मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

Metro

मेट्रो

लेखक: निकोलाय नोसोव
अनु.: आ. चारुमति रामदास

 मैं मम्मा और वोव्का के साथ मॉस्को गया, आण्टी ओल्या के यहाँ. पहले ही दिन मम्मा और आण्टी शॉपिंग के लिए चली गईं, और मुझे और वोव्का को घर पर ही छोड़ दिया. हमें पुरानी तस्वीरों वाला एल्बम दे दिया, जिससे हम उसे देखते रहें. तो, हम देखते रहे, देखते रहे, तब तक देखते रहे, जब तक ‘बोर’ न हो गए.
वोव्का ने कहा:
 “ अगर हम इसी तरह पूरा-पूरा दिन घर में ही बैठे रहेंगे, तो मॉस्को देख ही नहीं पाएँगे!”
हम खिड़की से बाहर देखने लगे. देखा, सामने ही मेट्रो-स्टेशन था.
मैंने कहा:
 “चल, मेट्रो-रेल में घूम कर आते हैं.”
 हम स्टेशन पर आए, सीढ़ियों से नीचे उतरे और ज़मीन के नीचे मेट्रो-रेल में बैठकर चल पड़े. पहले तो ये डरावना लगा, मगर फिर अच्छा ही लगा. हमने दो स्टेशन पार किए और बाहर निकले.
“स्टेशन पर घूम कर देख लेते हैं,” हमने सोचा, “और, वापस चले जाएँगे.”
हम स्टेशन देखने लगे, वहाँ तो सीढ़ी अपने आप सरक रही थी. लोग उस पर ऊपर और नीचे जा रहे थे. हम भी ऊपर-नीचे जाने लगे : ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर... चलने की कोई ज़रूरत ही नहीं है, सीढ़ी अपने आप ही तुमको ले जाती है.
सीढ़ियों पर खूब ऊपर-नीचे करते रहे, फिर ट्रेन में बैठ कर वापस चल पड़े. दो स्टेशन्स के बाद उतरे, देखते क्या हैं – ये तो हमारा स्टेशन नहीं है!
 “शायद, हम गलत दिशा वाली ट्रेन में चढ़ गए,” वोव्का ने कहा.
हम दूसरी ट्रेन में बैठे, उल्टी दिशा में चल पड़े. आते हैं - - अरे, फिर से, ये हमारा स्टेशन नहीं है!”
अब तो हम डर गए.
 “किसी से पूछना चाहिए,” वोव्का ने कहा.
 “ पूछेगा कैसे? क्या तुझे मालूम है कि हम कौन से स्टेशन पर चढ़े थे?”
 “नहीं. और, तुझे मालूम है?”
 “मुझे भी नहीं मालूम.”
 “चल, सारे स्टेशन्स पर चलते हैं, हो सकता है कि किसी तरह ढूँढ़ ले,” वोव्का ने कहा.
हम एक-एक स्टेशन पर जाते गए. जा रहे हैं, जा रहे हैं, सिर भी चकराने लगा.
वोव्का ठुनठुनाने लगा:
 “यहाँ से जाएँगे!”
 “जाएँगे कहाँ?”
 “कहीं भी! मुझे ऊपर जाना है.”
 “ऊपर क्या करेगा?”
 “ज़मीन के नीचे नहीं रहना है!” और वो बिसूरने लगा.
”रोने की ज़रूरत नहीं है,” मैंने कहा, “पुलिस में ले जाएँगे.”
“ले जाने दो! एँ-एँ-एँ!...”
 “अच्छा, जाएँगे, जाएँगे,” मैंने कहा. “तू बस, चीखना बन्द कर. देख, वो पुलिस वाला हमारी तरफ़ देखने लगा.”
मैंने उसका हाथ पकड़ा - - और हम फ़ौरन सीढ़ी पर चढ़ गए. ऊपर की ओर जाने लगे. “ ये सीढ़ी हमें कहाँ ले जाएगी?” मैं सोच रहा था. “अब हमारा क्या होगा?”
अचानक क्या देखते हैं - - दूसरी ओर वाली सीढ़ी पर हमारे सामने से गुज़र रही हैं मम्मा और ओल्या आण्टी. मैं ज़ोर से चीख़ा:
 “मम्मा!”
 “तुम लोग कहाँ जा रहे हो? हमारा इंतज़ार क्यों नहीं किया?”
 “हम तो आप लोगों को ढूँढ़ने निकले थे!”
हम नीचे आते हैं. मैंने वोव्का से कहा:
 “इंतज़ार करते हैं. वो अभ्भी हमारे पास आ जाएँगी.”
हम इंतज़ार करते रहे, करते रहे, मगर वो लोग आने का नाम ही नहीं ले रहे थे.
 “शायद, वो हमारा इंतज़ार कर रही हैं,” वोव्का ने कहा. “चलते हैं.”
जैसे ही हम चले, वो फिर से दूसरी वाली सीढ़ी पर हमारे सामने!.
 “हम तुम लोगों का इंतज़ार करते रहे, करते रहे!...” वो चिल्लाईं.
हमारे चारों ओर लोग ठहाके लगा रहे थे.
हम फिर से ऊपर पहुँचे - - और फिर से फ़ौरन नीचे चले. आख़िर में उन्हें पकड़ ही लिया.
मम्मा ने पहले तो हमें इस बात पर डाँटा कि बिना पूछे क्यों बाहर गए, और हम उसे बताते रहे कि कैसे हमारा स्टेशन खो गया था.
आण्टी ने कहा:
 “समझ में नहीं आता, ऐसे कैसे स्टॆशन खो गया! मैं तो यहाँ हर रोज़ आती हूँ, मगर मेरा स्टेशन तो एक बार भी नहीं खोया. चलो, घर चलते हैं.”
हम ट्रेन में बैठे. चल पड़े.
 “ऐह, तुम भी, भुलक्कड कहीं के!” आण्टी ने कहा. “ढूँढ़ने चले दस्ताने और वो तो घुसे हैं बेल्ट में. तीन पेड़ों के बीच ही भटक गए. स्टेशन खो दिया!”
और इस तरह पूरे रास्ते वो हमारा मज़ाक उड़ाती रही.
स्टेशन पर उतरे, आण्टी ने चारों ओर देखा और बोली:
 “छि:! तुमने मुझे पूरी तरह कन्फ्यूज़ कर दिया! हमें अर्बात जाना था, और हम आ गए कुर्स्की स्टेशन. गलत दिशा वाली ट्रेन में बैठ गए.
हम दूसरी ट्रेन में बैठे और उल्टी दिशा में जाने लगे. मगर अब आण्टी हमारा मज़ाक नहीं उड़ा रही थी. और उसने हमें भुलक्कड भी नहीं कहा.


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