मामूली
बात
लेखक:
विक्टर गल्याव्किन
अनुवाद:
आ. चारुमति रामदास
जैसे ही
शिक्षा-सत्र पूरा हुआ, पूरी क्लास ग्राऊण्ड में जमा हो गई. सब इस बात पर
विचार-विमर्श करने लगे कि गर्मियों में क्या किया जाए. सब लड़के अलग-अलग बात कह रहे
थे. मगर वोलोद्या ने कहा:
“चलो, आन्ना पेत्रोव्ना को ख़त लिखेंगे. जो जहाँ
होगा, वहाँ से ख़त लिखेगा. गर्मियों में क्या-क्या देखा, वक़्त कैसे गुज़ारा - इस
बारे में बताएगा.”
सब चिल्लाए:
“ठीक है! ठीक है!”
तो, बात तय हो गई.
सब लड़के कहीं-कहीं
चले गए. क्लिम गाँव गया. वहाँ से उसने फ़ौरन पाँच पन्नों का ख़त लिखा.
उसने लिखा:
“मैंने गाँव में डूबते हुए लोगों को बचाया. वे
सब बेहद ख़ुश हुए. उनमें से एक ने मुझसे कहा; ‘अगर तू ना होता तो मैं डूब गया
होता’. मगर मैंने उससे कहा: ‘ये तो मेरे लिए बड़ी मामूली बात है.’ मगर उसने कहा,
‘मेरे लिए तो ये मामूली बात नहीं है’. मैंने कहा: ‘बेशक, तेरे लिए मामूली बात नहीं
है, मगर मेरे लिए मामूली है.’ उसने कहा, ‘बहुत बहुत धन्यवाद.’ मैंने जवाब दिया,
‘धन्यवाद की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि ये मेरे लिए मामूली बात है.’
मैंने क़रीब पचास या
सौ आदमियों को बचाया. हो सकता है, उससे ज़्यादा को भी बचाया हो. फिर उन्होंने डूबना
बन्द कर दिया, तो फिर मैं किसे बचाता.
फिर मैंने टूटी हुई
रेल की पटरी देखी, और पूरी ट्रेन को रोक दिया. लोग अपने-अपने कम्पार्टमेंट्स से
भागे-भागे आए. उन्होंने मेरी ख़ूब तारीफ़ की. बहुत सारे लोगों ने मुझे ‘किस’ भी
किया. कई लोगों ने मेरा पता मांगा, और मैंने उन्हें अपना पता दिया. काफ़ी लोगों ने
मुझे अपने पते दिए, मैंने भी ख़ुशी-ख़ुशी उनके पते लिए. कई लोगों ने मुझे गिफ्ट्स भी
देना चाहा, मगर मैंने कहा:
’बस, आपसे इतनी
विनती है कि ये सब ना करें’. कई लोगों ने मेरी फ़ोटो खींची, मैंने भी कई लोगों के
साथ फ़ोटो खिंचवाई, कई लोगों ने तो मुझे फ़ौरन अपने साथ चलने को कहा, मगर मैं दादी
को तो नहीं ना छोड़ सकता था. मैंने उससे कहा भी तो नहीं था!
फिर मैंने एक जलता
हुआ घर देखा. वो धू-धू करके जल रहा था. धुएँ की बात तो पूछो ही मत.
‘आगे बढ़ो!’ मैंने
अपने आप से कहा. ‘बेशक, वहाँ कोई है!’
मेरे चारों ओर
बल्लियाँ गिर रही थीं. कुछ बल्लियाँ मेरे पीछे गिरीं, और कई सारी – आगे. कुछ
बल्लियाँ बगल में गिरीं. एक बल्ली मेरे कंधे पे गिरी. दो या तीन दूसरी ओर बगल में
गिरीं. पाँच बल्लियाँ सीधे मेरे सिर पे गिरीं. कुछ बल्लियाँ और कहीं-कहीं गिरीं.
मगर मैंने उनकी ओर ध्यान ही नहीं दिया. मैंने पूरा घर छान मारा. मगर एक बिल्ली को
छोड़कर कोई और नहीं मिला. मैं बिल्ली को लेकर सड़क पे भागा. घर के लोग वहीं थे. उनके
हाथों में तरबूज़ थे. ‘मूर्का को बचाने के लिए धन्यवाद,’ उन्होंने कहा, ‘हम अभी-अभी
शॉपिंग करके लौटे हैं’. उन्होंने मुझे एक तरबूज़ दिया. फिर सबने मिलकर आग बुझाई...
फिर मैंने एक बूढ़ी
औरत को देखा. वो सड़क पार कर रही थी. मैं फ़ौरन उसके पास गया और बोला, ‘क्या सड़क पार करने में मैं आपकी मदद कर सकता
हूँ.’ मैंने उसे सड़क पार करवाई और वापस लौटा. और भी कई बूढ़ी औरतें आईं. मैंने
उन्हें भी सड़क पार करवाई. कुछ बूढ़ी औरतों को सड़क के उस पार जाना ही नहीं था. मगर
मैंने कहा, ‘ मैं आपको वहाँ से यहाँ वापस ले आऊँगा. तब आप फिर से इस पार आ
जाएँगी.’
उन सबने मुझसे कहा,
‘अगर तू ना होता, तो हम सड़क पार ही ना कर पाते.’ मगर मैंने कहा, ‘ये तो मेरे लिए
मामूली बात है.’
दो-तीन बूढ़ी औरतें
बिल्कुल ही उस पार नहीं जाना चाह रही थीं. वो बस यूँ ही बेंच पर बैठी थीं. और उस
पार देख रही थीं. जब मैंने उनसे पूछा कि क्या वे सड़क के उस पार जाना चाहती हैं, तो
उन्होंने कहा: ‘हमें वहाँ नहीं जाना.’ मगर जब मैंने उनसे कहा कि आपका टहलना हो
जाएगा, तो वो बोलीं, ‘वाक़ई, हम क्यों नहीं टहल सकते?’ मैं उन सबको उस पार ले गया.
वो वहाँ वाली बेंच पर बैठ गईं. वो वापस आना नहीं चाहती थीं. ओह, मैंने उन्हें कितना
मनाया!”
क्लिम ने खूब सारा लिखा
था. अपने ख़त पर वह ख़ूब ख़ुश था. उसने डाक से ख़त भेज दिया.
फिर गर्मियाँ ख़तम
हो गईं. स्कूल शुरू हो गया. आन्ना पेत्रोव्ना ने क्लास में कहा:
”बहुत सारे बच्चों
ने मुझे ख़त भेजे हैं. बहुत अच्छे, दिलचस्प ख़त. कुछ ख़त मैं पढ़कर सुनाती हूँ.”
‘अब होगा शुरू,’ क्लिम सोच रहा था, ‘मेरे ख़त में
कई सारी बहादुरी की घटनाएँ हैं. सब लड़के मेरी तारीफ़ करेंगे, और ख़ुश हो जाएँगे.’
आन्ना पेत्रोव्ना
ने कई ख़त पढ़े.
मगर उसका ख़त नहीं
पढ़ा.
‘सब समझ में आ गया,’
क्लिम ने सोचा, ’मेरा ख़त अख़बार में भेज दिया है. वहाँ वे उसे छापेंगे. हो सकता है,
मेरी फ़ोटो भी आए. सब लोग कहेंगे, ‘ओय, यही है वो! देखिए!’ और मैं कहूँगा, ‘क्या कह
रहे हैं? मेरे लिए तो ये मामूली बात है.’
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