पूंछें
लेखक:
विताली बिआन्की
अनुवाद:
आ. चारुमति रामदास
एक बार मक्खी
उड़कर एक आदमी के पास आई और बोली:
“तू सारे जानवरों का मालिक है, तू जो चाहे वो कर
सकता है. मेरी एक पूंछ बना दे.”
“तुझे पूंछ क्यों चाहिए?” आदमी ने पूछा.
“मुझे पूंछ इसलिए चाहिए,” मक्खी ने कहा, “जिस
लिए वो सारे जानवरों की होती है – ख़ूबसूरती के लिए.”
”मैं ऐसे जानवरों
को नहीं जानता जिनके पास ख़ूबसूरती के लिए पूंछ होती है. तू तो बग़ैर पूंछ के भी
अच्छी तरह ही जी रही है.”
मक्खी को गुस्सा
आ गया और वो लगी आदमी को सताने: कभी मिठाई पर बैठ जाती, कभी उड़कर उसकी नाक पर बैठ
जाती, कभी एक कान के पास झूँ-झूँ करती, कभी दूसरे के पास. ख़ूब सताया, निढ़ाल हो गई.
आदमी ने उससे कहा: “अच्छा, ठीक है! जा, तू
उड़कर जंगल में जा, नदी पे जा, खेत में जा. अगर तुझे वहाँ कोई ऐसा जानवर मिले, या
पंछी मिले, या रेंगने वाला कीड़ा मिले, जिसकी पूंछ सिर्फ ख़ूबसूरती के लिए बनी है,
तो तू उसकी पूंछ ले ले. मैं इसकी इजाज़त देता हूँ. ख़ुश हो गई मक्खी और उड़ गई खिड़की
से बाहर.
वह बगीचे में उड़
रही थी जब उसने देखा कि एक पत्ती पर घोंघा रेंग रहा है. मक्खी उड़कर घोंघे के पास
आई और चिल्लाई:
“मुझे अपनी पूंछ दे दे, घोंघे! तेरे पास तो वो
सिर्फ ख़ूबसूरती के लिए है.”
“क्या कहती हो, क्या कहती हो!” घोंघा बोला.
“मेरे पास तो पूंछ नहीं है, ये तो मेरा पेट है. मैं उसे कस के बन्द करता हूँ और
खोलता हूँ, - बस, इसी तरह मैं रेंग सकता हूँ. मैं – पेट-पाँव वाला हूँ.”
मक्खी ने देखा कि
उससे गलती हो गई थी. वो आगे उड़ चली. उड़ते हुए नदी के पास आई, नदी में देखा मछली को
और झींगे को – दोनों पूंछ वाले थे.
मक्खी मछली से
बोली:
“मुझे अपनी पूंछ दे दे! तेरे पास तो वो सिर्फ
ख़ूबसूरती के लिए है.”
“बिल्कुल नहीं. ख़ूबसूरती के लिए बिल्कुल नहीं
है,” मछली ने जवाब दिया. “मेरी पूंछ – स्टीयरिंग है. देख: अगर मुझे दाईं ओर मुड़ना
है – तो मैं अपनी पूंछ दाईं ओर घुमाती हूँ, अगर बाईं ओर जाना है – मैं अपनी पूंछ
को बाईं ओर करती हूँ. अपनी पूंछ मैं तुझे नहीं दे सकती.”
मक्खी झींगे से
बोली:
“मुझे अपनी पूंछ
दे दे, झींगे!”
“नहीं दे सकता,”
झींगे ने जवाब दिया. “मेरे पैर कमज़ोर
हैं, पतले हैं, मैं उनसे पानी नहीं हटा सकता. मगर पूंछ तो मेरी चौड़ी और मज़बूत है.
पूंछ से मैं पानी में छपछपाता हूँ, और आगे बढ़्ता हूँ. छपछप, छपछप, और बस – जहाँ
जाना है उस तरफ़ तैरता हूँ. मेरी पूंछ चप्पू का काम करती है.”
मक्खी और आगे
उड़ी. उड़ती हुई जंगल में पहुँची, देखती है कि एक टहनी पे कठफोड़वा बैठा है. मक्खी
उसके पास आई:
“मुझे अपनी पूंछ दे दे, कठफोड़वे! तेरे पास तो वो
सिर्फ ख़ूबसूरती के लिए है.”
“बड़ी
होशियार है!” कठफोड़वा ने कहा. “और मैं पेड़ों में छेद कैसे करूँगा, उन्हें ढूंढूंगा
कैसे, पिल्लों के लिए घोंसले कैसे बनाऊँगा?”
”ये तो तू नाक से
भी कर सकता है,” मक्खी ने कहा.
“नाक से तो नाक से,” कठफोड़वा ने जवाब दिया, “सही
है, मगर बगैर पूंछ के भी काम नहीं चल सकता. ये देख, मैं कैसे पेड़ में छेद करता हूँ.”
कठफोडवा ने अपनी
मज़बूत कड़ी पूंछ को पेड़ की छाल में गड़ा दिया, पूरे बदन को फड़फड़ाने लगा और नाक से
टहनी पर टक्-टक् करने लगा – बस, छिपटियाँ उड़ने लगीं!
मक्खी ने देखा,
कि सही में, जब कठफोड़वा छेद करता है तो अपनी पूंछ पर बैठता है – वह बगैर पूंछ के
काम नहीं चला सकता. पूंछ उसके लिए टेक का काम करती है.
वह आगे उड़ चली.
देखती है कि एक
हिरनी अपने छौनों के साथ झाड़ियों में है. हिरनी के पास भी छोटी सी पूंछ है – बहुत
छोटी, रोएँदार, सफ़ेद सी पूंछ. मक्खी ज़ोर-ज़ोर से भिनभिनाने लगी.
“मुझे अपनी पूंछ दे दे, हिरनी!”
हिरनी घबरा गई.
“क्या कहती हो, क्या कहती हो!” उसने कहा. “अगर
मैं अपनी पूंछ तुझे दे दूँ तो मेरे छौने खो जाएँगे.”
“छौनों को तेरी पूंछ क्यों चाहिए?” मक्खी को
अचरज हुआ.
“क्यों नहीं है,” हिरनी ने कहा. “जैसे, अगर कोई
भेड़िया हमारा पीछा कर रहा हो, तो मैं जंगल में छलाँग लगा देती हूँ – छुपने के लिए.
और छौने – मेरे पीछे पीछे. सिर्फ पेड़ों के बीच में मैं उन्हें दिखाई नहीं देती.
मैं रूमाल की तरह अपनी सफ़ेद पूँछ हिलाकर उन्हें इशारा करती हूँ: “यहाँ आओ भागकर,
यहाँ!” वे देखते हैं – कोई सफ़ेद चीज़ सामने चमक रही है – मेरे पीछे भागते हैं. इस
तरह हम सब भेड़िए से अपनी जान बचाते हैं.”
क्या किया जाए!
मक्खी आगे उड़ी.
आगे उड़ी और देखा
उसने लोमड़ी को. ऐख़! लोमड़ी की भी पूंछ है! खूब रोएँदार और भूरी, ख़ूब
सुन्दर-सुन्दर!
“ठीक है,” मक्खी ने सोचा, “ये पूंछ तो मेरी ही
बनेगी.”
उड़कर लोमड़ी के
पास आई और चिल्लाई:
“अपनी पूंछ दे दे!”
“क्या कहती है, मक्खी!” लोमड़ी ने जवाब दिया.
“बिना पूंछ के तो मैं मर जाऊँगी. कुत्ते जब मेरे पीछे भागेंगे, तो मुझ बिनपूंछ
वाली को, आसानी से पकड़ लेंगे. मगर पूंछ से मैं उन्हें धोखा देती हूँ.”
“तू पूंछ से कैसे धोखा देती है?” मक्खी ने पूछा.
“जैसे ही कुत्ते मुझ पर झपटने को होते हैं, मैं
अपनी पूंछ व्वोssss घुमाती
हूँ, व्वोssss घुमाती
हूँ... यहाँ-वहाँ...पूंछ दाएँ, मैं बाएँ. कुत्ते देखते हैं कि मेरी पूंछ दाईं तरफ
गई है, और वो भी दाईं तरफ़ लपकते हैं. जब तक वो समझ पाते हैं कि ग़लती कर रहे हैं,
तब तक तो मैं नौ दो ग्यारह हो जाती हूँ.”
मक्खी समझ गई कि
सभी जानवरों की पूंछ किसी न किसी काम के लिए बनी है, फ़ालतू की पूंछें न तो जंगल
में हैं न ही नदी में. मक्खी उड़कर वापस घर आ गई. ख़ुद ही सोचने लगी:
“आदमी से चिपक जाती हूँ, उसे तंग कर डालूँगी, जब
तक वो मेरी पूंछ नहीं बना देता.”
आदमी खिड़की के
पास बैठा हुआ बाहर आँगन में देख रहा है.
मक्खी उसकी नाक
पे बैठ गई. आदमी ने नाक पे ज़ोर से ‘धप्’ किया! – मगर मक्खी उसके माथे पे बैठ गई
थी. आदमी ने माथे पे ‘धप्’ किया! मक्खी फिर से नाक पे बैठ गई.
“मुझसे दूर हट, तू, मक्खी!” आदमी ने उसे मनाया.
“नहीं हटूँगी,” मक्खी भिनभिनाई. “तूने मेरा मज़ाक
क्यों उड़ाया, मुझे ख़ाली पूंछें ढूंढ़ंने क्यों भेजा? मैंने सारे जानवरों से पूछा –
सभी की पूंछ किसी न किसी काम के लिए है.”
आदमी ने देखा कि
अब मक्खी से छुट्टी पाना मुश्किल है – कैसी बोरिंग है! उसने थोड़ी देर सोचा और फिर
बोला:
“मक्खी, ऐ मक्खी, वो गाय है न आंगन में. उससे
पूछ ले कि उसे पूंछ की क्या ज़रूरत है.”
“अच्छा ठीक है,” मक्खी ने कहा – “गाय से भी पूछ
लेती हूँ. और अगर गाय ने मुझे अपनी पूंछ नहीं दी तो, ऐ आदमी, मैं तुझे दुनिया से
उठा दूँगी.”
मक्खी खिड़की से
बाहर उड़ गई, गाय की पीठ पे बैठ गई और लगी भिनभिनाने, लगी उससे पूछने:
“गाय, गाय, तुझे पूंछ की क्या ज़रूरत है? गाय,
गाय, तुझे पूंछ की क्या ज़रूरत है?”
गाय चुप रही, चुप
रही, और फिर अपनी पीठ पर पूंछ से इतनी ज़ोर से मारा – कि उसने मक्खी को कुचल दिया.
मक्खी ज़मीन पे
गिर पड़ी – उसकी जान निकल गई, और पैर ऊपर उठ गए. और आदमी खिड़की से बोला:
“तेरे साथ ऐसा ही होना चाहिए, मक्खी – लोगों से
मत चिपक, जानवरों से मत चिपक, बोरिंग कहीं की!”
******
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.