मंगलवार, 28 जनवरी 2014

Putty

पट्टि*
(* खिड़की में शीशा जड़ने का मसाला)
लेखक: निकोलाय नोसोव
अनु.: आ. चारुमति रामदास
एक बार शीशागर सर्दियों के लिए खिड़कियों की फ्रेम्स पर पट्टि लगा रहा था, और कोस्त्या और शूरिक पास ही में खड़े होकर देख रहे थे. जब शीशागर चला गया, तो उन्होंने खिड़कियों से खुरच कर पट्टि निकाल ली और उससे जानवर बनाने लगे. बस, उनके जानवर बन नहीं पाए. तब कोस्त्या ने एक साँप बनाया और शूरिक से कहा:
 “देख, मैंने क्या बनाया है.”
शूरिक ने देखा और बोला:
 “ये तो लिवर का सॉसेज है.”
कोस्त्या को बहुत बुरा लगा और उसने पट्टि को जेब में छुपा लिया. फिर वे फिल्म देखने गए. शूरिक बेहद बेचैन था और बार बार पूछ रहा था:
 “पट्टि कहाँ है?”
और कोस्त्या जवाब देता:
 “ये रही, जेब में. मैं कोई उसे खा नहीं जाऊँगा!”
थियेटर जाकर उन्होंने टिकिट्स लिए और दो पेपरमिंट केक ख़रीदे. अचानक घंटी बजी. कोस्त्या अपनी सीट की ओर लपका, मगर शूरिक कहीं रह गया. तो, कोस्त्या ने दो सीटों पर कब्ज़ा कर लिया. एक पर वह ख़ुद बैठ गया, और दूसरी पर पट्टि रख दी. अचानक एक अनजान आदमी आया और पट्टि पर बैठ गया.
कोस्त्या ने कहा:
 “ये सीट भरी हुई है, यहाँ शूरिक बैठा है.”
 “कौन शूरिक? यहाँ मैं बैठा हूँ,” उस आदमी ने कहा.
शूरिक भागता हुआ आया और दूसरी ओर से कोस्त्या की बगल में बैठ गया.
 “पट्टि कहाँ है?” उसने पूछा.
 “धीरे!” कोस्त्या फुसफुसाया और उसने तिरछी आँखों से उस आदमी की ओर इशारा किया.
 “ये कौन है?” शूरिक ने पूछा.
 “मालूम नहीं.”
 “फिर तू उससे डर क्यों रहा है?”
 “वो पट्टि पर बैठा है.”
 “तूने उसे दी ही क्यों?”
 “मैंने नहीं दी, वो ही बैठ गया.”
 “तो वापस ले ले!”
तभी लाईट बुझ गई और फिल्म शुरू हो गई.
 “अंकल,” कोस्त्या ने कहा, “पट्टि दे दीजिए.”
 “कैसी पट्टि?”
 “वो ही जो हमने खिड़की से खरोंच कर निकाली थी.”
 “खिड़की से खरोंची?”
 “ओह, हाँ. दे दीजिए, अंकल!”
 “मगर मैंने तो तुमसे नहीं न ली!”
 “हमें मालूम है कि आपने नहीं ली. आप उस पर बैठे हैं.”
 “उस पर बैठा हूँ?!”
 “ओह, हाँ.”
वह आदमी अपनी कुर्सी से उछला.
 “तू पहले चुप क्यों रहा, बदमाश?”
 “मैंने तो आपसे कहा था कि ये सीट भरी हुई है.”
 “और तूने कहा कब? जब मैं बैठ गया तब!”
 “मुझे कैसे मालूम कि आप बैठ जाएँगे?”
आदमी उठ गया और कुर्सी पर हाथ से टटोलने लगा.
 “कहाँ है तुम्हारी पट्टि, लुच्चों?” वह बड़बड़ाया.
 “थोड़ा रुकिए, ये रही!” कोस्त्या ने कहा.
 “कहाँ?”
 “ये, कुर्सी पर चिपक गई है. हम अभी साफ़ कर देते हैं.”
 “जल्दी से साफ़ करो, बदमाशों!” आदमी को गुस्सा आ गया.
 “बैठ जाईये!” पीछे से लोग उन पर चिल्लाए.
 “नहीं बैठ सकता,” आदमी ने अपना बचाव करते हुए कहा. “मेरी सीट पर पट्टि लगी है.”
आख़िरकार बच्चों ने पट्टि साफ़ कर दी.
 “लीजिए, अब ठीक है,” बैठ जाईये.”
आदमी बैठ गया.
ख़ामोशी फैल गई.
कोस्त्या फिल्म देखना चाह ही रहा था कि शूरिक की फुसफुसाहट सुनाई दी:
 “क्या तूने अपनी केक खा ली?”
 “अभी नहीं. और तूने?”
 “मैंने भी नहीं खाई. चल, खाते हैं.”
 “चल.”
चबाने की आवाज़ सुनाई दी. कोस्त्या ने अचानक थूक दिया और भर्राया:
 “सुन, तेरी केक स्वादिष्ट है?”
 “हूँ...”
 “मगर मेरी तो बहुत बुरी है. कैसी नरम-नरम है. शायद जेब में पिघल गई.”
 “और पट्टि कहाँ है?”
 “पट्टि ये रही, जेब में...बस, थोड़ा रुक! ये तो पट्टि नहीं है, बल्कि केक है. फू! अंधेरे में गड़बड़ हो गई, समझ रहा है, पट्टि और केक में. फू! तभी मुझे लग रहा था कि ये इतनी बुरी क्यों है!”
कोस्त्या ने गुस्से से पट्टि को फर्श पर फेंक दिया.
 “तूने उसे क्यों फेंका?” शूरिक ने पूछा.
 “मुझे उसकी क्या ज़रूरत है?”
 “तुझे नहीं है, मगर मुझे है,” शूरिक बुदबुदाया और पट्टि ढूँढने के लिए कुर्सी के नीचे रेंग गया. “कहाँ है वो?” उसने गुस्से में कहा. “बस, अब ढूँढ़ते रहो.”
 “मैं अभी ढूँढ देता हूँ,” कोस्त्या ने कहा और वह भी कुर्सी के नीचे चला गया.
 “ओय!” अचानक कहीं नीचे से आवाज़ आई. “अंकल, छोड़िए!”
 “ये कौन है वहाँ पर?”
 “ये मैं हूँ.”
 “कौन – मैं?”
 “मैं, कोस्त्या. मुझे छोड़िए!”
 “मगर मैंने तो नहीं पकड़ा है तुझे.”
 “आपने मेरे हाथ पर पैर रख दिया!”
 “तू कुर्सी के नीचे क्यों गया है?”
 “मैं पट्टि ढूँढ रहा हूँ.”
कोस्त्या कुर्सी के नीचे रेंगने लगा और उसकी नाक शूरिक की नाक से टकराई.
 “कौन है?” वह डर गया.
 “ये मैं हूँ, शूरिक.”
 “और ये मैं हूँ, कोस्त्या.”
 “मिली?”
 “कुछ भी नहीं मिला.”
 “मुझे भी नहीं मिली.”
 “चल, इससे तो अच्छा है कि फिल्म देखते हैं, वर्ना सब लोग डर जाएँगे, मुँह पर पैर गड़ाएँगे, सोचेंगे कि कुत्ता है.”
कोस्त्या और शूरिक कुर्सियों के नीचे से रेंग कर बाहर आए और अपनी अपनी जगह पर बैठ गए.
उनके सामने स्क्रीन पर दिखाई दिया : “समाप्त”.
लोग दरवाज़े की तरफ लपके. बच्चे सड़क पर आए.
 “ये कैसी फिल्म देखी हमने?” कोस्त्या ने कहा. “मुझे कुछ समझ में ही नहीं आया.”
 “और, तू क्या सोचता है, कि मुझे समझ में आया?” शूरिक ने जवाब दिया. “कोई बकवास थी. दिखाते हैं ऐसी भी फिल्में!”

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सोमवार, 20 जनवरी 2014

What does Mishka like?

मीश्का को क्या पसन्द है
लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

एक बार मैं और मीश्का उस हॉल में गए जहाँ म्यूज़िक की क्लास लगती है. बोरिस सेर्गेयेविच अपने पियानो पर बैठे थे और हौले-हौले कुछ बजा रहे थे. मैं और मीश्का खिड़की की सिल पर बैठ गए और हमने उन्हें ज़रा भी डिस्टर्ब नहीं किया; उन्होंने भी हमें नहीं देखा और बस, अपना बजाते रहे, उनकी उँगलियों के नीचे से अलग अलग तरह की आवाज़ें उछल-उछल कर बाहर आ रही थीं. वे चारों ओर फैल रही थीं, और कोई बहुत प्यारी सी, ख़ुशनुमा सी चीज़ पैदा हो रही थी. मुझे बहुत अच्छा लगा, मैं काफ़ी देर तक इस तरह बैठ कर सुन सकता था, मगर बोरिस सेर्गेयेविच ने जल्दी ही बजाना बन्द कर दिया. उन्होंने पियानो का ढक्कन बन्द किया, और प्रसन्नता से बोले:
 “ओह! ये कौन लोग हैं! बिल्कुल डाल पर दो चिड़ियों की तरह बैठे हैं! तो, बोलो, क्या हाल है?”
मैंने पूछा:
 “ये आप क्या बजा रहे थे, बोरिस सेर्गेयेविच?”
उन्होंने जवाब दिया:
 “ये शोपेन था. मुझे वह बहुत पसन्द है.”
मैंने कहा:
 “बेशक, जब आप म्यूज़िक-टीचर हैं, तो आप अलग–अलग तरह के गाने पसन्द करेंगे ही.”
उन्होंने कहा:
 “ये गाना नहीं है. हाँलाकि गाने मुझे अच्छे लगते हैं, मगर ये गाना नहीं था. जो मैं बजा रहा था, उसका एक बहुत बड़ा नाम है, न कि सिर्फ ‘गाना’.”
मैंने कहा:
 “क्या? क्या नाम है?”
उन्होंने बड़ी संजीदगी से, बड़ी अच्छी तरह समझाया:
 “म्यू-ज़ि-क. शोपेन – महान संगीतकार थे. उन्होंने म्यूज़िक की बड़ी शानदार रचनाएँ कीं. और मुझे दुनिया में सबसे ज़्यादा म्यूज़िक पसन्द है.”
अब उन्होंने ग़ौर से मेरी तरफ़ देखा और बोले:
 “अच्छा, तुझे क्या अच्छा लगता है? दुनिया में सबसे ज़्यादा?”
मैंने जवाब दिया:
 “मुझे कई सारी चीज़ें अच्छी लगती हैं.”
और मैंने उन्हें बताया कि मुझे क्या क्या पसन्द है. कुत्ते के बारे में बताया, लकड़ी छीलने के बारे में बताया, छोटे से हाथी के बारे में, लाल घुड़सवारों के बारे में, लाल खुरों वाले छोटे से हिरन के बारे में, और प्राचीन योद्धाओं के बारे में, ठण्डे सितारों के बारे में, और घोड़ों के थोबड़ों के बारे में, सब, सब, सब बताया...
वे बड़े ध्यान से मेरी बात सुन रहे थे, जब वह सुन रहे थे तब उनके चेहरा सोच में डूबा था, और फिर उन्होंने कहा:
 “ग्रेट! और मुझे मालूम ही नहीं था. ईमानदारी से कहूँ, तू अभी इतना छोटा है, तू बुरा मत मानना, मगर देख-तो- इत्ती सारी चीज़ें पसन्द करता है! पूरी दुनिया.”
अब मीश्का भी बातचीत में शामिल हो गया. वह गाल फुलाकर कहने लगा:
 “और मैं तो डेनिस्का से भी ज़्यादा अलग-अलग तरह की बहुत सारी चीज़ें पसन्द करता हूँ! ज़रा सोचिए!!”
बोरिस सेर्गेयेविच हँस पड़े:
 “बड़ी दिलचस्प बात है! तो, चल, अपने दिल का राज़ खोल दे. अब तेरी बारी है, उठा टॉर्च! तो, हो जा शुरू! तुझे क्या पसन्द है?”
मीश्का खिड़की की सिल पर थोड़ा कुलबुलाया, फिर वह थोड़ा खाँसा और बोला:
 “मुझे रोल, बन, ब्रेड-लोफ़, और प्लम-केक पसन्द है! मुझे ब्रेड, और केक, और पेस्ट्री, और जिंजर-ब्रेड, चाहे तूला की हो, या शहद वाली, या आईसिंग वाली हो, पसन्द है.
 “रिंग जैसे क्रैक्नेल भी अच्छे लगते हैं, और कुकीज़, और मीट, जैम, कैबेज और चावल भरी पेस्ट्रीज़ भी.
 “मुझे समोसे बेहद हैं , ख़ासकर केक भरे, अगर वे ताज़े हैं; मगर बासे हों तो भी कोई बात नहीं. ओटमील्स और वैनिला बिस्किट्स भी चलते हैं.
 “और, मछलियों में, मुझे स्प्रैट, साइरा, नमक लगी पेर्च, गोबि टमाटर सॉस के साथ, उथले पानी की मछली उसी के रस में, कैवियर चटनी के साथ, सब्ज़ियों के स्लाईस और फ्राइड पोटॅटो अच्छे लगते हैं.           
 “उबला हुआ सॉसेज बेहद पसन्द है, अगर ‘डॉक्टर्स्काया’ ब्रॅण्ड हो तो पूरा एक किलो खा जाऊँगा! ‘स्तोलोवाया’ भी पसन्द है. ये चीज़ें मुझे सबसे ज़्यादा पसन्द हैं.
 “मक्खन के साथ मैकरोनी बहुत पसन्द है, वेर्मिसेली – मक्खन के साथ, चीज़...
 “जैम बहुत अच्छा लगता है, जैम और दही, दही और नमक, मीठा दही, खट्टा दही; ऍपल्स पसन्द हैं, शक्कर में लिपटे हुए, वैसे सिर्फ ऍपल्स भी अच्छे लगते हैं, और अगर ऍपल्स साफ़ किए हुए हों, तो पहले ऍपल्स खाकर बाद ही में कुछ और खाता हूँ.
 “बिस्किट्स, कटलेट्स, सूप, हैरिंग, हरी सब्ज़ियों का सूप, हरी मटर,  बॉइल्ड मीट, स्क्रैम्बल्ड-एग्स, शक्कर, चाय, मिनरल वाटर, ब्रेड-बटर....
 “हलवे के बारे में तो मैं कुछ कहूँगा ही नहीं – किस बेवकूफ़ को हलवा अच्छा नहीं लगता? आह, हाँ! आईस्क्रीम तो बेहद पसन्द है. सात कोपेक वाली, तेरह, पन्द्रह, उन्नीस, बाईस और अठ्ठाईस कोपेक वाली...सभी पसन्द है.”
मीश्का गोल-गोल आँखें घुमाते हुए छत की ओर देखे जा रहा था और गहरी—गहरी साँस ले रहा था. ज़ाहिर था कि वह खूब थक गया है. मगर बोरिस सेर्गेयेविच उसकी ओर ध्यान से देखे जा रहे थे, और वह बोलता रहा.
आख़िरकार वह एक गहरी साँस लेकर ख़ामोश हो गया. उसकी आँखों से पता चल रहा था कि अब वह इंतज़ार कर रहा है कि कैसे बोरिस सेर्गेयेविच उसकी तारीफ़ करेंगे. मगर उन्होंने कुछ अप्रसन्नता से और कुछ सख़्ती से मीश्का की ओर देखा. जैसे कि वो भी मीश्का से कुछ और सुनना चाहते थे : क्या मीश्का को कुछ और बताना है. मगर मीश्का चुप था. ऐसा लग रहा था कि उन दोनों को ही एक दूसरे से किसी बात की उम्मीद थी, और इस उम्मीद में वे ख़ामोश थे.
ख़ामोशी को तोड़ा बोरिस सेर्गेयेविच ने.
 “तो, मीश्का,” उन्होंने कहा, “तुझे बहुत सारी चीज़ें पसन्द हैं, बहस की कोई बात ही नहीं है, मगर वो सब कुछ एक जैसा है, बस खाने-पीने की चीज़ें ही हैं. ऐसा लगता है कि तुझे बस ‘फूड-वर्ल्ड’ ही पसन्द है. और बस, इतना ही...और लोग? तुम किसे प्यार करते हो? या फिर कोई जानवर?”
अब मीश्का थरथरा गया और लाल हो गया.
 “ओय,”  उसने झेंपते हुए कहा, “देखिए, मैं तो भूल ही गया था! और मुझे पसन्द हैं – बिल्ली के पिल्ले! और दादी!”
      

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बुधवार, 15 जनवरी 2014

The Elephant and Radio

हाथी और रेडियो   

लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

दुनिया में ऐसे छोटे-छोटे रेडियो होते हैं, वे सचमुच के रेडियो से छोटे होते हैं, सिगरेट के डिब्बे जितने बड़े. और उनका अन्टेना घूमता है. ओह, क्या ज़ोर से बजते हैं, पूरी कॉलोनी में सुनाई देता है! ग़ज़ब की चीज़ है! ये चीज़ मेरे पापा को उनके दोस्त ने प्रेज़ेंट की थी. इस रेडियो का नाम है ट्रान्सिस्टर. उस शाम, जब हमें वह दिया गया था, हम पूरे समय प्रोग्राम सुनते रहे. मैंने उसे अच्छी तरह से चलाना सीख लिया और अन्टेना को मैं कभी निकाल देता, कभी बाहर कर लेता, और सारे बटन घुमाता, और म्यूज़िक लगातार और ज़ोर से बजता रहता, क्योंकि मैं तो इस काम में इतना एक्सपर्ट हूँ कि पूछिए मत.
इतवार को सुबह मौसम एकदम साफ़ था, सूरज पूरे जोश से चमक रहा था, और पापा ने सुबह-सुबह कहा:
 “चल, जल्दी से तैयार हो जा, और फिर हम दोनों ज़ू-पार्क जाएँगे. काफ़ी दिनों से गए नहीं हैं, एकदम ‘बोर’ हो गए हैं.”
ये सुनकर मैं भी बहुत ख़ुश हो गया, और मैं जल्दी से तैयार हो गया. आह, मुझे ज़ू-पार्क में घूमना अच्छा लगता है, छोटी सी लामोच्का (दक्षिण अमेरिका में पाया जाने वाला ऊँट की जाति का जीव, जो बोझा ढ़ोने के काम आता है.) को देखना और यह कल्पना करना अच्छा लगता है कि उसे हाथों में लेकर सहलाया जा सकता है! और उसका दिल पागल की तरह धड़क रहा है, और वह अपने सुंदर, फुर्तीले पैरों से चढ़ रही है. और ऐसा लगता है कि अभी ज़ोर से टकरा जाएगी. मगर, कोई बात नहीं, सब ठीक हो जाता है.               
या फिर छोटा सा टाइगर. उसे भी हाथों में लेना कितना अच्छा होता! और वो तुम्हारी ओर डरी-डरी आँखों से देख रहा है. रूह एकदम पंजों में समा गई है. डरता है, बेवकूफ़, शायद सोचता है : शायद, मेरी मौत की घड़ी आ गई.
जंगली भैंसे की चारदीवारी के सामने खड़े होना और उसके बारे में सोचना भी अच्छा लगता है कि ये ज़िंदा पहाड़, जिस पर मानो सोच में डूबे बूढ़े का चेहरा लगा है, और तुम इस पहाड़ के सामने खड़े हो और तुम्हारा वज़न है सिर्फ पच्चीस किलो, और ऊँचाई 97 से.मी. जब तक हम चल रहे थे, मैं पूरे रास्ते ज़ू-पार्क की अलग अलग विभिन्नताओं के बारे में सोचता रहा और मैं बड़े सुकून से चल रहा था, उछल-कूद नहीं कर रहा था, क्योंकि मेरे हाथों में ट्रान्सिस्टर था, जिसमें म्यूज़िक गुनगुना रहा था. मैं उसमें एक स्टेशन से दूसरा स्टेशन बदल रहा था, और मेरा मूड बेहद अच्छा था. और जब हम पहुँच गए, तो पापा ने कहा : “ हाथी के पास,” क्योंकि ज़ू-पार्क में पापा को सबसे ज़्यादा हाथी पसन्द था. पापा सबसे पहले उसीके पास जाते, जैसे किसी बादशाह के पास जाते हैं. वो हाथी का हालचाल पूछते हैं, और बाद में जहाँ सींग समाए, वहीं चल पड़ते हैं. इस बार भी हमने ऐसा ही किया. हाथी, जैसे ही घुसते हो, सीधे हाथ पे खड़ा है, एक अलग कोने में, छोटे से टीले पे; दूर से ही उसका विशालकाय शरीर दिखाई देता है, जो चार खम्भों पर खड़े किसी अफ्रीकन झोंपड़ें जैसा होता है.
उसकी फेन्सिंग के पास लोगों का एक बहुत बड़ा झुण्ड खड़ा था, जो उसे देखकर ख़ुश हो रहा था. उसका प्यारा-सा, मुस्कुराता-सा चेहरा दिखाई दे रहा था, वह तिकोने होंठ से कुछ बुदबुदा रहा था. मैं फ़ौरन भीड़ में से रास्ता बनाता हुआ हमारे शैंगो के पास पहुँचा (उसका नाम शैंगो था, वो इण्डियन हाथी महमूद का बेटा था – ऐसा उसकी फेन्सिंग के पास लगे ख़ास बोर्ड पर लिखा था.)
पापा भीड़ में से रास्ता बनाते हुए आगे आए और चिल्लाए:
 “गुड मॉर्निंग, शैंगो महमूदोविच!”
और हाथी ने देखा और ख़ुशी से सिर हिलाया. जैसे कि कह रहा हो, “ओह, नमस्ते, नमस्ते, आप कहाँ थे इतने दिन?”
और आसपास के लोगों ने मुस्कुराकर और कुछ ईर्ष्या से पापा की ओर देखा. और मुझे भी, सच कहूँ तो, बड़ी जलन हुए, कि हाथी ने पापा की बात का जवाब दिया. और मेरा भी दिल करने लगा कि शैंगो मेरी तरफ़ भी ध्यान दे, और मैं ज़ोर से चिल्लाया:
 “शैंगो महमूदोविच, नमस्ते! देखिए, मेरे पास क्या है.”
और मैंने पापा का ट्रान्सिस्टर अपने सिर के ऊपर उठा लिया. ट्रान्सिस्टर से म्यूज़िक आ रहा था, वह कई सारे सोवियत गाने बजा रहा था. शैंगो महमूदोविच मुड़ा और म्यूज़िक सुनने लगा. अचानक उसने अपनी सूँड ऊपर उठाई, उसे मेरी ओर बढ़ाया और अचानक हौले से मेरे हाथों से इस नासपीटे ट्रान्सिस्टर को छीन लिया.
मैं तो एकदम बुत बन गया, हाँ, और पापा भी. और पूरी भीड़ भी बुत बन गई. शायद, सब सोच रहे थे कि अब आगे क्या होता है : वापस दे देगा? ज़मीन पर पटक देगा? पैरों से कुचल देगा? मगर शैंगो महमूदोविच, शायद सिर्फ म्यूज़िक सुनना चाहता था. उसने न तो ट्रान्सिस्टर को तोड़ा, ना ही उसे वापस दिया. वह ट्रान्सिस्टर पकड़े था – और बस! वह म्यूज़िक सुन रहा था. और तभी, बदकिस्मती से, म्यूज़िक रुक गया, शायद, उनके पास कोई ‘ब्रेक’ था, मालूम नहीं. मगर शैंगो महमूदोविच सुनता रहा. उसके भाव ऐसे थे कि वो इंतज़ार कर रहा है कि कब ट्रान्सिस्टर बजना शुरू होगा. मगर, शायद लम्बा इंतज़ार करना था, क्योंकि ट्रान्सिस्टर ख़ामोश था. और तब, शायद, शैंगो महमूदोविच ने सोचा : ये बेकार की चीज़ मैं क्यों अपनी सूँड में उठाए हूँ? ये बज क्यों नहीं रहा है? देखूँ तो, इसका स्वाद कैसा है?
और, ज़्यादा सोच-विचार किए बिना, इस बिन्दास हाथी ने सीधे अपनी सूँड के नीचे, अपने नमदे जैसे बड़े मुँह में मेरे शानदार ट्रान्सिस्टर को घुसा दिया, हाँ, उसने उसे चबाया नहीं, बस, सिर्फ़ ऐसे रख लिया जैसे किसी सन्दूक में रख रहा हो, और, मुलाहिज़ा फ़रमाईये, गटक लिया.      
भीड़ दोस्ताना अंदाज़ में ‘आह! आह!’ कर उठी और सकते में आ गई. और हाथी ने एक धृष्ठ मुस्कान से इस अचंभित भीड़ की ओर देखा और दबी-दबी आवाज़ में कहा:
“अब हम सामूहिक एक्सरसाईज़ शुरू करते हैं! और!...”
और उसके भीतर से कोई जोश भरा संगीत गूंजने लगा. अब तो सब लोग हँसते-हँसते लोट-पोट हो गए, उनके पेट, बस फटने ही वाले थे, वे हँसी के मारे कराह रहे थे : इस जंगली शोर में और कोई आवाज़ें सुनाई नहीं दे रही थीं. हाथी एकदम शांति से खड़ा था. सिर्फ आँखों से बदमाशी झाँक रही थी.
और जब सब धीरे-धीरे शांत होने लगे, तो हाथी के मुँह से कुछ दबी-दबी मगर स्पष्ट आवाज़ सुनाई दी:
 “अपनी जगह पर तेज़ कूद, एक-दो, तीन-चार...”
और भीड़ में, संयोग से, बहुत सारे लड़के और लड़कियाँ थे, और जब उन्होंने ‘तेज़-कूद’ के बारे में सुना, तो ख़ुशी के किलकारियाँ मारने लगे. और फ़ौरन इस काम में शामिल हो गए:
 एक-दो-तीन-चार...वे मज़े से कूद रहे थे. और किलकारियाँ मार रहे थे, और दहाड़ रहे थे, और अलग-अलग करतब कर रहे थे. क्या बात है! हाथी की कमाण्ड में कूदना किसे अच्छा नहीं लगता? ऐसे में तो हर कोई कूदने लगेगा. मैं भी फ़ौरन कूदने लगा. जबकि मैं अच्छी तरह समझ रहा था कि चाहे और लोग कूदें या न कूदें, मुझे तो सबसे कम कूदना और ख़ुश होना चाहिए. असल में तो मुझे रोना चाहिए था. मगर इसके बदले, जानते हैं, मैं गेंद की तरह उछल रहा था : एक-दो-तीन-चार! और ऐसा लग रहा था कि मेरा ट्रान्सिस्टर छीन लिया गया है और इससे मुझे खुशी हो रही है. इस बीच एक्सरसाईज़ चलती रही. अब हाथी अगली एक्सरसाईज़ की ओर बढ़ा.
 “हाथों की मुट्ठियाँ बांधो, मुक्के हिलाने की और धक्का देने की एक्सरसाईज़. एक-दो-तीन!”
बेशक, अब तो हंगामा होने लगा. बस, समझ लीजिए कि यूरोपियन बॉक्सिंग चैम्पियनशिप हो रही है. कुछ लड़के और लड़कियाँ तो पूरी संजीदगी से यह एक्सरसाईज़ कर रहे थे और एक दूसरे को ऐसे धुनक रहे थे, कि अंजर-पंजर ढीले हो गए. वहाँ से गुज़रती हुई एक दादी-माँ ने किसी बूढ़े आदमी से पूछा:
 “यहाँ ये क्या हो रहा है? कैसी मारपीट है?”
और उसने उसे मज़ाक में जवाब दिया:
 “आम बात है. हाथी पब्लिक से फिज़िकल एक्सरसाईज़ करवा रहा है.”
दादी माँ का मुँह खुला रह गया.
मगर शैंगो महमूदोविच अचानक चुप हो गया, और मैं समझ गया कि मेरा रेडिओ उसके पेट में टूट ही गया है. बेशक किसी आँत-वाँत में घुस गया होगा और – हमेशा के लिए खो गया. इसी समय हाथी ने मेरी ओर देखा और, दुख से सिर हिलाते हुए, मगर काफ़ी उलाहने के साथ गा उठा:
 “क्या तुझे अभी भी याद है, कैसे सुख की घड़ी थी वो?”
मैं दुख के मारे रोने-रोने को हो गया. क्या मुझे याद है? ये भी क्या बात हुई! अगर एक पल और बीतता तो मैं मुक्कों से उस पर पिल पड़ता. मगर तभी उसके पास नीले एप्रन में एक आदमी आया. उसके हाथों में हरी-हरी टह्नियाँ थीं, क़रीब पचास या शायद और भी ज़्यादा, और उसने हाथी से कहा:
 “ठीक है, ठीक है, दिखा, दिखा, तेरे भीतर ये क्या बज रहा है? मगर हौले से, हौले से, देख मैं तेरे लिये टहनियाँ लाया हूँ, अच्छा, अच्छा, खा ले.”
और उसने टहनियाँ हाथी के सामने रख दीं.
 शैंगो महमूदोविच ने बेहद सावधानी से उस आदमी के पैरों के पास मेरा ट्रान्सिस्टर रख दिया.
मैं चिल्लाया:
 “हुर्रे!”
 बाकी के लोग भी चिल्लाए:
 “वन्स मोर!”
और, हाथी मुड़ गया और टहनियाँ चबाने लगा. उस कर्मचारी ने चुपचाप मुझे मेरा ट्रान्सिस्टर दे दिया, - वह गरम था और उस पर लार चिपकी थी.
मैंने और पापा ने घर आकर उसे शेल्फ पर रखा और अब हम हर शाम उसे चलाते हैं. क्या बजता है! बिल्कुल अफ़लातून! सुनने के लिए आईये!

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सोमवार, 6 जनवरी 2014

Car

कार
लेखक: निकोलाय नोसोव
अनु. : आ. चारुमति रामदास


जब मैं और मीश्का बिल्कुल छोटे थे, तब हमें कार में सैर-सपाटा करना बहुत अच्छा लगता था, मगर बस, ये संभव नहीं हो पाता था. हम ड्राईवरों से कितनी ही मिन्नत क्यों न करते, कोई भी हमें सैर-सपाटे पर नहीं ले जाना चाहता. एक बार हम कम्पाउण्ड में टहल रहे थे. अचानक देखते क्या हैं – हमारे गेट के पास सड़क पर एक कार आकर रुकी. ड्राईवर कार से उतर कर कहीं चला गया. हम कार के पास भागे. मैंने कहा:
 “ये ‘वोल्गा’ है.”
और मीश्का बोला:
 “नहीं, ये ‘मस्क्विच’ है.”
 “बहुत अकल है न तुझमें!” मैंने कहा.
 “बेशक, ‘मस्क्विच’ है,” मीश्का ने कहा. “देख, कैसा हुड है इसका.”
 “कहाँ का, हुड?” मैंने कहा, “वो तो लड़कियों की ड्रेस में होता है, और कारों में होता है बोनेट! तू देख, कैसी है कार-बॉडी.”
मीश्का ने देखा और कहा:
 “ हाँ, वैसी ही बॉडी है जैसी ‘मस्क्विच’ की होती है.”
 “ये तेरी होती है,” मैंने कहा, “बॉडी, और कार की कोई बॉडी-वॉडी नहीं होती.”
 “अरे, तूने ही तो कहा था ‘बॉडी’.”
 “ ‘कार-बॉडी’ मैंने कहा था, न कि ‘बॉडी’! एख़, तू भी ना! समझता नहीं है और घुसे चला आता है!”
मीश्का पीछे से कार के पास आया और बोला:
 “और क्या ‘वोल्गा’ में बफ़र होता है? बफर - मस्क्विच में होता है.”
मैंने कहा:
 “तू तो चुप ही कर. सोच लिया कोई-सा बफर. बफर – रेलगाड़ी के डिब्बे में होता है, और कार में होता है बम्पर. बम्पर ‘मस्क्विच’ में भी होता है और ‘वोल्गा’ में भी.”
मीश्का ने बम्पर को हाथ लगाया और कहने लगा:
 “इस बम्पर पे बैठ कर जाया जा सकता है.”
 “कोई ज़रूरत नहीं है,” मैंने उससे कहा. मगर वो बोला:
 “तू डर मत. थोडी दूर जाएँगे और कूद पडेंगे.”
इतने में ड्राईवर आया और कार में बैठ गया. मीश्का पीछे से दौड़ कर बम्पर पे बैठ गया और फुसफुसाया:
 “जल्दी से बैठ! जल्दी से बैठ!” मैंने कहा:
 “ज़रूरत नहीं!”
मगर मीश्का बोला:
 “जल्दी आ जा! ऐख़ तू, डरपोक!”
मैं भागा, और किनारे से झूल गया. कार चल पड़ी और कैसे तेज़ी से भाग रही है! मीश्का डर गया और बोला:
 “मैं कूद रहा हूँ! मैं कूद रहा हूँ!”
 “नहीं,” मैंने कहा, “चोट लग जाएगी!”
मगर वह अपनी बात पर अड़ा रहा:
 “मैं कूद रहा हूँ! मैं कूद रहा हूँ!”
और वह एक पैर नीचे भी रखने लगा. मैंने पीछे मुड़ कर देखा, और ...हमारे पीछे-पीछे एक कार तेज़ी से आ रही है. मैं चीखा:
 “नहीं उतरना! देख, वो पीछे वाली कार तुझे कुचल देगी!”
फुटपाथ पर लोग रुक जाते हैं, हमारी ओर देखते हैं. चौराहे पर पुलिस वाले ने सीटी बजाई. मीश्का बेहद डर गया, वो पुल पर कूद पड़ा, मगर हाथ नहीं छोड़ रहा है, बम्पर को कस के पकड़े हुए है, पैर ज़मीन पे घिसट रहे हैं. मैं घबरा गया, उसकी गर्दन पकड़ के ऊपर खींचने लगा. कार रुक गई, और मैं हूँ कि उसे खींचे जा रहा हूँ. आख़िरकार मीश्का दुबारा बम्पर पे चढ़ गया. चारों ओर लोग जमा हो गए. मैं चिल्लाया:
 “पकड़, बेवकूफ़, कस के पकड़!”
अब सब लोग हँसने लगे. मैंने देखा कि हम तो रुक गए हैं, और नीचे उतर पड़ा.
 “उतर,” मैंने मीश्का से कहा.
मगर वो डर के कारण कुछ भी समझ नहीं पा रहा है. मैंने खींचकर उसे इस बम्पर से अलग किया. पुलिस वाला भाग कर आया, कार का नम्बर लिखने लगा. ड्राईवर कार से बाहर निकला – सब उस पर टूट पड़े:
 “देखता नहीं है कि तेरे पीछे क्या हो रहा है?”
और वे हमारे बारे में भूल गए. मैंने फुसफुसाकर मीश्का से कहा:
 “चल, चलते हैं!”
हम एक किनारे पे हट गए और भाग कर चौराहे पर पहुँचे. भागते हुए घर आए, साँस फूल रही थी. मीश्का के दोनों घुटने छिल गए थे, उनमें से खून आ रहा था और पतलून फट गई थी. ये तब हुआ था जब वह पुल पर पेट के बल घिसट रहा था. मम्मा से उसे खूब डाँट पड़ी!
फिर मीश्का ने कहा:
 “पतलून की तो कोई बात नहीं है, और घुटने भी ख़ुद ही अच्छे हो जाएँगे. मुझे बस, ड्राईवर पे दया आ रही है: उसे, शायद, हमारे कारण सज़ा मिलेगी. देखा न, पुलिसवाला कार का नम्बर लिख रहा था?”
मैंने कहा:
 “हमें वहीं रुक कर कहना चाहिए था कि ड्राईवर की कोई गलती नहीं है.”
 “हम पुलिस वाले को ख़त लिखेंगे,” मीश्का ने कहा.
हम ख़त लिखने लगे. लिखते रहे, लिखते रहे, क़रीब बीस कागज़ बरबाद कर दिए, आख़िरकार लिख ही लिया.
 “प्रिय पुलिसवाले कॉम्रेड! आपने ग़लत नम्बर नोट कर लिया. मतलब, आपने नम्बर तो सही नोट लिया, बस, ये ग़लत है कि ड्राईवर की गलती है. ड्राईवर की ज़रा भी गलती नहीं है. गलती मेरी और मीश्का की है. हम कार से लटक गए, और उसे मालूम ही नहीं था. ड्राईवर अच्छा है और वो कार सही चला रहा था.”
लिफ़ाफ़े पर हमने लिखा:
 “गोर्की और बल्शाया ग्रूज़िन्स्काया वाला चौरस्ता, पुलिसवाले को मिले.”
ख़त लिफ़ाफ़े में बन्द किया और लेटरबॉक्स में डाल दिया. शायद, पहुँच जाएगा.
                                           

                                        ****

शनिवार, 4 जनवरी 2014

Ping-Ping


पिंग-पिंग
लेखिका: मारिया किसेल्योवा
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

ठण्डे-ठण्डे अन्टार्क्टिका में, जो नीली-नीली हिम-शिलाओं से और सफ़ेद-सफ़ेद बर्फ से ढँका था, जवान मादा- पेन्ग्विन ने अण्डा दिया.
“आख़िरकार हो ही गया,” पेन्ग्विन ने उत्तेजना से कहा, वह काफ़ी समय से इंतज़ार कर रहा था, कि ये कब होता है. “बधाई हो, तुझको.” उसने ख़ुशी से अपने पंख फ़ड़फडाए और छोटी सी पूँछ हिलाई.
इसके बाद मादा-पेन्ग्विन ने बहुत संभाल कर, जिससे कि वह बर्फ़ पर न गिर जाए, अण्डा अपने पति को दिया, और उसने उसे पेट के नीचे बनी गरम तह में अपनी हथेलियों पर ले लिया. अब बीबी से बिदा लेने का समय हो गया था, क्योंकि वो अन्य मादा-पेन्ग्विनों के साथ महासागर में जाने वाली थी.
 “होशियार रहना,” पेन्ग्विन ने कहा, “याद रखना कि मैं तेरी राह देख रहा हूँ.”
उसे आराम करना होगा, तन्दुरुस्त होना होगा और अपने पहले बच्चे के लिए मछलियाँ इकट्ठा करना होगा, जो तब तक पैदा हो चुका होगा.
 “तुम भी तन्दुरुस्त रहना, अपनी हिफ़ाज़त करना.”
 “मैं तेरा बहुत इंतज़ार करूंगा,” पेन्ग्विन ने फिर से कहा और झुककर बीबी का अभिवादन किया.
वह भी उसके सामने झुकी : आख़िर वे उतनी जल्दी तो नहीं न मिलने वाले थे.
मादा-पेन्ग्विनों ने अपने पतियों को पिल्ले सेने के लिए किनारे पर छोड़ दिया और कन्धे से कन्धा मिलाकर जल्दी-जल्दी महासागर की ओर चल पड़ीं.
जब पेन्ग्विन अकेले रह गए तो किनारा कितना ख़ाली-ख़ाली लगने लगा! वे बहुत सारे थे, मगर फिर भी उन्हें ख़ालीपन महसूस हो रहा था. बर्फबारी तेज़ हो गई, और पेन्ग्विन एक दूसरे से चिपक गए जिससे कि कुछ गर्माहट महसूस कर सकें और सो जाएँ. जब वे जागे तो उन्होंने एक दूसरे का हाल-चाल पूछा, इधर-उधर की बातें कीं, एक ही जगह पर झुण्ड बनाए रहे. नाश्ता करना अच्छा होता, मगर इसके लिए ठण्डे पानी में मछली पकड़ना होगा, मगर, फिर अण्डे का क्या? जम जाएगा, मर जाएगा...नहीं, बिना नाश्ते के और खाने के ही रहना होगा जब तक पिल्ला बाहर नहीं आ जाता और कुछ ताक़तवर नहीं हो जाता.
एक लम्बा महीना बीता, उसके बाद दूसरा...
 “क्या तुम्हारा हुआ?” पेन्ग्विन ने अपने पड़ोसी से पूछा, “मेरा भी अभी नहीं हुआ.”
और एक दिन...
 “हो गया नन्हा-पिल्ला!” एक चीख़ सुनाई दी. “हो गया नन्हा-पेन्ग्विन!”
पूरा झुण्ड उत्तेजित हो गया, मतलब...समय हो गया, समय आ गया.
 “और एक!”
 “और!”
 ‘अब मेरा वाला भी जल्दी ही आएगा,’ पेन्ग्विन ने सोचा. ‘शायद बेटा होगा.’
और फिर अचानक ‘टुक्-टुक्’ - अण्डे के आवरण के भीतर हौले से हुई ’टुक्-टुक्!’ – छोटी सी नाक बाहर आई. अब अण्डा दो हिस्सों में टूट गया और पेन्ग्विन की हथेलियों में नन्हा पिल्ला दिखाई दिया.
 “बेटा! स्वागत है, बेटा!” नौजवान पिता ने प्रसन्नता से कहा.
 “ये तुमने मुझसे कहा?” पेन्ग्विन-पिल्ले ने पूछा.
 “...तुझसे. तू मेरा बेटा है, मेरा पहला बच्चा. मगर, अपनी नाक अन्दर कर, वर्ना जम जाएगा.”
 “अभ्भी. मुझे, बस, तुमसे कुछ कहना है.”
 “बोल.”
 “मुझे भूख लगी है. तूने खाना खा लिया?”
 “आह, हाँ. मैंने खा लिया...सही में, बहुत पहले खा लिया. मगर तुझे मैं अभ्भी खिलाता हूँ.”
और पापा-पेन्ग्विन ने अपनी चोंच से पिल्ले को पिलाया दूध, जिसे उसने कब से उसके लिए संभाल के रखा था.
 “मुझे भूख लगी है,” पिल्ले ने थोड़ी देर में फिर कहा. और पापा ने उसे फिर से खिलाया.
 “कितना अच्छा है तू, कितना गर्माहट भरा! मैं तुझसे प्यार करता हूँ!”
 “मैं भी तुझसे प्यार करता हूँ,” पेन्ग्विन ने जवाब दिया.
दूसरे दिन पिल्ले ने कहा:
 “और तू अकेला क्यों है?”
 “मैं अकेला नहीं हूँ, तू क्या कह रहा है, क्या कह रहा है! हम अकेले नहीं हैं, हमारे पास मम्मी है. वो महासागर में गई है, जल्दी ही लौट आएगी.”
 “क्या वो भी ऐसी ही अच्छी और गर्माहट भरी है?”
 “वो और भी ज़्यादा अच्छी और ज़्यादा गर्माहट वाली है.”
 “मैं उससे भी प्यार करता हूँ.”
पिता ने बेटे का नाम रखा ‘पिंग-पिंग’. पिंग-पिंग हर चीज़ जानने के लिए उत्सुक था, वो अक्सर अपनी नाक बर्फ में बाहर निकालता, वो ये जानना चाहता था कि चारों तरफ़ क्या है, पापा की आरामदेह हथेलियों से आगे क्या-क्या है. पिता, हिलते-डुलते, धीरे-धीरे - जिससे कि पिल्ला गिर न जाए - किनारे पर टहलते, पड़ोसियों से बतियाते, मगर बात घूम फिर कर वहीं आ जाती : जल्दी ही मादा-पेन्ग्विनें लौट आएंगी अपने पतियों के पास, अपने पिल्लों के पास, जिन्हें उन्होंने अब तक देखा नहीं है. काश, जल्दी...जल्दी आ जातीं...
पिंग-पिंग कुछ बड़ा हो गया और बाहर घूमने लगा. वह अपने ही जैसे नन्हे-नन्हे पेन्ग्विनों के साथ खेलता, और जब हथेलियाँ जमने लगतीं तो फिर से पिता की रोएँदार जेब में घुस जाता. मगर, मम्मा कब आएगी?
और, ये लो! आख़िरकार पूरा किनारा सजीव हो उठा:
 “तैर रही हैं, तैर रही हैं! वापस लौट रही हैं मादा-पेन्ग्विनें!”
पापा-पेन्ग्विन बहुत चिंतित थे. उन्हें याद आ गया कि वे काफ़ी दुबले हो गए हैं, पीले पड़ गए हैं: ठीक ही तो है, लम्बे समय से उन्होंने कुछ भी तो नहीं खाया था, सिवाय बर्फ के. वे जल्दी-जल्दी अपने आप को ठीक-ठाक करने लगे: बीबी के सामने ऐसी दयनीय हालत में जाना अच्छा नहीं लगता!      
तैर रही हैं, तैर रही हैं! बड़ा भूरा झुण्ड किनारे की ओर आ रहा है. ये रहीं पहली पेन्ग्विनें, उछल कर कड़ी बर्फ पर कूदीं. उनका ज़ोरदार ध्वनि से, झुक-झुक कर स्वागत किया गया.
 “स्वागत है, स्वागत है! शुभागमन!”
वे जो अपनी अपनी पेंग्विनों से मिले, ख़ुशी से गुटुर-गूँ कर रहे थे, उन्हें पिल्ले दिखा रहे थे. बाकी के उत्सुकता से गर्दनें ऊँची कर रहे थे : कहाँ है, कहाँ? आख़िरकार सारे परिवार इकट्ठे हो गए. किनारा ख़ाली हो गया, और सिर्फ पिंग-पिंग के पिता निराशा से दूर पर निगाहें लगाए थे.
 “अरे, कहाँ है मम्मा?” पिंग-पिंग लगातार पूछे जा रहा था. “क्या हुआ?”
पेन्ग्विन को मालूम नहीं था, मगर कुछ तो हुआ था. वह दुख में पूरी तरह डूब गया और उसने ध्यान ही नहीं दिया कि पिल्ला एक ओर को जाकर बड़ी हिम-शिला के पीछे छिप गया है.
और पिंग-पिंग चलता रहा और पूछता रहा कि क्या किसीने उसकी माँ को देखा है? वो कहाँ है? अचानक एक विशाल समुद्री-पक्षी उसके ऊपर मंडराने लगा. मगर पिंग-पिंग चलता ही रहा.
 “तू मुझसे डरता क्यों नहीं है?” उस पक्षी ने पूछा. “मैं तो तुझे खा जाऊँगा.”
 “मुझे कोई फ़रक नहीं पड़ता. मेरी मम्मा खो गई है.”
 “मगर, देख, मेरे पंजे कैसे नुकीले हैं!”
 “पंजे तो पंजे. मगर, मैं तुझे आगाह किए देता हूँ : मैं सबसे गंदे स्वाद वाला हूँ.”
 “क्यों?”
 “क्योंकि मैं पूरे समय रोता रहता हूँ. मेरी मम्मा खो गई है.”
समुद्री-पक्षी ने मंडराना बन्द कर दिया और पिंग-पिंग के पास आकर बैठ गया.
 “हूँ, तू अजीब पिल्ला-पेन्ग्विन है. हो सकता है कि तू स्वादिष्ट ना हो. तेरी मम्मा क्या महासागर में खो गई है? तो, थोड़ा रुक, मैं देखकर आता हूँ.”
और वह फिर से ऊपर उठा और किनारे से दूर उड़ने लगा. फिर वो वापस आया और बोला:
 “वो जम कर बर्फ़ की शिला से चिपक गई है. उसकी ताक़त ख़त्म हो गई और वह आगे तैर नहीं सकी. उस शिला पर कुछ आराम करने के लिए रुकी, और तभी पाला गिरने लगा और उसे जमा दिया.”
 “मुझे मम्मा के पास जाना है!” पिंग-पिंग चीख़ा. “मैं उसे बचाऊँगा!”
समुद्री-पक्षी ने यक़ीन दिलाया कि ये नामुमकिन है, अब कोई भी उसकी मदद नहीं कर सकता.”
 “मैं बचाऊँगा, मैं बचाऊँगा! मुझे मम्मा के पास ले चलो!”
समुद्री-पक्षी ने पिंग-पिंग को अपने बड़े-बड़े पंजों में उठाया और ले चला.
 “और, तू कर क्या सकता है?” जब उसने पिल्ले-पेन्ग्विन को हिम शिला पर उतारा तो पूछा.
पिंग-पिंग रोने लगा और मम्मा को घर चलने के लिए कहने लगा. उसके आँसू कड़ी बर्फ पर गिर रहे थे, और वह पिघल गई, और माद-पेन्ग्विन के जमे हुए पंजे आज़ाद हो गए. उसने आँखें खोलीं.
 “ये मेरा बेटा है?”
 “बस, तू ऐसा न सोचना, कि मैं इतना रोतला हूँ: आँसुओं से बर्फ़ीली-चट्टान को पिघला दिया.”
 “तूने अपने प्यार से बर्फीली-शिला को पिघला दिया, मेरे बच्चे. मगर अभी तू बहुत छोटा है और तुझे तो तैरना भी नहीं आता. तू यहाँ आया कैसे और अब वापस कैसे जाएगा?”
 “मुझे तो समुद्री-पक्षी लाया है. वो ही वापस भी ले जाएगा. और पिंग-पिंग जल्दी ही किनारे पर लौट आया, उसके पीछे-पीछे उसकी मम्मा तैर रही थी. पापा-पेन्ग्विन की ख़ुशी की कोई सीमा ही नहीं थी. मगर उनकी मुलाक़ात बस थोड़ी ही देर के लिए थी. अब पेन्ग्विनों को समुद्र में जाना था शिकार के लिए. और मादा-पेन्ग्विनें और पिल्ले-पेन्ग्विन उनका इंतज़ार करने के लिए किनारे पर रह गए.

                                           ***