माशा और भालू
(रूसी लोककथा)
अनुवाद: आ.
चारुमति रामदास
एक थे दादा, एक थी
दादी. उनके साथ रहती थी पोती माशेन्का.
एक बार सहेलियाँ जंगल में
जा रही थीं मश्रूम और बेरियाँ चुनने. माशेन्का को भी बुलाने आईं.
“दादा, दादी,”
माशा ने कहा, “मुझे सहेलियों के साथ जंगल में
जाने दीजिये!”
दादा-दादी ने कहा:
“चली जा, मगर ध्यान
रखना, सहेलियों से पिछड़ न जाना, वर्ना
भटक जायेगी.”
सहेलियाँ जंगल पहुँचीं, मश्रूम और
बेरियाँ इकट्ठा करने लगीं. और माशेन्का – पेड़ के बाद पेड़, झाड़ी
के बाद झाड़ी के पास जाती रही – और सहेलियों से दूर-दूर निकल गई.
वह उन्हें आवाज़ देने लगी, नाम लेकर
बुलाने लगी. मगर सहेलियाँ को सुनाई ही नहीं दे रहा था, वे
जवाब ही नहीं दे रही हैं.
माशेन्का जंगल में चलती
रही, चलती रही – पूरी तरह भटक गई.
वह बिल्कुल जंगल की गहराई
में पहुँची. एकदम बगिया में. देखती क्या है – एक झोंपड़ी है. माशेन्का ने दरवाज़ा
खटखटाया – कोई जवाब नहीं. दरवाज़ा धकेला, दरवाज़ा खुल गया.
माशेंका झोंपड़ी में गई, खिड़की के
पास बेंच पर बैठ गई.
बैठी और सोचने लगी.
“यहाँ कौन रहता है? कोई दिखाई
क्यों नहीं दे रहा है?”
और उस झोंपड़ी में रहता था
एक बहुत बड़ा भालू. सिर्फ उस समय वह घर में नहीं था, वह जंगल में घूम रहा था.
भालू शाम को वापस लौटा, देखा माशेन्का को, हो गया ख़ुश.
“अहा,” कहने लगा,
“अब मैं तुझे नहीं छोडूँगा! मेरे साथ रहेगी. भट्टी गरमायेगी,
दलिया पकायेगी, मुझे दलिया खिलाएगी.”
माशा परेशान हो गई, बहुत दुखी
हो गई, मगर क्या कर सकती थी? वह भालू
के साथ झोंपड़ी में रहने लगी.
भालू पूरे दिन जंगल में
रहता, और माशेन्का को हुक्म देता कि उसके बगैर झोंपड़ी से बाहर न निकले.
“और, अगर
निकली” कहता, “ तो कैसे भी तुझे पकड़ लूँगा और तब खा ही
जाऊँगा!”
माशेन्का सोचने लगी कि
भालू से कैसे - भागे. चारों ओर जंगल है, किस दिशा में जाना चाहिये, नहीं जानती, पूछे तो किससे पूछे.
वह सोचती रही, सोचती रही
और उसने एक उपाय सोच लिया.
जैसे ही भालू जंगल से आया, माशेन्का
ने उससे कहा:
“भालू, भालू,
मुझे एक दिन के लिये गाँव में छोड़ दे, मैं
दादा-दादी के लिये कुछ अच्छी-अच्छी चीज़ें ले जाऊँगी”.
“नहीं”, भालू ने
कहा, “तू जंगल में भटक जायेगी. ला, मैं
ख़ुद ही उनके लिये अच्छी चीज़ें ले जाऊँगा!“
माशेन्का तो यही चाहती थी!
उसने पेस्ट्रियाँ बनाईं, एक खूब
बड़ी टोकरी ढूँढी और भालू से बोली:
“देख, मैं टोकरी
में पेस्ट्रियाँ रखूँगी और तू उन्हें दादा-दादी के पास ले जाना. मगर याद रखना,
रास्ते में टोकरी मत खोलना, पेस्ट्रियाँ मत
निकालना. मैं बलूत के पेड़ पर चढ़ जाऊँगी, तुझ पर नज़र रखूंगी!”
“ठीक है,” भालू ने
जवाब दिया, “ला, टोकरी दे!”
माशेन्का ने कहा:
“बाहर निकल कर देख, कहीं
बारिश तो नहीं आ रही है! जैसे ही भालू बाहर आँगन में गया, माशेन्का
फ़ौरन टोकरी में घुस गई, और अपने सिर के ऊपर पेस्ट्रियों की
प्लेट रख ली.
भालू वापस आया, देखा –
टोकरी तैयार है. उसे पीठ पर रखा और चल पड़ा गाँव की ओर.
जा रहा है भालू फ़र-वृक्षों
के बीच से, घिसट रहा है बर्च-वृक्षों के बीच से, खाईयों में
घुसता, पहाड़ियों पर चढ़ता. चलता रहा, चलता
रहा, थक गया और बोला:
“ठूँठ पर बैठूंगा,
एक पेस्ट्री खाऊँगा!”
और माशेन्का बोली टोकरी के
भीतर से :
“देख रही हूँ, देख रही हूँ!
बैठना नहीं ठूँठ पर,
खाना नहीं पेस्ट्री!
ले जा दादी के लिये,
ले जा दादा के लिये!”
“आह, कैसी तेज़ नज़र
है,” भालू ने कहा, “सब देख रही है!”
उसने टोकरी उठाई और आगे चला.
चलता रहा, चलता रहा,
रुका, बैठ गया और बोला:
“ठूँठ पर बैठूंगा,
एक पेस्ट्री खाऊँगा!”
और माशेन्का बोली टोकरी के
भीतर से :
“देख रही हूँ, देख रही हूँ!
बैठना नहीं ठूँठ पर,
खाना नहीं पेस्ट्री!
ले जा दादी के लिये,
ले जा दादा के लिये!”
भालू को बहुत अचरज हुआ:
“कैसी चालाक है! ऊँचाई पर बैठी
है, दूर तक देखती है!”
उठ गया और जल्दी-जल्दी चलने
लगा.
पहुँच गया गाँव में, दादा-दादी
का घर ढूँढ़ा, और और पूरी ताकत से गेट पर खटखट करने लगा:
“टक्-टक्-टक्! गेट खोलिये, दरवाज़ा खोलिये!
मैं आपके लिये माशेन्का की ओर से अच्छी-अच्छी चीज़ें लाया हूँ.”
मगर कुत्तों ने भालू को सूँघ
लिया और उस पर झपट पड़े. सभी आँगनों से भागते हुए आए, भौंकने लगे.
डर गया भालू, टोकरी को छोड़ा
गेट के पास और बिना इधर-उधर देखे भाग गया जंगल की ओर.
दादा-दादी गेट के पास आये.
देखा – टोकरी रखी है.
“टोकरी में क्या है?” दादी ने कहा.
दादा ने ढक्कन उठाया, देखा और उसे
अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ. टोकरी में बैठी है माशेन्का – सही-सलामत, तंदुरुस्त.
दादा-दादी बेहद ख़ुश हो गये.
माशेन्का को बाँहों में भर लिया, चूमने लगे, अक्लमन्द है कहने
लगे.
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