होशियारी
लेखक: निकोलाय
नोसोव
अनु.: आ. चारुमति
रामदास
मैं और वोव्का घर में बैठे थे, इसलिए कि
हमने शक्करदानी फोड़ दी थी. मम्मा बाहर चली गई, और हमारे पास कोत्का आया और बोला:
“चलो, कुछ खेलते हैं.”
“चल, लुका-छिपी खेलते हैं,” मैंने कहा.
“ऊ-, मगर यहाँ तो छिपने के लिए जगह ही नहीं है!”
कोत्का ने कहा.
“क्यों...जगह क्यों नहीं है? मैं ऐसे छुप
जाऊँगा, कि तू सौ साल तक भी ढूँढ़ नहीं सकेगा. बस, थोड़ी सी होशियारी दिखाने की
ज़रूरत है.”
“अच्छा, चल, छुप जा. दो मिनट में तुझे ढूँढ़
लूंगा.”
कोत्का कॉरीडोर में गया और पच्चीस तक
गिनने लगा. वोव्का कमरे में भागा, और मैं स्टोर-रूम में. स्टोर-रूम में चटाई पड़ी
थी. मैं उसके नीचे घुस गया और गठरी जैसा बनकर फर्श पर गोल-गोल घूम गया, मतलब, मैं
गोल-गोल चटाई के भीतर छुप गया.
कोत्का ने पच्चीस तक गिना और हमें ढूँढ़ने
के लिए निकला. वोव्का को तो उसने फ़ौरन पलंग के नीचे ढूँढ़ लिया और फिर मुझे ढूँढ़ने
लगा. उसने पूरे कमरे में ढूँढ़ा, किचन में भी ढूँढ़ा. फिर वह स्टोर-रूम में आया,
मेरे पास रुका और बोला:
“यहाँ तो कुछ देग़चियाँ पड़ी हैं, टूटी हुई मेज़
है, पुरानी चटाई है. कोई भी नहीं है!”
फिर वह कमरे में गोल-गोल घूमा और पूछने
लगा:
“कहाँ है वो? वोव्का, तूने तो नहीं देखा?”
“हो सकता है कि अलमारी में बैठा हो?” वोव्का ने
कहा. “चल, खोल अलमारी...नहीं है!”
“शायद बर्तनों वाली अलमारी में छुप गया
हो?...नहीं! कहाँ छुपा है ये?”
“मालूम है!” वोव्का चिल्लाया. “वह सन्दूक में
है!”
“करेक्ट! इसके अलावा कहीं और हो ही नहीं सकता.
हमने पहले क्यों नहीं सोचा!”
वे सन्दूक की ओर भागे और लगे उसका ढक्कन
खोलने, मगर वह खुल ही नहीं रहा था.
“बन्द है,” कोत्का ने कहा.
“और हो सकता है, कि उसने अन्दर से पकड़ रखा
हो?”
वे ढक्कन पर खटखट करने लगे और चिल्लाने
लगे:
“बाहर निकल!”
“चल, सन्दूक को पलटते हैं,” वोव्का ने कहा.
“अरे, उस साइड से पकड़! ज़ोर लगा के-है-या!”
धम्! सन्दूक उल्टा हो गया, फर्श भी काँप
गया.
“नहीं,
शायद, वो इसमें नहीं है,” कोत्का ने कहा. “आख़िर पैर ऊपर करके तो वो बैठ नहीं सकता!”
“हो
सकता है, वो किचन में भट्टी के नीचे हो,” वोव्का ने जवाब में कहा.
अब वे किचन में भागे और भट्टी के नीचे अंगारे
पलटने वाली सलाख घुसाने लगे.
“बाहर
निकल! अब तो तू पकड़ा ही गया है!”
मैंने बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी रोकी.
“ठहर,”
वोव्का ने कहा. “मैंने, शायद किसी को पकड़ लिया है.”
“अच्छा,
तो फिर खींच उसे बाहर!”
“अभ्भी,
बस इस सलाख से हिलगा लूँ...है! वाह, चल देखते हैं कि ये है कौन...”फू! पुराने नमदे
के जूते!...उसे आख़िर कहाँ ढूँढ़ें?”
“मालूम
नहीं. मैं और नहीं खेलूँगा. बाहर आ!” कोत्का चिल्लाया. “खेल ख़तम हो गया! अगर नहीं
निकलना चाहता, तो बैठा रह वहीं पर!”
वे कमरे में वापस आए.
“हो
सकता है, वह दराज़ों वाली अलमारी में हो?” वोव्का ने पूछा.
चरमराहट की आवाज़ सुनाई दी.
“तू,
ये दराज़ों वाली अलमारी में क्या ढूँढ़ रहा है! क्या दराज़ में कोई छुप सकता है?” कोत्का
तैश में आ गया और कॉरीडोर में चला गया.
“क्यों
नहीं छुप सकता? देखना पड़ेगा,” वोव्का ने जवाब दिया.
वह बड़ी देर तक दराज़ों से चरमराहट करता रहा
और अचानक चिल्लाया:
“कोत्का,
इधर आ!”
“मिला?”
कोत्का ने पूछा.
“नहीं,
मैं बाहर नहीं आ सकता.”
“कहाँ
से?”
“दराज़
से. मैं दराज़ में बैठा हूँ.”
“तू
दराज़ में घुसा ही क्यों था?”
“मैं
देखना चाहता था, कि दराज़ में छुपा जा सकता है, या नहीं, और दराज़ तिरछी हो गई, और
अब मैं बाहर नहीं आ पा रहा हूँ.”
अब मैं अपने आप को रोक नहीं सका और ज़ोर से
ठहाका मार कर हँस पड़ा. कोत्का ने सुन लिया और मुझे ढूँढ़ने के लिए लपका.
“पहले मुझे बाहर खींच,” वोव्का
ने विनती की.
“ओह, तू चिल्ला मत!
मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि वो कहाँ पे हँस रहा है.
“मुझे बाहर खींच! मुझे यहाँ
दराज़ में डर लग रहा है! कोत्का ने दराज़ बाहर खींची और वोव्का को बाहर निकलने में
मदद की.
अब वे दोनों स्टोर-रूम में भागे. कोत्का
मुझसे टकराया और गिर पड़ा.
“और
ये चटाई भी किसी बेवकूफ़ ने यहाँ फेंक दी है!” वह चिल्लाया और दुष्टता से उसने कस
कर मेरी टाँग पकड़ ली.
आह, कितना चीख़ा मैं! चटाई के नीचे से बाहर
निकल आया.
“ये
तू खींच क्यों रहा है?”
उसने मुझे देखा और ख़ुश हो गया.
“अहा!
पकड़ा गया!” और कॉरीडोर में भागा. “ढूँढ़ लिया,
भाई - ढूँढ लिया त्रा-ता-ता-ता!”
मैंने कहा:
“त्रा-ता-ता
करने की ज़रूरत नहीं है, मैं नहीं खेलूँगा. झगड़ा करना, कोई खेल थोड़े ही है.”,
कमरे में वापस लौटता हूँ...हे भगवान! सब
कुछ उलटा-पुलटा हो गया है. अलमारियाँ खुली हैं, कपड़ों वाली अलमारी की दराज़ें खुली
हुई हैं, कपड़ों का ढेर फ़र्श पर पड़ा है, सन्दूक औंधे मुँह गिरा पड़ा है!
इसके बाद पूरे एक घण्टे तक हम कमरे की
सफ़ाई करते रहे.
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