर्ज़िक के गीले रोँए चारों ओर सीधे खड़े थे, जैसे साही के काँटे हों, और इसके कारण मूर्ज़िक इतना दुबला दिखाई दे रहा था, मानो पूरे एक हफ़्ते से उसने कुछ नहीं खाया हो. वितालिक ने जेब से कटलेट निकाला और मूर्ज़िक के सामने रखा. मूर्ज़िक ने कटलेट खा लिया, फिर वि वितालिक के घुटनों पर बैठ गया, उसने अपने आप को गेंद की तरह गोल-गोल कर लिया और अपना म्याँऊ-म्याँऊ का गाना शुरू कर दिया.

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