शुक्रवार, 27 जून 2014

Asmaani Haathi

आसमानी हाथी
लेखक: विताली बिआन्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
अन्द्रैका का कोई दोस्त नहीं था. पापा समन्दर पे चले गए, सफ़र पे. मम्मा के पास तो टाईम ही नहीं है: अकेली रहती है अन्द्रैका के साथ खाड़ी के किनारे पर. चारों ओर है बस पानी, और रेत, और झाड़ियाँ.
उकता जाता है अन्द्रैका...
मम्मा कहती: वहाँ, खाड़ी के उस किनारे पर रहते हैं मेंढ़कों के हरे-हरे पिल्ले. कूदते हैं एक टीले से दूसरे पर, पानी में छप-छप करते हैं, पलटियाँ खाते हैं. अन्द्रैका ने ज़िद पकड़ ली: मेंढ़कों के पिल्ले लाओ, लाओ!
   “मेंढ़क के पिल्ले चाहिए!”
 “ऐख, कैसा ज़िद्दी है तू!” मम्मा ने कहा. “थोड़ा ठहर, भट्टी गरम हो जाए, फिर जाऊँगी, तेरे लिए दोस्त लाऊँगी.”
 और सच में उसने जल्दी-जल्दी सारे काम निपटा लिए और ड्योढ़ी में आई. आसमान की ओर देखा: कहीं बारिश तो नहीं होगी!
छोटा बच्चा डर जाता है.
नहीं, कहाँ की बारिश! धूप निकली है. उमस भरी गर्मी है. आसमान नीला-नीला, काफ़ी ऊपर सफ़ेद-सफ़ेद बादल हैं. बस एक छोटा-सा बादल थोड़ा काला-सा है, वो भी उस किनारे पर. छोटा सा, बहुत दूर.
’हवा नहीं चल रही है,’ मम्मा ने सोचा. ‘इतनी जल्दी यहाँ तक नहीं आएगा. वो किनारा नज़दीक ही तो है. फ़ौरन लौट आऊँगी.’
चप्पू उठाए, चेन खड़खड़ाई.
अन्द्रैका से बोली:
 “यहीं बैठ, इधर-उधर भागना नहीं! अगर देखा कि भाग गया है, तो मेंढ़कों के सारे पिल्ले वापस पानी में फेंक दूँगी.”
उसने गेट बन्द किया: बच्चा कम्पाऊण्ड से कहीं नहीं जा सकता. नाव को धकेला, चप्पू चलाने लगी – समतल पानी पर पंछी की तरह नाव जाने लगी.
अन्द्रैका की मम्मा जवान है, फुर्तीली है.
अन्द्रैका घर में अकेला रह गया. ड्योढ़ी में बैठा रहा, काली नाव को नीले-नीले पानी में भागते हुए देखता रहा.
जल्दी ही नाव कलहँस जितनी हो गई, फिर बत्तख़ जितनी.
इस तरह बैठकर इंतज़ार करना बड़ा ‘बोरिंग’ है.
अन्द्रैका बादलों को देखने लगा.
आसमान में कई सारे बादल हैं: एक – ‘बन’ जैसा है, दूसरा – जहाज़ जैसा. जहाज़ फ़ैलने लगा, फ़ैलने  लगा - और तौलिया बन गया.
नीली-नीली खाड़ी के ऊपर छितरे बादल हैं, समुद्री चिड़ियों के झुण्ड जैसे. और नीचे, उस किनारे के ऊपर है – एक छोटा-सा काला बादल. बिल्कुल तस्वीरों वाली किताब के छोटे से हाथी जैसा: सूँड भी है, और पूँछ भी है.
मज़ेदार हाथी है: ऊपर की ओर चढ़ रहा है, आँखों के सामने ही बढ़ रहा है...
किनारे वाले ऊँचे जंगल ने मम्मा की आँखों से काले बादल को छुपा दिया. नाव का सामने वाला हिस्सा कीचड़ में घुस गया. किनारे पर ह्ल्की लहर मचल रही थी.
मम्मा उछल कर बाहर आई, नाव को बाहर किनारे पे घसीटा. मेंढ़कों के लिए एक डिब्बा लिया और जंगल में गई. जंगल में है – दलदल. नन्हे-नन्हे मेंढक टीलों पे बैठे हैं. बिल्कुल छोटे-छोटे, बेहद दिलचस्प. वाक़ई में कल ही तो ये डिम्भों की तरह तैर रहे थे: हरेक की एक छोटी-सी पूँछ थी.
 ‘प्ल्युख! प्लुख! शू! शू! शू!’ – सब पानी में कूद गए. अब पकड़ लो उन्हें!
मम्मा काले बादल के बारे में भूल गई. एक टीले से दूसरे पर उछल रही है, मेंढ़कों का पीछा कर रही है. एक मेंढक पकड़ती है, डिब्बे में डालती है – और दूसरे के पीछे भागती है.
उसने ध्यान ही नहीं दिया कि चारों ओर एकदम ख़ामोशी छा गई है. खाड़ी के ऊपर अबाबीलें नीचे-नीचे उड़कर ग़ायब हो गईं. जंगल में पंछियों ने गाना बन्द कर दिया. एक ठण्डी, नम छाया तेज़ी से फैलने लगी. और जब मम्मा ने सिर ऊपर उठाया, तो देखा कि उसके सिर के ठीक ऊपर काला आसमान लटक रहा है...
अन्द्रैका देख रहा था कि कैसे छोटा-सा हाथी बढ़कर बड़ा हाथी बन गया है.
बड़े हाथी ने अपनी सूण्ड नीचे की, उसे गोल घुमाया – और फिर से अपने भीतर समेट लिया.
फिर न जाने कहाँ से उसकी तीन पतली-पतली सूण्डें निकल आईं.
वे चिंघाड़ रही थीं, चिंघाड़ रही थीं – और अचानक उन्होंने मिलकर एक मोटी, लम्बी सूण्ड बना लीं.
सूण्ड नीचे की ओर बढ़ने लगी. वो फैलती गई, फैलती गई और ज़मीन तक पहुँच गई.
तब हाथी चल पड़ा. उसके भारी-भरकम काले पैर भयानक तरह से चल रहे थे. उनके नीचे की ज़मीन गरज रही थी. विशालकाय आसमानी हाथी खाड़ी से होकर सीधे अन्द्रैका की ओर आ रहा था...             
मम्मा ने देखा कि काले आसमान से उसके और खाड़ी के बीच एक गोल खंभा उतर गया है.
उससे मिलने के लिए दलदल से एक वैसा ही खम्भा उठकर खड़ा हो गया.
बवण्डर ने उसे झपट लिया और स्क्रू की तरह घुमा-घुमाकर बादल बना दिया.
बादल गरजते, कड़कते हुए आसमान पे चला गया.
मम्मा चीख़ पड़ी और नाव की ओर भागी. बवण्डर उसके पैर उखाड़ रहा था, ज़मीन की ओर दबा रहा था और कस के दबोच रहा था.
वो उछल नहीं पा रही थी: हवा मोटे रबड़ की तरह सख़्त और मज़बूत हो गई थी.
अपने हाथों से छोटे-छोटे टीलों को पकड़ते हुए मम्मा रेंगने लगी.
जिस डिब्बे में उसने मेंढ़क रखे थे वो उसकी पीठ पर बेरहमी से वार कर रहा था. उसने यह भी देखा कि ज़मीन से कुछ काले-काले धब्बे तेज़ी से आसमान की ओर बढ़े. फिर मूसलाधार बारिश एक दीवार की तरह उसकी आँखों के सामने खड़ी हो गई. पूरी हवा गरज रही थी, और ऐसा अंधेरा हो गया, जैसे तलघर में होता है.
उसने आँखें भींच लीं और अन्दाज़ से रेंगती रही: अंधेरे में वह जैसे खो गई, नाव कहाँ है, खाड़ी कहाँ है, अन्द्रैका कहाँ है – उसे कुछ भी पता नहीं था.
और जब गड़गड़ाहट अचानक रुक गई, तो बस इतना ही सोच पाई: ‘कानों के परदे फट गए!’ – और उसने आँखें खोलीं.
उजाला हो गया. बारिश रुक गई थी.
काला बादल जल्दी-जल्दी दूसरे किनारे की ओर जा रहा था.
नाव औंधे मुँह पड़ी थी.
मम्मा भागी, उसे सीधा किया, लहरों में धकेला और पूरी ताक़त से चप्पू चलाने लगी...
विशालकाय आसमानी हाथी चिंघाड़ रहा था और सीधा अन्द्रैका की ओर बढ़ रहा था. वो बढ़ते हुए एक पहाड़ में बदल गया, उसने आधे आसमान को ढाँक लिया, सूरज को निगल लिया. अब ना तो उसके पैर दिखाई दे रहे थे, ना ही पूँछ – सिर्फ मोटी सूँड ही घूम रही थी.
उसकी चिंघाड़ निकट आ रही थी. रेत पर काली छाया भाग रही थी.
अचानक ड्योढ़ी के नीचे सूखी रेत गोल-गोल घूमकर खंभा बन गई और बुरी तरह अन्द्रैका के चेहरे पर चुभने लगी.
अन्द्रैका उछल पड़ा:
 “मम्मा!...”
उसी समय बवण्डर ने उसे पकड़ लिया, ड्योढ़ी के ऊपर ऊँचे उठा लिया, गोल-गोल घुमाते हुए हवा में ले जाने लगा.           
बारिश की झड़ी लग गई – और उसके साथ ही दलदली कीचड़ के गोले, मछलियाँ, मेंढ़क ज़मीन पर बिखरने लगे.
मम्मा पूरी ताक़त से चप्पुओं से चिपकी थी. नाव ऊबड़-खाबड़ लहरों पर उछल रही थी.
आख़िरकार – किनारा!
बड़ा भयानक नज़ारा था: घर की छत, खिड़कियाँ, दरवाज़े उड़ गए थे. बागड़ गिरी पड़ी थी. पेड़ बीच में से टूट गया था, उसका ऊपरी सिरा ज़मीन पर लटक रहा था.
मम्मा घर की ओर भागी, ज़ोर-ज़ोर से अन्द्रैका को आवाज़ देने लगी. पैरों के नीचे रेत पर बिखरे थे कीचड़ के गोले, सड़ी हुई मछलियाँ और टहनियाँ.
किसी ने उसे जवाब नहीं दिया.
मम्मा घर के भीतर भागी. अन्द्रैका नहीं था.
बाहर बगीचे में भागी – बगीचे में भी नहीं था.
अब हवा ख़ामोश हो गई थी, नीले आसमान में फिर से सूरज चमकने लगा था. सिर्फ दूर, कुछ गड़गड़ाते हुए, छोटा सा काला बादल चला जा रहा था.
 “मेरे अन्द्रैका को उड़ा ले गया!” – मम्मा चीखी और बादल के पीछे लपकी.
घर के पीछे रेत थी. आगे कुछ झाड़ियाँ थीं. वे ड्रेस में उलझ रही हैं, भागने में बाधा डाल रही हैं.
मम्मा की ताक़त ख़त्म हो गई, वह धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी. और अचानक वो रुक गई: उसके सामने झाड़ी पे अन्द्रैका की कमीज़ का टुकड़ा लटक रहा था.
लपकी आगे की ओर. चीख़ने लगी, हाथ नचाने लगी: अन्द्रैका का दुबला-पतला शरीर, खुरचा हुआ, और बिल्कुल नंगा, झाड़ी के पास ज़मीन पर पड़ा था.
मम्मा ने उसे हाथों में उठाकर सीने से लगा लिया. अन्द्रैका ने आँखें खोलीं और ज़ोर से रोने लगा.
 “हाथी,” हिचकियाँ लेते हुए अन्द्रैका ने पूछा, “भाग गया?”
 “भाग गया, भाग गया!” मम्मा ने उसे शांत किया, जल्दी-जल्दी उसके साथ घर की ओर जाने लगी.
आँसुओं के बीच से अन्द्रैका ने टूटा हुआ पेड़ देखा, गिरी हुई बागड़ देखी, बिना छत का घर देखा.
चारों ओर की हर चीज़ तहस-नहस हो चुकी थी, टूट-फूट गई थी. सिर्फ पैरों के पास रेत पर एक छोटा सा हरा-हरा मेंढक का पिल्ला फुदक रहा था.
 “देख, मेरे बच्चे, मेंढ़क का पिल्ला! ओह, कितना मज़ेदार है: पूँछ वाला! इसे उस किनारे से हवा उठाकर लाई है, तेरे लिए.”
अन्द्रैका ने देखा, नन्हे-नन्हे हाथों से अपनी आँखें पोंछीं.
मम्मा ने उसे डरे हुए मेंढ़क के पिल्ले के सामने गोदी से उतारा.
अन्द्रैका ने आख़िरी बार हिचकी ली और बड़ी शान से कहा:
”नमत्ते, दोत्त!”
  

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रविवार, 22 जून 2014

Practice bahut zarooree hai.

                           प्रैक्टिस बहुत ज़रूरी है!
लेखक: विक्टर गल्याव्किन
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

हमारे स्कूल में बॉक्सिंग-सेक्शन शुरू हुआ. उसमें सबसे बहादुर बच्चों ने नाम लिखवाए. वो, जिनसे कुछ उम्मीद थी. मैं फ़ौरन अपना नाम लिखवाने पहुँचा, क्योंकि काफ़ी पहले से अपना हुनर दिखा रहा था. सारे लड़के ऐसा सोचते थे. तबसे, जब मैंने मीश्का को घूँसा मारना चाहा था और मैं चूक गया था. मेरा मुक्का सीधे दीवार से टकराया. प्लास्टर का एक टुकड़ा उखड़ गया था. उस समय सभी को आश्चर्य हुआ था, “क्या मारा है!” सब कहने लगे. “ये होती है मुक्के की मार!” मैं अपना सूजा हुआ हाथ लिए घूमता रहा और सब को दिखाता रहा: “देख रहा है? कैसी ज़बर्दस्त है मेरे मुक्के की मार! अगर हाथ रोक नहीं लेता तो मैं दीवार में ही घुस जाता!” “आरपार?” लड़के विस्मित रह गए.   
तबसे मैं ‘सबसे ज़्यादा ताक़तवर’ कहलाने लगा - हाथ ठीक हो जाने के बाद भी, जब दिखाने के लिए कुछ बचा ही नहीं.
बॉक्सिंग-सेक्शन में मैं सबसे पहले पहुँचा. अपना नाम लिखवाया. और भी लड़के आए. मीश्का ने भी नाम लिखवाया.
ट्रेनिंग शुरू हुई.
मैंने सोचा कि हमें फ़ौरन दस्ताने दिए जाएँगे और हम एक दूसरे से लड़ने लगेंगे. मैं सबको पछाड दूँगा. सब कहेंगे: “ये है बॉक्सर!” और ट्रेनर कहेगा: “ओहो, तू तो चैम्पियन बनेगा! तुझे ख़ूब चॉकलेट खाना चाहिए. हम सरकार से निवेदन करेंगे कि तुझे चॉकलेट मुफ़्त में खिलाई जाए. चॉकलेट और दूसरी कई मिठाईयाँ. ऐसी बिरली योग्यता जो प्रकट हुई है!
मगर ट्रेनर ने दस्ताने नहीं दिए. उसने हमें ऊँचाई के अनुसार खड़ा कर दिया. फिर कहा: “बॉक्सिंग – काफ़ी सीरियस चीज़ है. सब लोग इस बारे में अच्छी तरह सोच लें. और अगर तुममें से किसी की कुछ और राय है, याने, ये कि बॉक्सिंग ज़रा भी सीरियस चीज़ नहीं है, तो वो चुपचाप हॉल छोड़कर जा सकता है.”
कोई भी हॉल छोड़कर  नहीं गया. हमारी जोड़ियाँ बनाईं गईं. जैसे, हम बॉक्सिंग की नहीं बल्कि फिज़िकल-एक्सरसाईज़ की क्लास में आए हैं. फिर हमें दो तरह के मुक्के मारना सिखाया गया. हम हवा में हाथ चलाते रहे. कभी-कभी ट्रेनर हमें रोक देता. कहता, हम गलत कर रहे हैं. वही सब फिर से शुरू हो जाता. एक बार ट्रेनर ने किसी से कहा:
 “उधर, चौड़ी पतलून वाला, तू क्या कर रहा है?”
मैंने सोचा ही नहीं कि ये मुझसे कहा जा रहा है, मगर ट्रेनर मेरे पास आया और बोला कि मैं दाहिने हाथ के बदले बाएँ हाथ से मार रहा हूँ, जबकि सारे लड़के सिर्फ दाहिने हाथ से मार रहे हैं, क्या मैं ध्यान से नहीं देख सकता.
मैं बुरा मान गया और दुबारा क्लास में नहीं गया. मैंने सोचा कि मुझे ऐसी बेवकूफ़ी सीखने की कोई ज़रूरत नहीं है. वो भी मेरे जैसे मुक्के वाले को! जब मैं दीवार में छेद कर सकता हूँ. इस सबकी मुझे ज़रूरत ही क्या है! मीश्का को ही ट्रेनिंग कर लेने दो. औरों को भी कर लेने दो. मैं तो तभी जाऊँगा जब लड़ने की बारी आएगी. जब दस्ताने पहनेंगे. तब देखेंगे. सिर्फ हवा में हाथ चलाने का मुझे कोई शौक नहीं है! ये सरासर बेवकूफ़ी है.
मैंने बॉक्सिंग सेक्शन में जाना बन्द कर दिया.
बस, मैं मीश्का से पूछता रहता:
 “क्या हाल है? अभी भी हाथ ही चला रहे हो?”
मैं मीश्का का ख़ूब मज़ाक उड़ाया करता. उसे चिढ़ाता. और पूछता रहता:
 “क्या हाल है?”
मीश्का चुप रहता. कभी कहता:
 “ कोई ख़ास बात नहीं है.”
एक दिन उसने मुझसे कहा:
 “कल ‘पेयरिंग’ है.”
 “क्या?” मैंने पूछा.
 “आ जा,” उसने कहा, “ख़ुद ही देख लेना. ‘पेयरिंग’ – मतलब शैक्षणिक - युद्ध. याने कि हम मुक्केबाज़ी करेंगे. मतलब – प्रैक्टिस. हमारे बॉक्सिंग में उसे ऐसा ही कहते हैं.”
 “कर ले, कर ले प्रैक्टिस,” मैंने कहा. “कल आ रहा  हूँ, थोड़ी प्रैक्टिस हो जाएगी.”
दूसरे दिन बॉक्सिंग-सेक्शन पहुँचा.
ट्रेनर ने पूछा:
 “तू कहाँ से आया है?”
 “मेरा,” मैंने कहा, “यहाँ नाम लिखा है.”
”आह, ऐसी बात है!”
 “मैं ‘पेयरिंग’ करना चाहता हूँ.”
 “अच्छा!”
 “हाँ!” मैंने कहा.
 “समझ गया,” ट्रेनर ने कहा.
उसने मुझे दस्ताने पहनाए. मीश्का को भी दस्ताने पहनाए.
”तू बहुत उतावला है,” उसने कहा.
मैंने कहा:
 “क्या ये बुरी बात है?”
 “अच्छी बात है,” उसने कहा. “बहुत ही अच्छी बात है.”
मैं और मीश्का बॉक्सिंग रिंग में आए.
मैंने हाथ घुमाया और वो मुक्का लगाया! मगर बगल से गुज़र गया. मैंने दुबारा हाथ घुमाया – और ख़ुद ही गिर पड़ा. मतलब बहुत ज़्यादा चूक गया.
मैंने ट्रेनर की ओर देखा. मगर ट्रेनर बोला:
 “प्रैक्टिस कर! प्रैक्टिस कर!”
मैं उठा और हाथ हिलाने लगा, इतने में मीश्का ने मुझे वो घूँसा मारा! मैं भी उसे जड़ना चाहता था, मगर उसने मेरी नाक पर मुक्का जड़ दिया!
मैंने हाथ भी छोड़ दिए. समझ में नहीं आ रहा था कि बात क्या है.
मगर ट्रेनर कहे जा रहा था:
 “प्रैक्टिस कर! प्रैक्टिस कर!”
मीश्का ने ट्रेनर से कहा:
 “मुझे इसके साथ प्रैक्टिस करने में मज़ा नहीं आ रहा.”
मुझे मीश्का पर गुस्सा आ गया, तैश में आकर उस पे झपटा, मगर फिर से गिर गया. या तो ठोकर खा गया या फिर मार की वजह से गिर पड़ा.
“नहीं,” मीश्का ने कहा. “मैं इसके साथ प्रैक्टिस नहीं करूँग़ा. ये बार-बार गिर जाता है.”
मैंने कहा:
 “मैं कोई बार-बार नहीं गिर रहा. अभी देता हूँ एक इसे!”
मगर उसने फिर से मेरी नाक पर मुक्का जड़ दिया!
और मैं फिर से फर्श पर बैठा नज़र आया.
अब मीश्का ने दस्ताने भी उतार दिए. उसने कहा:
 “छिः! इसके साथ प्रैक्टिस करना बेवकूफ़ी है. इसे प्रैक्टिस करना आता ही नहीं है.”
मैंने कहा:
 “कोई बेवकूफ़ी-वेवकूफ़ी नहीं है...मैं अभ्भी उठता हूँ...”
 “तेरी मर्ज़ी,” मीश्का ने कहा, “उठा या न उठ, ये ज़रा भी ‘इम्पॉर्टेंट’ नहीं है...”
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शुक्रवार, 20 जून 2014

Musafir

मुसाफ़िर
लेखक: विक्टर गल्याव्किन
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
मैंने पक्का इरादा कर लिया कि मैं अन्टार्क्टिका जाऊँगा. अपना चरित्र दृढ़ करने के लिए. सभी कहते हैं कि मेरा अपना कोई कैरेक्टर ही नहीं है: मम्मा, टीचर, और वोव्का भी. अन्टार्क्टिका में हमेशा सर्दियाँ होती हैं. गर्मियों का मौसम तो होता ही नहीं है. वहाँ सिर्फ सबसे बहादुर लोग ही जाते हैं. वोव्का के पापा ने ऐसा कहा था. वोव्का के पापा दो बार वहाँ गए थे. उन्होंने वोव्का से रेडियो पर बात की थी. पूछ रहे थे कि वोव्का कैसा है, पढ़ाई कैसे चल रही है. मैं भी रेडियो पर बात करूँगा. जिससे कि मम्मा परेशान न हो.
सुबह मैंने बैग से सारी किताबें बाहर निकाल दीं, उसमें ब्रेड-बटर, नींबू, अलार्म घड़ी, एक गिलास और फुटबॉल की गेंद रख ली. हो सकता है, समुद्री-शेरों से मुलाक़ात हो जाए – उन्हें अपनी नाक पे बॉल घुमाना बहुत अच्छा लगता है. गेंद तो बैग में आ ही नहीं रही थी. उसकी हवा निकाल देनी पड़ी.
हमारी बिल्ली मेज़ पर घूम रही थी. मैंने उसे भी बैग में ठूँस दिया. मुश्किल से सारी चीज़ें अन्दर घुस पाईं.
मैं प्लेटफॉर्म पे हूँ. इंजिन की सीटी बजी. कित्ते सारे लोग जा रहे हैं! किसी भी ट्रेन में बैठ जाऊँगा. ज़रूरत पड़ी तो ट्रेन भी बदल सकता हूँ.
मैं डिब्बे में घुस गया, और थोड़ी ख़ाली जगह देखकर बैठ गया.
मेरे सामने एक बूढ़ी दादी सो रही थी. फिर एक फ़ौजी मेरे पास आकर बैठ गया. उसने कहा:
 “पड़ोसियों को नमस्ते!” – और उसने दादी को जगा दिया.
दादी जाग गई और पूछने लगी:
 “क्या गाड़ी चल पड़ी?” और वो फिर से सो गई.
गाड़ी चलने लगी. मैं खिड़की के पास गया. वो रहा हमारा घर, हमारे सफ़ेद पर्दे, आँगन में हमारे कपड़े सूख रहे हैं...लो, हमारा घर आँखों से ओझल हो गया. पहले तो मुझे थोड़ा सा डर लगा. मगर, सिर्फ थोड़ी देर. जब ट्रेन तेज़ दौड़ने लगी, तो मुझे कुछ ख़ुशी होने लगी! आख़िर मैं अपना चरित्र दृढ़ बनाने जा रहा हूँ!        
खिड़की से बाहर देखते-देखते मैं ‘बोर’ हो गया. मैं फिर से बैठ गया.
“तेरा नाम क्या है?” फ़ौजी ने पूछा.
 “साशा,” मैंने धीरे से कहा.
 “और दादी सो क्यों रही है?”
 “कौन जाने?”
 “कहाँ जा रहे हो?”
 “दूर.....”
 “रिश्तेदारों से मिलने?”
 “हुँ...”
 “बहुत दिनों के लिए?”
वो मुझसे ऐसे बातें कर रहा था, जैसे मैं बड़ा आदमी हूँ, इसलिए वो मुझे बहुत अच्छा लगा.
 “दो हफ़्तों के लिए,” मैंने संजीदगी से कहा.
 “अच्छी ही तो बात है.” फ़ौजी ने कहा.
मैंने पूछा:
 “क्या आप अन्टार्क्टिका जा रहे हैं?”
 “अभी नहीं; क्या तुम अन्टार्क्टिका जाना चाहते हो?”
 “आपको कैसे मालूम?”
 “सभी अन्टार्क्टिका जाना चाहते हैं.”
 “मैं भी चाहता हूँ.”
 “देखा!”
 “ऐसा है कि...मैं मज़बूत बनना चाहता हूँ...”
 “समझ रहा हूँ,” फ़ौजी ने कहा, “स्पोर्ट्स, स्कीईंग...”
 “वो बात नहीं...”
 “अब समझा – हर चीज़ में अव्वल!”
 “नहीं,” मैंने कहा, “अन्टार्क्टिका...”
 “अन्टार्क्टिका?” फ़ौजी ने जवाब में पूछ लिया.
फ़ौजी को किसीने ड्राफ्ट्स खेलने के लिए बुला लिया. वो दूसरे कुपे में  चला गया. दादी जाग गई.
 “पैर मत हिला,” दादी ने कहा.
 “मैं ये देखने के लिए चला गया कि ड्राफ़्ट्स कैसे खेलते हैं.
अचानक...मुझे विश्वास ही नहीं हुआ – सामने से आ रही थी मेरी बिल्ली मूर्का. अरे, मैं तो उसके बारे में भूल ही गया था! मगर वो बैग से बाहर आई कैसे?
वो पीछे की ओर भागी – मैं उसके पीछे. वो किसी की बर्थ के नीचे छुप गई – मैं भी फ़ौरन बर्थ के नीचे रेंग गया.
 “मूर्का!” मैं चिल्लाया “मूर्का!”
 “ये कैसा शोर हो रहा है?” कण्डक्टर चिल्लाया. “यहाँ ये बिल्ली क्यों है?”
 “ये मेरी बिल्ली है.”
 “ये बच्चा किसके साथ है?”
 “मैं बिल्ली के साथ हूँ...”
 “कौन सी बिल्ली के साथ?”
 “मेरी.”
 “ये अपनी दादी के साथ जा रहा है,” फ़ौजी ने कहा, “वो बगल वाले कुपे में है.”
कण्डक्टर सीधा मुझे दादी के पास ले गया.
 “ये बच्चा आपके साथ है?”
 “वो कमाण्डर के साथ है,” दादी ने कहा.
 “अन्टार्क्टिका...” फ़ौजी को याद आया. “सब समझ में आ गया...आप समझ रहे हैं, कि बात क्या है: ये बच्चा अन्टार्क्टिका जाना चाहता है. और इसने अपने साथ बिल्ली को ले लिया...और क्या क्या लिया है, बच्चे, तुमने अपने साथ?”
 “नींबू,” मैंने कहा,  “और ब्रेड-बटर...”
 “और अपना कैरेक्टर मज़बूत बनाने निकल पड़ा?”
 “कितना बुरा बच्चा है!” दादी ने कहा.
  “बेवकूफ़ी!” कण्डक्टर ने ज़ोर देकर कहा.
 फिर न जाने क्यों सब हँसने लगे. दादी भी हँसने लगी. हँसते-हँसते उसकी आँखों से आँसू निकल पड़े. मैं नहीं जानता था कि सब मुझ पर क्यों हँस रहे हैं, और मैं भी हौले-हौले हँसने लगा.      
“अपनी बिल्ली ले ले,” कण्डक्टर  ने कहा. “तू पहुँच गया है. ये रहा तेरा अण्टार्क्टिका!”
ट्रेन रुक गई.
 ‘क्या वाक़ई में,’ मैंने सोचा, ‘अन्टार्क्टिका आ गया है? इत्ती जल्दी?’
हम ट्रेन से प्लेटफॉर्म पे उतरे. मुझे वापस जाने वाली गाड़ी में बिठा दिया गया और वापस घर ले आए.

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मंगलवार, 17 जून 2014

Mamooli Baat

मामूली बात
                       
लेखक: विक्टर गल्याव्किन
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
जैसे ही शिक्षा-सत्र पूरा हुआ, पूरी क्लास ग्राऊण्ड में जमा हो गई. सब इस बात पर विचार-विमर्श करने लगे कि गर्मियों में क्या किया जाए. सब लड़के अलग-अलग बात कह रहे थे. मगर वोलोद्या ने कहा:
 “चलो, आन्ना पेत्रोव्ना को ख़त लिखेंगे. जो जहाँ होगा, वहाँ से ख़त लिखेगा. गर्मियों में क्या-क्या देखा, वक़्त कैसे गुज़ारा - इस बारे में बताएगा.”
सब चिल्लाए:
 “ठीक है! ठीक है!”
तो, बात तय हो गई.
सब लड़के कहीं-कहीं चले गए. क्लिम गाँव गया. वहाँ से उसने फ़ौरन पाँच पन्नों का ख़त लिखा.
उसने लिखा:
 “मैंने गाँव में डूबते हुए लोगों को बचाया. वे सब बेहद ख़ुश हुए. उनमें से एक ने मुझसे कहा; ‘अगर तू ना होता तो मैं डूब गया होता’. मगर मैंने उससे कहा: ‘ये तो मेरे लिए बड़ी मामूली बात है.’ मगर उसने कहा, ‘मेरे लिए तो ये मामूली बात नहीं है’. मैंने कहा: ‘बेशक, तेरे लिए मामूली बात नहीं है, मगर मेरे लिए मामूली है.’ उसने कहा, ‘बहुत बहुत धन्यवाद.’ मैंने जवाब दिया, ‘धन्यवाद की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि ये मेरे लिए मामूली बात है.’
मैंने क़रीब पचास या सौ आदमियों को बचाया. हो सकता है, उससे ज़्यादा को भी बचाया हो. फिर उन्होंने डूबना बन्द कर दिया, तो फिर मैं किसे बचाता.
फिर मैंने टूटी हुई रेल की पटरी देखी, और पूरी ट्रेन को रोक दिया. लोग अपने-अपने कम्पार्टमेंट्स से भागे-भागे आए. उन्होंने मेरी ख़ूब तारीफ़ की. बहुत सारे लोगों ने मुझे ‘किस’ भी किया. कई लोगों ने मेरा पता मांगा, और मैंने उन्हें अपना पता दिया. काफ़ी लोगों ने मुझे अपने पते दिए, मैंने भी ख़ुशी-ख़ुशी उनके पते लिए. कई लोगों ने मुझे गिफ्ट्स भी देना चाहा, मगर मैंने कहा:
’बस, आपसे इतनी विनती है कि ये सब ना करें’. कई लोगों ने मेरी फ़ोटो खींची, मैंने भी कई लोगों के साथ फ़ोटो खिंचवाई, कई लोगों ने तो मुझे फ़ौरन अपने साथ चलने को कहा, मगर मैं दादी को तो नहीं ना छोड़ सकता था. मैंने उससे कहा भी तो नहीं था!
फिर मैंने एक जलता हुआ घर देखा. वो धू-धू करके जल रहा था. धुएँ की बात तो पूछो ही मत.
‘आगे बढ़ो!’ मैंने अपने आप से कहा. ‘बेशक, वहाँ कोई है!’
मेरे चारों ओर बल्लियाँ गिर रही थीं. कुछ बल्लियाँ मेरे पीछे गिरीं, और कई सारी – आगे. कुछ बल्लियाँ बगल में गिरीं. एक बल्ली मेरे कंधे पे गिरी. दो या तीन दूसरी ओर बगल में गिरीं. पाँच बल्लियाँ सीधे मेरे सिर पे गिरीं. कुछ बल्लियाँ और कहीं-कहीं गिरीं. मगर मैंने उनकी ओर ध्यान ही नहीं दिया. मैंने पूरा घर छान मारा. मगर एक बिल्ली को छोड़कर कोई और नहीं मिला. मैं बिल्ली को लेकर सड़क पे भागा. घर के लोग वहीं थे. उनके हाथों में तरबूज़ थे. ‘मूर्का को बचाने के लिए धन्यवाद,’ उन्होंने कहा, ‘हम अभी-अभी शॉपिंग करके लौटे हैं’. उन्होंने मुझे एक तरबूज़ दिया. फिर सबने मिलकर आग बुझाई...
फिर मैंने एक बूढ़ी औरत को देखा. वो सड़क पार कर रही थी. मैं फ़ौरन उसके पास गया और बोला,  ‘क्या सड़क पार करने में मैं आपकी मदद कर सकता हूँ.’ मैंने उसे सड़क पार करवाई और वापस लौटा. और भी कई बूढ़ी औरतें आईं. मैंने उन्हें भी सड़क पार करवाई. कुछ बूढ़ी औरतों को सड़क के उस पार जाना ही नहीं था. मगर मैंने कहा, ‘ मैं आपको वहाँ से यहाँ वापस ले आऊँगा. तब आप फिर से इस पार आ जाएँगी.’
उन सबने मुझसे कहा, ‘अगर तू ना होता, तो हम सड़क पार ही ना कर पाते.’ मगर मैंने कहा, ‘ये तो मेरे लिए मामूली बात है.’
दो-तीन बूढ़ी औरतें बिल्कुल ही उस पार नहीं जाना चाह रही थीं. वो बस यूँ ही बेंच पर बैठी थीं. और उस पार देख रही थीं. जब मैंने उनसे पूछा कि क्या वे सड़क के उस पार जाना चाहती हैं, तो उन्होंने कहा: ‘हमें वहाँ नहीं जाना.’ मगर जब मैंने उनसे कहा कि आपका टहलना हो जाएगा, तो वो बोलीं, ‘वाक़ई, हम क्यों नहीं टहल सकते?’ मैं उन सबको उस पार ले गया. वो वहाँ वाली बेंच पर बैठ गईं. वो वापस आना नहीं चाहती थीं. ओह, मैंने उन्हें कितना मनाया!”
क्लिम ने खूब सारा लिखा था. अपने ख़त पर वह ख़ूब ख़ुश था. उसने डाक से ख़त भेज दिया.       
फिर गर्मियाँ ख़तम हो गईं. स्कूल शुरू हो गया. आन्ना पेत्रोव्ना ने क्लास में कहा:
”बहुत सारे बच्चों ने मुझे ख़त भेजे हैं. बहुत अच्छे, दिलचस्प ख़त. कुछ ख़त मैं पढ़कर सुनाती हूँ.”
 ‘अब होगा शुरू,’ क्लिम सोच रहा था, ‘मेरे ख़त में कई सारी बहादुरी की घटनाएँ हैं. सब लड़के मेरी तारीफ़ करेंगे, और ख़ुश हो जाएँगे.’
आन्ना पेत्रोव्ना ने कई ख़त पढ़े.
मगर उसका ख़त नहीं पढ़ा.
‘सब समझ में आ गया,’ क्लिम ने सोचा, ’मेरा ख़त अख़बार में भेज दिया है. वहाँ वे उसे छापेंगे. हो सकता है, मेरी फ़ोटो भी आए. सब लोग कहेंगे, ‘ओय, यही है वो! देखिए!’ और मैं कहूँगा, ‘क्या कह रहे हैं? मेरे लिए तो ये मामूली बात है.’

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सोमवार, 2 जून 2014

Ulloo

उल्लू
लेखक: विताली बिआन्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
दद्दू बैठे हैं, चाय पी रहे हैं. काली चाय नहीं पी रहे हैं – दूध से उसे सफ़ेद बनाके पी रहे हैं. पास से गुज़रता है उल्लू.
 “नमस्ते,” उसने कहा “दोस्त!”
मगर दद्दू बोले:
”तू, उल्लू – बौड़म सिर, बाहर निकले कान, हुक जैसी नाक. तू सूरज से छिपता है, लोगों से दूर भागता है, - मैं तेरा दोस्त कैसे हो गया?
उल्लू को गुस्सा आ गया.
 “ठीक है,” उसने कहा, “बुढ़ऊ! मैं रात को तेरी चरागाह पे नहीं उडूँगा, चूहे नहीं पकडूँगा – ख़ुद ही पकड़ लेना.”
मगर दद्दू ने कहा:
 “डरा भी रहा है, तो किस बात से! भाग जा, जब तक सही-सलामत है.”
उल्लू उड़ गया, बलूत में छुप गया, अपने कोटर से बाहर हीं नहीं उड़ा. रात हुई. दद्दू की चरागाह में चूहे अपने बिलों में चीं-चीं कर रहे हैं, बातें कर रहे हैं:
 “देख तो, प्यारी, कहीं उल्लू तो नहीं आ रहा है- बौड़म सिर, बाहर निकले कान, हुक जैसी नाक?
चुहिया ने चूहे को जवाब दिया:
 “उल्लू कहीं नज़र नहीं आ रहा, उसकी आहट भी नहीं सुनाई देती. आज तो हमारे लिए मैदान साफ़ है, हमारे लिए पूरा चरागाह खुला है.”
चूहे उछलकर बिलों से बाहर आए, चूहे चरागाह पे भागे.
और उल्लू अपने कोटर से बोला:
 “हा, हा, हा, बुढ़ऊ! देख, कहीं सत्यानाश न हो जाए: चूहे तो यूँ घूम रहे हैं, जैसे शिकार पे निकले हों.”
 “तो, घूमने दे,” दद्दू ने कहा. “चूहे कोई भेड़िए थोड़े ही हैं, वे बछड़ों को नहीं मारेंगे.”
चूहे चरागाह में धमा-चौकड़ी मचाते हैं, मोटी मक्खियों के घोंसले ढूँढ़ते हैं, ज़मीन खोद डालते हैं, मक्खियों को पकड़ते हैं.
 और उल्लू कोटर से कहता है:
 “हो,हो,हो, बुढ़ऊ! देख, कहीं सत्यानाश न हो जाए: तेरी सारी मोटी मक्खियाँ उड़ गईं.”
”उड़ने दे,” दद्दू ने कहा. “उनसे क्या फ़ायदा है: ना शहद, ना मोम – सिर्फ सूजन होती है.”
चरागाह में थी फूलों वाली छोटी घास, बालियाँ ज़मीन पर झुकी थीं, मगर मोटी मक्खियाँ भिनभिनाती हैं, सीधे चरागाह से आती हैं, घास की ओर देखती भी नहीं हैं, एक फूल का पराग दूसरे पर नहीं ले जाती.      
उल्लू कोटर से बोला:
”हो,हो,हो, बुढ़ऊ! देख, कहीं सत्यानाश न हो जाए: कहीं तुझे ख़ुद को ही पराग एक फूल से दूसरे फूल पर न ले जाना पड़े.”
“हवा ले जाएगी,” दद्दू ने कहा और अपना सिर खुजाने लगा.
चरागाह में हवा बहती है, पराग ज़मीन पर बिखेरती है. पराग एक फूल से दूसरे फूल पर नहीं गिरता – चरागाह में फूलों वाली घास नहीं उगती, दद्दू के लिए यह अनपेक्षित था.
मगर उल्लू कोटर से बोला:
 “हो,हो,हो, बुढ़ऊ! तेरी गाय रंभा रही है, घास माँग रही है, - बिना बीजों और फूलों की घास तो बिना घी के दलिये के समान है.”
दद्दू चुप रहा, कुछ भी नहीं बोला.
फूलों वाली घास से गाय तन्दुरुस्त थी, अब गाय दुबली हो गई, दूध कम देती है, दूध पतला देती है.
और, उल्लू कोटर से बोला:
 “हो,हो,हो, बुढ़ऊ! मैंने तो तुझसे कहा था: तू नाक रगड़ते हुए मेरे पास आएगा.”
दद्दू गालियाँ देने लगा, मगर बात बन ही नहीं रही थी. उल्लू बैठा है बलूत के कोटर में, चूहे नहीं पकड़ता.
चूहे चरागाह को तहस-नहस करते हैं, मोटी मक्खियों के घोंसले बर्बाद करते हैं. मक्खियाँ दूसरों की चरागाह पर उड़ रही हैं, दद्दू के चरागाह की ओर झाँकती भी नहीं हैं,. फूलों वाली घास चरागाह में उगती नहीं. बिना उस घास के गाय दुबली होती है. गाय का दूध भी हो गया पतला. चाय में डालने के लिए दद्दू के पास कुछ बचा ही नहीं.
चाय में डालने के लिए दद्दू के पास कुछ बचा ही नहीं – चला दद्दू उल्लू को सलाम करने.
 “तू भी ना, प्यारे– दुलारे उल्लू, बुरा मान गया. मुझे इस मुसीबत से निकाल. मुझ बूढ़े पास चाय में डालने के लिए कुछ बचा ही नहीं.”
उल्लू अपने कोटर से देखता है – आँखें फ़ड़फड़ाके, पैर टपटपाके.
 “ये ही तो,” वह बोला, “बुढ़ऊ. दोस्ती कभी बोझ नहीं होती, चाहे दूरियाँ ही क्यों न हो! तू सोचता है कि मुझे तेरे चूहों के बगैर अच्छा लगता था?”
उल्लू ने दद्दू को माफ़ कर दिया, वो कोटर से बाहर आया, चूहे पकड़ने चरागाह की ओर उड़ा.
चूहे डर के मारे अपने-अपने बिलों में दुबक गए.
मोटी मक्खियाँ चरागाह के ऊपर भिनभिनाने लगीं, एक फूल से दूसरे फूल पर उड़कर जाने लगीं.
लाल-लाल फूलों वाली घास चरागाह पर फैलने लगी.
गाय चली चरागाह घास खाने.
गाय देने लगी खूब सारा दूध.
दद्दू डालने लगा चाय में बहुत सारा दूध, लगा उल्लू की करने तारीफ़, बुलाने लगा उसे अपने घर, देने लगा बड़ा भाव.
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