पट्टि*
(* खिड़की में शीशा जड़ने का मसाला)
लेखक: निकोलाय
नोसोव
अनु.: आ. चारुमति
रामदास
एक बार शीशागर सर्दियों के लिए खिड़कियों
की फ्रेम्स पर पट्टि लगा रहा था, और कोस्त्या और शूरिक पास ही में खड़े होकर देख
रहे थे. जब शीशागर चला गया, तो उन्होंने खिड़कियों से खुरच कर पट्टि निकाल ली और
उससे जानवर बनाने लगे. बस, उनके जानवर बन नहीं पाए. तब कोस्त्या ने एक साँप बनाया
और शूरिक से कहा:
“देख, मैंने क्या बनाया है.”
शूरिक ने देखा और बोला:
“ये तो लिवर का सॉसेज है.”
कोस्त्या को बहुत बुरा लगा और उसने पट्टि
को जेब में छुपा लिया. फिर वे फिल्म देखने गए. शूरिक बेहद बेचैन था और बार बार पूछ
रहा था:
“पट्टि कहाँ है?”
और कोस्त्या जवाब देता:
“ये रही, जेब में. मैं कोई उसे खा नहीं जाऊँगा!”
थियेटर जाकर उन्होंने टिकिट्स लिए और दो
पेपरमिंट केक ख़रीदे. अचानक घंटी बजी. कोस्त्या अपनी सीट की ओर लपका, मगर शूरिक
कहीं रह गया. तो, कोस्त्या ने दो सीटों पर कब्ज़ा कर लिया. एक पर वह ख़ुद बैठ गया,
और दूसरी पर पट्टि रख दी. अचानक एक अनजान आदमी आया और पट्टि पर बैठ गया.
कोस्त्या ने कहा:
“ये
सीट भरी हुई है, यहाँ शूरिक बैठा है.”
“कौन
शूरिक? यहाँ मैं बैठा हूँ,” उस आदमी ने कहा.
शूरिक भागता हुआ आया और दूसरी ओर से
कोस्त्या की बगल में बैठ गया.
“पट्टि
कहाँ है?” उसने पूछा.
“धीरे!”
कोस्त्या फुसफुसाया और उसने तिरछी आँखों से उस आदमी की ओर इशारा किया.
“ये
कौन है?” शूरिक ने पूछा.
“मालूम
नहीं.”
“फिर
तू उससे डर क्यों रहा है?”
“वो
पट्टि पर बैठा है.”
“तूने
उसे दी ही क्यों?”
“मैंने
नहीं दी, वो ही बैठ गया.”
“तो
वापस ले ले!”
तभी लाईट बुझ गई और फिल्म शुरू हो गई.
“अंकल,”
कोस्त्या ने कहा, “पट्टि दे दीजिए.”
“कैसी
पट्टि?”
“वो
ही जो हमने खिड़की से खरोंच कर निकाली थी.”
“खिड़की
से खरोंची?”
“ओह,
हाँ. दे दीजिए, अंकल!”
“मगर
मैंने तो तुमसे नहीं न ली!”
“हमें
मालूम है कि आपने नहीं ली. आप उस पर बैठे हैं.”
“उस
पर बैठा हूँ?!”
“ओह,
हाँ.”
वह आदमी अपनी कुर्सी से उछला.
“तू
पहले चुप क्यों रहा, बदमाश?”
“मैंने
तो आपसे कहा था कि ये सीट भरी हुई है.”
“और
तूने कहा कब? जब मैं बैठ गया तब!”
“मुझे
कैसे मालूम कि आप बैठ जाएँगे?”
आदमी उठ गया और कुर्सी पर हाथ से टटोलने
लगा.
“कहाँ
है तुम्हारी पट्टि, लुच्चों?” वह बड़बड़ाया.
“थोड़ा
रुकिए, ये रही!” कोस्त्या ने कहा.
“कहाँ?”
“ये,
कुर्सी पर चिपक गई है. हम अभी साफ़ कर देते हैं.”
“जल्दी
से साफ़ करो, बदमाशों!” आदमी को गुस्सा आ गया.
“बैठ
जाईये!” पीछे से लोग उन पर चिल्लाए.
“नहीं
बैठ सकता,” आदमी ने अपना बचाव करते हुए कहा. “मेरी सीट पर पट्टि लगी है.”
आख़िरकार बच्चों ने पट्टि साफ़ कर दी.
“लीजिए,
अब ठीक है,” बैठ जाईये.”
आदमी बैठ गया.
ख़ामोशी फैल गई.
कोस्त्या फिल्म देखना चाह ही रहा था कि
शूरिक की फुसफुसाहट सुनाई दी:
“क्या
तूने अपनी केक खा ली?”
“अभी
नहीं. और तूने?”
“मैंने
भी नहीं खाई. चल, खाते हैं.”
“चल.”
चबाने की आवाज़ सुनाई दी. कोस्त्या ने
अचानक थूक दिया और भर्राया:
“सुन,
तेरी केक स्वादिष्ट है?”
“हूँ...”
“मगर
मेरी तो बहुत बुरी है. कैसी नरम-नरम है. शायद जेब में पिघल गई.”
“और
पट्टि कहाँ है?”
“पट्टि
ये रही, जेब में...बस, थोड़ा रुक! ये तो पट्टि नहीं है, बल्कि केक है. फू! अंधेरे
में गड़बड़ हो गई, समझ रहा है, पट्टि और केक में. फू! तभी मुझे लग रहा था कि ये इतनी
बुरी क्यों है!”
कोस्त्या ने गुस्से से पट्टि को फर्श पर
फेंक दिया.
“तूने
उसे क्यों फेंका?” शूरिक ने पूछा.
“मुझे
उसकी क्या ज़रूरत है?”
“तुझे
नहीं है, मगर मुझे है,” शूरिक बुदबुदाया और पट्टि ढूँढने के लिए कुर्सी के नीचे
रेंग गया. “कहाँ है वो?” उसने गुस्से में कहा. “बस, अब ढूँढ़ते रहो.”
“मैं
अभी ढूँढ देता हूँ,” कोस्त्या ने कहा और वह भी कुर्सी के नीचे चला गया.
“ओय!”
अचानक कहीं नीचे से आवाज़ आई. “अंकल, छोड़िए!”
“ये
कौन है वहाँ पर?”
“ये
मैं हूँ.”
“कौन
– मैं?”
“मैं,
कोस्त्या. मुझे छोड़िए!”
“मगर
मैंने तो नहीं पकड़ा है तुझे.”
“आपने
मेरे हाथ पर पैर रख दिया!”
“तू
कुर्सी के नीचे क्यों गया है?”
“मैं
पट्टि ढूँढ रहा हूँ.”
कोस्त्या कुर्सी के नीचे रेंगने लगा और
उसकी नाक शूरिक की नाक से टकराई.
“कौन
है?” वह डर गया.
“ये
मैं हूँ, शूरिक.”
“और
ये मैं हूँ, कोस्त्या.”
“मिली?”
“कुछ
भी नहीं मिला.”
“मुझे
भी नहीं मिली.”
“चल,
इससे तो अच्छा है कि फिल्म देखते हैं, वर्ना सब लोग डर जाएँगे, मुँह पर पैर
गड़ाएँगे, सोचेंगे कि कुत्ता है.”
कोस्त्या और शूरिक कुर्सियों के नीचे से
रेंग कर बाहर आए और अपनी अपनी जगह पर बैठ गए.
उनके सामने स्क्रीन पर दिखाई दिया : “समाप्त”.
लोग दरवाज़े की तरफ लपके. बच्चे सड़क पर आए.
“ये
कैसी फिल्म देखी हमने?” कोस्त्या ने कहा. “मुझे कुछ समझ में ही नहीं आया.”
“और,
तू क्या सोचता है, कि मुझे समझ में आया?” शूरिक ने जवाब दिया. “कोई बकवास थी.
दिखाते हैं ऐसी भी फिल्में!”
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