शनिवार, 26 जनवरी 2019

Lomdi aur Bhaloo




लोमड़ी और भालू
लेखक : व्लादीमिर दाल्
अनुवाद : आ. चारुमति रामदास

एक थी लोमड़ी-मौसी;  बुढ़ापे में अपने-आप अपना इंतज़ाम करना उसे बहुत बुरा लगता था, तो वो आई भालू के पास और उससे बिनती करने लगी कि उसे अपने घर में रहने दे:
“मुझे भीतर आने दो, मिखाइलो पतापिच, मैं लोमड़ी बूढ़ी, समझदार, जगह लूँगी बेहद कम, ज़्यादा नहीं खाऊँगी, ज़्यादा नहीं पिऊँगी, तुम्हारे खाने के बाद जो बचेगा, वो ही खाऊँगी, हड्डियाँ साफ़ करूँगी.”
भालू बिना सोचे-समझे तैयार हो गया. लोमड़ी भालू के घर रहने के लिए आ गई और हर चीज़ ग़ौर से देखने और सूँघने लगी कि उसके घर में कहाँ क्या रखा है. मीशेन्का को संग्रह करने की आदत थी, ख़ुद पेट भर के खाता, और लोमड़ी को भी अच्छी तरह खिलाता.
एक बार लोमड़ी को ड्योढ़ी में शेल्फ पर शहद का बर्तन दिखाई दिया, और लोमड़ी और भालू, दोनों को ही मीठा बहुत अच्छा लगता है; रात को वह लेटी और सोचने लगी, कि कैसे जाकर शहद चाटे, पूँछ से ठकठकाने लगी और लगी भालू से पूछने:
“मीशेन्का, क्या कोई हमारा दरवाज़ा खटखटा रहा है?”
भालू ने सुना.
सही है,” वह बोला, “खटखटा रहे हैं.”
“ये, मतलब, मेरे लिए, बूढ़ी डॉक्टरनी के लिए आए हैं.”
“तो क्या,” भालू ने कहा, “जाओ.”
“ओह, चचा, उठने का बिल्कुल मन नहीं है!”
“अरे, जा भी,” भालू ने कहा, “मैं तेरे पीछे दरवाज़ा भी बंद नहीं करूँगा.
लोमड़ी ने आह-आह किया, भट्टी से उतरी, मगर जैसे ही दरवाज़े से बाहर निकली, उसने फुर्ती से काम किया! शेल्फ पर चढ़ गई और शहद के जार पे लपकी; खाती रही, खाती रही, पूरी ऊपरी सतह खा गई, पेट भर खाया; जार पर कपड़ा बांधा, उस पर ढक्कन रखा, ऊपर से पत्थर रखा, सब कुछ वैसा ही ठीक-ठाक कर दिया जैसा भालू करता था, और झोंपड़ी मे ऐसे लौटी, जैसे कुछ हुआ ही न हो.
भालू ने उससे पूछा:
क्या, मौसी, दूर गई थी क्या?”
“करीब ही गई थी, चचा; पडोसियों ने बुलाया था, उनका बच्चा बीमार हो गया था.”
“कुछ आराम पड़ा?”
“आराम पड़ा.”
“बच्चे का नाम क्या है?”
“वेर्खूशेच्का, चचा.”
“ये नाम कभी सुना नहीं”, भालू ने कहा.
“लो, सुनो! चचा, दुनिया में अजीब-अजीब नामों की क्या कमी है!”
 भालू सो गया, और लोमड़ी भी सो गई.
लोमड़ी को शहद पसंद आ गया, अगली रात भी वह लेटी और तख़त पर पूँछ से ठकठकाने लगी:
“मीशेन्का, कहीं फिर तो कोई खटखटा नहीं रहा है?”
भालू ने ग़ौर से सुना और बोला:
“सही है, मौसी, खटखटा रहे हैं!”
“मतलब, मुझे बुलाने आए हैं!”
“तो क्या, मौसी, जाओ,” भालू ने कहा.
“ओह, चचा, उठने का, बूढ़ी हड्डियाँ तोड़ने का मन नहीं हो रहा है!”
“ चल, जा,” भालू बोला, “ मैं तेरे पीछे दरवाज़ा बंद नहीं करूँगा.”
  लोमड़ी ने आह-आह किया, भट्टी से उतरी, दरवाज़े की तरफ़ आई, मगर जैसे ही दरवाज़े से बाहर निकली, उसने फुर्ती से काम किया! शेल्फ पर चढ़ गई और शहद के जार पे लपकी; खाती रही, खाती रही, बीच वाला पूरा हिस्सा खा गई, पेट भर के खाया; जार पर कपड़ा बांधा, उस पर ढक्कन रखा, ऊपर से पत्थर रखा, सब कुछ वैसा ही ठीक-ठाक कर दिया और झोंपड़ी मे लौटी.
भालू ने उससे पूछा:
“क्या दूर गई थीं, मौसी?”
“पास ही गई थी, चचा. पड़ोसियों ने बुलाया था, उनके बच्चे की तबियत बिगड़ गई थी.”
“क्या आराम पड़ा?”
“आराम पड़ा.”
“बच्चे का नाम क्या है?”
“सिर्योदच्का, चचा.”
“ये नाम कभी सुना नहीं,” भालू ने कहा.
“लो, सुनो! चचा, दुनिया में अजीब-अजीब नामों की क्या कमी है!”
इसके बाद दोनों सो गए.
लोमड़ी को शहद पसंद आ गया; तीसरी रात भी वह लेटी और पूँछ से ठकठकाने लगी और पूछने लगी:
“मीशेन्का, कहीं फिर से तो कोई दरवाज़ा नहीं खटख़टा रहा है?”
भालू ने सुना और कहा:
“सही है, मौसी, खटखटा ही रहे हैं.”
“मतलब, मेरे ही लिए आए हैं.”
“तो क्या, मौसी, अगर बुला रहे हैं, तो जाओ,” भालू ने कहा.
“ओह, चचा, उठने का, बूढ़ी हड्डियाँ तोड़ने का बिल्कुल भी मन नहीं कर रहा है! देख तो रहे हो, एक भी रात सोने नहीं देते!”
“चल, चल, उठ,” भालू ने कहा, “मैं तेरे पीछे दरवाज़ा बंद नहीं करूँगा.”
लोमड़ी ने आह-आह किया, भट्टी से उतरी, दरवाज़े की तरफ़ आई, मगर जैसे ही दरवाज़े से बाहर निकली, उसने फुर्ती से काम किया! शेल्फ पर चढ़ गई और शहद के जार के पे लपकी; खाती रही, खाती रही, बचा-खुचा पूरा शहद खा गई, पेट भर के खाया; जार पर कपड़ा बांधा, उस पर ढक्कन रखा, ऊपर से पत्थर रखा, सब कुछ वैसा ही ठीक-ठाक कर दिया और झोंपड़ी मे लौटी. झोंपड़ी में लौटकर भट्टी पर चढ़ गई और गुड़ी-मुड़ी होकर लेट गई.
भालू लोमड़ी से पूछने लगा:
“दूर गई थीं क्या, मौसी?”
“पास ही, चचा. पड़ोसियों ने बच्चे का इलाज करने के लिए बुलाया था.”
“क्या आराम पड़ा?”
“आराम पड़ा.”
“बच्चे का नाम क्या है?”
“पस्लेदीश्कम, चचा. पस्लेदीश्कम, पतापविच!”
“ऐसा नाम कभी सुना नहीं,” भालू ने कहा. 
“अरे, चचा, दुनिया में क्या कम अजीब नाम होते हैं!”
भालू सो गया, और लोमड़ी भी सो गई.
कुछ समय के बाद लोमड़ी को फिर से शहद की तलब आई – आख़िर लोमड़ी को मीठा जो पसन्द है, - उसने बीमार होने का नाटक किया : आह-ऊह करती रही, भालू को चैन नहीं लेने दिया, पूरी रात खाँसती रही.
“मौसी,” भालू ने कहा, “कुछ ले लेतीं, ठीक हो जातीं.”
“ओह, चचा, मेरे पास नींद की दवा है, उसमें सिर्फ शहद मिलाना पड़ेगा और सब कुछ चुटकियों में ठीक हो जाएगा.”
भालू फर्श से उठा और ड्योढ़ी में आया, जार उतारा – मगर जार तो खाली था!
“शहद कहाँ गया?” भालू चीखा. “मौसी, ये तेरी ही करतूत है!”
लोमड़ी इतना खाँसने लगी, कि उससे जवाब ही देते नहीं बना.
“मौसी, शहद किसने खाया?”
“कैसा शहद?”
“अरे, मेरा, जो जार में था!”
“अगर तेरा था, तो मतलब, तूने ही खाया होगा,” लोमड़ी ने जवाब दिया.
“नहीं,” भालू ने कहा, “मैंने उसे नहीं खाया, वक्त-ज़रूरत के लिए संभाल के रखा था; ये, मतलब, मौसी, तूने ही शरारत की है?”
“आह, तू, कितनी बेइज़्ज़ती की मेरी! मुझ ग़रीब बेचारी अनाथ को अपने घर बुलाया और अब मुझे दुनिया से हटा देना चाहते हो! नहीं, दोस्त, मैं वो नहीं हूँ! मैं, लोमड़ी, पल भर में कुसूरवार को पकड़ लूँगी, पता कर लूँगी कि शहद किसने खाया है.
भालू ख़ुश हो गया और उसने कहा:
“मेहेरबानी करो, मौसी, पता लगाओ!”
“चलो, सूरज के सामने सोते हैं – जिसके पेट से शहद टपकेगा, उसीने उसे खाया है.”
लेट गए, सूरज उन्हें गरमा रहा था. भालू खर्राटे लेने लगा, मगर लोमड़ी – फ़ौरन घर आई: जार से बचा-खुचा शहद निकाला, उसे भालू के बदन पर पोत दिया, और ख़ुद उँगलियाँ धोकर, भालू को जगाने लगी.
“उठ, चोर को ढूँढ़ लिया! मैंने चोर को ढूँढ़ लिया!” – लोमड़ी भालू के कान में चिल्लाई.
“कहाँ?” भालू गरजा.
“ये रहा,” लोमड़ी ने कहा और उसने भालू को दिखाया कि उसका पूरा पेट शहद से लथपथ है. भालू बैठ गया, आँखें मली, पेट पर पंजा फेरा – पंजा तो चिपक गया, और लोमड़ी चिल्लाकर बोली:
“देखा, मिखाइलो पतापविच, सूरज ने तो तेरे भीतर से शहद बाहर निकाल दिया! फिर कभी-भी, चचा, अपना दोष दूसरे के सिर पे न डालना!”
इतना कहकर लोमड़ी ने पूँछ हिला दी, सिर्फ भालू ने ही उसे देखा.  

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सोमवार, 21 जनवरी 2019

Markhani Gaay



मरखनी गाय
                                                    लेखक: कन्स्तान्तिन उशीन्स्की
         अनुवाद: आ. चारुमति रामदास   

हमारे यहाँ एक गाय थी, मगर वह इतनी अजीब, इतनी मरखनी थी, कि मुसीबत! हो सकता है, इसीलिए, शायद, वह दूध भी कम देती थी. माँ और बहनें उससे बेज़ार हो गई थीं.
अक्सर ऐसा होता कि उसे झुण्ड़ में चरने के लिए खदेड़ते, और वो या तो दोपहर को वापस आ जाती, या खेत में मिलती – जाओ, जाकर उसे निकालो! ख़ासकर, जब उसका बछड़ा होता – तब तो उसे रोकना नामुमकिन होता! एक बार तो उसने अपने सींगों से पूरे बाड़े को तहस-नहस कर दिया था, बछड़े के पास भागी थी. उसके सींग लम्बे-लम्बे और एकदम सीधे थे. पापा ने कई बार उसके सींग काट कर छोटे करने की सोची, मगर टालता रहा, जैसे उसे कुछ पूर्वाभास हो गया था.              
और कितनी चंचल और जोशीली थी! कैसे अपनी पूँछ उठाती, सिर नीचे करती, और उछलती – घोड़े पर सवार होकर भी उसे नहीं पकड़ सकते थे.
एक बार गर्मियों में शाम को वह चरवाहे के पास से काफ़ी पहले ही भाग गई : घर में बछड़ा था. मम्मा ने गाय को दुहा, बछड़े को छोड़ा और बहन से – जो करीब बारह साल की थी – बोली” फेन्या, इन्हें नदी पे ले जा, किनारे पर चरने दे, मगर देखना, कि खेत में न घुस जाए. रात होने में अभी काफ़ी वक्त है, यहाँ बेकार क्यों खड़े रहें. 
फ़ेन्या ने डंडा उठाया, बछड़े और गाय को हाँका, किनारे तक ले गई, और ख़ुद विलो के पेड़ के नीचे बैठकर बैंगनी फूलों का मुकुट बनाने लगी, जिन्हें उसने रास्ते में आते-आते तोड़ा था: मुकुट बना रही है और गाना गा रही है. फ़ेन्या ने सुना कि झाड़ियों में कुछ सरसराहट हो रही है, नदी के दोनों तरफ़ घनी झाड़ियाँ थीं.  
फ़ेन्या ने देखा कि कोई भूरी-सी चीज़ घनी झाड़ियों के बीच से आ रही है, और बेवकूफ़ लड़की को ऐसा लगा कि ये हमारा कुत्ता, सेर्को है. ये तो सबको मालूम है कि भेड़िया कुत्ते से बहुत मिलता है, सिर्फ गर्दन आसानी से मुड़ती नहीं है, पूँछ डंडी जैसी, थोबड़ा झुका हुआ और आख़ें चमकती हैं. मगर फ़ेन्या ने तो कभी भी भेड़िये को करीब से देखा नहीं था.
फ़ेन्या कुत्ते को बुलाने लगी , “सेर्को, सेर्को!” – देखती क्या है कि – बछड़ा, और उसके पीछे-पीछे गाय उस पर पागलों की तरफ़ झपट पड़े. फ़ेन्या उछली, विलो के पेड़ से चिपक गई, समझ में नहीं आ रहा था, कि क्या करे, बछड़ा उसकी ओर भागा, और गाय ने अपने पिछले हिस्से से दोनों को पेड़ से दबाए रखा, सिर झुकाया, गरजी, सामने वाले खुरों से ज़मीन खोदने लगी, सींगों को सीधे भेड़िये की तरफ़ मोड़ा.
फ़ेन्या बेहद डर गई, उसने दोनों हाथों से पेड़ को कस कर पकड़ लिया, चिल्लाना चाह रही थी – मगर आवाज़ ही नहीं निकली. और भेड़िया सीधे गाय पर लपका, मगर उछल कर पीछे हट गया – पहली नज़र में ऐसा लगा कि गाय ने उसे सींगों से दबा दिया है. देखा भेड़िये ने कि चालाकी से काम नहीं बनेगा और वह कभी इधर से, तो कभी उधर से लपकने लगा, ताकि एक ओर से किसी तरह गाय से लिपट जाए, या बछड़े को पकड़ ले – मगर हर तरफ़ सींग उसके सामने आ जाते.
फ़ेन्या अभी भी समझने की कोशिश कर रही थी कि माजरा क्या है, वह भागना चाह रही थी, मगर गाय जाने ही नहीं दे रही थी, वैसे ही पेड़ से दबा रही थी.
अब लड़की चिल्लाने लगी, मदद के लिए पुकारने लगी. हमारा कज़ाक वहीं पहाड़ी पर जुताई कर रहा था, उसने सुना कि गाय गरज रही है, और लड़की चिल्ला रही है, उसने अपना हल छोड़ा और चीख की तरफ़ भागा. कज़ाक ने देखा कि क्या हो रहा है, मगर वह खाली हाथों से भेड़िये पर हमला नहीं कर सकता था – भेड़िया काफ़ी बड़ा था और तैश में था; कज़ाक ने अपने बेटे को बुलाया जो वहीं खेत में जुताई कर रहा था.
जैसे ही भेड़िये ने देखा कि लोग भागते हुए आ रहे हैं – वह ढीला पड़ गया, एक दो बार चिल्लाया और झाड़ियों में भाग गया.
फ़ेन्या को कज़ाक मुश्किल से घर ले आए, लड़की इतनी डर गई थी.
पापा इतने ख़ुश हो गए, कि उन्होंने गाय के सींग नहीं काटे थे.
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गुरुवार, 17 जनवरी 2019

Safed Ghar



सफ़ेद घर
लेखक - बरीस झित्कोव
अनुवाद – आ. चारुमति रामदास


हम समुन्दर के किनारे पर रहते थे, और मेरे पापा के पास एक बढ़िया पाल वाली नौका थी. मैं उसे बड़ी अच्छी तरह चला सकता था – चप्पू भी चलाता था, और पाल खींचकर भी जाता था. मगर फिर भी पापा मुझे अकेले समुन्दर में नहीं जाने देते थे. मैं था बारह साल का.
एक बार मुझे और बहन नीना को पता चला कि पापा दो दिनों के लिए घर से दूर जा रहे हैं, और हमने नाव पर उस तरफ़ जाने का प्लान बनाया; खाड़ी के उस तरफ़ एक बहुत अच्छा छोटा सा घर था: सफ़ेद, लाल छत वाला. घर के चारों ओर बगिया थी. हम वहाँ कभी नहीं गए थे, हमने सोचा, कि वहाँ बहुत अच्छा होगा. शायद एक भला बूढ़ा अपनी बुढ़िया के साथ रहता होगा. नीना कहती है, कि उनके पास एक छोटा सा कुत्ता भी होगा, वो भी भला होगा. बूढ़े शायद दही खाते होंगे और हमारे आने से उन्हें ख़ुशी होगी, हमें भी वो दही देंगे.
तो, हमने ब्रेड और पानी के लिए बोतलें बचाना शुरू कर दिया. समंदर में तो पानी नमकीन होता है ना, और अगर अचानक रास्ते में प्यास लगी तो?
पापा शाम को चले गए, और हमने फ़ौरन मम्मा से छुप के बोतल में पानी भर लिया. वर्ना पूछेगी : किसलिए? और, फिर सब गुड़-गोबर हो जाता.
जैसे ही कुछ उजाला हुआ, मैं और नीना हौले से खिड़की से बाहर निकले, अपने साथ नाव में ब्रेड और पानी की बोतलें रख लीं. मैंने पाल लगा दिए, और हम समुंदर में आए. मैं कप्तान की तरह बैठा था, और नीना नाविक की तरह मेरी बात सुन रही थी.
हवा हल्के-हल्के चल रही थी, और लहरें छोटी-छोटी थीं, और मुझे और नीना को ऐसा लग रहा था, मानो हम एक बड़े जहाज़ में हैं, हमारे पास खाने-पीने का स्टॉक है, और हम दूसरे देश को जा रहे हैं. मैं सीधा लाल छत वाले घर की ओर चला. फिर मैंने बहन से नाश्ता बनाने के लिए कहा. उसने ब्रेड के छोटे-छोटे टुकड़े किए और पानी की बोतल खोली. वह नाव में नीचे ही बैठी थी, मगर अब, जैसे ही मुझे नाश्ता देने के लिए उठी, और पीछे मुड़ कर देखा, हमारे किनारे की ओर, तो वह ऐसे चिल्लाई, कि मैं काँप गया:
“ओय, हमारा घर मुश्किल से नज़र आ रहा है!” और वह बिसूरने लगी.
मैंने कहा:
“रोतली, मगर  बूढ़ों का घर नज़दीक है.”
उसने सामने देखा और और भी बुरी तरह चीखी:
“और बूढ़ों का घर भी दूर है : हम उसके पास बिल्कुल नहीं पहुँचे हैं, मगर अपने घर से दूर हो गए हैं!”
वह बिसूरने लगी, और मैं चिढ़ाने के लिए ब्रेड खाने लगा, जैसे कुछ हुआ ही न हो. वह रो रही थी और मैं समझा रहा था;
“वापस जाना चाहती है, तो डेक से कूद जा और तैर कर घर पहुँच जा, मगर मैं तो बूढ़ों के पास जाऊँगा.”
फिर उसने बोतल से पानी पिया और सो गई. मैं स्टीयरिंग पर बैठा रहा, और हवा वैसे ही चल रही है. नाव आराम से जा रही है, और पिछले हिस्से की तरफ़ पानी कलकल कर रहा है. सूरज ऊपर आ गया था.
मैंने देखा कि हम उस किनारे के बिल्कुल नज़दीक आ गए हैं और घर भी साफ़ दिखाई दे रहा है. नीना उठेगी और देखेगी – ख़ुश हो जाएगी! मैंनें इधर-उधर देखा, कि कुत्ता कहाँ है. मगर ना तो कुत्ता, ना ही बूढ़ लोग दिखाई दिए.
अचानक नाव लड़खड़ाई और एक किनारे मुड़ गई. मैंने फौरन पाल उतारे, जिससे पूरी तरह पलट न जाए. नीना उछली. वह अभी तक नींद में थी, वह समझ ही नहीं पाई, कि कहाँ है, और उसने आँखें फाड़ कर देखा. मैंने कहा:
“रेत में घुस गए हैं, उथले पानी में फँस गए हैं, मैं अभी धकेलता हूँ. और, ये रहा घर.”
मगर उसे घर देखकर ख़ुशी नहीं हुई, वह और ज़्यादा डर गई. मैंने कपड़े उतारे, पानी में कूदा और धकेलने लगा.
मैंने पूरी ताकत लगा दी, मगर नाव टस से मस नहीं हुई. मैंने उसे कभी एक तरफ़ तो कभी दूसरी तरफ़ झुकाया. मैंने पाल उतार दिए, मगर कुछ फ़ायदा नहीं हुआ.
नीना चिल्लाकर बूढ़े को मदद के लिए पुकारने लगी. मगर वो घर दूर था, और कोई भी बाहर नहीं आया. मैंने नीना को बाहर कूदने की आज्ञा दी, मगर इससे भी नाव हल्की नहीं हुई: नाव मज़बूती से रेत में धँस गई थी. मैंने पैदल चलकर किनारे की ओर जाने की कोशिश की. मगर जहाँ भी जाओ, सब जगह गहरा पानी था. कहीं जाने का सवाल ही नहीं था. और इतना दूर कि तैरकर जाना भी मुमकिन नहीं था.
और घर से भी कोई बाहर नहीं आ रहा है. मैंने ब्रेड खाई, पानी पिया और नीना से बात नहीं की. वह रो रही थी और कह रही थी:
“ लो, फँसा दिया ना, अब हमें यहाँ कोई नहीं ढूँढ़ पायेगा. समुंदर के बीच उथली जगह पर बिठा दिया. कैप्टन! मम्मा पागल हो जाएगी. देख लेना. मम्मा मुझसे कहती ही थी : “अगर तुम लोगों को कुछ हो गया, तो मैं पागल हो जाऊँगी”.
मगर मैं ख़ामोश रहा. हवा बिल्कुल थम गई. मैं सो गया.
जब मेरी आँख खुली, तो चारों ओर घुप अँधेरा था. नीन्का, नाव की बिल्कुल नोक पर बेंच के नीचे दुबक कर कराह रही थी. मैं उठकर खड़ा हो गया, और पैरों के नीचे नाव हल्के-हल्के, आज़ादी से हिचकोले लेने लगी. मैंने जानबूझकर उसे ज़ोर से हिलाया. नाव आज़ाद हो गई. मैं ख़ुश हो गया! हुर्रे! हम उथले पानी से निकल गए थे. ये हवा ने अपनी दिशा बदल दी थी, उसने पानी को धकेला, नाव ऊपर उठी, और वह उथले पानी से बाहर निकल आई.       
मैंने चारों तरफ़ देखा. दूर रोशनियाँ जगमगा रही थीं – ढेर सारी. ये हमारे वाले किनारे पर थीं : छोटी-छोटी, चिनगारियों जैसी. मैं पाल चढ़ाने के लिए लपका. नीना उछली और पहले तो उसने सोचा कि मैं पागल हो गया हूँ. मगर मैंने कुछ नहीं कहा.
और जब नाव को रोशनियों की ओर मोड़ा, तो उससे कहा;
“क्या, रोतली? घर जा रहे हैं. बिसूरने की ज़रूरत नहीं है.
हम पूरी रात चलते रहे. सुबह-सुबह हवा थम गई. मगर हम किनारे के पास ही थे. हम चप्पू चलाते हुए घर तक पहुँचे. मम्मा गुस्सा भी हुई और ख़ुश भी हुई. मगर हमने उससे विनती की, कि पापा को कुछ न बताए.
बाद में हमें पता चला, कि उस घर में साल भर से कोई भी नहीं रहता है.
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