बुधवार, 27 अक्टूबर 2021

Andrei - Wisest of All

 

 

 

अंद्रेइ – सबसे होशियार!

(बेलारूसी लोककथा)

अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

कभी एक जिज्ञासु लड़का अन्द्रेइ रहता था. वह सब कुछ जानना चाहता था. जहाँ भी नज़र डालता, जो भी देखता, हर चीज़ के बारे में लोगों से पूछता, हर चीज़ के बारे में जानकारी हासिल करता. आसमान में बादल तैर रहे हैं...वे कहाँ से आए? और कहाँ जा रहे हैं? गाँव के पीछे नदी शोर मचाती है...किधर को बह रही है? जंगल बढ़ता है...उसे किसने लगाया था? पंछियों के पंख क्यों होते हैं, वे हर जगह आज़ादी से उड़ते हैं, और क्यों इन्सान के पंख नहीं होते?

लोग उसकी बातों का जवाब देते, जवाब देते रहते, मगर आख़िर में उन्हें पता चलता है कि वे ख़ुद ही तो नहीं जानते कि क्या जवाब दें, “तू, अन्द्रेइ, सबसे ज़्यादा अक्लमन्द होना चाहता है,” लोग उस पर हँसने लगे, “क्या हर चीज़ जानना संभव है?”

मगर अन्द्रेइ को विश्वास नहीं होता, कि सब कुछ जानना संभव नहीं है,     

सीधे सूरज के पास जाऊँगा,” अन्द्रेइ ने कहा, “वह हर जगह चमकता है, सब कुछ देखता है. मुझे वोबताएगा, जो मैं ख़ुद नहीं जानता. वह अपनी झोंपड़ी छोड़कर उस जगह की तलाश में चल पड़ा जहाँ सूरज रात में सोने के लिये डूबता है. जा रहा है, जा रहा है, देखा – रास्ते के पास एक पत्थर पर कोई आदमी बैठा है और सबसे पूछ रहा है : “क्या मुझे यहाँ बड़ी देर तक बैठना पड़ेगा?”   

और अन्द्रेइ भी उसे कोई जवाब न दे सका.

वह आगे चला. देखाअ कि एक आदमी कंधों से बागड़ को सहारा दे रहा है.

“चचा, ये तुम क्या कर रहे हो?” अन्द्रेइ ने पूछा, “पुरानी बागड़ को क्यों सहारा दे रहे हो?”

“नहीं जानता...हो सकता है तू जानता हो?”

“अगर जानता होता, तो उसे नहीं ढूँढ़ता जो सब कुछ जानता है.” अन्द्रेइ ने कहा और आगे बढ़ गया.

कुछ और आगे चला, देखा कि एक आदमी कचरे के ढेर में कुछ ढूँढ़ रहा है.   

“चचा, ये तू कचरे में क्या ढूँढ़ रहा है?”

“नहीं जानता.”

“ओह, मैं भी नहीं जानता,” अन्द्रेइ ने कहा और आगे बढ़ गया. न जाने वह कितनी दूर चला, फ़िर एक ऊँघते हुए जंगल में घुस गया. पूरे दिन जंगल में चलता रहा, और शाम होते-होते एक मैदान में निकला. – और यहाँ आकर उसकी आँखें इस तरह चकाचौंध हो गईं: मैदान से ऐसी चमक आ रही थी! उसने आँख़ें सिकोड़ीं – देखता क्या है कि पास ही में सूरज के घर आग से दहक रहे हैं. जैसे ही वह घर में घुसा – चकाचौंध के मारे कुछ भी न देख सका. थोड़ी आदत होने के बाद देखा – कुर्सी में सूरज की बूढ़ी माँ बैठी है.

“तू, नौजवान, यहाँ क्यों आ गया?” उसने पूछा.

अन्द्रेइ ने झुककर अभिवादन किया और कहा : “मैं सूरज के पास आया हूँ इसके, उसके बारे में जानने के लिये.”

“और ये – इसके-उसके क्या है?”

“मतलब हर उस चीज़ के बारे में, जो मैं नहीं जानता.

“और तू ख़ुद क्या नहीं जानता?”

अन्द्रेइ उसे बताने लगा, और बूढ़ी सुनती रही - सुनती रही और उबासियाँ लेने लगी.
“ठीक है
,” वह बोली, “थोड़ी देर रुक जा, जल्दी ही मेरा बेटा रात बिताने के लिये लौटेगा. और तब मैं झपकी ले लेती हूँ: मैं दिन भर बैठे-बैठे थक गई हूँ.”

अन्द्रेइ घर से बाहर निकला. उसने अलाव जलाया और सींक पर हैम भूनने लगा: लम्बा रास्ता चलने के बाद उसे भूख लग आई थी!

उसने भरपेट ब्रेड के साथ हैम खाया. पानी पीने का मन हुआ. नदी के पास गया और पानी की तरफ़ झुका. अचानक देखा – नदी के तल से एक लड़की ऊपर आ रही है, इतनी सुंदर कि आँख़ ही न हटा पाओ. और वह भी उसकी ओर देखती रह गई.
“नदी से पानी मत पियो
,” वह बोली, “वर्ना सूरज तुम्हें जला देगा!”

“मगर मुझे बेहद प्यास लगी है.”

“मेरे पीछे आओ.”

लड़की उसे पुराने शाहबलूत के पास लाई, और शाहबलूत के नीचे से साफ़, ठण्डे पानी का झरना फूट रहा था. अन्द्रेइ झुका और उसने जी भर के झरने का पानी पिया. और तभी सूरज आसमान से नीचे, अपने घर में उतरने लगा, उसके पास जाना चाहिये, मगर सुंदर लड़की से जुदा होने का साहस नहीं था.

“सुन, तू सूरज को मत बताना कि तूने मुझे यहाँ देखा है,” लड़की ने कहा, वह ऊपर उठी और वहाँ से नन्हें, साफ़ सितारे के रूप में चमकने लगी.

अन्द्रेइ घर के भीतर गया. वहाँ सूरज इतना गर्म था कि दीवारें भी चटक रही थीं. मगर अन्द्रेइ को कोई फ़रक नहीं पड़ रहा था – उसने जी भरके झरने का पानी पिया था, इसीलिये सूरज उसे जला नहीं सकता था. उसने सिर्फ टोपी माथे पर खिसका ली, जिससे कि आँखों में जलन न हो.

उसने सूरज को बताया कि वह किसलिए आया था. सूरज ने कहा:

“तुझे सिखाने के लिये मेरे पास समय नहीं है. मगर मैं कुछ ऐसा करूँगा कि तू ख़ुद ही सब कुछ समझ जायेगा.”

इतना कहकर सूरज ने अपनी सारी किरणों को एक गुच्छे में समेट लिया और उसके सिर पर प्रकाश डाला. पल भर में ही अन्द्रेइ समझ गया कि उसके दिमाग़ में हर चीज़ ज़्यादा स्पष्ट और ज़्यादा प्रकाशमान हो गई है, सिर्फ उसमें बेहद जलन हो रही है, और दिल एकदम सर्द हो गया, जैसे बर्फ़ हो...

वह घर से बाहर निकला. सर्द दिल के साथ उसे अच्छा नहीं लग रहा था. उसे लड़की की याद आई. और उसका दिल फ़िर से उसे देखने के लिये इस तरह मचलने लगा, कि वह बेहद ख़स्ताहाल हो गया. उसे पुकारने लगा. और आसमान से एक साफ़ तारा नीचे उतरकर उसके सामने ख़ूबसूरत लड़की में बदल गया. जैसे ही अन्द्रेइ ने उसकी ओर देखा, उसे फ़ौरन महसूस हुआ कि उसका दिल फ़िर से पहले जैसा हो गया है. उसने लड़की का हाथ पकड़ा और अपने देस की ओर ले चला. और अब वह इतना ख़ुश था कि उसे पंखों वाले पक्षियों से भी जलन नहीं हो रही थी.

वे उस आदमी के पास पहुँचे जो कूड़े में कुछ ढूँढ़ रहा था. अन्द्रेइ ने उसकी ओर देखा और सब कुछ समझ गया.

“तू,” उसने उस आदमी से कहा, “कचरे में खोए हुए पैसे ढूँढ़ रहा है और बेकार ही अपना समय गँवा रहा है, इससे बेहतर ये होगा कि कोई काम कर ले – जल्दी ही खोये हुए पैसे ढूँढ़ने के बदले उन्हें कमा लेगा.”

आदमी ने उसकी बात मान ली, वह काम करने लगा और उसने पैसे और सम्पत्ति कमा ली.

वे आगे चले, उस आदमी को देखा जो कंधों से बागड़ को सहारा दे रहा था. अन्द्रेइ ने उसे देखा और कहा:

“ऐ इन्सान, उस चीज़ को सहारा न दे जो सड़ चुकी है, वह हर हाल में गिर ही जायेगी. बेहतर है कि तू नई बागड़ बना ले.”

आदमी ने उसकी बात मान ली और सड़ी हुई बागड़ के स्थान पर नई बागड़ बना दी.

वे उस आदमी तक पहुँचे जो पत्थर पर बैठा था और नहीं जानता था कि उसे कितनी देर यूँ ही बैठे रहना है. अन्द्रेइ ने उससे कहा:

“ऐ इन्सान, इतना भी लालची न बन: इस पत्थर पर और मुसाफ़िरों को भी बैठने दे.”

अन्द्रेइ ने उस आदमी को पत्थर से हटाया और ख़ुद लड़की के साथ वहाँ बैठ गया. और वह आदमी ख़ुश-ख़ुश अपने घर भाग गया.

उन्होंने कुछ देर आराम किया और आगे बढ़े, उस प्रदेश की ओर जहाँ अन्द्रेइ रहता था.

और अब अन्द्रेइ लोगों से किसी भी चीज़ के बारे में नहीं पूछता, बल्कि लोग उससे पूछते हैं.

इस तरह अन्द्रेइ सबसे ज़्यादा होशियार हो गया.

 

**********


शनिवार, 9 अक्टूबर 2021

Kalabok

 

 

कलाबोक (बन)

(रूसी परी-कथा)

अनुवाद: आ. चारुमति रामदास  

 एक समय की बात है, एक बूढ़ा और बुढ़िया रहते थे. बूढ़े ने कहा:

“बुढ़िया, कलाबोक (बन’ – अनु.) पका ले!”

“पकाऊँ तो किससे? आटा नहीं है,” बुढ़िया ने जवाब दिया.

“ऐ-ऐख़, बुढ़िया! डिब्बा to खुरच. अंबार में देख : काफ़ी आटा मिल जायेगा.”

बुढ़िया ने एक पंख लिया, डिब्बे के भीतर खुरचा, अंबार में झाडू लगाकर इकट्ठा किया, और उसे दो मुट्ठी आटा मिल गया. दही में गूंधा, घी में तला और खिड़की में ठण्डा होने के लिये रख दिया.

कलाबोकपड़ा रहा – पड़ा रहा, और अचानक लुढ़क गया – खिड़की से बेंच पर, बेंच से फ़र्श पर, फ़र्श पर लुढ़कते हुए दरवाज़े तक, देहलीज़ फांद कर पहुंचा ड्योढ़ी में, ड्योढ़ी से पोर्च में, पोर्च से - आँगन में, आँगन से गेट के पार आगे-आगे लुढ़कता ही गया.

लुढ़क रहा है कलाबोक रास्ते पर, और सामने से आया ख़रगोश:

“कलाबोक, कलाबोक! मैं तुझे खा जाऊँगा!”

“न खा मुझे, टेढ़े ख़रगोश! मैं तुझे गाना सुनाऊँगा,” कलाबोक ने कहा और वह गाने लगा:

 “मैं कलाबोक, कलाबोक!

डिब्बे से खुरचा मुझे,

अंबार से समेटा,

दही में गूंधा मुझे,

तेल में तला,

खिड़की में किया ठण्डा:

मैं दादा से भागा दूर,

मैं दादी से भागा दूर,

और तुझसे भी, ऐ ख़रगोश,

मुश्किल नहीं है भागना!”

और वह लुढ़क गया आगे-आगे: ख़रगोश उसे देखता ही रहा!

लुढ़क रहा था कलाबोक, और सामने से आया भेड़िया:

“कलाबोक, कलाबोक! मैं तुझे खा जाऊँगा!”

“मत खा मुझे, ऐ भूरे भेड़िये! तुझे सुनाऊँगा मैं गीत,” कहा कलाबोक ने और लगा गाने:

“मैं कलाबोक, कलाबोक!

डिब्बे से खुरचा मुझे,

अंबार से समेटा,

दही में गूंधा मुझे,

तेल में तला,

खिड़की में किया ठण्डा:

मैं दादा से भागा दूर,

मैं दादी से भागा दूर,

मैं ख़रगोश से भागा दूर,

और तुझसे भी, ऐ भेड़िये,

मुश्किल नहीं है भागना!”

और लुढ़क गया वह आगे-आगे. भेड़िया देखता रह गया.

लुढ़क रहा था कलाबोक, सामने से आया भालू:

“कलाबोक, कलाबोक! मैं तुझे खा जाऊँगा.”

“मत खा मुझे, टेढ़े पंजों वाले! तुझे सुनाऊँगा मैं गीत,” कलाबोक ने कहा और गाने लगा:

“मैं कलाबोक, कलाबोक!

डिब्बे से खुरचा मुझे,

अंबार से समेटा,

दही में गूंधा मुझे,

तेल में तला,

खिड़की में किया ठण्डा:

मैं दादा से भागा दूर,

मैं दादी से भागा दूर,

मैं ख़रगोश से भागा दूर,

मैं भेड़िये से भागा दूर,

और तुझसे भी, ऐ भालू,

मुश्किल नहीं है भागना!”

और फ़िर से लुढ़क गया, भालू देखता ही रहा!

लुढ़कता रहा, लुढ़कता रहा कलाबोक, और सामने से आई लोमड़ी:

“नमस्ते, कलाबोक! कितना अच्छा है तू. कलाबोक, कलाबोक! मैं तुझे खा जाऊगी.”

“मुझे न खा तू, ऐ लोमड़ी! मैं तुझे सुनाऊँगा गीत,” कलाबोक ने कहा और गाने लगा:

“मैं कलाबोक, कलाबोक!

डिब्बे से खुरचा मुझे,

अंबार से समेटा,

दही में गूंधा मुझे,

तेल में तला,

खिड़की में किया ठण्डा:

मैं दादा से भागा दूर,

मैं दादी से भागा दूर,

मैं ख़रगोश से भागा दूर,

मैं भेड़िये से भागा दूर,

मैं भालू से भागा दूर,

और तुझसे भी, ऐ लोमडी,

भाग जाऊँगा बेहद दूर!”

“कितना अच्छा गाना है!” लोमड़ी ने कहा. “मगर, कलाबोक, मैं बूढ़ी हो गई हूँ, मुझे कम सुनाई देता है: मेरे थोबड़े पे बैठ जा और एक बार फ़िर से ऊँची आवाज़ में सुना दे.”

कलाबोक उछलकर लोमड़ी के थोबड़े पर चढ़ गया और वही गीत गाने लगा.

शुक्रिया, कलाबोक! बहुत अच्छा गीत है, मैं और भी सुनती! मेरी जीभ पर बैठ जा और आख़िरी बार सुना दे,” लोमड़ी ने कहा और अपनी जीभ बाहर निकाल दी; कलाबोक उसकी जीभ पें कूदा, और लोमड़ी ने – उसे गटक लिया!  और कलाबोक को खा गई.

********

शनिवार, 2 अक्टूबर 2021

Masha and the Bear

 

माशा और भालू

(रूसी लोककथा)

अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

 

एक थे दादा, एक थी दादी. उनके साथ रहती थी पोती माशेन्का.

एक बार सहेलियाँ जंगल में जा रही थीं मश्रूम और बेरियाँ चुनने. माशेन्का को भी बुलाने आईं.

“दादा, दादी,” माशा ने कहा, “मुझे सहेलियों के साथ जंगल में जाने दीजिये!”

दादा-दादी ने कहा:

“चली जा, मगर ध्यान रखना, सहेलियों से पिछड़ न जाना, वर्ना भटक जायेगी.”

सहेलियाँ जंगल पहुँचीं, मश्रूम और बेरियाँ इकट्ठा करने लगीं. और माशेन्का – पेड़ के बाद पेड़, झाड़ी के बाद झाड़ी के पास जाती रही – और सहेलियों से दूर-दूर निकल गई.

वह उन्हें आवाज़ देने लगी, नाम लेकर बुलाने लगी. मगर सहेलियाँ को सुनाई ही नहीं दे रहा था, वे जवाब ही नहीं दे रही हैं.

माशेन्का जंगल में चलती रही, चलती रही – पूरी तरह भटक गई.

वह बिल्कुल जंगल की गहराई में पहुँची. एकदम बगिया में. देखती क्या है – एक झोंपड़ी है. माशेन्का ने दरवाज़ा खटखटाया – कोई जवाब नहीं. दरवाज़ा धकेला, दरवाज़ा खुल गया.

माशेंका झोंपड़ी में गई, खिड़की के पास बेंच पर बैठ गई.

बैठी और सोचने लगी.

“यहाँ कौन रहता है? कोई दिखाई क्यों नहीं दे रहा है?”

और उस झोंपड़ी में रहता था एक बहुत बड़ा भालू. सिर्फ उस समय वह घर में नहीं था, वह जंगल में घूम रहा था. भालू शाम को वापस लौटा, देखा माशेन्का को, हो गया ख़ुश.

“अहा,” कहने लगा, “अब मैं तुझे नहीं छोडूँगा! मेरे साथ रहेगी. भट्टी गरमायेगी, दलिया पकायेगी, मुझे दलिया खिलाएगी.”   

माशा परेशान हो गई, बहुत दुखी हो गई, मगर क्या कर सकती थी? वह भालू के साथ झोंपड़ी में रहने लगी.

भालू पूरे दिन जंगल में रहता, और माशेन्का को हुक्म देता कि उसके बगैर झोंपड़ी से बाहर न निकले.

“और, अगर निकली” कहता, “ तो कैसे भी तुझे पकड़ लूँगा और तब खा ही जाऊँगा!”

माशेन्का सोचने लगी कि भालू से कैसे - भागे. चारों ओर जंगल है, किस दिशा में जाना चाहिये, नहीं जानती, पूछे तो किससे पूछे.

वह सोचती रही, सोचती रही और उसने एक उपाय सोच लिया.

जैसे ही भालू जंगल से आया, माशेन्का ने उससे कहा:

“भालू, भालू, मुझे एक दिन के लिये गाँव में छोड़ दे, मैं दादा-दादी के लिये कुछ अच्छी-अच्छी चीज़ें ले जाऊँगी”.

“नहीं”, भालू ने कहा, “तू जंगल में भटक जायेगी. ला, मैं ख़ुद ही उनके लिये अच्छी चीज़ें ले जाऊँगा!“

माशेन्का तो यही चाहती थी!

उसने पेस्ट्रियाँ बनाईं, एक खूब बड़ी टोकरी ढूँढी और भालू से बोली:

“देख, मैं टोकरी में पेस्ट्रियाँ रखूँगी और तू उन्हें दादा-दादी के पास ले जाना. मगर याद रखना, रास्ते में टोकरी मत खोलना, पेस्ट्रियाँ मत निकालना. मैं बलूत के पेड़ पर चढ़ जाऊँगी, तुझ पर नज़र रखूंगी!”

“ठीक है,” भालू ने जवाब दिया, “ला, टोकरी दे!”

माशेन्का ने कहा:

“बाहर निकल कर देख, कहीं बारिश तो नहीं आ रही है! जैसे ही भालू बाहर आँगन में गया, माशेन्का फ़ौरन टोकरी में घुस गई, और अपने सिर के ऊपर पेस्ट्रियों की प्लेट रख ली.

भालू वापस आया, देखा – टोकरी तैयार है. उसे पीठ पर रखा और चल पड़ा गाँव की ओर.

जा रहा है भालू फ़र-वृक्षों के बीच से, घिसट रहा है बर्च-वृक्षों के बीच से, खाईयों में घुसता, पहाड़ियों पर चढ़ता. चलता रहा, चलता रहा, थक गया और बोला:

“ठूँठ पर बैठूंगा,

एक पेस्ट्री खाऊँगा!”

और माशेन्का बोली टोकरी के भीतर से :

“देख रही हूँ, देख रही हूँ!

बैठना नहीं ठूँठ पर,

खाना नहीं पेस्ट्री!

ले जा दादी के लिये,

ले जा दादा के लिये!”

“आह, कैसी तेज़ नज़र है,” भालू ने कहा, “सब देख रही है!”

उसने टोकरी उठाई और आगे चला.

चलता रहा, चलता रहा, रुका, बैठ गया और बोला:

“ठूँठ पर बैठूंगा,

एक पेस्ट्री खाऊँगा!”

और माशेन्का बोली टोकरी के भीतर से :

“देख रही हूँ, देख रही हूँ!

बैठना नहीं ठूँठ पर,

खाना नहीं पेस्ट्री!

ले जा दादी के लिये,

ले जा दादा के लिये!”

भालू को बहुत अचरज हुआ:

“कैसी चालाक है! ऊँचाई पर बैठी है, दूर तक देखती है!”

उठ गया और जल्दी-जल्दी चलने लगा.

पहुँच गया गाँव में, दादा-दादी का घर ढूँढ़ा, और और पूरी ताकत से गेट पर खटखट करने लगा:

“टक्-टक्-टक्! गेट खोलिये, दरवाज़ा खोलिये! मैं आपके लिये माशेन्का की ओर से अच्छी-अच्छी चीज़ें लाया हूँ.”

मगर कुत्तों ने भालू को सूँघ लिया और उस पर झपट पड़े. सभी आँगनों से भागते हुए आए, भौंकने लगे.

डर गया भालू, टोकरी को छोड़ा गेट के पास और बिना इधर-उधर देखे भाग गया जंगल की ओर.

दादा-दादी गेट के पास आये. देखा – टोकरी रखी है.

“टोकरी में क्या है?” दादी ने कहा.

दादा ने ढक्कन उठाया, देखा और उसे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ. टोकरी में बैठी है माशेन्का – सही-सलामत, तंदुरुस्त.

दादा-दादी बेहद ख़ुश हो गये. माशेन्का को बाँहों में भर लिया, चूमने लगे, अक्लमन्द है कहने लगे.

******