बार्बोस के घर आया
बोबिक
लेखक:
निकोलाय नोसोव
अनुवाद:
आ. चारुमति रामदास
एक था कुत्ता – बार्बोस्का. उसका दोस्त था –
बिल्ला वास्का. वे दोनों दद्दू के घर में रहते थे. दद्दू काम पे जाते, बार्बोस्का
घर की रखवाली करता, और बिल्ला वास्का चूहे पकड़ता.
एक बार दद्दू काम
पे गए, बिल्ला वास्का कहीं घूमने निकल पड़ा, और बार्बोस घर में रह गया. कुछ काम न
होने के कारण वह खिड़की की सिल पे चढ़ गया और बाहर देखने लगा. उसे बड़ी उकताहट हो रही
थी, वो उबासियाँ ले रहा था.
‘हमारे दद्दू की
तो मौज है!’ बार्बोस्का सोच रहा था, ‘काम पर चले गए और काम कर रहे हैं. वास्का के
भी ठाठ हैं – घर से भाग गया और छतों पे घूम रहा है. मगर मुझे बैठना पड़ रहा है, घर
की रखवाली कर्ना पड़ रही है.’
इसी समय रास्ते
पर बार्बोस्का का दोस्त बोबिक नज़र आया. वे अक्सर कम्पाऊण्ड में मिला करते थे और एक
साथ खेलते. बार्बोस ने दोस्त को देखा और ख़ुश हो गया:
“ऐ,बोबिक, कहाँ भागा जा रहा है?”
“कहीं नहीं,” बोबिक ने कहा. “बस, यूँ ही भाग रहा
हूँ. और तू क्यों घर में बैठा है? चल, घूमने चलते हैं.”
“मैं नहीं आ सकता,” बार्बोस ने जवाब दिया,
“दद्दू ने घर की रखवाली करने के लिए कहा है. तू ही मेरे यहाँ आ जा.”
“मुझे कोई भगाएगा तो नहीं?”
“नहीं. दद्दू काम पे चले गए. घर में कोई भी नहीं
है. खिड़की से घुसकर अन्दर आ जा.”
बोबिक खिड़की से
अन्दर आ गया और उत्सुकता से कमरे का निरीक्षण करने लगा.
“तेरे तो ठाठ हैं!” उसने बार्बोस से कहा. “तू
अच्छे ख़ासे घर में रहता है, और मैं कुत्ता-घर में. जगह की इतनी तंगी है वहाँ, क्या
बताऊँ! और छत भी टपकती है. बड़े बुरे हाल हैं! “
“हाँ,” बार्बोस ने जवाब दिया, “हमारा फ्लैट
अच्छा है: दो कमरे, किचन और ऊपर से बाथरूम भी. जहाँ चाहे, घूमो.”
“और मुझे तो मालिक लोग कॉरीडोर में भी नहीं
घुसने देते!” बोबिक ने शिकायत की. “कहते हैं – मैं गली का कुत्ता हूँ, इसलिए मुझे
कुत्ता-घर में रहना चाहिए. एक बार कमरे में घुस गया था – क्या हाल बनाया! चिल्लाने
लगे, चीख़ने लगे, पीठ पर डण्डे भी मारे.” उसने पंजे से कान के पीछे खुजाया, फिर
दीवार पर लगी पेण्डुलम वाली घड़ी देखी और पूछने लगा:
“और ये तुम्हारे यहाँ दीवार पे क्या चीज़ लटक रही
है? पूरे समय बस टिक-टाक, टिक-टाक, और नीचे कोई चीज़ घूमे जा रही है.”
“ये घड़ी है,” बार्बोस ने जवाब दिया. “क्या तूने
कभी घड़ी नहीं देखी?”
“नहीं. और वो होती किसलिए है?”
बार्बोस को तो
ख़ुद ही मालूम नहीं था कि घड़ी किसलिए होती है, मगर फिर भी वह समझाने लगा:
“ओह, ये ऐसी चीज़ होती है, मालूम है...घड़ी...वो
चलती है...”
“क्या – चलती है?” बोबिक को अचरज हुआ. “उसके तो
पैर ही नहीं हैं!”
“अरे, ऐसा समझ कि, ऐसा कहते हैं, कि चलती है,
मगर असल में वो सिर्फ टक्-टक् करती है, और फिर मारने लगती हैं.”
“ओहो! तो ये झगड़ा भी करती है?” बोबिक घबरा गया.
“अरे नहीं! वो झगड़ा कैसे कर सकती हैं!”
“तूने ही तो अभी कहा - मारने लगती है!”
“मारने का मतलब है – बजाना : बोम्! बोम्!”
“हुँ, तो ऐसा कहना चाहिए था!”
बोबिक ने मेज़ पर
पड़ी कंघी देखी और पूछा:
“और ये तुम्हारे पास आरी जैसा क्या है?
“कहाँ की आरी! ये कंघी है.”
“आह, वो किसलिए है?”
“तू भी ना!” बार्बोस ने कहा. “एकदम पता चल जाता
है कि पूरी ज़िन्दगी कुत्ता-घर में ही बीती है. मालूम नहीं है कि कंघी किसलिए होती
है? बाल बनाने के लिए.”
“ये बाल बनाना क्या होता है?”
बार्बोस ने कंघी
उठाई और अपने सिर पर फेरने लगा:
“देख, बाल ऐसे बनाते हैं. आईने के पास आ जा और
बाल बना ले.”
बोबिक ने कंघी ले
ली, आईने के पास गया और उसमें अपना प्रतिबिम्ब देखा.
“सुन,” वो आईने की ओर इशारा करते हुए चिल्लाने
लगा, “वहाँ तो कोई कुत्ता है!”
“अरे, ये तो तू ख़ुद ही है, आईने में!” बार्बोस
हँसने लगा.
“ऐसे कैसे – मैं हूँ? मैं तो यहाँ हूँ, और वहाँ
कोई दूसरा कुत्ता है.” बार्बोस भी आईने के पास गया.
बोबिक ने उसका प्रतिबिम्ब देखा और चिल्लाया:
“अरे, अब तो वो दो हैं!”
“नहीं रे !” बार्बोस ने कहा. “वो दो नहीं हैं,
बल्कि हम दो हैं. वो वहाँ, आईने में, ज़िन्दा वाले नहीं हैं.”
“क्या - ज़िन्दा वाले नहीं हैं?” बोबिक चीख़ा. “वो
तो हलचल कर रहे हैं!”
“वाह रे, अकलमन्द!” बार्बोस ने जवाब दिया. “ये
तो हम हलचल कर रहे हैं. देख, उनमें से एक कुत्ता बिल्कुल मेरे जैसा है!”
“सही है, तेरे जैसा है!” बोबिक ख़ुश हो गया.
बिल्कुल तेरे जैसा ही है!”
“और दूसरा कुत्ता
तेरे जैसा है.”
“क्या कह रहा है!” बोबिक ने जवाब दिया. “वहाँ तो
कोई गलीज़-सा कुता है, और उसके पंजे टेढ़े हैं.”
“वैसे ही पंजे हैं, जैसे तेरे हैं.”
“नहीं, ये तो तू मुझे धोखा दे रहा है! वहाँ
किन्हीं दो कुत्तों को लाकर बिठा दिया और समझ रहा है कि मैं तेरा यक़ीन कर लूँगा,”
बोबिक ने कहा.
वो आईने के सामने
कंघी करने लगा और एकदम ठहाका मार कर हँसने लगा:
“देख तो, और ये आईने वाला बेवकूफ़ भी कंघी कर रहा
है! क्या बात है!”
बार्बोस ने सिर्फ
फुर्-फुर् किया और एक ओर को हट गया. बोबिक ने कंघी कर ली, कंघी को वापस उसकी जगह
पे रख दिया और बोला:
“बहुत बढ़िया है तेरा घर! कैसी-कैसी घड़ी है, ढेर
सारी सटर-फ़टर चीज़ें हैं और कंघी भी है!”
“और हमारे यहाँ टीवी भी है!” बर्बोस ने शेख़ी
मारी और टीवी दिखाया.
“ये किसलिए है?” बोबिक ने पूछा.
“ये एक ग़ज़ब की चीज़ है – ये सब कुछ करता है :
गाता है, खेलता है, तस्वीरें भी दिखाता है.”
“ये, ये डिब्बा?”
“हाँ.”
“नहीं,ये तो कोरी गप् हुई!”
“कसम से कह रहा हूँ!”
“तो चल, दिखा, कैसे खेलता है!”
बार्बोस ने टीवी
चला दिया. गाना सुनाई दिया. कुत्ते ख़ुश हो गए और लगे कमरे में उछलने. नाचते रहे,
नाचते रहे, थक कर चूर हो गए.
“मुझे तो भूख भी लग आई है,” बोबिक ने कहा.
“मेज़ पे बैठ, अभी तेरी ख़ातिरदारी करता हूँ,”
बार्बोस ने कहा.
बोबिक मेज़ के पास
बैठ गया. बार्बोस्का ने अलमारी खोली, देखा – वहाँ दही का बर्तन रखा है, और ऊपर
वाली शेल्फ पर – बड़ी सारी केक है. उसने दही वाला बर्तन उठाया, उसे फर्श पर रखा, और
ख़ुद ऊपर वाली शेल्फ पर केक लेने के लिए चढ़ गया. केक उठाया, नीचे उतरने लगा, मगर
उसका पंजा दही के बर्तन को लग गया. फिसलते हुए वो सीधा बर्तन पर ही धम् से गिरा,
और पूरी पीठ दही से तरबतर हो गई.
“बोबिक, जल्दी आ, दही खाने के लिए!” बार्बोस
चिल्लाया.
बोबिक भाग कर
आया:
“कहाँ है दही?”
“ये रहा, मेरी पीठ पर. चाट ले.” बोबिक लगा उसकी
पीठ को चाटने.
“ओह, बढ़िया दही है!” उसने कहा.
फिर उन्होंने केक
को मेज़ पे रखा. ख़ुद भी मेज़ के ऊपर बैठ गए, जिससे खाने में आसानी हो. खाते-खाते वे
बातें करने लगे.
“तेरी तो ठाठ हैं,” बोबिक ने कहा. “तेरे पास सब
कुछ है.”
“हाँ,” बार्बोस ने कहा. “मैं बढ़िया ढंग से रहता हूँ.
जो मन में आए, वो ही करता हूँ: चाहूँ तो कंघी से बाल सँवार लेता हूँ, चाहूँ तो
टीवी के साथ खेलता हूँ, जो जी चाहे वो खाता हूँ और पीता हूँ या पलंग पर लुढ़क जाता
हूँ.”
“दद्दू तुझे ऐसा करने देता है?”
“दद्दू मेरे सामने क्या है! क्या सोच रहा है! ये
पलंग मेरा है.”
“मगर, फिर दद्दू कहाँ सोता है?”
“दद्दू वहाँ, उस कोने में, कालीन पे.”
बार्बोस इतना झूठ
बोल रहा था कि रुक ही नहीं पा रहा था.
“यहाँ सब कुछ मेरा है!” उसने डींग मारी. “मेज़
मेरी है, अलमारी मेरी है, और हर चीज़, जो अलमारी में है, वो भी मेरी ही है.”
“क्या मैं पलंग पे लुढ़क सकता हूँ?” बोबिक ने
पूछा. “ज़िन्दगी में मैं कभी भी पलंग पे नहीं सोया हूँ.”
“ठीक
है, चल, सोते हैं,” बार्बोस मान गया. वे पलंग पर लेट गए.
बोबिक की नज़र
चाबुक पर पड़ी, जो दीवार पर लटक रहा था. उसने पूछा:
“और तुम्हारे यहाँ ये चाबुक किसलिए है?”
“चाबुक? वो तो दद्दू के लिए है. अगर वो सुनता
नहीं है, तो मैं उस पर चाबुक बरसाता हूँ,” बार्बोस ने जवाब दिया.
“ये बहुत अच्छा है,” बोबिक ने तारीफ़ की.
वो पलंग पे लेटे रहे,
लेटे रहे, उन्हें गर्माहट महसूस हुई और उनकी आँख लग गई. उन्हें ये भी पता नहीं चला
कि दद्दू काम से कब वापस लौटा.
उसने अपने पलंग
पे दो कुत्तों को देखा, दीवार से चाबुक उठाया और लगा उन पर बरसाने.
बोबिक तो डर के
मारे खिड़की से बाहर कूद गया और जाकर अपने कुत्ता-घर में छुप गया, और बार्बोस पलंग
के नीचे ऐसे छुप गया कि उसे फर्श साफ़ करने वाले ब्रश से भी बाहर खींचना संभव नहीं
हुआ. शाम तक वो वहीं बैठा रहा.
शाम को बिल्ला
वास्का वापस आया. उसने बार्बोस को पलंग के नीचे देखा तो सब समझ गया, कि बात क्या
है.
“ऐख़, वास्का, मुझे फिर से सज़ा मिली है! मुझे भी
मालूम नहीं कि क्यों. अगर दद्दू तुझे सॉसेज देता है तो मुझे भी देना!”
वास्का दद्दू के पास आया, म्याऊँ-म्याऊँ करते
हुए अपनी पीठ दद्दू के पैरों से रगड़ने लगा. दद्दू ने उसे सॉसेज का टुकड़ा दिया.
वास्का ने आधा खाया, और दूसरा पलंग के नीचे जाकर बार्बोस्का को दिया.
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