ज़िन्दगी भर याद रखना!
लेखक:
बरीस अल्माज़व
अनुवाद:
आ. चारुमति रामदास
तीसरी कक्षा तक
हम अलग अलग स्कूलों में पढ़ते थे : लड़के हमारे – बॉय्ज़ स्कूल में, और
लड़कियाँ रास्ते के दूसरी तरफ़ वाले स्कूल में. मगर फ़िर ज़ोरदार अफ़वाहें फैलीं कि ये अलग-अलग
शिक्षा बन्द कर दी गई है और अगले शिशिर से लड़के और लड़कियाँ एक साथ ही पढ़ेंगे.
इस बात से
सिर्योगा बेहद परेशान हो गया.
“तू समझ रहा है, अगर
हमें लड़कियों के स्कूल में भेज देंगे, तो क्या होगा?”
उसने मुझसे कहा.
“हमें क्यों
भेजेंगे?”
“क्या कह रहा है!
पन्द्रह लड़कों को उस स्कूल में, और पन्द्रह लड़कियों को यहाँ. अगर
हमें भेजेंगे, तो ये बड़े शर्म की बात होगी!”
मुझे तो इसमें
शर्म की कोई बात नहीं दिखाई दी. क्या हमें फ्रॉक पहनायेंगे और रिबन्स बाँधने पर
मजबूर करेंगे?!
मगर अपने स्कूल से जाने को मेरा मन नहीं था : दो सालों में मुझे
उसकी आदत हो गई थी. अगर ‘ब्रेक’ के
दौरान बड़े बच्चे कम तंग करते तो बहुत अच्छा होता. वर्ना तो चौथी या छठी क्लास का
पहलवान भागते हुए आता और – ठो!!!!- तुम्हारे माथे पर घूसा जमा देता! कितना अच्छा
होता!
“और सोच, अगर
हम दोनों में से किसी एक को वहाँ भेजते हैं, और दूसरे को
यहाँ रख लेते हैं, तो? मतलब, दोस्ती ख़त्म?!”
ये सुनकर मैं भी
परेशान हो गया. मैं और सिर्योगा काफ़ी पुराने दोस्त हैं – किंडर गार्टन से. हम
दोनों एक ही बिल्डिंग में रहते हैं, और एक ही मंज़िल पर – एक दूसरे की
बगल में ही रहते हैं. और मैं सोच भी नहीं सकता कि हम अलग-अलग स्कूलों में जाएँगे!
“कुछ तो करना
होगा!” सिर्योग ने कहा. “टीचर्स के सामने अपने आपको इस तरह से पेश करना होगा, कि
वे किसी भी तरह हमसे अलग न होना चाहें!”
और पूरी गर्मियाँ, फुटबॉल
खेलने के बदले या नदी पर जाने के बदले हम स्कूल में ही डोलते रहे. खिड़कियों की
सिलें रंगने में मदद की...और भी कुछ....सब कुछ तो याद नहीं है...तो खिड़कियों की
सिलें रंगीं...पहले हमने कपड़े से उनकी धूल साफ़ की, और बड़ी
क्लास वाले बच्चों ने रंग लगाया...हमने भी रंग लगाया...एक बार...मैंने अकेले ने एक
पूरी सिल रंग डाली! चौथी क्लास के एक लड़के ने मेरी तारीफ़ भी की. “अरे,” बोला, “तूने तो पेन्टिंग बना दी! ऐवाज़व्स्की!”
क्रांति से पूर्व इस नाम का एक आर्टिस्ट था.
सभी ने हमारी
तारीफ़ की. इवान लुकिच ने तो, जो ‘श्रम’
के टीचर थे, साफ़-साफ़ कह दिया:
“आपका बहुत-बहुत
धन्यवाद. अब आराम कीजिए. ऐसे कार्यकर्ताओं की हिफ़ाज़त करनी चाहिए!” – और चौथी कक्षा
के सारे लड़के,
जो खिड़कियों की सिलें रंग रहे थे, उनसे सहमत
थे.
और हमने बॉयलॉजी
टीचर मारिया सान्ना के लिए एक पूरा डिब्बा भरके मेंढ़कों के अंडे इकट्ठा किए, प्रयोगों
के लिए. वह कहती थी:
“काश, तुम
मेरे लिए मेंढ़कों के अंडे लाते – माइक्रोस्कोप में देखने के लिए.”
हमें क्या? हमें
कोई परेशानी नहीं थी. हमने उसे पूरा डिब्बा भरके अंडे पेश कर दिए.
मतलब, मदद
करते रहे.
तो, हमें
करीब-करीब पूरा यकीन था, कि हमें लड़कियों के स्कूल में नहीं
भेजेंगे. हमारी यहाँ ज़रूरत है!
हम ग़लत नहीं थे!
हमें नहीं भेजा गया और वैसे किसी को भी नहीं भेजा गया. सिर्फ
हमारी दूसरी क्लास से 3-‘ए’ और 3-‘बी’ बना दिए गए. मगर मैं और सिर्योगा 3-‘ए’ में ही रहे. एक साथ. हमारी बैठने की जगहें भी
नहीं बदली गईं!
और 1 सितम्बर को
वो आईं! मतलब,
लड़कियों के स्कूल से – लड़कियाँ. नखरे वाली! रिबन्स वाली! देखने से
ही घिन आती थी. और एक – इरीना को तो उसकी दादी क्लास तक लाई. मैंने फ़ौरन उसका नाम
रख दिया माल्विना. जैसे “गोल्डन की” में थी, क्योंकि वैसी ही
लगती है. वह हमारी बिल्डिंग में रहती है – अभी हाल ही में कहीं से आई है.
उसकी दादी
बिल्कुल मुर्गी जैसी परेशान होती रहती है:
“कितनी दूर है
तुम्हारा स्कूल! ट्राम के पूरे तीन स्टॉप!”
मगर दूर कहाँ है? स्टॉप
तो पास-पास हैं : टिकट-चेकर आता है, आधे कम्पार्टमेन्ट के
टिकट भी ‘चेक’ नहीं कर पाता, कि तुम बाहर निकल जाते हो! वैसे “कमानी” पर भी जा सकते हो. मगर फिर भी
दादी हर रोज़ हाथ पकड़कर स्कूल लाती है और स्कूल से वापस भी ले जाती है! देखने से ही
अजीब लगता है! ये, तीसरी क्लास में?! अगर
दादी उसका हाथ पकड़ कर लाती है, तो वो “पायनियर्स क्लब” में
कैसे जाएगी? मैं इस इरीना-माल्विना की ओर ज़रा भी ध्यान नहीं
देता था, मगर सिर्योगा तो उसके पीछे पागल था. क्योंकि उसे
प्यार हो गया था.
वैसे तो वह मानता
नहीं था,
मैंने उससे सीधे-सीधे पूछ लिया:
“तू, बेवकूफ़,
क्या प्यार करने लगा है?”
मगर वह फ़ौरन
चिल्लाने लगा : “कौन? मैं?! मैं क्या, लाल बालों वाला हूँ क्या?”
मतलब, वह
प्यार नहीं करता था.
मगर वैसे वाकई
में लाल बालों वाला ही था. पहले इतना साफ़-साफ़ पता नहीं चलता था, मगर
अब उसने अपनी ज़ुल्फ़ें बढ़ा ली हैं, जिससे इरीना-माल्विना को
पसन्द आ जाए. तो फ़ौरन पता चल गया कि वह लाल बालों वाला है.
मुझे तो इससे कोई
फ़र्क नहीं पड़ता कि उसके बालों का रंग कैसा है – दोस्त है, और
बस, मगर सिर्योगा को अफ़सोस होता था कि उसके बाल – लाल हैं.
वह अपने साथ आईना रखने लगा – जिससे धूप के ख़रगोश पकड़ सके (ऐसा उसने मुझसे कहा),
मगर पूरे समय इस नन्हे से आईने में देखता रहता. भँवें घुमाता,
अपनी सुअर जैसी पलकें फड़फड़ाता और आहें भरता : “तेरा तो सब अच्छा है.
तू – सफ़ेद बालों वाला है. मगर मैं ज़िन्दगी भर बदनसीब ही रहूँगा”.
मगर उसने अपनी
लाल लट काटी नहीं.
एक बार हम क्लास
में सवालों के जवाब दे रहे थे : आप क्या बनना चाहते हैं और क्यों? हमने
“मातृ भाषा” में सभी व्यवसायों के बारे में पढ़ा था. सिर्योगा को बुलाया गया,
मगर उसने ना “आ” कहा, ना “ऊ”, कोई आवाज़ भी नहीं निकाली...सोच ही नहीं पाया. मुझसे पूछा गया – मैंने कहा:
“मैं नाविक बनना
चाहता हूँ,
- दूर-दूर के देशों की सैर करूँगा और अपनी मातृभूमि की समुद्री
सीमाओं की रक्षा करूँगा.”
मुझे “ए” ग्रेड
दिया गया.
वैसे तो मैं
“जोकर” बनना चाहता हूँ. वो, सर्कस वाला. और जब घर में कोई नहीं
होता, तो मैं चुपके-चुपके आईने के सामने प्रैक्टिस करता हूँ,
मगर क्लास में तो इस बारे में नहीं बताया जा सकता – सब हँसेंगे. ये
भी कहेंगे, “क्या व्यवसाय ढूँढ़ा है! इसलिए मैंने कह दिया
“नाविक” और सभी लड़कों ने भी ऐसा ही कहा. कुछ-कुछ बच्चों ने कहा कि वे “पायलेट”
बनना चाहते हैं, च्कालव जैसा. मगर साफ़ पता चल रहा था कि वे
झूठ बोल रहे हैं. पहली बात, वो क्या बेवकूफ़ हैं?! अगर सब के सब पायलेट बन जाएँगे, या नाविक बन जाएँगे,
तो हवाई जहाज़ों और पानी के जहाज़ों की कमी पड़ जाएगी. और दूसरी बात,
अचानक, कोई कैसे कह देगा कि उसका क्या सपना है?!
“सपना,” जैसा कि हमारे पड़ोसी, तोल्या अंकल कहते हैं, “ये हरेक का निजी मामला होता है! और, किसी के दिल में
झाँकने की कोई ज़रूरत नहीं है!”
मगर इरीना-माल्विना
उठी,
कुछ घबराई और बोली:
“मेरा सबसे
प्यारा सपना है – डॉक्टर बनना और लोगों की ज़िन्दगी बचाना!”
साफ़ दिखाई दे रहा
था,
कि वह झूठ नहीं बोल रही है. सब एकदम ख़ामोश हो गए.
मैं और सिर्योगा
हमेशा पैदल ही घर जाते थे. ना सिर्फ इसलिए, कि दो बार पैदल जाओ,
और, पेस्ट्री या किसी उपयोगी चीज़ के लिए पैसे
बच जाते थे! बात ये नहीं थी! हम कंजूस नहीं थे, बस हमें मज़ा
आता था धीरे-धीरे घर जाने में, और रास्ते में हर तरह की
बातें करने में. तो, उस दिन सिर्योगा ने माल्विना के बारे
में बातें कर-करके मेरे कान पका दिए. इससे पता चल रहा था, कि
उसे – प्यार हो गया है.
मुझे, बेशक
इस बात पर विश्वास है कि वह डॉक्टर बनने की तैयारी कर रही है, मगर मुझे शक है कि ऐसा हो पायेगा. क्योंकि डॉक्टर को किसी भी चीज़ से नहीं
डरना चाहिये – मृत व्यक्तियों से भी, मगर उसे तो दादी भी
स्कूल से लेने आती है. मैंने तो साफ़-साफ़ कह दिया. वह बेहद गुस्सा हो गया, मगर वह बहस नहीं कर सका.
और, दूसरे
दिन मेरे पास आया – उसका चेहरा लटका हुआ था.
“पता है,” बोला, “जल्दी ही उसका जन्म दिन आने वाला है.”
“तो, फ़िर
क्या?” मैंने कहा.
“क्या, क्या?
कुछ गिफ्ट तो देना चाहिये! मगर क्या?”
“दो,” मैंने कहा, “फूल या आइस्क्रीम केक.”
“नहीं”, उसने
जवाब दिया, “फूल मुरझा जायेंगे, और केक
खा जायेंगे और भूल जायेंगे कि यह गिफ़्ट था. कोई ऐसी चीज़ देनी चाहिये जो ज़िंदगी भर
याद रहे.”
“गमले में फूल
लगा कर दे दे! पूरी ज़िंदगी बढ़ते रहेंगे. गमले में लगे फूल की ओर देखेगी और फ़ौरन
उसे तेरी याद आयेगी.”
“हाँ?” सिर्योगा ने गुस्से से आँखें सिकोड़ लीं. “बड़ा अकलमन्द आया है. चड्डी वाला
जीनियस! और तुझे पता है, ऐसे फूल की कीमत क्या होगी? मैं क्या, नोट बनाता हूँ?”
“तू ख़ुद,” मैंने कहा, “जीनियस! चल, बायलॉजी
में मारिया सान्ना से पूछते हैं. वहाँ खूब सारे फूल हैं! वह मना नहीं करेंगी! आख़िर
हमने उनके लिये कित्ते सारे मेंढकों के अण्डे इकट्ठे किये थे!”
“ये अच्छा ख़याल
है!” सिर्योगा ने कहा. चल, भागें बायलॉजी लैब में.”
बायलॉजी लैब में
वार्षिक सांफ़-सफ़ाई हो रही थी : भूसा भरे टूटे-फूटे जानवरों और मोम के मुड़े-तुड़े
सेबों का ढेर पड़ा था, टूटे हुए फूलों के गमले फ़र्श पर पड़े थे. और इस
सारे कबाड़ के ऊपर, बिखरने को तैयार एक कंकाल खड़ा था.
सिर्योगा ने जैसे ही उसे देखा, वह डर से पीला पड़ गया.
“मारिया सान्ना!”
वह फुसफुसाया. “ये मुझे दे दीजिये! मैं आपसे विनती करता हूँ, मेहेरबानी
कीजिये! मेरी पहचान की एक लड़की डॉक्टर बनना चाहती है. और उसे आदत होनी चाहिये! ये इतने
काम की चीज़ है!”
“ले ले...” बॉयलोजी
की टीचर ने अनमनेपन से कह दिया. “सिर्फ, बेहतर होगा, कि तुम लोग इसे अख़बार में लपेट लो, वर्ना तुम्हें ट्राम
में घुसने नहीं देंगे.”
कहाँ की ट्राम! सिर्योगा
ने कंकाल को टाट में लपेट लिया और हमारी बिल्डिंग की तरफ़ चल पड़ा. कंकाल पुराना था.
सारे तार जिनसे उसे बांधा गया था, ज़ंग खा चुके थे, और हड्डियाँ बिखर रही थीं. हम बड़ी देर तक उसे अंधेरे गलियारे में समेटते रहे.
“तू इसे, ऐसे
कैसे, अचानक, गिफ्ट में दे रहा है,”
मुझे शक हुआ. “उसने अभी तक अपने जन्म दिन के बारे में कुछ भी नहीं कहा
है. हमें अभी तक किसी ने बुलाया भी नहीं है!”
“गिफ्ट देंगे – फ़ौरन
बुलायेगी! बुलाना ही पड़ेगा.”
इससे मुझे कुछ तसल्ली
हुई. मुझे लोगों के घर जाना अच्छा लगता है. मगर फ़िर भी मुझे कोई चीज़ परेशान कर रही
थी.
“और अब – इस समय, हम
क्या कहेंगे?”
“कुछ भी नहीं कहेंगे!”
सिर्योगा बड़बड़ाया,
जैसे उसे बुखार हो. “ये - सरप्राईज़ है! तुम कुछ उम्मीद भी नहीं करते,
और अचानक – ब्बा-ब्बाख़! इसकी गर्दन में “जन्मदिन मुबारक!” का कार्ड लटकायेंगे
और दरवाज़े के पास रख देंगे.”
हमने ऐसा ही किया...
“चल, दरवाज़े
के पास रख दे! घण्टी बजा! बजा!” सिर्योगा फुसफुसाया. “और छुप जा! जल्दी! छुप जा!”
दरवाज़े की सिटकनी
बजी,
ताला खुला...और वहाँ कब्रिस्तान जैसी ख़ामोशी छा गई.
“ई-ई-ईख़!” क्वार्टर
में किसी ने कहा और धम् से गिर पड़ा. कंकाल हिल रहा था, जैसे
कुछ सोच रहा हो, कि क्या करना चाहिये, और
वह ख़ुद भी कॉरीडोर में बिखर गया.
और तब दिल दहलाने
वाली चीख़ गूँजी.
जब हम अपनी छुपने
की जगह से उछल कर बाहर आये, तो डरावना दृश्य देखा. कॉरीडोर में
ईरा की दादी पड़ी थी. उसकी बगल में छोटी-छोटी हड्डियों में बिखरा हुआ कंकाल चमक रहा
था, और खोपड़ी बड़ी शान से दूर अंधेरे कॉरीडॉर में धीरे-धीरे लुढ़क
रही थी.
कॉरीडोर के अंत में
इरीना-माल्विना खड़ी थी और ऐसे चिल्ला रही थी जैसे उसके गले में “एम्बुलेन्स” का साइरन
हो.
आगे क्या हुआ, ये
बताना भी बड़ा डरावना है. मगर एक चीज़ हमने हासिल कर ली : इस गिफ्ट को ईरा ज़िंदगी भर
याद रखेगी.
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