शनिवार, 31 मई 2014

Tarro MenDhakee ka Safar

टर्रो मेंढकी का सफ़र
लेखक: व्सेवोलोद गार्शिन
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

एक बार की बात है, इस दुनिया में टर्रो मेंढकी रहती थी. वो दलदल में बैठती, मच्छर और दूसरे कीड़े पकड़ती; बसंत में अपनी सहेलियों के साथ मिलकर ज़ोर-ज़ोर से टर्राती. अगर कोई सारस-वारस उसे खा न जाता, तो पूरी ज़िन्दगी इसी तरह गुज़ार देती. मगर एक हादसा हो गया.
एक बार वो पानी से बाहर निकलते ठूँठ की नोक पर बैठकर गुनगुनी रिमझिम बारिश का मज़ा ले रही थी.     
 “आह, आज मौसम कितना नम है!” उसने सोचा. “कितना सुहावना है – दुनिया में जीना!”
 बारिश उसकी चटख, चमचमाती पीठ पर पड रही थी, बूँदें उसके जिस्म से होकर पंजों तक बह रही थीं, ये सब बेहद मज़ेदार था, इतना मज़ेदार कि वो बस टर्राने ही वाली थी, मगर तभी उसे याद आया कि ये पतझड़ का मौसम है, और पतझड़ में मेंढक टर्राते नहीं हैं – टर्राने के लिए होती है बसंत ऋतु, - और, इस समय टर्राकर वो अपनी मेंढकी की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचाएगी. इसलिए वो चुप रही और बस, बारिश का लुत्फ़ उठाती रही.
अचानक हवा में पतली, सीटी जैसी, टूटी-टूटी आवाज़ सुनाई दी. बत्तखों की एक ख़ास किस्म होती है: जब वे उड़ती हैं, तो हवा को काटते हुए उनके पंख मानो गाते हैं, या, यूँ कहिए कि सीटी बजाते हैं. जब हवा में काफ़ी ऊपर ऐसी बत्तखों का झुण्ड उड़ता है तो सुनाई देती है सिर्फ फ्यू-फ्यू-फ्यू-फ्यू, और वे ख़ुद इतनी ऊँचाई पर होते हैं कि दिखाई भी नहीं देते. इस बार बत्तखें बड़ा-सा अर्ध-गोल बनाते हुए नीचे उतरीं और उसी दलदल पे बैठीं जिसमें टर्रो मेंढकी रहती थी.
 “क्र्या, क्र्या!” उनमें से एक ने कहा, “काफ़ी दूर जाना है, कुछ खा लेना चाहिए.”
मेंढ़की फ़ौरन छिप गई. हालाँकि उसे मालूम था कि बत्तखें उस जैसी बड़ी और मोटी मेंढ़की को नहीं खाएँगी, मगर फिर भी, अपनी हिफ़ाज़त के लिए वो ठूँठ के नीचे दुबक गई. मगर, कुछ सोचने के बाद उसने अपना बिट-बिट आँखों वाला मुँह पानी से बाहर निकालने की ठानी: उसे ये जानना था कि बत्तखें किधर को उड़ रही हैं.
 “क्र्या, क्र्या!” दूसरी बत्तख़ ने कहा. “अभी से ठण्ड पड़ने लगी है! फ़ौरन ‘साऊथ’ जाना होगा! फ़ौरन ‘साऊथ!”
और उसकी बात से सहमति दर्शाते हुए सारी बत्तखें ज़ोर-ज़ोर से ‘क्र्या-क्र्या’ करने लगीं.
 “बत्तख़ महाशयों!” हिम्मत बटोरकर मेंढ़की ने पूछा, “ये ‘साऊथ’ क्या होता है, जहाँ आप उड़कर जाने वाले हैं? परेशानी के लिए माफ़ी चाहती हूँ.”
बत्तखों ने मेंढ़की को घेर लिया. पहले तो उनका दिल उसे खा जाने को करने लगा, मगर फिर उनमें से हरेक ने सोचा कि मेंढ़की काफ़ी बड़ी है और उनके गले में नहीं घुसेगी. तब वे सब अपने पंख फड़फड़ाते हुए चिल्लाने लगीं:
 “साऊथ में बहुत अच्छा होता है! अभी वहाँ गर्मी है! वहाँ ऐसी बढ़िया-बढ़िया गर्म-गर्म दलदलें हैं! कैसे-कैसे कीड़े हैं! बहुत अच्छा है साऊथ में!”
वो इतना चिल्लाईं कि मेंढ़की लगभग बहरी हो गई. बड़ी मुश्किल से उसने उन्हें चुप किया और उनमें से एक से, जो उसे सबसे मोटी और सबसे ज़्यादा अक्लमन्द लग रही थी, ये समझाने के लिए कहा कि ‘साऊथ’ क्या होता है. और जब उसने साऊथ के बारे में बताया, तो मेंढ़की जोश में आ गई, मगर फिर भी अंत में उसने बड़ी सावधानी से पूछ ही लिया:
 “क्या वहाँ खूब मच्छर और पतंगे होते हैं?”
 “ओह! गुच्छे के गुच्छे!” बत्तख ने जवाब दिया.
 “क्वा!” मेंढ़की ने कहा और फ़ौरन पीछे मुड़ कर देखा कि आसपास उसकी सहेलियाँ तो नहीं हैं, जो पतझड़ में टर्राने के लिए उसे डाँटने लगेंगी. वो अपने आप को टर्राने से रोक न पाई और एक बार उसने टर्र-टर्र कर ही दिया.                         
 “मुझे भी अपने साथ ले चलो!”
 “अरे, ये तो बड़े ताज्जुब की बात है!” बत्तख़ चहकी. “हम तुझे कैसे ले जा सकते हैं? तेरे तो पंख ही नहीं हैं.”
 “आप लोग कब उड़ रहे हो?”
”जल्दी, जल्दी!” सारी बत्तखें चीखीं. क्र्या! क्र्या! क्र्या! यहाँ तो बड़ी ठण्ड है! ‘साऊथ! साऊथ!”
“मुझे बस पाँच मिनट सोचने दीजिए,” मेंढकी ने कहा, “मैं अभी वापस आती हूँ, शायद मैं कोई अच्छी तरक़ीब सोच लूँ.”
और वो फुदकते हुए ठूँठ से, जिस पर वो फिर से चढ़ गई थी, पानी में कूद गई, कीचड़ में पूरी तरह घुस गई, जिससे आसपास की चीज़ें सोचने में ख़लल न डालें. पाँच मिनट बीत गए, बत्तख़ें बस उड़ने ही वाली थीं कि अचानक ठूँठ की बगल में, पानी से उसका थोबड़ा दिखाई दिया, किसी मेंढक का थोबड़ा जितना चमक सकता है, उतना वह चमक रहा था.
 “मैंने सोच लिया! मुझे मिल गया!” उसने कहा. “तुममें से दो बत्तख़ें अपनी चोंचों में एक टहनी पकडो, मैं उसके बीचोंबीच लटक जाऊँगी. आप उड़ते रहोगे, और मैं जाऊँगी. बस, तुम क्र्या-क्र्या मत करना, और मैं भी टर्र-टर्र न करूँगी, फिर सब बढ़िया हो जाएगा.”
एक बढ़िया, मज़बूत टहनी ढूँढी गई, दो बत्तखों ने उसे अपनी चोंचों में पकड़ा, मेंढकी ने अपने मुँह से उसे बीचोंबीच में पकड़ लिया, और पूरा झुण्ड हवा में ऊपर उठा. ऊँचाई के मारे मेंढकी की साँस रुकने लगी, इसके अलावा बत्तखें समान गति से नहीं उड़ रही थीं और टहनी को खींच रही थीं; बेचारी मेंढकी हवा में झूल रही थी, जैसे कागज़ का जोकर हो, और पूरी ताक़त से अपने जबड़े भींचे थी, जिससे टहनी से छूटकर ज़मीन पर न गिर जाए. मगर उसे जल्दी ही आदत हो गई और अब वो इधर-उधर देखने भी लगी. उसके नीचे खेत, चरागाह, नदियाँ और पहाड़ तेज़ी से गुज़रते जा रहे थे, उसे उन्हें ठीक से देखने में भी तकलीफ़ हो रही थी, क्योंकि, टहनी पर लटके-लटके, वो पीछे की ओर, और थोड़ा-सा ऊपर को देख रही थी, मगर फिर भी थोड़ा बहुत देख ही लिया, और ख़ुश भी होती रही. उसे गर्व भी महसूस हो रहा था.
 “देखा, मैंने कितनी बढ़िया बात सोची,” वह अपने बारे में सोच रही थी.
बत्तख़ें उसे ले जाने वाली जोडी के पीछे-पीछे उड़ रही थीं, चिल्ला रही थीं और उसकी तारीफ़ कर रही थीं.
 “हमारी मेंढ़की तो बड़ी होशियार है,” वे कह रही थीं, “बत्तखों में भी ऐसी होशियार बत्तख़ मुश्किल से मिलेगी.”
उसने बड़ी मुश्किल से अपने आप को उन्हें धन्यवाद देने से रोका, क्योंकि उसे याद आ गया कि मुँह खोलते ही वो भयानक ऊँचाई से गिर जाएगी, उसने जबड़ों को और भी कसके भींच लिया और सब्र करने का फ़ैसला कर लिया.
बत्तखें अब घने खेतों, पीले पड़ते हुए जँगलों और गेहूँ के ढेरों वाले गाँवों के ऊपर से उड़ रही थीं. यहाँ आदमियों की आवाज़ें, और अनाज अलग करने की साँटियों की आवाज़ें आ रही थीं. लोगों ने बत्त्खों के झुण्ड की ओर देखा और, मेंढ़की का दिल करने लगा कि ज़मीन के बिल्कुल क़रीब से उड़े, अपने आप को दिखाए और ये सुने कि लोग उसके बारे में क्या कह रहे हैं. अगले पड़ाव पर उसने कहा:
 “क्या हम कुछ कम ऊँचाई पर नहीं उड़ सकते? ऊँचाई के कारण मेरा सिर चकराने लगा है, और मुझे डर है कि अगर मेरी तबियत ख़राब हो गई तो मैं गिर पडूँगी.”
भली बत्तखों ने उससे कुछ नीचे उड़ने का वादा कर लिया. अगले दिन वो इतना नीचे उड़ रही थीं कि उन्हें आवाज़ें भी सुनाई दे रही थीं:
 “देखो, देखो!” एक गाँव में कुछ बच्चे चिल्लाए, “बत्तखें मेंढकी को ले जा रही हैं!”
मेंढ़की ने सुना और उसका दिल उछलने लगा.
 “देखो, देखो!” दूसरे गाँव में बड़े लोग चिल्लाए, “कैसा अजूबा है!”
 “क्या उन्हें मालूम है कि ये तरक़ीब मैंने सोची है, न कि बत्तखों ने?” टर्रो मेंढ़की ने सोचा.
 “ देखो, देखो!” तीसरे गाँव में लोग चिल्लाए. “कैसी अचरज की बात है! और ये, इतनी चालाक बात आख़िर सोची किसने?”
अब तो मेंढ़की अपने आप को रोक नहीं पाई और सावधानी-वावधानी सब भूल कर, पूरी ताक़त से चिल्लाई:
 “ये मैंने सोची है! मैंने!”
और इस चीख़ के साथ ही वो औंधे मुँह ज़मीन की ओर उड़ने लगी. बत्तखें ज़ोर से चिल्लाईं, उनमें से एक ने तो उड़ते-उड़ते बेचारी अपनी हमराही को पकड़ना चाहा, मगर चूक गई. मेंढ़की अपने चारों पंजों से कँपकँपाते हुए ज़मीन पर गिर पड़ी; मगर चूँकि बत्तखें बड़ी तेज़ी से उड़ रही थीं, इसलिए वो उस जगह पे नहीं गिरी, जहाँ चिल्लाई थी और जहाँ पक्की सड़क थी, बल्कि सौभाग्यवश, उससे काफ़ी दूर गिरी. वो टपकी गाँव के छोर पर स्थित एक गन्दे तालाब में.
वो फ़ौरन उछलकर पानी से बाहर आ गई और फिर से पूरी ताक़त से चिल्लाई:
 “मैंने! ये मैंने सोचा था!”
मगर आसपास तो कोई नहीं था. अचानक हुई इस छपाक से सभी स्थानीय मेंढ़क तालाब में छुप गए. जब वे पानी से बाहर निकले, तो आश्चर्य से नई मेंढकी को देखने लगे.
और, उसने उन्हें अचरजभरी कहानी सुनाई कि कैसे वो पूरी ज़िन्दगी सोचती रही और उसने बत्तखों पर उड़ने का नया तरीक़ा ईजाद किया, कैसे उसके पास अपनी बत्तखें थीं जो उसे जहाँ चाहो वहाँ ले जाती थीं; कैसे वह ख़ूबसूरत ‘साऊथ’ होकर आई है, जहाँ इतना अच्छा है, जहाँ गुनगुनी दलदल है और इत्ते सारे मच्छर और हर तरह के खाने लायक कीड़े हैं.
“मैं यहाँ ये देखने के लिए आई हूँ कि आप कैसे जीते हो,” उसने कहा. “मैं यहाँ बसंत तक रहूँगी, जब मेरी बत्तखें वापस लौटेंगी, जिन्हें मैंने फ़िलहाल छुट्टी दे दी है.”
मगर बत्तखें फिर कभी लौटकर नहीं आईं. उन्होंने सोचा कि टर्रो मेंढकी के ज़मीन पर टुकड़े-टुकड़े हो गए हैं, और वे बड़ी देर तक उसके लिए अफ़सोस करती रहीं.


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