सोमवार, 30 दिसंबर 2019

Zero - Class


ज़ीरो-क्लास
लेखक: यूरी कवाल
अनुवाद : आ. चारुमति रामदास
हमारे गाँव में एक नई टीचर आई, उसका नाम था मारिया सिम्योनव्ना.
और हमारे पुराने टीचर – अलेक्सेइ स्तिपानविच भी थे ही.
नई टीचर ने पुराने टीचर से दोस्ती कर ली. वे गाँव साथ-साथ घूमते, सब का हालचाल पूछते.
एक हफ़्ते तक उनकी दोस्ती रही, फिर उनमें झगड़ा हो गया. सारे स्टूडेन्ट्स अलेक्सेइ स्तिपानविच की ओर भागते, और मारिया सिम्योनव्ना एक तरफ़ खड़ी रहती. उसके पास कोई भी नहीं जाता – बड़ा अपमानजनक लगता.
अलेक्सेइ स्तिपानविच कहता:
“मारिया सिम्योनव्ना के पास जाओ.”
मगर स्टूडेन्ट्स नहीं जाते, पुराने टीचर से चिपक जाते. और वाकई में, इतना चिपकते, उसके दोनों ओर कस के चिपट जाते.
“हमें उससे डर लगता है,” माखव भाई कहते. “वह करौंदे भी धोती है.”
मारिया सिम्योनव्ना कहती:
“हर तरह के फलों को धो लेना चाहिए, जिससे इन्फ़ेक्शन न हो.”
ये सुनते ही स्टूडेन्ट्स अलेक्सेइ स्तिपानविच से और भी लिपट जाते.
अलेक्सेइ स्तिपानविच कहता:
“क्या कर सकते हैं, मारिया सिम्योनव्ना,  मुझे ही बच्चों को आगे पढ़ाना होगा, और आप “ज़ीरो-क्लास” लीजिए.”
“ऐसा कैसे?”
“ऐसा ऐसे. हमारा न्यूरा पहली कक्षा में है, फ़ेद्यूशा – दूसरी में, माखव भाई – तीसरी में, और चौथी कक्षा में, जैसा कि सबको मालूम है, कोई भी नहीं है. मगर “ज़ीरो-क्लास” में स्टूडन्ट्स आयेंगे.”
“क्या बहुत सारे आयेंगे?” मारिया सिम्योनव्ना ख़ुश हो गई.
“ज़्यादा आयेंगे या कम आयेंगे, मगर एक – वो रहा, बाहर है, पोखर में खड़ा है.”
और सही में, गाँव के बीचोंबीच, रास्ते पर पोखर में एक व्यक्ति खड़ा था. ये वानेच्का कलाचोव था. वह रबड़ के जूतों से मिट्टी गूँध रहा था, पानी के चारों ओर बाँध बना रहा था. वह नहीं चाहता था, कि पोखर का पानी बह जाए.
“हाँ, वह बिल्कुल छोटा है,” मारिया सिम्योनव्ना ने कहा, “अभी तो वह मिट्टी गूँध रहा है.”
“गूँधने दो,” अलेक्सेइ स्तिपानविच ने जवाब दिया. “और, आप “ज़ीरो-क्लास” में कैसे स्टूडेन्ट्स चाहती हैं? क्या ट्रैक्टर चलाने वाले चाहिए? वैसे, वे भी मिट्टी गूँधते हैं.”
मारिया सिम्योनव्ना वानेच्का के पास आकर बोली:
“आ जा, वान्या, स्कूल में, “ज़ीरो-क्लास” में.”
“आज मेरे पास टाइम नहीं है,” वानेच्का ने कहा. “मुँडेर बनानी है.”
“कल आ जा, सबह – जल्दी.”
“कह नहीं सकता,” वान्या ने कहा, “कहीं सुबह मुँडेर टूट न जाए.”
“नहीं टूटेगी,” अलेक्सेइ स्तिपानविच ने अपने जूते से मुँडेर को ठीक करते हुए कहा, “और तू “ज़ीरो-क्लास” में थोड़ा-सा पढ़ लेना, और अगले साल मैं तुझे पहली क्लास में ले लूँगा. मारिया सिम्योनव्ना तुझे अक्षर दिखाएगी.”
“कौनसे अक्षर – कैपिटल या प्रिन्टेड?”
“प्रिन्टेड.”
“ये अच्छी बात है. मुझे प्रिन्टेड अक्षर अच्छे लगते हैं, क्योंकि वे ज़्यादा समझ में आते हैं.”
दूसरे दिन मारिया सिम्योनव्ना ज़रा जल्दी ही स्कूल में आ गई, उसने मेज़ पर प्रिन्टेड अक्षरों के मॉडेल्स रखे, पेन्सिलें रखीं, कागज़ रखा. इंतज़ार करने लगी, मगर वानेच्का आया ही नहीं. तब उसे महसूस हुआ कि मुँडेर टूट गई है, और वह चल पड़ी. वानेच्का पोखर में खड़ा था और जूते से मुँडेर बना रहा था. 
“गाड़ी गुज़री थी,” उसने बताया. “दुरुस्त करना ही पड़ेगा.”
“ठीक है,” मारिया सिम्योनव्ना ने कहा, “चल, दोनों मिलकर मुँडेर बनाएँगे, और साथ ही अक्षर भी सीखेंगे.”
और उसने अपने जूते से मिट्टी पे बनाया अक्षर “A” और कहा:
“वान्या, यह है अक्षर “A” . अब तू ऐसा ही बना.”
वान्या को जूते से अक्षर बनाना अच्छा लगा. उसने जूते की नोक से अक्षर “A”  बनाया और पढ़ा:
“A”
मारिया सिम्योनव्ना हँसने लगी और बोली:
दुहराने से पाठ पक्का होता है. दूसरा “A”  भी बनाओ.”
और वान्या एक के बाद एक अक्षर लिखने लगा, और उसने इतनी बार लिखा कि मुँडेर फिर से गिर गई.
“चल, अब दूसरा अक्षर बनाते हैं,” मारिया सिम्योनव्ना ने कहा. “ये हे अक्षर “B”.
 और उसने अक्षर “B” बनाया.
तभी सामूहिक फ़ार्म के प्रेसिडेंट अपनी कार में आए. उन्होंने हॉर्न बजाया. मारिया सिम्योनव्ना और वान्या दूर हट गए, और प्रेसिडेंट ने अपने पहियों से न सिर्फ मुँडेर तोड़ दी, बल्कि मिट्टी से बने सारे अक्षर भी मिटा दिए. उन्हें, असल में पता नहीं था, कि यहाँ “ज़ीरो-क्लास” हो रही है.
पानी पोखर से उछल कर रास्ते पर बहने लगा, नीचे-नीचे, दूसरे पोखर में, फिर खाई में, खाई से झरने में, झरने से नदी में, और नदी से चल पड़ा दूर समुंदर की ओर.
“इस असफ़लता को रोकना मुश्किल है,” मारिया सिम्योनव्ना ने कहा, “मगर कोशिश की जा सकती है. हमारे पास ये आख़िरी मौका बचा है – अक्षर “C”. देख उसे कैसे बनाते हैं.
और मारिया सिम्योनव्ना ने फिंकी हुई मिट्टी इकट्ठा की, उसे रुकावट की तरह रखा. और न सिर्फ जूतों से, बल्कि हाथों से भी रास्ते पर अक्षर “C” बना ही दिया. ख़ूबसूरत बना अक्षर, किले जैसा. मगर, अफ़सोस, उसके बनाए अक्षर से पानी उछल उछल कर बाहर आता रहा. हमारे यहाँ सितम्बर में भारी बारिश हो गई.                     
“मैं, मारिया सिम्योनव्ना, कह रहा हूँ,” वान्या बोला, “ कि आपके “C”. के साथ कोई और मज़बूत अक्षर चिपकाना होगा. जो कुछ ऊँचा भी हो. क्या हम अक्षर “D” बनाएँ, जिसे मैं पहले से जानता हूँ?”
मारिया सिम्योनव्ना को बहुत ख़ुशी हुई, कि वान्या इतना समझदार है, और उन्होंने मिलकर अक्षर “D” बना दिया. आप यकीन नहीं करेंगे कि इन दोनों - “C” और “D” - ने मिलकर पूरी तरह से पोखर के पानी को रोक दिया.
अगली सुबह हमें फिर से वानेच्का और मारिया सिम्योनव्ना को रास्ते पर देखा.
“E” “F”, वे चिल्ला रहे थे और जूतों से अक्षर बना रहे थे. “G” “H” “I” !”
उनके पैरों के नीचे थी एक नई और अब तक अनदेखी किताब पड़ी थी, और सारे गाँव वाले सावधानी से उसकी बगल से होकर जा रहे थे, गाड़ी भी किनारे से ले जाते, जिससे “ज़ीरो-क्लास” की पढ़ाई में बाधा न पहुँचे. प्रेसिडेंट भी अपनी कार को इतनी संभाल कर ले गए, कि एक भी अक्षर को पहिये से नहीं दबाया.
गर्म दिन जल्दी ही ख़तम हो गए. उत्तरी हवा चलने लगी, रास्ते के पोखर जम गए.
एक बार शाम को मैंने वानेच्का और मारिया सिम्योनव्ना को देखा. वे नदी के किनारे एक ठूँठ पर बैठे थे और गिन रहे थे:
“पाँच, छह, सात, आठ...”
शायद वे साउथ की ओर उड़ते हुए बगुलों को गिन रहे थे.
और बगुले वाकई में उड़ गए, और “ज़ीरो-क्लास” पर छाया हुआ आसमान काला हो गया, उस “ज़ीरो क्लास” को ढाँक रहा आसमान, जिसमें, दोस्तों, हम अभी तक पढ़ रहे हैं.     
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शनिवार, 28 दिसंबर 2019

Anyootka


अन्यूत्का
(रूसी लोककथा)
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

किसी गाँव में एक बेहद पुरानी झोंपड़ी में दद्दू इवान और दादी मारिया रहते थे. उनकी एक पोती थी – अन्यूत्का. कद में छोटी, मगर ख़ूब तेज़ और चंचल थी. नाक पर झाईयाँ. और आँखें – अजीब थीं : जब मौसम साफ़ होता – वे चमकदार और नीली-नीली दिखाई देतीं, और जब मौसम ख़राब होता – तो काली और भूरी नज़र आतीं. मगर जब अन्यूता जंगल में जाती – तो उसकी आँखें हरी-हरी हो जातीं.
दद्दू और दादी अपनी पोती से बहुत प्यार करते थे. मगर अपनी ग़रीबी के कारण लाचार थे. न तो उनके पास ज़मीन थी, न ही कोई अन्य सम्पत्ति. दद्दू ने सीधे झोंपड़ी में ही मटर का पौधा लगाने का फ़ैसला किया, तहख़ाने में. बीज बो दिये, मगर पौधा आया ही नहीं. तहख़ाने में अँधेरा जो था. मगर एक छोटा-सा पौधा निकल ही आया. उसके ऊपर झिरी से धूप आती थी.
“देख, अन्यूता, तेरे लिए है एक अचरज की बात,” दद्दू ने कहा.
और मटर की बेल हर दिन नहीं, बल्कि हर घण्टे बढ़ती. अन्यूत्का बहुत ख़ुश थी, वह पौधे को पानी देती, उसे सहलाती. पौधा ताकतवर होने लगा, फ़र्श को तोड़ने लगा. दद्दू ने फ़र्श ठीक कर दिया. पौधा बढ़ता रहा, छत तक पहुँच गया. छत से टकराने लगा. दद्दू ने छत में छेद बना दिया – बढ़ने दो पौधे को, पोती को ख़ुश होने दो. पौधा बढ़ता ही रहा, छप्पर तक पहुँच गया. छप्पर को भी ठीक करना पड़ा. अन्यूत्का उसे ख़ूब पानी पिलाती, पास में ही नदी जो थी.
और मटर का पौधा बढ़ते-बढ़ते सीधे आसमान तक पहुँच गया, ख़ूब घना और मोटा हो गया. दद्दू इवान फ़सल बटोरने चला. दादी मारिया ने रास्ते के लिए केक बनाकर दिया. मगर तभी पोती ज़िद करने लगी:
“मुझे भी अपने साथ ले चलो, मैं तुम्हारी मदद करूँगी!”
“मैं तुझे कहाँ ले जाऊँगा? तू – इत्ती छोटी है, गिर जाएगी, चोट लगेगी.”
“जेब में बैठूँगी. देखो तो कितनी बड़ी-बड़ी जेबें हैं तुम्हारी!”
बात सही थी, दद्दू की जेबें बोरे जितनी थीं. उसने पोती को जेब में रख लिया और मटर के पौधे पर चढ़ने लगा. धीरे-धीरे चढ़ता रहा, टहनियाँ तोड़ता रहा, काम करते-करते पोती के बारे में भूल गया. जेब से तम्बाकू का बटुआ निकालने लगा, और बटुए के साथ-साथ अनजाने में ही चोटी पकड़कर अन्यूता को बाहर निकाल लिया. अन्यूता चिल्ला भी नहीं पाई और नीचे गिरने लगी. गिरने लगी, गिरने लगी और घास के मैदान पर गिरी. चारों ओर देखा – अनजानी जगह है....
उधर दद्दू ने थोड़ी देर सिगरेट पी और कुछ और ऊपर चढ़ गया. चढ़ता गया, चढ़ता गया, और आसमान तक पहुँच गया. जैसे ही उसने आसमान पर खड़ा होने की कोशिश की, ज़ोर से बिजली कड़की और धुँआधार बारिश होने लगी. दद्दू आसमान पर भागने लगा, जिससे अपने आपको बचा सके, मगर भटक गया. अचानक पोती की याद आई, जेब में हाथ डाला – मगर वो तो नहीं थी. क्या करे? ‘अन्यूत्का, अन्यूत्काचिल्लाने लगा और उसे ढूँढ़ने लगा. मगर वह कहाँ थी!! दद्दू इवान बहुत दुखी हो गया. उसने उस जगह पर लौटने की कोशिश की जहाँ मटर की बेल लगाई थी, मगर नहीं पहुँच सका. और ज़्यादा भटक गया. अचानक घास के ढेर पर गिर पड़ा. उसने घास से रस्सी बनाना शुरू किया. बुनता रहा, बुनता रहा, जब तक की पूरी घास ख़तम नहीं हो गई, एक लम्बी रस्सी बन गई थी. दद्दू इवान ने रस्सी का एक सिरा आसमान से बाँधा, और दूसरा नीचे छोड़कर उसके सहारे ज़मीन पर उतरने लगा.
वह बड़ी देर तक उतरता रहा, मगर अब रस्सी ख़तम हो गई. और हमारे दद्दू ज़मीन और आसमान के बीच लटकने लगे. मगर फिर उसने हाथ छोड़ दिए और मुँह के बल नीचे गिरने लगा. सौभाग्य से वह दलदल में गिता – छपाक्! मुश्किल से बाहर निकला.
दद्दू इवान घर आया और देखा कि उसकी झोंपड़ी टेढ़ी हो गई है और पास ही टीले पर दादी मारिया और अन्यूत्का बैठी हैं और रो रही हैं. उन्होंने दद्दू को देखा और उसकी ओर भागीं. रोते-रोते उससे लिपट गईं, उसे चूमने लगीं, रोते-रोते ही हुए ख़ुशी के मारे हँसने लगीं. शोर सुनकर पड़ोसी भागे, वे भी ख़ुश हो गए.
जब दद्दू बता रहा था कि कैसे वह आसमान पर पहुँचा था, और मटर की फ़ल्लियाँ जेब में भर रहा था तो बड़ी देर तक सब आह-ऊहकरते रहे.
दूसरे दिन, पूरा परिवार मटर छीलने लगा. और क्या आश्चर्य! – जैसे ही वे कोई फल्ली छीलते, उसमें से सोने का मटर निकलता. ऐसे दानों का पूरा ढेर लग गया. उसके बाद वे आराम से रहने लगे. नई झोंपड़ी बना ली, अन्यूत्का को नई-नई चीज़ें ख़रीद कर दीं.
क्या वे लम्बे समय तक रहे, इस बारे में किसी को मालूम नहीं है. बड़े-बूढ़े कहते हैं कि जहाँ उनकी झोंपड़ी थी, वहाँ अजीब-से फूल खिल गये. और लोग उन्हें इवान और मारियाकहने लगे. और उस जगह, जहाँ से अन्यूत्का चली थी, बनफूल खिलने लगे. उतने ही ख़ूबसूरत, जितनी अन्यूत्का की आँखें थीं.
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शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

The Old Witch

बूढ़ी जादूगरनी
(रूसी परीकथा)
आ. चारुमति रामदास 

एक समय की बात है, एक पति-पत्नी थे, और उनकी एक बेटी थी. पत्नी बीमार हुई और मर गई.
पति रोता रहा, रोता रहा और फिर उसने दूसरी औरत से शादी कर ली.
वह औरत बड़ी दुष्ट थी. वह बच्ची से प्यार नहीं करती थी, उसे मारती, डाँटती, सिर्फ यही सोचती कि कैसे उसे ख़तम कर दूँ.
एक बार बाप कहीं बाहर गया, और सौतेली माँ ने लड़की से कहा:
“जा, मेरी बहन, याने तेरी मौसी के पास जा, उससे सुई-धागा माँग ला – तेरे लिए कमीज़ सीना है.”
मगर ये मौसी जादूगरनी थी, हड्डी के पैर वाली. लड़की इनकार न कर सकी और चल पड़ी, मगर जाने से पहले अपनी सगी मौसी के घर गई.
“नमस्ते, मौसी!”
“नमस्ते, प्यारी! कैसे आईं?”
“मुझे सौतेली माँ ने अपनी बहन के पास भेजा है सुई-धागा माँगने के लिए – मेरे लिए कमीज़ सीना चाहती है.”
“अच्छा किया, भाँजी, जो तू पहले मेरे पास आई,” मौसी बोली. “ये ले, तेरे लिए रिबन, मक्खन, डबल रोटी और माँस का टुकड़ा. वहाँ बर्च के पेड़ की टहनियाँ तेरी आँख़ों में चुभेंगी – तू उसे रिबन से बाँध देना; दरवाज़े चरमरायेंगे, भड़भड़ायेंगे, तुझे रोकेंगे – तू उनके कब्जों पर मक्खन लगा देना; तुझे कुत्ते काटने के लिए दौड़ेंगे – तू उनके सामने डबल रोटी फेंक देना, बिल्ला तेरी आँखें नोचेगा – तू उसे माँस का टुकड़ा देना.”
लड़की ने अपनी मौसी को धन्यवाद दिया और चल पड़ी.
चलते-चलते वह जंगल में पहुँची. जंगल में एक ऊँची बागड़ के पीछे एक झोंपड़ी थी – मुर्गी की टाँगों पर, भेड़ों के सींगों पर, और झोंपड़ी में बैठी थी दुष्ट जादूगरनी, हड्डी के पाँव वाली – बुन रही थी तिरपाल.
“नमस्ते, मौसी!” लड़की ने कहा.  
“नमस्ते, भाँजी!” जादूगरनी बोली, “तुझे क्या चाहिए?”
“मुझे सौतेली माँ ने भेजा है तुम्हारे पास सुई और धागा माँगने के लिए – मेरे लिए कमीज़ सीना है.”
“अच्छा, भाँजी, तुझे सुई और धागा दूँगी, और तब तक तू यहाँ बैठकर थोड़ा काम कर!”
लड़की बैठ गई खिड़की के पास और बुनने लगी. और जादूगरनी झोंपड़ी से बाहर निकलकर अपनी नौकरानी से बोली:
“मैं अभी सोने जा रही हूँ, और तू जाकर हम्माम गरमा और भाँजी को धो दे. देख, अच्छी तरह धोना: उठकर उसे खाऊँगी!”
लड़की ने ये बात सुन ली – अधमरी सी बैठी रही. जैसे ही जादूगरनी गई, वह नौकरानी से बिनती करने लगी :
“मेरी प्यारी! तू भट्टी में लकड़ियाँ उतनी न जला, जितना उन्हें पानी में भिगा, और पानी छलनी से भर-भर कर ला!” और उसे रूमाल उपहार में दिया.
नौकरानी भट्टी गर्म कर रही है, और जादूगरनी उठी, खिड़की के पास आई और पूछने लगी : “बुन रही है न तू, भाँजी, बुन रही है न, प्यारी?”
“बुन रही हूँ, मौसी, बुन रही हूँ, प्यारी!”
जादूगरनी फिर से सोने चली गई, और लड़की ने बिल्ले को माँस का टुकड़ा दिया और पूछा:
“बिल्ले-भाई, मुझे बताओ, यहाँ से भागूँ कैसे.”
बिल्ला बोला:

“देख, मेज़ पे है एक तौलिया और एक कंघी, उन्हें उठा ले और फ़ौरन भाग जा : वर्ना जादूगरनी खा जाएगी! जादूगरनी तेरे पीछे भागेगी – तू धरती से कान लगाना. जैसे ही सुनेगी कि वह पास आ गई है, कंघी फेंक देना – फ़ौरन ऊँघता हुआ घना जंग़ल प्रकट हो जाएगा. जब तक वह जंगल से बाहर निकलेगी, तू काफ़ी दूर भाग चुकी होगी. और फिर से पीछा करने की आवाज़ सुनेगी – तौलिया फेंक देना : फ़ौरन चौड़ी, गहरी नदी बहने लगेगी.
“शुक्रिया, बिल्ले-भाई!” लड़की बोली.              
उसने बिल्ले को धन्यवाद दिया, तौलिया और कंघी उठाई और भागी.
उसके ऊपर कुत्ते झपटे, उसे फाड़कर खा जाना चाहते थे, - उसने उन्हें ब्रेड दी. कुत्तों ने उसे जाने दिया.
दरवाज़े चरमराए, धड़ाम से बंद होना चाहते थे – मगर लड़की ने उनके कब्जों पर मक्खन डाला. उन्होंने भी उसे जाने दिया.
बर्च का पेड़ शोर मचाने लगा, उसकी आँखों पर मार करने लगा – लड़की ने रिबन से उसे बांध दिया. बर्च के पेड़ ने उसे जाने दिया. लड़की भागते हुए बाहर आई और अपनी पूरी ताकत से तीर की तरह भागी. भाग रही थी और इधर-उधर नहीं देख रही थी.
इस बीच बिल्ला खिड़की के पास बैठ गया और बुनने लगा. जितना बुनता, उससे ज़्यादा उलझाता!
जादूगरनी उठी और पूछने लगी :
“बुन रही है न, भाँजी, बुन रही है न प्यारी?” और बिल्ला जवाब देता है :
“बुन रही हूँ, मौसी, बुन रही हूँ, प्यारी.”
जादूगरनी झोंपड़ी में घुसी और देखती क्या है – लड़की नहीं है, और बिल्ला, बुन रहा है.
जादूगरनी बिल्ले को डाँटने और मारने लगी:
“आह, तू बूढ़ा बदमाश! आह तू, दुष्ट! लड़की को क्यों जाने दिया? उसकी आँख़ें क्यों नहीं निकाल लीं? उसका चेहरा क्यों नहीं नोच लिया?”
मगर बिल्ले ने जवाब दिया:
“मैं इत्ते साल से तेरी ख़िदमत कर रहा हूँ, तूने मुझे कभी एक कुतरी हुई हड्डी भी नहीं दी, जबकि उसने मुझे माँस का टुकड़ा दिया!”
जादूगरनी झोंपड़ी से बाहर भागी, कुत्तों पर झपटी:
“लड़की को चीरा क्यों नहीं, उसे काटा क्यों नहीं?...”
कत्ते उससे बोले :
“हम इतने सालों से तेरी ख़िदमत कर रहे हैं, तूने कभी हमें रोटी की जली हुई परत भी नहीं फेंकी, मगर उसने हमें डबल रोटी दी!”
भागी जादूगरनी दरवाज़े के पास:
“चरमराए क्यों नहीं, भड़भड़ाए क्यों नहीं? लड़की को आँगन से बाहर क्यों जाने दिया?...”
दरवाज़े बोले:
“हम इत्ते सालों से तेरी ख़िदमत कर रहे हैं, तूने कभी हमारे कब्जों पर पानी भी नहीं डाला, जबकि वह मक्खन उँडेलने से भी नहीं हिचकिचाई!”
जादूगरनी उछलकर बर्च के पेड़ के पास आई:
“लड़की की आँखों में टहनियाँ क्यों नहीं चुभोईं?”
बर्च के पेड़ ने जवाब दिया:
“मैं इत्ते सालों से तेरी ख़िदमत कर रहा हूँ, तूने कभी धागे से भी मुझे नहीं सँवारा, जबकि उसने मुझे रिबन भेंट में दे दी!”
जादूगरनी नौकरानी को डाँटने लगी:
“तू, ऐसी-वैसी, जाहिल-गँवार, मुझे क्यों नहीं उठाया, आवाज़ क्यों नहीं दी? उसे क्यों जाने दिया?...”
नौकरानी ने जवाब दिया:
“मैं इत्ते साल से तेरी ख़िदमत कर रही हूँ – तेरे मुँह से कभी एक भी प्यार का बोल नहीं सुना, जबकि उसने मुझे रूमाल दिया, प्यार से मुझसे बातें कीं!”
जादूगरनी खूब चीखी-चिल्लाई, फिर ओखली में बैठकर पीछा करने निकल पड़ी. मूसल से ओखली को हाँकती, झाड़ू से रास्ता बनाती...
और लड़की भागती रही- भागती रही, रुकी, ज़मीन से कान लगाया और सुना : ज़मीन थरथरा रही है, हिल रही है – जादूगरनी पीछा कर रही है, और बिल्कुल पास आ गई है...लड़की ने कंघी निकाली और उसे दाएँ कंधे से पीछे फेंक दिया. फ़ौरन एक जंगल प्रकट हो गया, ऊँघता हुआ और ऊँचा : पेड़ों की जड़ें ज़मीन के भीतर तीन फैदम (एक फैदम – 6 फीट गहराई) जा रही थीं, उनके शिखर आसमान को छू रहे थे.
जादूगरनी वहाँ पहुँची, जंगल कुतरने और तोड़ने लगी. वह कुतरती रही, तोड़ती रही, और लड़की आगे भागती रही.
कुछ समय बाद लड़की ने फिर से कान ज़मीन से लगाया और सुना : ज़मीन थरथरा रही है, हिल रही है जादूगरनी पीछा कर रही है, और बिल्कुल पास आ गई है.
लड़की ने तौलिया निकाला और दाएँ कंधे से पीछे फेंक दिया. फ़ौरन एक नदी बहने लगी – चौड़ी-खूब चौड़ी, गहरी – ख़ूब गहरी!
जादूगरनी नदी के पास आई, गुस्से से दाँत किटकिटाती रही – वह नदी के पार नहीं जा सकती थी.
वह घर वापस आई, अपने साँडों को नदी तक खदेड़ा:
“पिओ, मेरे साँडों! नदी का पूरा पानी पी जाओ!”
साँड पीने लगे, मगर नदी का पानी कम न हुआ.
जादूगरनी गुस्सा हो गई, किनारे पर लेट गई, ख़ुद ही पानी पीने लगी. पीती रही, पीती रही, पीती रही, तब तक पीती रही जब तक उसका पेट फ़ट न गया.
इस बीच लड़की भागती रही - भागती रही. शाम को बाप घर लौटा और बीबी से पूछने लगा:
“मेरी बेटी कहाँ है?”
सौतेली माँ बोली:
“मौसी के पास गई है – सुई-धागा लेने, किसी वजह से देर हो गई.”
बाप परेशान हो गया, बेटी को ढूँढ़ने निकलने ही वाला था, कि बेटी भागती हुई घर आई, उसकी साँस फूल रही थी, दम घुट रहा था.
“तू कहाँ गई थी, बेटी?” बाप ने पूछा.
“आह, बापू!” लड़की ने जवाब दिया. “मुझे सौतेली माँ ने अपनी बहन के पास भेजा था, मगर उसकी बहन तो जादूगरनी निकली, हड्डी के पैर वाली. वह मुझे खाना चाहती थी. बड़ी कोशिश करके मैं उससे छूट कर आई हूँ!”     
बाप को जैसे ही यह सब पता चला, वह दुष्ट बीबी पर बेहद गुस्सा हुआ और उसे गंदी झाड़ू से मारते हुए घर से निकाल दिया. और वह अपनी बेटी के साथ ख़ुशी से और प्यार से रहने लगा.
कहानी ख़तम हुई!