भगोड़ा अजगर
लेखिका :
इरीना बाबिच
अनुवाद : आ. चारुमति रामदास
पल भर में ही ख़बर फैल गई : ज़ू-पार्क से अजगर ग़ायब हो गया. या, पाइथन. मतलब, साँप. बमबारी के
दिनों में ही पिंजरे में छेद हो गया था, मगर किसी का ध्यान नहीं गया. मगर उसने देख लिया, छेद को चौड़ा किया
और बाहर रेंग गया. पहले उसे सेन्ट्रल पार्क में देखा गया – ज़ू-पार्क वहीं तो था, जिसके पत्थर के
शेरों वाले गेट को सभी बच्चे अच्छी तरह जानते थे. इसके बाद अजगर वन-पार्क में देखा
गया – शहर की सीमा के पार. वह वहाँ कैसे पहुँचा, कैसे उसने रास्ते पार किए, जिन पर गाड़ियाँ गुज़र रही थीं, लोग चल रहे थे –
पता नहीं. और किसी को इसमें दिलचस्पी भी नहीं थी. क्योंकि इस अद्भुत कहानी का अंत
बड़ा विलक्षण था : अजगर ने एक लड़की को पकड़ लिया था.
“समझ रही हो, लड़की, हमारे जैसी – पाँचवीं कक्षा में पढ़ने वाली थी. वह वन-पार्क
में गई थी बनफ़शा के फूल चुनने के लिए, वहीं अजगर ने उसे पकड़ लिया.
मेरी सहेली मूस्का भय और उत्तेजना से हाँफ रही थी. हल्के रंग के उसके बाल खड़े
हो गए थे. चपटी नाक वाला गोलमटोल चेहरा तमतमा रहा था.
“पकड़ लिया और छोड़ ही नहीं रहा.”
“क्या – पकड़ लिया?” अविश्वास से मैंने पूछा. “कैसे? किससे?”
“किससे क्या?!” मूस्का चीख़ी. “बेशक, पंजों से नहीं. क्या तुम ये सोच रही हो, कि साँपों के
पंजे नहीं होते ये बात मुझे मालूम नहीं?”
– और नाटकीय अंदाज़ में फुसफुसाकर आगे बोली : “कुण्डलियों
से! उसके चारों ओर कुण्डलियाँ बनाते हुए लिपट गया और छोड़ ही नहीं रहा है. चारों ओर
– लोगों की भीड़, लड़की की माँ के बाल सफ़ेद हो गए. उसे ख़रगोश दे रहे हैं, मेमना भी दिया –
नहीं लेता.मगर जब उसे सैण्डविच देते हैं, तो वह...” मूस्का अचानक ख़ामोश हो गई, उसकी आँखें
विस्फ़ारित हो गईं और उसने लार निगली, “तो वह उसे नहीं खाता, बल्कि लड़की को देता है. अपने फन में लेता है और उसके
हाथ के पास लाता है.”
“नहीं, ये तो बकवास है,”
मैंने निर्णयात्मक सुर में कहा. “अरे, वो साँप है, ना कि कोई
सूरमा.”
“यकीन नहीं होता?” मूस्का चिल्लाई. “और बन्दर के बारे में भूल गईं?”
सही है, बन्दर के साथ भी किस्सा हुआ था. वह पिंजरे से भाग गया
था, और पार्क के निकट वाले बड़ी-बड़ी खिड़कियों वाले घर पर मंडराता रहा, जब तक कि उसे पकड़
न लिया गया. सन् 1944 का बसन्त था, शहर से नाज़ियों को भगाए जाने के बाद छह महीने भी नहीं
बीते थे. प्रत्यक्षदर्शियों का कहना था, कि ज़ू-पार्क पर मुसीबत ही टूट पड़ी थी : वहाँ बमबारी की
गई थी, वहाँ कई गोले गिरे थे, अनेक पिंजरों को नुक्सान पहुँचा था.
नाज़ियों के घुसने के पहले ही दिन शहर की मुख्य सड़क पर शेर दिखाई दिया. वह
गोलीबारी से बहरा हो गया था, बेहद डरा हुआ था और अपने पिछले ज़ख़्मी पंजे को सिकोड़ते
हुए बेतरतीबी से घरों के सामने से लड़खड़ाते हुए चल रहा था. और वहीं, एक अधजले घर की
दीवार के पास नाज़ी सिपाही ने उस पर गोलियाँ चला दी – “बहादुर” कार से गोलियाँ चला
रहा था.
इस घटना ने नाज़ियों को ज़ू-पार्क जाने पर मजबूर कर दिया. वहाँ सुरक्षित बच गए
पिंजरों में भूखे जानवर घूम रहे थे – उन्हें बाहर नहीं निकाल पाए थे. हमारे
कम्पाऊण्ड के पेत्का ने, जो मेरा जिगरी दोस्त और ज़ू-पार्क ग्रुप का कॉम्रेड था, बताया कि कैसे एक
बार वह रेन्डियर को घास खिलाने ही वाला था, कि रास्ते पर एक अफ़सर और कई सैनिक प्रकट हुए. अक्टूबर
का महीना था, पेड़ों के पत्ते पूरी तरह पीले हो गए थे. और वैसा ही
पीला-सुनहरा, इन पत्तियों जैसा, ज़ूपार्क का सबसे बूढ़ा जानवर – विशाल अयाल वाला सिंह अपने पिंजरे में लेटा
था.
उसका नाम था सोलोमन. पहले, अगर हम ज़ोर से उसका नाम पुकारते थे, तो बूढ़ा शेर अपने
शाही अंदाज़ में अपना ख़ूबसूरत, भारी-भरकम सिर हमारी ओर मोड़ता था. वह पिंजरे में ही
पैदा हुआ था, लोग उसका अपमान नहीं करते थे, इसलिए वह लोगों
से डरता नहीं था और कभी भी अपने सँकरे पिंजरे में गरजते हुए और गुस्से से नहीं
घूमता था.
“सो-लो-म-न!” अफ़सर ने ज़ोर से पट्टिका पर लिखा नाम पढ़ा और ठहाका लगाने लगा.
उसने सिंह की तरफ़ उँगली से इशारा किया और कहा : - “यूदे”.
पेत्का इस शब्द को जानता था – “यूदे” का मतलब था “यहूदी”, और नाज़ियों के
लिए वह “मौत” का पर्यायवाची शब्द था. तब सैनिकों ने मशीन गन्स निकालीं और सिंह को
मार डाला.
अब ज़ू-पार्क लगभग ख़ाली हो गया : बचे-खुचे कर्मचारी और चौकीदार केवल कुछ ही
जानवर बचा पाए. मगर अजगर था – ये बिल्कुल सही है. जब मैं ज़ू-पार्क में भागा करती
थी तो मैंने ख़ुद उसे देखा था. और अब मूस्का दृढ़ता से कह रही है, कि अजगर वन-पार्क
में भाग गया और किसी परीकथा की राजकुमारी की तरह उसने पाँचवीं कक्षा की साधारण
बच्ची को कैद कर लिया था.
“तूने ख़ुद ये सब देखा था?” मैंने पूछा.
“ख़ुद देखा था,” मूस्का चीख़ी. “अपनी, ख़ुद की आँखों से.”
और यकीन दिलाने के लिए उसने अपनी भूरी आँखों को हथेलियों से थपथपाया.
“तब मैं भी ख़ुद देखूँगी,” मैंने कहा. “देखूँगी – तभी यकीन करूँगी.”
“पागल हो गई है,” मूस्का ने हिकारत से कंधे उचकाए. “ट्राम तो सिर्फ पार्क
तक जाती है. और वहाँ, शायद, पूरा दिन चलना पड़ता है. शायद ज़्यादा भी. मुझे तो पड़ोसी
कार में ले गया था.”
“ठीक है, पहुँच जाऊँगी,”
मैंने निराशा से कहा.
वन-पार्क तक पैदल जाने का ख़याल ख़ुद मुझे भी असंभव प्रतीत हो रहा था. हम वहाँ
पैदल नहीं जाते थे. अगर कुछ पहले ही निकल जाते, वर्ना तो अब सुबह के दस बज चुके हैं. मगर अजगर और उसकी
मज़बूत कुण्डली में कैद बच्ची पूरी तरह मेरी कल्पना पर हावी हो गए थे. मैं बसन्त की
पारदर्शी हरियाली में इतनी स्पष्टता से देख रही थी झाड़ियाँ, इन झाड़ियों के
पास घेरा डाले खड़ी भीड़ को, और मैदान में बैठी दुबली-पतली बच्ची को, जिसके पैरों और
कमर को भारी-भरकम अजगर के धब्बेदार जिस्म ने पकड़ रखा है, और ठण्डी आँखों
वाला अजगर का सिर बच्ची के घुटनों पर पड़ा है...
“जाऊँगी,” मैंने ज़िद्दीपन से दुहराया और मूस्का से बोली : “तू
आधा घण्टा रुक जा और फिर मेरी मम्मा से कह देना कि मैं अजगर को देखने के लिए
वन-पार्क गई हूँ. वो परेशान न हो: मैं शाम तक लौट आऊँगी.
ट्राम में सिर्फ अजगर और उसकी कैदी बच्ची के बारे में ही बातें हो रही थीं.
फूल-फूल वाला स्कार्फ बाँधे एक मोटी आण्टी ज़ोर देकर कह रही थीं, कि अजगर ने एक
अठारह साल की लड़की को पकड़ लिया है. मैं चुपचाप हँस रही थी – मुझे तो पक्का मालूम
था कि वो पाँचवीं कक्षा की बच्ची है, क्योंकि मूस्का ने अपनी आँखों से देखा था...मगर जब एक
लड़का, जो अपने फटे हुए रूई के जैकेट में नीला पड़ गया था, पूरी ट्राम को
यकीन दिलाने लगा, कि अजगर की गिरफ़्त में एक लड़का था, ना कि लड़की, तो मुझसे रहा न
गया.
“बकवास मत करो,” मैंने तैश में आकर उससे कहा. “लड़का नहीं, बल्कि बच्ची है.
पाँचवीं क्लास वाली.”
“क्या तूने देखा है?” वह नज़रों से मुझे तौल रहा था.
“और तूने?”
“और तूने?”
“मैं वन-पार्क ही जा रही हूँ,” मैंने लापरवाही से कह दिया. “ पहले ट्राम से, और फिर पैदल. मगर
मुझे वैसे ही मालूम है, कि वो बच्ची है.”
लड़का ख़ामोश हो गया. अंतिम स्टॉप पर वह भी उतरा और मेरी बगल में चलने लगा, छोटा-सा, कद में मुझसे
छोटा, बसन्त की तेज़ हवा में नाक सुड़सुड़ाते हुए.
“तू कहाँ?” मैंने पूछा.
“देख लेना, कि लड़का ही है,”
जवाब के बदले उसने कहा.
और हम साथ-साथ चलने लगे – कदम से कदम मिलाते हुए. रास्ते के दोनों तरफ़ घास
के मैदान थे, जो पहले फूलों के कारण चटख़दार हो गए थे. आसमान में लवा
पक्षी की महीन आवाज़ सुनाई दे रही थी.
उस सफ़र को मैं कभी नहीं भूल पाऊँगी. कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है, कि वो मेरी
ज़िन्दगी का सबसे लम्बा सफ़र था, - हो सकता है, इसलिए कि हम ख़ामोश थे. लड़का बातूनी किस्म का नहीं था.
मेरे इस सवाल के जवाब में, कि उसका नाम क्या है, वह बुदबुदाया : “सिम्योन”, और फिर से ख़ामोश हो गया. आख़िरकार वह बड़बड़ाया :
“आख़िर वो यहाँ क्यों आया?”
“कौन. अजगर?”
“नहीं, लड़का. हो सकता है कारतूसों की तलाश में?...”
“कारतूस तो चरागाहों में भी काफ़ी सारे मिल जाएँगे,” मैंने ऐतराज़ करते
हुए कहा. “यहाँ, पता है, कैसी लड़ाई हुई थी! और, वो लड़का तो है ही नहीं, बल्कि लड़की है. वह बनफ़शा के फूलों के लिए वन-पार्क गई
थी.”
“उसे बनफ़शा की क्या ज़रूरत है, जब इत्ते - ढेर सारे दूसरे फूल हैं.”
“तो, ये...फूल... बीस कोपेक का एक बुके, और बनफ़शा – पचास. हो सकता है, वह अपनी माँ की
मदद करना चाहती थी? हो सकता है, उनके पिता शहीद हो गए हों?”
“मेरे पिता भी शहीद हो गए,” सिम्योन अचानक बोल पड़ा और उसने सीधे मेरी आँखों में
देखा. “और, तुम्हारे?”
“ज़िंदा हैं,” मैंने दबी हुई आवाज़ में कहा, जैसे मेरे पापा
ज़िंदा हैं, इसमें मेरा ही दोष है.
“ये अच्छा है, कि ज़िंदा हैं,”
सिम्योन ने व्यस्तता से कहा. “मतलब, वापस आएँगे. अब
ज़्यादा समय नहीं है. मम्मा ने गर्मियों में ही कहा था – अब ज़्यादा दिन नहीं हैं.”
उसकी आवाज़ में कुछ था जिसने मुझे रुककर डर से अपने हमसफ़र की ओर देखने पर
मजबूर कर दिया.
“उसे जुलाई में गोली मार दी गई,” सिम्योन भी रुक गया. “अगस्त में हमारी फ़ौजें वापस आईं, मगर उसे जुलाई
में गोली मार दी गई. ‘पार्टिज़न” होने के कारण. उसका उनसे संबंध था, वैसे, वन-पार्क में संदेश भेजने के लिए गई थी. वहीं उसे पकड़
लिया. ख़ैर, चलते हैं!”
“कोई ज़रूरत नहीं
है,” मैंने आँसुओं को रोकते हुए कहा. “वापस चलते हैं. हो सकता है, ये सब बकवास हो – अजगर के बारे में.”
“डरती क्यों हो?” सिम्योन एकदम अलग ही सुर में बोला.
“अब कोई बात नहीं है – इतना डरावना नहीं है. मैं उस जगह पर अक्सर जाता हूँ.
मगर तुझे अजगर के बारे में कैसे पता चला?”
“सहेली ने बताया.
उसने ख़ुद अपनी आँखों से देखा है.”
“अगर सहेली ने देखा है, तो तू इसे बकवास क्यों कहती है? चल!”
और हम फिर से चल पड़े बसन्त के कीचड़ भरे रास्ते पर.
अब हम बिना रुके बोलते जा रहे थे. उस बारे में कि विस्थापन के दौरान मैं
कैसे नेत्रहीनों के अस्पताल में जाती थी और उन्हें ख़त और किताबें पढ़कर सुनाती थी, और एक बार
पाँचवें वार्ड के वलोद्या ने तकिए के नीचे से सूत की रस्सी निकाली, जिसे उसने रातों
को बुना था. वह रोया और चिल्लाया, कि अपना गला घोंट लेगा और अंधा बनकर नहीं जियेगा, मगर फिर अचानक
उसे सब कुछ दिखाई देने लगा और वह हमेशा कहा करता कि मैंने ही उसे बचाया है : अगर
मैं रस्सी खींचकर बाहर नहीं निकालती, तो वह रात को फाँसी लगा लेता. और सिम्योन ने नाज़ियों
द्वारा कब्ज़ा किए जाने के बारे में बताया, कितना ख़तरनाक और घिनौना लगता था इन शापित नाज़ियों को
देखना, और कैसे वह दो बार माँ के बदले संदेश भेजने गया था, और कैसे उस
ख़तरनाक दिन पूछा था : “चल, मैं चला जाता हूँ, मैं फुर्तीला हूँ, छोटा हूँ, मगर तू एकदम बीमार है, अगर कुछ हो गया तो भाग भी नहीं पाएगी...” वैसा ही हुआ.
अगर वह, याने सिम्योन उस दिन वहाँ चला जाता, वह छूट के आ जाता... और अब वह आण्टी के यहाँ रहता है –
सगी नहीं, सगी नहीं है, बल्कि ‘पार्टीज़ान” आण्टी नस्तास्या के यहाँ, बहुत भली है, वो मुझे बुरा-भला
नहीं कहती और मुझे ‘बेचारा अनाथ’ नहीं कहती, जैसा पड़ोसी कहते हैं, बल्कि मेरे लिए सब करती है, जो ज़रूरी है – बस...”
करीब चार बजे हम वन-पार्क पहुँचे. रास्ते का आख़िरी हिस्सा हमने चुपचाप पार
किया – थकान के मारे. सिम्योन को लम्बी सैर की आदत थी, मगर मेरा तो पूरी तरह दम निकल गया, मेरे पैर झनझना
रहे थे और जल रहे थे, सिर्फ अपनी खुद्दारी के कारण मैं रास्ते पर ही नहीं
बैठ गई और ये नहीं कहा : बस, अब और नहीं चल सकती!
मगर वन–पार्क ने इतनी ताज़ी, जवान हरियाली से, पंछियों की चहचहाहट से, बिखरे हुए बैंगनी बनफ़शा के फूलों से हमारा स्वागत किया
कि मेरा उत्साह लौट आया. और मुझे फिर से अजगर की याद आ गई. लड़की को क्यों नहीं छुड़ा रहे हैं? ज़ाहिर है, अजगर पर गोलियाँ नहीं चलाना है – कैदी को भी लग सकती
है. और उसे बलपूर्वक खींच कर निकालना भी असंभव है : मूस्का कह रही थी, कि जैसे ही लोग
पास में जाते हैं, अजगर डरावनी आवाज़ में फुफकारता है और अपनी डरावनी
कुण्डलियों से धीरे-धीरे लड़की को दबोचने लगता है.
इन तर्कों से सिम्योन तैश के मारे हरा पड़ गया : वह “असंभव” शब्द को मानता ही
नहीं था. लड़की की तरफ़ एक रूमाल और ऐसी दवा की बोतल फेंकनी चाहिए थी, जिससे अजगर को
फ़ौरन नींद आ जाती : नस्तास्या के भाई, अंकल फ़ेद्या को ये दवा सूँघने के लिए दी गई थी, जब अस्पताल में
उसका पाँव काटा गया था. या फ़िर अजगर के गले में फन्दा फेंका जाए – जिसे लैसो
(कमन्द) कहते हैं.
मतलब, वन-पार्क में घूमते हुए, हमने कैदी को छुड़ाने के दसियों बढ़िया प्लान बना डाले, जब तक समझ न गए :
यहाँ ना तो कोई अजगर है, ना ही कोई लड़की. भीड़ नहीं है, बूढ़ी माँ भी नहीं
है : जंगल में घूमते हुए हमें एक भी आदमी नहीं दिखाई दिया. मगर सिम्योन को विश्वास
नहीं था, कि मेरी सहेली झूठ बोलती है.
“मतलब, उसे बचा लिया गया,”
उसने कहा. “अफ़सोस है कि हम देख नहीं पाए. खैर, चलो वापस!”
मगर पहले सिम्योन “मम्मा वाली जगह” पर गया. मुझे नहीं ले गया.
“तू,” वह बोला, “बाद में सो नहीं
पाएगी. नस्तास्या आण्टी जब भी यहाँ आती है – सो नहीं पाती. तू डरपोक नहीं है, यहीं बिल्कुल पास
ही में है : कोई बात हो, तो चिल्लाना, मैं सुन लूँगा...”
वह पंद्रह मिनट बाद वापस आया, और हम रास्ते पर आए. इस बार किस्मत ने साथ दिया : पीछे
से एक ट्रक की खड़खड़ाहट सुनाई दी. हमने हाथ हिलाए, चिल्लाए और न जाने क्यों उछलने भी लगे. ट्रक रुक गया, और पलक झपकते ही
हम पिछले हिस्से में पहुँच गए. वहाँ कई दूध के पीपे रखे हुए थे और एक मज़ाकिया
छोकरा बैठा था, जो हमसे कुछ ही बड़ा था. पूरे रास्ते वह हमें चिढ़ाता
रहा :
“अजगर ने? लड़की को पकड़ लिया? मज़ाक है! अरे, मैं यहाँ दिन में दो बार आता हूँ, - सव्खोज़ (सोवियत
फ़ार्म) से दूध लाता हूँ, क्या मुझे मालूम नहीं होता? ऐसा कुछ हुआ ही नहीं था! अरे, मज़ाक है!...”
“नहीं, हुआ था!” सिम्योन ने कड़ाई से कहा. “हमारे दोस्त ने ख़ुद
देखा है.”
“दोस्त ने? ख़ुद?” छोकरे ने कहा और फिर से ठहाके लगाने लगा. “और, अब हम वन-पार्क
में जा रहे हैं.”
और उसने पिछली खिड़की से कैबिन में आवाज़ लगाई, जिसका शीशा टूटा हुआ था:
“वास्या, पार्क के पास ब्रेक लगा ले, एक मिनट के लिए.”
ज़ू-पार्क कब का बन्द हो चुका था, मगर हम, और हमारा नया परिचित बड़ी अच्छी तरह उस छेद को जानते थे, जो पुराने
झुरमुटों की बगल में युद्ध पूर्व के समय से सुरक्षित था. हम बिल्कुल अँधेरी
पगडंडियों से भागे – थलचर प्राणियों वाले हॉल की ओर – ये बड़ी-बड़ी खिड़कियों वाला एक
सफ़ेद घर था. मोटे काँच के पीछे पत्थरों के बीच अजगर शांति से ऊँघ रहा था...
बाद में मुझे पता चला, कि अजगर वाकई में भाग गया था. पहले ही गर्म दिन उसने
घर की दीवार की दरार को देख लिया, उस पर सिर टकराने लगा, जर्जर दीवार गिर पड़ी और कैदी आराम से बाहर रास्ते पर
रेंग गया, मगर वहीं पर उसे देख लिया गया. इस ज़ू-पार्क में सुबह के समय सिर्फ दादियाँ
अपने पोतों के साथ टहलती हैं, वे चीख़ने लगीं, चौकीदार भागकर आया और उसने भगोड़े को वापस अपनी जगह पर
रख दिया, और दीवार के छेद को ईंटों और सीमेंट से बंद कर दिया. मगर बात तो पैदा हो गई
थी और वह किसी भी साँप से ज़्यादा तेज़ी से रेंग गई, रास्ते में भयानक तफ़सीलों से बढ़ती गई...और पूरा शहर
भगोड़े अजगर और उसकी बदकिस्मत कैदी लड़की के बारे में बातें करने लगा....
ज़ू-पार्क के गेट पर मैंने सिम्योन से बिदा ली – उसे रेल्वे स्टेशन जाना था, मुझे – सेंटर.
उसने अपनी मज़बूत हथेली मेरी ओर बढ़ाई और कहा:
“और उस ...सहेली से...तू दूर ही रहना. अपनों से ही इतना बड़ा झूठ बोलना – ज़रा
सोच!”
वह चला गया और मैं घर की ओर चल पड़ी, ये सोचते हुए कि मूस्का से क्या कहूँगी. हमारे चौक में
पड़ोसी खड़े थे, क्वार्टर का दरवाज़ा अधखुला था, और भीतर से
वलेरीन की बू आ रही थी. मेरा दिल मानो टूट गया : मैंने कई बार देखा था, कि जब घरों में
किसी को दफ़नाने के लिए....
मैं चीख़ते हुए तीर की तरह कमरे में घुसी. पड़ोसियों से घिरी हुई, मेरी मम्मा पड़ी
थी.
मम्मा की आँख़ें चौड़ी हो गईं, जैसे उसने किसी भूत को देख लिया हो. उसने हाथ फैलाए –
और अगले ही पल हम दोनों एक दूसरे से लिपट कर हिचकियाँ ले रहे थे, मगर दुख से नहीं, बल्कि ख़ुशी से. हमारे
आँगन में कोई एम्बुलेन्स नहीं थी, नहीं थी! आज सुबह मम्मा ने पहली बार अजगर और उसकी
बन्धक लड़की के बारे में सुना था, और जब उसने देखा कि मैं कहीं भी नहीं हूँ, तो मम्मा ने सोच
लिया कि वो बन्धक लड़की – मैं हूँ! मूस्का ने उसे कुछ भी नहीं बताया था...
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