बुधवार, 30 अप्रैल 2014

Ghar Mein

घर में
लेखक: अंतोन चेखव
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

 “ग्रिगोरेवों के यहाँ से किसी किताब के लिए आए थे, मगर मैंने कह दिया कि आप घर में नहीं हैं. पोस्टमैन अख़बार और दो चिट्ठियाँ दे गया है. वो, येव्गेनी पेत्रोविच, मैं आपसे कहना चाह रही थी कि कृपया सिर्योझा पर ध्यान दें. तीन दिनों से मैं देख रही हूँ कि वो सिगरेट पीता है. जब मैंने उसे समझाने कि कोशिश की तो उसने, हमेशा की तरह, कान बन्द कर लिए और ज़ोर-ज़ोर से गाने लगा, जिससे मेरी आवाज़ दबा दे.”
येव्गेनी पेत्रोविच बीकोव्स्की, जिला अदालत का वकील, अभी अभी एक मीटिंग से लौटा था, और अपने अध्ययन-कक्ष में हाथ-मोज़े उतारकर, उसने इस बात की रिपोर्ट करती हुई गवर्नेस की ओर देखा और मुस्कुराने लगा.
 “सिर्योझा सिगरेट पीता है...” उसने कंधे उचकाए. “मैं मुँह में सिगरेट दबाए इस छुटके की कल्पना कर सकता हूँ! हाँ, वो कितने साल का है?”
 “सात साल. आपको लगता है कि ये कोई गंभीर बात नहीं है, मगर उसकी उमर में सिगरेट पीना एक ख़तरनाक और बेवकूफ़ीभरी आदत है, और बेवकूफ़ीभरी हरकतों को शुरू में ही जड़ से काट देना चाहिए.”
 “बिल्कुल ठीक. और वो तम्बाकू कहाँ से लेता है?”
 “आपकी मेज़ की दराज़ से.”
 “अच्छा? तो उसे मेरे पास भेजिए.”
गवर्नेस के जाने के बाद बीकोव्स्की लिखने की मेज़ के सामने आराम कुर्सी में बैठ गया, उसने आँखें बन्द कर लीं और सोचने लगा. उसने कल्पना में न जाने क्यों गज भर लम्बी सिगरेट मुँह में दबाए, तम्बाकू के धुएँ से घिरे, अपने सिर्योझा का चित्र बनाया,और इस कार्टून ने उसे मुस्कुराने पर मजबूर कर दिया; साथ ही गवर्नेस के गंभीर, चिंतामग्न चेहरे ने उसे काफ़ी पहले गुज़र चुके, अर्ध-विस्मृत भूतकाल की याद दिला दी, जब स्कूल में और बच्चों के कमरे में सिगरेट पीना विद्यार्थियों और माता-पिता के मन में अजीब-सा ख़ौफ़ पैदा कर देता था. ये वाक़ई में ख़ौफ़ था. लड़कों को बेरहमी से मार पड़ती थी, स्कूल से निकाल दिया जाता था, उनकी ज़िन्दगी बर्बाद कर दी जाती थी, हालाँकि कोई भी विद्यार्थी या पिता यह नहीं जानता था कि आख़िर सिगरेट पीने में ख़तरनाक और गुनाह जैसी बात क्या है. अत्यंत बुद्धिमान लोग भी इस समझ में ना आने वाले पाप से लड़ने का कष्ट नहीं उठाते थे. येव्गेनी पेत्रोविच को अपने स्कूल के बूढ़े डाइरेक्टर की याद आई, जो बेहद पढ़ा-लिखा और भला इन्सान था, जो किसी विद्यार्थी के मुँह में सिगरेट देखकर इतना डर जाता था कि पीला पड़ जाता, फ़ौरन टीचर्स-कौन्सिल की इमर्जेन्सी मीटिंग बुला लेता और गुनहगार को स्कूल से निकलवा देता. शायद, सामाजिक जीवन का यही नियम है : बुराई जितनी दुरूह होती है, उतनी ही क्रूरता से और बर्बरता से उससे संघर्ष किया जाता है.
वकील साहब को दो-तीन ऐसे बच्चों की याद आई जिन्हें स्कूल से निकाल दिया गया था, और उनकी भावी ज़िन्दगी भी उनकी आँखों के आगे तैर गई, और वह इस बात से इनकार न कर सके कि सज़ा देने से अक्सर मूल अपराध से भी ज़्यादा नुक्सान होता है.  
रात के आठ बज चुके थे. दो कमरे छोड़कर, बच्चों के कमरे में, गवर्नेस और सिर्योझा बातें कर रहे थे.
 “पा-पा आ गए!” बच्चा गाने लगा. “पापा आ-ग-ए!! पा! पा! पा!”
 “आपके पापा आपको बुला रहे हैं, फ़ौरन उनके पास जाईये!” भयभीत पंछी की तरह चीं-चीं करती हुई गवर्नेस चिल्लाई. “आपसे कह रहे हैं, जाईये!”
 ‘मगर, मैं उससे कहूँगा क्या?’ येव्गेनी पेत्रोविच ने सोचा.
मगर इससे पहले कि वह कुछ तय कर पाता, कमरे में उसका सात साल का बेटा, सिर्योझा, आ गया था. ये एक ऐसा इन्सान था जिसके लड़का होने का अंदाज़ सिर्फ उसकी ड्रेस देखकर ही किया जा सकता था: कमज़ोर, सफ़ेद चेहरे वाला, बेहद नाज़ुक...उसका जिस्म मरियल था, जैसे किसी ग्रीन हाऊस में रखी सब्जी हो, और उसकी हर चीज़ असाधारण रूप से नर्म और नाज़ुक थी: चाल ढाल, घुंघराले बाल, नज़रें, मखमल का जैकेट.
 “नमस्ते, पापा!” पापा के घुटनों पर चढ़कर उसकी गर्दन की पप्पी लेते हुए उसने कहा. “तुमने मुझे बुलाया?”
 “प्लीज़, प्लीज़, सेर्गेइ येव्गेनिच,” वकील साहब ने उसे अपने से दूर हटाते हुए कहा. “पप्पी लेने से पहले, हमें बात करनी होगी, और गंभीरता से बात करनी होगी...मैं तुम पर गुस्सा हूँ और अब तुमसे प्यार नहीं करता हूँ. ये बात तुम समझ लो, भाई; मैं तुमसे प्यार नहीं करता, तुम मेरे बेटे नहीं हो...हाँ.”
सिर्योझा ने एकटक पिता की ओर देखा, फिर अपनी नज़रें मेज़ पर टिकाकर कंधे उचका दिए.
 “मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?” उसने अविश्वास से, पलकें झपकाते हुए पूछा. “मैं आज तुम्हारे कमरे में एक भी बार नहीं आया, और मैंने किसी चीज़ को हाथ भी नहीं लगाया.”
 “अभी-अभी नतालिया सिम्योनोव्ना ने मुझसे शिकायत की है कि तुम सिगरेट पीते हो...क्या ये सच है? तुम सिगरेट पीते हो?”
 “हाँ, मैंने एक बार सिगरेट पी थी...ये सही है!”
 “देखो, तुम ऊपर से झूठ भी बोल रहे हो,” वकील साहब ने नाक-भौंह चढ़ाकर, उसकी आड में अपनी मुस्कुराहट छिपाते हुए कहा. “नतालिया सिम्योनोव्ना ने तुझे दो बार सिगरेट पीते हुए देखा था. मतलब, तुम्हें तीन बुरे काम करते हुए पकड़ा गया है: सिगरेट पीते हो, मेज़ की दराज़ से दूसरों की तम्बाकू लेते हो, और झूठ बोलते हो. तीन-तीन गुनाह!”
 “आह, हाँ!” सिर्योझा को याद आया और उसकी आँखें मुस्कुराने लगीं. “ये सही है, बिल्कुल सही है! मैंने दो बार सिगरेट पी थी: आज और इससे पहले.”
 “देखा, मतलब, एक नहीं, बल्कि दो बार...मैं तुमसे बहुत नाख़ुश हूँ! पहले तुम अच्छे बच्चे हुआ करते थे, मगर अब, मैं देख रहा हूँ कि बिगड़ गए हो, और बुरे बन गए हो.”
येव्गेनी पेत्रोविच ने सिर्योझा की कॉलर ठीक की और सोचने लगा:
 ‘इससे और क्या कहना चाहिए?’
 “तो, बुरी बात है,” उसने आगे कहा, “मुझे तुमसे ऐसी उम्मीद नहीं थी. पहली बात, तुझे वो तम्बाखू लेने का कोई हक़ नहीं है, जो तेरी नहीं है. हर इन्सान को सिर्फ अपनी ही चीज़ इस्तेमाल करने का हक़ होता है, अगर वो दूसरे की चीज़ लेता है, तो...वो अच्छा आदमी नहीं है! (‘मैं उससे मतलब की बात नहीं कह रहा हूँ!’ – येव्गेनी पेत्रोविच ने सोचा.) मिसाल के तौर पर, नतालिया सिम्योनोव्ना के पास अपनी ड्रेसों वाली सन्दूक है. ये उसका सन्दूक है, और हमें, याने ना मुझे, ना तुझे, उसे छूने का कोई हक़ नहीं है, क्योंकि वो हमारा नहीं है. ठीक है ना? तेरे पास घोड़े और तस्वीरें हैं...क्या मैं उन्हें लेता हूँ? हो सकता है, मेरा दिल उन्हें लेना चाहता भी हो, मगर...क्योंकि वे चीज़ें मेरी नहीं बल्कि तेरी हैं!”
 “ले लो, अगर दिल चाहता है तो!” सिर्योझा ने भौंहे चढ़ाकर कहा. “तुम, पापा, शर्माना नहीं, ले लो! ये पीला कुत्ता, जो तुम्हारी मेज़ पे रखा है, मेरा है, मगर मैं बुरा नहीं मानता...रहने दो उसे यहाँ पे!”
“तुम मेरी बात समझ नहीं रहे हो,” बीकोव्स्की ने कहा. “कुत्ता तुमने मुझे गिफ्ट में दिया था, अब वो मेरा है, और मैं उसके साथ जो चाहे वो कर सकता हूँ: मगर तम्बाकू तो मैंने तुम्हें गिफ्ट में नहीं दी! तम्बाकू मेरी है! (‘मैं उसे ठीक तरह से समझा नहीं पा रहा हूँ!’ वकील साहब ने सोचा, ‘सही तरह से नहीं!’) अगर दूसरे की तम्बाकू के कश लेने को मेरा जी चाहता है, तो मुझे पहले इजाज़त लेनी चाहिए...”
बड़े मरियल ढंग से एक के पीछे दूसरा वाक्य जोड़ते, और उसे बच्चों की ज़ुबान में कहते हुए, बीकोव्स्की बेटे को समझाने लगा कि अपनी चीज़ का मतलब क्या होता है. सिर्योझा उसके सीने की ओर देखते हुए ध्यान से सुन रहा था (उसे शाम को पिता से बातें करना अच्छा लगता था), फिर वह मेज़ के कोने पर झुक गया और अपनी मन्द-दृष्टि से पीड़ित आँखें सिकोड़कर कागज़ और स्याही की दवात की ओर देखने लगा. उसकी नज़र मेज़ पर दौड़ती रही और गोंद की कुप्पी पर रुक गईं.
 “पापा, गोंद किस चीज़ से बनाते हैं?” अचानक उसने कुप्पी को आँखों के पास लाते हुए पूछा.
बीकोव्स्की ने उसके हाथों से कुप्पी ले ली और उसे वापस रख कर कहा:
 “दूसरी बात, तुम सिगरेट पीते हो...ये बहुत बुरी बात है! अगर मैं पीता हूँ, तो इसका ये मतलब नहीं है कि सिगरेट पीना चाहिए. मैं सिगरेट पीता हूँ और जानता हूँ कि ये समझदारी का काम नहीं है, अपने आप को गाली देता हूँ और इसके लिए अपने आप से नफ़रत करता हूँ...(मैं एक चालाक शिक्षाविद् हूँ!’ वकील साहब ने सोचा.) तम्बाकू सेहत के लिए बड़ी ख़तरनाक है, और जो सिगरेट पीता है, समय से पहले ही मर जाता है. ख़ासकर तुम्हारे जैसे छोटे बच्चों के लिए तो सिगरेट पीना और भी ज़्यादा ख़तरनाक है. तेरा सीना कमज़ोर है, तू अभी मज़बूत नहीं हुआ है, और कमज़ोर लोगों को तम्बाकू के धुएँ से टी.बी. और दूसरी बीमारियाँ हो जाती हैं. जैसे, इग्नाती चाचा टी.बी. से मर गया. अगर वो सिगरेट नहीं पीता, तो हो सकता है कि अब तक ज़िन्दा रहता.”
सिर्योझा ने सोच में पड़कर लैम्प की ओर देखा, ऊँगली से उसका शेड छुआ और गहरी साँस ली.
“इग्नाती चाचा अच्छा वायलिन बजाते थे!” उसने कहा. “उनकी वायलिन अब ग्रिगोरेवों के पास है!”
सिर्योझा ने फिर से मेज़ के किनारे पर कुहनियाँ टिका दीं और सोचने लगा. उसके विवर्ण मुख पर ऐसा भाव छा गया, मानो वह अपने विचारों को सुन रहा हो: दुख और भय जैसी कोई चीज़ उसकी बड़ी-बड़ी, पलकें न झपकाती हुई आँखों में दिखाई दी. शायद, वो अब मृत्यु के बारे में सोच रहा था, जिसने उसकी मम्मा और इग्नाती चाचा को हाल ही में अपने पास बुला लिया था. मृत्यु मम्मियों को और चाचाओं को दूसरी दुनिया में ले जाती है, और उनके बच्चे और वायलिनें धरती पर रह जाते हैं. क्या वे जुदाई बर्दाश्त कर पाते हैं?
’मैं इससे क्या कहूँगा?’ येव्गेनी पेत्रोविच सोच रहा था. ‘वो मेरी बात सुन ही नहीं रहा है. ज़ाहिर है वो अपनी करतूतों को और मेरे निष्कर्षों को महत्त्वपूर्ण नहीं समझता. उसके दिमाग़ में ये बात कैसे डाली जाए?’
वकील साहब उठ गए और कमरे में चहलक़दमी करने लगे.
‘पहले, हमारे ज़माने में, ये सवाल बड़ी आसानी से सुलझा लिए जाते थे,’ वह मनन कर रहा था. ‘हर उस बच्चे की, जिसे सिगरेट पीने के कारण स्कूल से निकाल दिया जाता था, पिटाई की जाती थी. कमज़ोर दिल वाले और डरपोक, वाक़ई में सिगरेट पीना छोड़ देते थे, और जो कुछ ज़्यादा बहादुर किस्म के और ज़्यादा अकलमन्द होते थे, वो पिटाई के बाद सिगरेट अपने जूतों में छुपा लेते और गोदाम में जाकर पीते. जब वे गोदाम में पकड़े जाते और उनकी फिर से पिटाई होती, तो वो सिगरेट पीने नदी पे चले जाते...और इस तरह से चलता रहता, जब तक कि बच्चा बड़ा न हो जाता. मैं सिगरेट ना पिऊँ, इसलिए मेरी मम्मी मुझे पैसे और चॉकलेट्स दिया करती थी. अब तो ये चीज़ें बड़ी छोटी और अनैतिक समझी जाती हैं. आधुनिक शिक्षाशास्त्री ये कोशिश करते हैं कि बच्चा अच्छी आदतें डर के कारण, औरों से अच्छा बनने की ख़्वाहिश के कारण या फिर इनाम पाने की ख़ातिर नहीं, बल्कि अपने मन से सीखे.’
जब वह कमरे में चहलक़दमी कर रहा था, तो सिर्योझा मेज़ के पास पड़ी कुर्सी पर पैर उठाकर चढ़ गया और ड्राईंग बनाने लगा. वो काम के कागज़ों को ख़राब न कर दे और स्याही को हाथ न लगाए, इसलिए मेज़ पर छोटे-छोटे चौकोर कागज़ों का एक गट्ठा और नीली पेन्सिल ख़ास तौर से उसके लिए रखी गई थी.
 “आज रसोईन ने गोभी काटते हुए अपनी ऊँगली काट ली,” वह घर की ड्राईंग बनाते बनाते अपनी भौंहे नचाते हुए बोला. “वो इतनी ज़ोर से चीख़ी, कि हम सब डर गए और किचन में भागे. ऐसी बेवकूफ़ है! नतालिया सिम्योनोव्ना ने उसे ठण्डे पानी में ऊँगली डुबाने को कहा, मगर वो उसे चूसने लगी...वो गन्दी ऊँगली मुँह में कैसे डाल सकती है! पापा, ये तो बदतमीज़ी है!”
आगे उसने बताया कि खाने के समय आँगन में एक ऑर्गन बजाने वाला छोटी बच्ची के साथ आया, जो म्यूज़िक के साथ-साथ नाच और गा रही थी.
‘ये अपनी ही धुन में मगन है!’ वकील साहब ने सोचा. ‘उसके दिमाग़ में अपने ही ख़यालों की दुनिया है, और वह अपने तरीक़े से जानता है कि क्या ज़रूरी है और क्या ग़ैरज़रूरी. उसका ध्यान आकर्षित करने के लिए सिर्फ उसकी ज़ुबान में बोलना ही काफ़ी नहीं है, बल्कि उसीकी तरह सोचना भी चाहिए. मेरी बात वो अच्छी तरह समझता, अगर मुझे तम्बाकू के लिए अफ़सोस होता, अगर मैं बुरा मान जाता, रोने लगता...इसीलिए तो बच्चों का लालन-पालन करने में मम्मी की जगह कोई नहीं ले सकता, वो बच्चे के साथ उसी जैसा महसूस कर सकती है, रो सकती है, ठहाके लगा सकती है...तर्क और नैतिकता से कुछ भी हासिल नहीं होगा. तो फिर, मैं इससे और क्या कहूँ? क्या?’
और येव्गेनी पेत्रोविच को बड़ा अजीब और हास्यास्पद लगा कि उसके जैसा अनुभवी वकील एक बच्चे के सामने टिक नहीं पा रहा है, समझ नहीं पा रहा है कि बच्चे से क्या कहे.
 “सुन, तू मुझसे प्रॉमिस कर कि तू कभी सिगरेट नहीं पिएगा,” उसने कहा.
 “प्रॉ-मिस!” पेन्सिल को ज़ोर से दबाते हुए चित्र के ऊपर झुकते हुए सिर्योझा गा उठा. “प्रॉ-मि-स! स! स!”
’क्या उसे मालूम भी है कि प्रॉमिस का मतलब क्या होता है?’ बीकोव्स्की ने स्वयँ से पूछा. ‘नहीं, मैं बुरा टीचर हूँ!...स्कूल में ये सारी समस्याएँ घर के मुक़ाबले बड़ी आसानी से सुलझा ली जाती हैं; यहाँ तुम्हारा पाला ऐसे लोगों से पड़ता है, जिन्हें तुम दीवानगी की हद तक प्यार करते हो, मगर प्यार माँग करता है और चीज़ों को उलझा देता है. अगर ये बच्चा मेरा बेटा न होता, तो मेरे ख़याल इस तरह तितर-बितर न हो जाते!...’
येव्गेनी पेत्रोविच मेज़ के पास बैठ गया और उसने सिर्योझा का एक चित्र अपनी ओर खींचा. इस चित्र में एक घर बना था, तिरछी छत और धुँए वाला, जो, बिजली की तरह, पाईप से टेढ़ी-मेढ़ी लकीर बनाता हुआ कागज़ के ऊपरी सिरे तक चला गया था; घर के पास खड़ा था एक सिपाही, जिसकी आँखों की जगह पर सिर्फ दो बिन्दु बने थे, उसके हाथ में 4 के आकार की संगीन भी थी.
 “आदमी घर से ऊँचा नहीं हो सकता,” वकील साहब ने कहा. “देख: तेरी छत तो सिपाही के कंधे तक ही आ रही है.”
सिर्योझा उसके घुटनों पर चढ़ गया और बड़ी देर तक चुलबुलाता रहा जिससे आराम से बैठ सके.
 “नहीं, पापा!” उसने अपने चित्र की ओर देखकर कहा. “अगर तुम छोटा सिपाही बनाओगे तो उसकी आँखें नज़र नहीं आएँगी.”
क्या इससे बहस कर सकते हो? बेटे के हर रोज़ के निरीक्षण से वकील साहब को इस बात का यक़ीन हो गया था, कि बच्चों की आर्ट के बारे में अपनी ही धारणाएँ होती हैं, जिसे बड़े नहीं समझ सकते. ग़ौर से देखने से बड़ों को सिर्योझा असामान्य प्रतीत होगा. वो घरों से ऊँचे लोग बना सकता था, पेन्सिल से चीज़ों के अलावा अपने भाव भी प्रदर्शित कर सकता था. जैसे कि ऑर्केस्ट्रा की आवाज़ को वो गोल-गोल, धुएँ जैसे धब्बों से दिखा सकता था, सीटी की आवाज़ को – स्प्रिंग जैसी लकीर से...उसकी समझ में आवाज़ का आकार और रंग से गहरा सम्बन्ध है, इसलिए, अक्षरों में रंग भरते समय वो हर बार ‘ल’ अक्षर को पीले रंग से रंगता, ‘म’ को –लाल से, ‘ए’ को – काले रंग से वगैरह.
चित्र फेंककर सिर्योझा फिर से कुलबुलाया, आरामदेह पोज़ीशन में बैठ गया और पिता की दाढ़ी से खेलने लगा. पहले उसने बड़ी देर तक उसे सहलाया, फिर उसे दो हिस्सों में बाँट दिया और कल्लों की तरह उनमें कंघी करने लगा.
 “अब तुम इवान स्तेपानोविच जैसे लग रहे हो,” वो बड़बड़ाया, “और, अब लगोगे किसके जैसे...हमारे दरबान जैसे. पापा, ये दरबान दरवाज़ों के पास क्यों खड़े रहते हैं? जिससे कि चोर अन्दर न जा सकें?”
वकील चेहरे पर उसकी साँसों को महसूस कर रहा था, वह बार-बार अपने गाल से उसके बाल छू लेता, और उसके दिल में गर्माहट और नर्मी का एहसास होता, जैसे कि न सिर्फ उसके हाथ, बल्कि पूरी आत्मा ही सिर्योझा के जैकेट के मखमल पर लेटी हो. उसने बच्चे की काली, बड़ी-बड़ी आँखों की ओर देखा और उसे महसूस हुआ कि चौड़ी पुतलियों से उसकी ओर झाँक रही है माँ और पत्नी, और हर वो चीज़, जिसे वह कभी प्यार करता था.
’लो, अब कर लो इसकी पिटाई,’ उसने सोचा. ‘सोचो तो ज़रा सज़ा के बारे में! नहीं, हम कहाँ कर सकते हैं बच्चों का लालन-पालन! पहले लोग सीधे-सादे होते थे, कम सोचते थे, इसीलिए समस्याएँ भी बहादुरी से सुलझा लेते थे. और हम बहुत ज़्यादा सोचते हैं, तर्क-कुतर्क खा गया है हमको...’
दस के घण्टे बजे.
 “चल, बेटा, सोने का टाईम हो गया,” वकील साह्ब ने कहा. “गुड नाईट, अब जाओ.”
 “नहीं, पापा,” सिर्योझा ने त्यौरियाँ चढ़ाईं, “मैं कुछ देर और बैठूँगा. मुझे कुछ सुनाओ! कहानी सुनाओ!”
 “ठीक है, मगर कहानी के बाद – एकदम सोना होगा.”
“सुन,” उसने छत की ओर देखते हुए कहा. “किसी राज्य में, किसी शहर में एक बूढ़ा, खूब बूढ़ा राजा रहता था. उसकी बहुत लम्बी दाढ़ी थी और...और ऐसी लम्बी मूँछें... तो, वो रहता था काँच के महल में, जो सूरज की रोशनी में ऐसे चमचमाता था जैसे ख़ालिस बर्फ का बड़ा टुकड़ा हो. महल तो, भाई मेरे, ये ब्बड़े बाग़ में था, जहाँ, मालूम है, संतरे लगा करते थे..., बड़े-बड़े नींबू...चेरीज़,....घण्टे के फूल... गुलाब, लिली, तरह-तरह के पंछी गाते थे...हाँ...पेड़ों पे काँच की घण्टियाँ लटकतीं, जो, जब हवा चलती, तो इतनी नज़ाकत से बजतीं कि बस सुनते ही रहो. काँच की आवाज़ धातु से ज़्यादा नाज़ुक होती है... और, क्या? बाग़ में फ़व्वारे थे...याद है, तूने सोन्या आण्टी की समर कॉटेज में फ़व्वारा देखा था? बिल्कुल वैसे ही फ़व्वारे थे राजा के बाग में, मगर वे काफ़ी बड़े थे और पानी की धार सबसे ऊँचे पीपल के सिरे तक पहुँचती थी.
येव्गेनी पेत्रोविच ने कुछ देर सोचने के बाद आगे कहा:
“बूढ़े राजा का इकलौता बेटा और राज्य का वारिस – उतना ही छोटा था, जितने तुम हो. वो अच्छा बच्चा था. वो कभी भी ज़िद नहीं करता था, जल्दी सो जाता था, मेज़ की किसी चीज़ को हाथ नहीं लगाता और...और वाक़ई में होशियार था. बस, एक ही कमी थी उसमें – वो सिगरेट पीता था.”
सिर्योझा बड़े तनाव में सुन रहा था और, पलकें झपकाए बिना पिता की आँखों में देख रहा था. वकील साहब कह रहे थे और सोच रहे थे : ‘आगे क्या?’ वह बड़ी देर तक इधर-उधर की बातें कहते रहे और कहानी को उन्होंने इस तरह ख़त्म किया:
 “सिगरेट पीने के कारण राजकुमार को टी.बी. हो गई और वह मर गया, जब उसकी उमर सिर्फ बीस साल थी. बीमार, जर्जर बूढ़ा बिना किसी सहारे के रह गया. राज चलाने वाला और महल की रक्षा करने वाला कोई न रहा. दुश्मनों ने हमला कर दिया, बूढ़े को मार डाला, महल को बर्बाद कर दिया, और अब बाग में न तो कोई चेरीज़ थीं, ना ही कोई पंछी, ना घण्टियाँ....तो, मेरे भाई...”
ऐसा अंत तो ख़ुद येगेनी पेत्रोविच को भी बहुत मासूम और हास्यास्पद प्रतीत हुआ, मगर सिर्योझा पर इस पूरी कहानी ने बड़ा गहरा प्रभाव डाला. उसकी आँखों में डर और दर्द तैर गए; वो एक मिनट सोच में डूबकर अंधेरी खिड़की की ओर देखता रहा, कँपकँपाया और मरी-सी आवाज़ में बोला:
 “मैं अब कभी सिगरेट नहीं पिऊँगा...”
जब वह बिदा लेकर सोने चला गया, तो पिता कमरे के एक कोने से दूसरे कोने तक ख़ामोशी से घूमते रहे और मुस्कुराते रहे.
’यहाँ साहित्य ने अपना प्रभाव डाला है,’ वो सोच रहे थे. ‘चलो, ये भी ठीक है. मगर ये असली तरीका नहीं है...नैतिकता और सत्य को ख़ूबसूरत जामा पहनाना ही क्यों ज़रूरी है? दवा मीठी ही होनी चाहिए, सत्य ख़ूबसूरत होना चाहिए...ये आदम के ज़माने से चला आ रहा है...शायद यही सही है, और ऐसा ही होना चाहिए...’
वह अपना काम करने लगे, और अलसाए हुए, घरेलू विचार काफ़ी देर तक उनके दिमाग़ में तैरते रहे.
 
                                              *****     

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

Grisha

ग्रीशा
लेखक: अंतोन चेखव
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

ग्रीशा, छोटा-सा, गुबला-गुबला बच्चा, जो दो साल आठ महीने पहले पैदा हुआ था, पेड़ों वाले गलियारे में अपनी आया के साथ घूम रहा है. उसने रुई वाली लम्बी ड्रेस पहनी है, गर्दन पर स्कार्फ है, बड़ी-सी हैट- रोएँदार बटन वाली - और गरम गलोश पहने हैं. उसका दम घुट रहा है, उसे गर्मी लग रही है, और ऊपर से अप्रैल का दमकता सूरज सीधे आँखों पर मार कर रहा है और पलकों में चुभ रहा है.     
उसका पूरा बेढंगा, अविश्वास से सहम-सहमकर चलता हुआ शरीर बेहद फूहड़ लग रहा है.
अब तक ग्रीशा को सिर्फ चार कोनों वाली दुनिया ही मालूम थी, जिसमें एक कोने में उसका पलंग, दूसरे में - आया का सन्दूक, तीसरे में कुर्सी, और चौथे में  - छोटा सा लैम्प. अगर पलंग के नीचे झाँककर देखो, तो एक हाथ टूटी गुड़िया और ड्रम दिखाई देगा, और आया के सन्दूक के पीछे कई सारी चीज़ें दिखाई देंगी: धागों के रील, कागज़, बिना ढक्कन वाला डिब्बा और एक टूटा हुआ जोकर. इस दुनिया में, आया और ग्रीशा के अलावा, अक्सर मम्मा और बिल्ली भी होते हैं. मम्मा गुड़िया जैसी है, और बिल्ली पापा के ओवरकोट जैसी. बस, सिर्फ ओवरकोट की आँखें और पूँछ नहीं होती. उस दुनिया से, जिसे बच्चों का कमरा कहते हैं, एक दरवाज़ा जाता है उस भाग में जहाँ खाना खाते हैं और चाय पीते हैं. वहाँ ऊँची टाँगों वाली ग्रीशा की कुर्सी है और एक घड़ी लटक रही है, जो है सिर्फ इसलिए कि पेंडुलम को हिलाती रहे और बजती रहे. डाईनिंग रूम से उस कमरे में जा सकते हैं, जहाँ ख़ूबसूरत कुर्सियाँ रखी हैं. वहाँ कालीन पर एक काला धब्बा पड़ा है जिसके लिए अभी तक ग्रीशा को ऊँगलियों से धमकाया जाता है. इस कमरे के पीछे एक और कमरा है, जहाँ उसे नहीं ले जाते, और जहाँ दिखाई देती है सिर्फ पापा - एक बहुत ही रहस्यमय व्यक्ति - की झलक. आया और मम्मा तो समझ में आ जाती हैं: वे ग्रीशा को कपड़े पहनाती हैं, खाना खिलाती हैं और सुलाती हैं, मगर पापा किसलिए हैं – पता नहीं. एक और भी रहस्यमय व्यक्ति है – ये है आण्टी, जिसने ग्रीशा को ड्रम दिया था. वो कभी दिखाई देती है, कभी ग़ायब हो जाती है. वो कहाँ ग़ायब हो जाती है? ग्रीशा ने कई बार पलंग के नीचे, सन्दूक के पीछे और दीवान के नीचे भी झाँक कर देखा मगर वो वहाँ नहीं थी...
इस नई दुनिया में, जहँ सूरज आँखों में चुभ रहा है, इत्ते सारे पापा, मम्मा और आण्टी हैं कि समझ में नहीं आता कि किसके पास भागें. मगर सबसे ज़्यादा अचरज भरी चीज़ है – घोड़े. ग्रीशा उनके चलते हुए पैरों की ओर देखता है और कुछ भी समझ नहीं पाता: वो आया की ओर देखता है, जिससे कि वो उसे समझा सके, मगर वो ख़ामोश ही रहती है.
अचानक उसे पैरों की भयानक धम्-धम् सुनाई देती है...पेड़ों वाले रास्ते पर, सधे हुए क़दमों से, सीधे उसकी ओर आ रहा है सैनिकों का झुण्ड, लाल-लाल चेहरों वाला, और बगल में दबी हैं नहाने वाली झाडुएँ. डर के मारे ग्रीशा ठण्डा पड़ जाता है और वह प्रश्नार्थक मुद्रा से आया की ओर देखता है – कोई ख़तरे की बात तो नहीं है? मगर आया ना तो भागती है, ना ही रोती है, मतलब ख़तरे की कोई बात नहीं है. ग्रीशा आँखों से सैनिकों को बिदा करता है और ख़ुद भी उनकी ताल पर चलने लगता है.
रास्ते पर दो बड़ी-बड़ी बिल्लियाँ भाग रही हैं अपने लम्बे मुँह लिए, जीभ बाहर निकाले और पूँछ ऊपर उठाए. ग्रीशा सोचता है कि उसे भी भागना चाहिए, और वो बिल्लियों के पीछे भागता है.
 “रुक!” बड़ी बेदर्दी से उसके कंधे पकड़कर आया चिल्लाती है. “कहाँ जा रहा है? क्या तुझे शरारत करने की इजाज़त मिल गई है?”
कोई एक आया बैठी है और हाथों में संतरों का एक टब पकड़े है. ग्रीशा उसके पास से गुज़रता है और चुपचाप एक संतरा ले लेता है.
 “ये क्यों किया तूने?” उसके हाथों पे मारते हुए और संतरा छीनते हुए उसकी वाली आया चीख़ी. – बेवकूफ़!”
अब ग्रीश्का ख़ुशी-ख़ुशी वो वाला शीशे का टुकड़ा उठा लेता, जो उसके पैरों के पास पड़ा है और जो लैम्प की तरह चमक रहा है, मगर वह डरता है कि उसे फिर से हाथ पर मार पड़ेगी.
 “नमस्ते!” अचानक ग्रीशा को ठीक अपने कान के ऊपर किसी की भारी, मोटी आवाज़ सुनाई देती है और वो चमकती बटनों वाले एक ऊँचे आदमी को देखता है.
ग्रीशा के अचरज का ठिकाना न रहा, जब इस आदमी ने आया से हाथ मिलाया, उसके पास ठहर गया और बातें करने लगा. सूरज की चमक, गाड़ियों का शोर, घोड़े, चमकते बटन, ये सब इतना नया और डरावना है, कि ग्रीशा की रूह प्रसन्नता से भर गई और वह खिलखिलाने लगा.
 “ जाएँगे! जाएँगे!” वो चमकीले बटनों वाले आदमी के कोट की पूँछ पकड़कर चिल्लाया.
 “कहाँ जाएँगे?” उस आदमी ने पूछा.
 “जाएँगे!” ग्रीशा ज़िद करने लगा.
वो ये कहना चाहता था, कि अपने साथ पापा को, मम्मा को और बिल्ली को भी ले जाना अच्छा रहेगा, मगर ज़ुबान वो सब नहीं कहती है, जो ग्रीशा कहना चाहता है.
कुछ देर के बाद आया पेड़ों वाले रास्ते से मुड़ती है और ग्रीशा को एक बड़े आँगन में ले जाती है, जहाँ अभी तक बर्फ़ है. चमकीली बटनों वाला आदमी भी उनके साथ चल रहा है. बर्फ के ढेर और पानी के डबरे पार करते हैं, फिर गन्दी, अंधेरी सीढ़ी से एक कमरे में आते हैं. वहाँ बहुत धुआँ है और कोई औरत भट्टी के पास खड़े होकर कटलेट्स बना रही है. रसोईन और आया एक दूसरे को चूमती हैं और उस आदमी समेत बेंच पर बैठकर धीमे-धीमे बातें करने लगती हैं. गरम कपड़ों में लिपटे ग्रीशा को बेहद गरम लग रहा है, उसका दम घुट रहा है.
”ऐसा क्यों हो रहा है?” वो इधर-उधर देखते हुए सोचता है.
वो देखता है काली छत, भट्टी से ब्रेड निकालने का दो सींगों वाला चिमटा, भट्टी, जो अपनी बड़े काले छेद से देख रही थी...
 “मा-S-S-S-मा” वो चिल्लाता है.
 “बस,बस,बस!” आया चिल्लाती है, “थोड़ा रुक!” रसोईन मेज़ पर बोतल, तीन छोटे-छोटे गिलास और केक रखती है. दो औरतें और चमकीले बटनों वाला आदमी अपने-अपने गिलास एक दूसरे से टकराते हैं और कई बार पीते हैं, और वो आदमी या तो आया को या रसोईन को अपनी बाँहों में लेता है. और फिर सब धीमी आवाज़ में गाने लगते हैं.
ग्रीशा केक की ओर हाथ बढ़ाता है, और वे उसे केक का छोटा-सा टुकड़ा देते हैं. वो खाता है और देखता है कि आया कैसे पी रही है...उसका दिल भी पीने को करने लगा.
 “दे! आया, दे!” वो कहता है.
रसोईन उसे अपने गिलास से चुस्की लेने देती है. उसकी आँखें फैल जाती हैं, माथे पे बल पड़ जाते हैं, वो खाँसता है और फिर बड़ी देर तक हाथों को हिलाता रहता है, और रसोईन उसकी ओर देखती है और हँसती है.
घर लौटने के बाद ग्रीशा मम्मा को, दीवारों को और पलंग को सुनाने लगता है कि वो कहाँ गया था और उसने क्या-क्या देखा. वो ज़ुबान से उतना नहीं कहता, जितना उसका चेहरा और उसके हाथ कहते हैं. वो दिखाता है कि सूरज कैसे चमकता है, घोड़े कैसे दौड़ते हैं, डरावनी भट्टी कैसे देखती है और रसोईन कैसे पीती है...
शाम को वह किसी भी तरह सो नहीं पाता. झाड़ुओं वाले सैनिक, बड़ी वाली बिल्लियाँ, घोड़े, छोटा-सा शीशा, संतरों वाला छोटा-सा टब, चमचमाते बटन, - सब कुछ गड्ड-मड्ड हो गया था और उसके दिमाग पे बोझ डाल रहा था. वो इस करवट से उस करवट पलटता रहता है, पैर पटकता है और आख़िर में अपने जोश को बर्दाश्त न करने के कारण रोने लगता है.
 “अरे, तुझे तो बुखार है!” मम्मा उसके माथे को छूते हुए कहती है. “ये कैसे हो गया?”
“भट्टी!” ग्रीशा रोता है. “भट्टी, तू जा यहाँ से!”
 “शायद इसने ज़्यादा खा लिया था...” मम्मा ने फ़ैसला कर लिया.
और नई, अभी-अभी देखी हुई ज़िन्दगी के अनुभवों से हैरान ग्रीशा को मम्मा कॅस्टर-ऑइल का चम्मच पिलाती है.
   

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गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

Grand master's Hat

ग्रैण्डमास्टर की हैट
लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

उस दिन मैंने सुबह-सुबह जल्दी से होम वर्क कर लिया, क्योंकि वो बिल्कुल कठिन नहीं था.
सबसे पहले मैंने बाबा-ईगा (रूसी लोक कथाओं की डायन) के घर का चित्र बनाया, जिसमें वो खिड़की के पास बैठकर अख़बार पढ़ रही है. फिर “हमने शेड बनाया” इस वाक्य की रचना की. बस, इसके अलावा कुछ और था ही नहीं. तो, मैंने ओवरकोट पहना, ताज़ी ब्रेड का एक टुकड़ा लिया और घूमने निकल पड़ा. दोनों ओर पेड़ों वाली हमारी सड़क के बीचोंबीच एक तालाब है, और तालाब में हँस, कलहँस और बत्तख़ें तैरती रहती हैं.
उस दिन ख़ूब तेज़ हवा चल रही थी. पेड़ों की सारी पत्तियाँ एकदम उलटी हो रही थीं, और तालाब भी पूरा ऊपर-नीचे हो रहा था, जैसे हवा के कारण खुरदुरा-खुरदुरा हो गया हो.
जैसे ही मैं सड़क पर आया, मैंने देखा कि आज वहाँ क़रीब-क़रीब कोई भी नहीं है, बस, सिर्फ दो अनजान लड़के सड़क पर भाग रहे हैं, और बेंच पर एक अंकल बैठकर अपने आप से ही शतरंज खेल रहे हैं. वो बेंच पर तिरछे बैठे हैं, और उनके पीछे पड़ी है उनकी हैट.
तभी अचानक खूब ज़ोर की हवा चली, और अंकल की हैट हवा में उड़ने लगी. शतरंज के खिलाड़ी का ध्यान ही नहीं गया, वो बस बैठे हैं और अपने खेल में मगन हैं. शायद वो अपने खेल में पूरी तरह डूब गए थे, और दुनिया की हर चीज़ के बारे में भूल गए थे. मैं भी, जब पापा के साथ शतरंज खेलता हूँ, तो अपने चारों ओर की किसी भी चीज़ पर ध्यान नहीं देता, क्योंकि जीतने की धुन जो सवार रहती है! और ये हैट तो ऊपर उड़ने के बाद धीरे-धीरे नीचे उतरने लगी, और वो ठीक उन अनजान लड़कों के सामने उतरी जो सड़क पर खेल रहे थे. उन्होंने फ़ौरन उसकी ओर हाथ बढ़ाए. मगर बात तो कुछ और ही हुई, क्योंकि हवा जो चल रही थी! हैट ऊपर की ओर ऐसे उछली, मानो वो ज़िन्दा हो, इन लड़कों के सिरों के ऊपर से उड़ते हुए बड़ी ख़ूबसूरती से तालाब पर उतर गई! मगर वो पानी में नहीं गिरी, बल्कि सीधे एक हँस के सिर पर जाकर बैठ गई. बत्तखें तो खूब डर गईं, और कलहँस भी डर गए. वो हैट के डर से एकदम तितर-बितर हो गए. मगर हँसों को तो उल्टे मज़ा आ रहा था, कि ये क्या अजीब बात हो गई है, और वे सब हैट वाले हँस की ओर लपके. वो अपनी पूरी ताक़त से सिर हिलाए जा रहा था, जिससे हैट को दूर फेंक सके, मगर वो वहाँ से हटने का नाम ही नहीं ले रही थी. सारे हँस इस विचित्र चीज़ को देख-देखकर आश्चर्यचकित हो रहे थे.
तब किनारे पर खड़े अनजान लड़के हँसों को अपनी ओर बुलाने लगे. वे सीटी बजाने लगे:
”फ्यू-फ्यू-फ्यू!”
जैसे कि हँस - कुत्ता हो!
मैंने कहा:
 “अब मैं ब्रेड फेंककर उन्हें अपनी ओर बुलाऊँगा, और तुम लोग कोई लम्बा डंडा ढूँढ़कर ले आओ. हैट तो उस शतरंज के खिलाड़ी को देना ही चाहिए. हो सकता है, कि वो ग्रैण्डमास्टर हो...”
और मैंने अपनी जेब से ब्रेड बाहर निकाली और उसके बारीक-बारीक टुकड़े करके पानी में फेंकने लगा.   
तालाब में जितने भी हँस थे, और कलहँस थे, और बत्तखें थीं, सब तैरते हुए मेरी तरफ़ आने लगे. किनारे के पास वो धक्कामुक्की और भीड़-भड़क्का हो गया कि पूछो मत. जैसे पंछियों का बाज़ार लगा हो! हैट वाला हँस भी धक्के मारते हुए आया और उसने ब्रेड के लिए अपना सिर झुकाया, और आख़िरकार, हैट उसके सिर से फिसल ही गई!
वो हमारे काफ़ी पास तैर रही थी. तभी वे अनजान लड़के भी आ गए. वे कहीं से मोटा-सा खंभा उठा लाए थे, और खंभे के सिरे पर थी एक कील. लड़के फ़ौरन उस हैट को हिलगाने लगे. मगर बस थोड़े में ही रह गए. तब उन्होंने एक दूसरे का हाथ पकड़ा, और एक ‘चेन’ बन गई; और वो, जिसके हाथ में खंभा था, हैट को हिलगाने लगा.
मैंने उससे कहा:
 “तू कील को ठीक बीचोंबीच गड़ाने की कोशिश कर! और फिर उसे खींच ले, जैसे मछली को खींचता है, समझा?”
मगर वो बोला:
 “अरे, मैं तो, तालाब में, बस गिरने ही वाला हूँ क्योंकि इसने मुझे कसके नहीं पकड़ा है.”
मगर मैंने कहा:
 “चल, हट मैं करता हूँ!”
 “दूर हट! वर्ना मैं धड़ाम से गिर ही जाऊँगा!”
“तुम दोनों मुझे ओवरकोट की बेल्ट से पकड़ो!”
वे मुझे पकड़े रहे. और मैंने दोनों हाथों से खम्भे को पकड़ा, पूरा का पूरा आगे को झुका, और ऐसे ज़ोर से हाथों को घुमाया, मगर धम् से मुँह के बल गिर पड़ा! ये तो अच्छा हुआ कि ज़ोर से नहीं लगी, क्योंकि वहाँ कीचड़ था, इसलिए ज़्यादा दर्द नहीं हुआ.
मैंने कहा:
 “ये कैसे पकड़ा तुम लोगों ने? अगर आता नहीं है, तो करो मत!”
वे बोले:
 “नहीं, हमने अच्छा ही पकड़ा था! ये तो तेरी बेल्ट उखड़ गई. कपड़े समेत.”
मैंने कहा:
 “उसे मेरी जेब में रख दो, और तुम ख़ुद मुझे कोट से पकड़ो, बिल्कुल किनारे से. ओवरकोट तो नहीं न फटेगा! चलो!”
मैं फिर से खम्भे समेत हैट की ओर झुका. मैंने कुछ देर इंतज़ार किया, जिससे हवा उसे मेरे और पास धकेल दे. मैं पूरे समय खम्भे को चप्पू जैसे घुमाकर उसे अपनी ओर खींच रहा था. शतरंज के खिलाड़ी को उसकी हैट लौटाने की खूब जल्दी हो रही थी. हो सकता है कि वो वाक़ई में ग्रैण्डमास्टर हो? ये भी हो सकता है कि वो ख़ुद बोत्विन्निक हो! बस, यूँ ही घूमने निकल पड़ा हो, और बस. ज़िन्दगी में ऐसे भी किस्से हो जाते हैं! मैं उसे हैट दूँगा, और वो कहेगा, “थैन्क्यू, डेनिस!”
इसके बाद मैं उसके साथ फोटो खिंचवाऊँगा और सब को दिखाया करूँगा...
ये भी हो सकता है कि वो मेरे साथ एक ‘गेम’ खेलने के लिए तैयार हो जाए? और, मान लो, अचानक, मैं जीत जाऊँ? ऐसी घटनाएँ भी हो जाती हैं!”
अब हैट तैरते हुए कुछ और पास आ गई थी, मैंने लपककर ठीक सिर वाली जगह पे कील चुभा दी. अनजान लड़के चिल्लाए:
 “हुर्रे!”
और मैंने हैट को कील से निकाला. वो एकदम गीली और भारी हो गई थी. मैंने कहा:
 “इसे निचोड़ना पड़ेगा!”
उनमें से एक लड़के ने एक तरफ़ से हैट का किनारा पकड़ा और उसे बाईं ओर घुमाने लगा. और मैं इसके विपरीत, दूसरी ओर से दाईं तरफ़ घुमाने लगा. हैट में से पानी बाहर निकलने लगा..
हमने खूब ज़ोर लगाकर उसे निचोड़ा, वो बिल्कुल बीचोंबीच टूट भी गई. और वो लड़का, जो कुछ नहीं कर रहा था, बोला:
 “अब सब ठीक है. इधर लाओ. मैं उसे अंकल को दे दूंगा.”
मैंने कहा:
 “ये भी ख़ूब रही! मैं ख़ुद ही दूँगा.”
तब वो हैट को अपनी ओर खींचने लगा, और दूसरा लड़का अपनी ओर. और मैं अपनी ओर. हमारे बीच झगड़ा होने लगा. उन्होंने हैट का अस्तर बाहर निकाल दिया. और पूरी हैट मेरे हाथ से छीन ली.
मैंने कहा:
 “मैंने ब्रेड के लालच से हँसों को अपनी तरफ़ खींचा था, मैं ही इसे वापस लौटाऊँगा!”
वे बोले:
 “कील वाला खम्भा कौन लाया था?”
मैंने कहा:
 “और बेल्ट किसके ओवरकोट की फटी थी?”
तब उनमें से एक ने कहा:
”ठीक है, इसे छोड़ देते हैं, मार्कूश्का! घर में बेल्ट के लिए तो इसकी ख़बर ली ही जाएगी!”
मार्कूश्का ने कहा:
”ले, रख ले अपनी मनहूस हैट,” और उसने गेंद की तरह पैर से मेरी ओर हैट फेंक दी.
मैंने हैट को उठाया और फ़ौरन सड़क के आख़िरी छोर की ओर भागा जहाँ शतरंज का खिलाड़ी बैठा था. मैं भागकर उसके पास गया और बोला:
 “अंकल, ये रही आपकी हैट!”
 “कहाँ?” उसने पूछा.
 “ये,” मैंने कहा और हैट उसकी ओर बढ़ा दी.
 “तू गलत कह रहा है, बच्चे! मेरी हैट यहीं है.” और उसने मुड़कर पीछे देखा.
वहाँ तो, ज़ाहिर है, कुछ था ही नहीं.
तब वो चीख़ा:
 “ये क्या है? मेरी हैट कहाँ है, मैं तुझसे पूछ रहा हूँ?”
मैं थोड़ा दूर हट कर  बोला:
“ये रही. ये. क्या आप देख नहीं रहे हैं?”
अंकल की तो मानो साँस ही रुक गई:
 “ये भयानक मालपुए जैसी चीज़ तू क्यों मेरी नाक में घुसेड़ रहा है? मेरी हैट एकदम नई थी, वो कहाँ है? फ़ौरन जवाब दे!”
मैंने उनसे कहा:
 “आपकी हैट को हवा उड़ाकर ले गई, और वो तालाब में गिर गई. मगर मैंने कील से हिलगा लिया. फिर हमने उसे निचोड़ा और पानी बाहर निकाल दिया. ये रही वो. लीजिए...और ये रहा उसका अस्तर!”
उसने कहा:
 “मैं अभ्भी तुझे तेरे माँ-बाप के पास ले जाता हूँ!!!”
 “मम्मा इन्स्टीट्यूट में है. पापा फैक्टरी में. आप, इत्तेफ़ाक से, कहीं बोत्विन्निक तो नहीं हैं?”
वो पूरी तरह तैश में आ गया:
 ‘भाग जा, लड़के! मेरी आँखों के सामने से दूर हो जा! वर्ना मैं तेरी धुलाई कर दूँगा!”
मैं कुछ और पीछे सरका और बोला:
 “क्या हम शतरंज खेलें?”
उसने पहली बार ध्यान से मेरी ओर देखा.
 “क्या तुझे खेलना आता है?”
मैंने कहा:
 “हुँ!”
तब उसने गहरी साँस लेकर कहा:
 “अच्छा, चल बैठ!”
                                             *****