सोमवार, 5 मई 2014

Zoo-Corner

ज़ू-कॉर्नर
लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

क्लास ख़त्म होने से पहले हमारी टीचर, रईसा इवानोव्ना ने कहा:
”मुबारक हो, बच्चों! स्कूल-कमिटी ने हमारे स्कूल में ज़ू-कॉर्नर बनाने का फ़ैसला किया है. एक छोटा-सा ज़ू-पार्क. तुम लोग ख़ुद ही जानवरों की निगरानी और देखभाल किया करोगे.”
मैं तो ऐसे कूदा कि पूछो मत! ये तो वाक़ई में बहुत दिलचस्प है! मैंने पूछा:
 “ये ज़ू-कॉर्नर होगा कहाँ?”
 “तीसरी मंज़िल पर,” रईसा इवानोव्ना ने जवाब दिया, “स्टाफ़-रूम की बगल में...”
 “बाप रे,” मैंने कहा, “मगर जंगली भैंसा तीसरी मंज़िल पे चढ़ेगा कैसे?”
 “कैसा जंगली भैंसा?” रईसा इवानोव्ना ने पूछा.
 “झबरीला,” मैंने कहा, “सींगों वाला और पूँछ वाला.”
 “नहीं,” रईसा इवानोव्ना ने कहा, “जंगली भैंसा हमारे यहाँ नहीं होगा, हमारे पास होंगे कई सारे पंछी, बहुत से साही, खूब सारी मछलियाँ और चूहे. तुममें से हर कोई एक-एक छोटा-सा प्राणी हमारे ज़ू-कॉर्नर के लिए ला सकता है. फिर मिलेंगे!”
मैं घर गया, फिर हमारे कम्पाऊण्ड में गया, मैं पूरे समय यही सोचता रहा कि हमारे ज़ू-कॉर्नर में बड़ॆ हिरन को, या याक को, या फिर कम से कम हिप्पोपोटेमस को कैसे पाला जाए, कितने ख़ूबसूरत होते हैं वे...
मगर तभी वहाँ मीशा स्लोनोव भागकर आया और बोला:
 “अर्बात पे ज़ू-शॉप में सफ़ेद चूहे दे रहे हैं!!”
मैं बेहद ख़ुश हो गया और मम्मा के पास भागा.
 “मम्मा,” मैंने चिल्लाते हुए कहा, “मम्मा बोलो ‘हुर्रे!’ अर्बात पे सफ़ेद चूहे दे रहे हैं.”
मम्मा ने कहा:
 “कौन दे रहा है, किसको दे रहा है, क्यों दे रहा है, और मैं ‘हुर्रे’ क्यों कहूँ?”
 मैंने कहा:
 “ज़ू-शॉप में दे रहे हैं, ज़ू-कॉर्नर्स के लिए, मुझे पैसे दो, प्लीज़!”
मम्मा ने पर्स लिया और बोली:
 “और तुम लोगों को ज़ू-कॉर्नर के लिए सफ़ेद चूहे ही क्यों चाहिए? क्या साधारण, भूरे चूहों के पिल्लों से काम नहीं चल सकता?”
 “तुम भी ना, मम्मा” मैंने कहा, “दोनों में कैसा मुक़ाबला? भूरे चूहे – मतलब, एकदम साधारण; और सफ़ेद – जैसे नियमित, डाइट वाला खाना होता है, समझ गईं ना?”
अब मम्मा ने मुझे एक हल्की-सी चपत लगाई, पैसे दिए, और मैं ज़ू-शॉप की ओर लपका.
वहाँ लोगों की व्वो भीड़ थी. बेशक, ये बात समझ में भी आ रही थी, क्योंकि ज़ाहिर है, सफ़ेद चूहों को कौन प्यार नहीं करता?! इसलिए ज़ू-शॉप में धक्का-मुक्की हो रही थी, और मीश्का स्लोनोव काऊण्टर के पास खड़ा होकर व्यवस्था बनाने की कोशिश करने लगा. मगर फिर भी मेरा काम नहीं बना!
ठीक मेरी आँखों के सामने चूहे ख़तम हो गए.
मैंने सेल्स-गर्ल से कहा:
 “अब, और चूहे कब आएँगे?”
वो बोली:
 “जब हेड-ऑफ़िस से भेजेंगे. मेरा ख़याल है कि साल के अंत में.”
मैंने कहा:
 “आप जनता की ज़रूरत के मुताबिक चूहों की सप्लाई ठीक से नहीं करती हैं.”
और मैं दूर हट गया. और, शायद मूड ऑफ़ होने के कारण मैं अचानक दुबला होने लगा. मगर मम्मा ने जैसे ही मेरे चेहरे के भाव देखे, वो हाथ नचाते हुए बोली:
 “डेनिस, चूहों की वजह से अपना दिमाग़ ख़राब मत करो. नहीं हैं, तो कोई बात नहीं! चल, तेरे लिए मछली खरीदेंगे! पहली क्लास के बच्चे लिए सबसे बढ़िया चीज़ है – मछली! तुझे कैसी वाली चाहिए, हाँ?”
मैंने कहा:
 “ नील नदी का मगरमच्छ!”
 “और अगर छोटी लें तो?”
 “तो फिर मोलिनेज़िया?” मैंने कहा. “मोलिनेज़िया – इत्ती छोटी सी मछली होती है, बस आधी दियासलाई जित्ती.”
और हम वापस उस शॉप में आए. मम्मा ने पूछा:
 “ये मोलिनेज़िया कैसी दे रहे हैं आप? मुझे क़रीब दस ख़रीदनी हैं ये नन्ही-नही मछलियाँ, ज़ू-कॉर्नर के लिए.”
सेल्सगर्ल ने जवाब दिया:
 “डेढ़-डेढ़ रूबल्स की एक!”
मम्मा ने सिर पकड़ लिया.
 “ये,” मम्मा ने कहा, “मैंने कल्पना ही नहीं की थी! चल, बेटा, घर जाएँगे.”
  “और मम्मा, मोलिनेज़िया?”
 “हमें नहीं चाहिए,” मम्मा ने कहा. “घर जाएँगे. और मोलिनेज़िया, ओह, वो...वो काटती हैं.”
मगर फिर भी, मुझे बताइए तो सही कि मैं अपने ज़ू-कॉर्नर के लिए क्या ले जाऊँ? चूहे ख़तम हो गए, और मोलिनेज़िया काटती हैं. क्या मुसीबत है!

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