बिल्ली चली समर कॉटेज
लेखिका: नतालिया अब्राम्त्सेवा
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
सूरज गरमा गया, नीला आसमान हौले-हौले तपने लगा, और घास और पेड़ हरे होने लगे. ‘गर्मियाँ’ – मम्मी, पापा, नीली आंखों वाली बच्ची और दादी ने फैसला कर लिया. बिल्ली मूर्ज़ेता भी समझ गई
कि ये – गर्मियों का मौसम है, और उसे अचरज
नहीं हुआ जब परिवार समर कॉटेज जाने की तैयारी करने लगा.
“हर रोज़,” मम्मी सूटकेसों में
सामान रखते हुए खुश हो रही थी, “मैं घूमने जाऊंगी. तू पैरों के बीच न कड़मड़ा!” ये मूर्ज़ेता के लिए था, जो पास से गुज़र रही
थी. “तो, घूमूंगी और गर्मियों
में दस किलो वज़न कम कर लूंगी.”
“मेरा भी अच्छा-खासा
किचन-गार्डन बन जाएगा,” दादी ने अंकुरों के छोटे-छोटे बक्से रखते हुए कहा, “ये टमाटर हैं, ये खीरे, ये...” मूर्ज़ेतच्का, दूर हट, याद रख, ये मूली है, ये...” और दादी आगे
गिनाने लगी.
बिल्ली दूर हट गयी और
उसने पापा की आवाज़ सुनी:
“धीरे! मेरी बन्सियाँ न
गिरा देना! वैसे, बिल्ली को मछली पकड़ने के काम का सम्मान करना चाहिए!”
मूर्ज़ेता ने सिर्फ सिर
हिला दिया: बन्सियाँ कमरे के दूसरे छोर पर रखी थीं. और उसके पास से गुलाबी पोषाक
पहने ख़ूबसूरत बच्ची चिल्लाई:
“ओय, माफ़ करना, किट्टी, शायद मैनें
तेरी पूँछ पर पाँव रख दिया. और, क्या तूने मेरे गुलाबी रिबन देखे?”
“शायद, पैर रखा हो, शायद, नहीं देखा”, मूर्ज़ेता
ने शान्ति से सोचा. मगर फिर उसने सोचा, “ये हो क्या रहा है? समर कॉटेज जा रहे हैं। तो क्या? कितनी परेशानी, कितनी भागदौड़..”
खुद बिल्ली मूर्ज़ेता
ज़रा भी परेशान नहीं थी. समर कॉटेज अच्छी चीज़ है. वहाँ घास है, पेड़ हैं, और धूप है...और, शहर के मुकाबले ज़्यादा
असली. हाँ, बिल्ली के लिए काम काफ़ी
होगा. क्योंकि बगल में ही जंगल है, खेत है. और वहां के जंगली और खेतों के चूहे ऐसे बिल बनाते हैं, ऐसे बिल
बनाते हैं, कि समर कॉटेज के तहखाने
में घुस जाते हैं. बेशक, रात को. मूर्ज़ेता को चूहों का शिकार करना पडेगा. मालिकों की भलाई और चैन का
ख़याल रखना पड़ेगा. ये कोई भयानक बात नहीं है. बिल्ली को ऐसा ही करना चाहिए. उसने
खिड़की से बाहर देखा. उसे बड़ा अचरज हुआ. क्योंकि आसमान नीला नहीं, बल्कि काला-भूरा हो
गया था, सूरज बिल्कुल दिखाई नहीं दे रहा था. और ऊपर से बारिश भी होने लगी. सिर्फ
थोड़ी सी है. ‘कोई बात नहीं,’ मूर्ज़ेता, आराम से खिड़की की सिल से नीचे कूदी, “बारिश कैसी है... शायद मौसम बुरा होने वाला है. तब तो जायेंगे ही नहीं”.
और वह गुड़ीमुड़ी होकर कुछ देर सोना चाहती थी. मगर तभी...
“ओय, क्या हो रहा है!
ये, हो क्या रहा है!”
मम्मी रोने-रोने को हो गयी. “बारिश! झड़ी! जा नहीं पायेंगे! सामान पैक हो चुका है!
सब कुछ गड़बड़ हो गया! सूटकेसों पर रहेंगे! मगर कितने दिन?...एक हफ्ता? एक महीना? और भी ज़्यादा...”
मम्मी कहती रही, और उसकी खनखनाती आवाज़ में दादी की कुछ खोखली आवाज़ भी मिल गयी:
“मेरे किचन-गार्डन का
क्या होगा?! झड़ी ने ऐसे डबरे बना
दिए!...अंकुर मर जायेंगे! न तो खीरे, ना ही मूली बढ़ेगी...
“क्या कह रही हो?!” मम्मी और दादी की
आवाज़ की पार्श्वभूमि में पापा की आवाज़ गरजी: “इस बारे में फ़िक्र ही नहीं कर रही
हो! क्या समझ में नहीं आता की ये महत्वपूर्ण नहीं है! बारिश तो, ज़ाहिर है, थोड़ी देर होगी! समर
कॉटेज के पास वाला रास्ता गीला हो जाएगा!! कार कीचड़ में फंस जायेगी! ये सूटकेसेस
और डिब्बे मुझे हाथों से खींचना पड़ेंगे! सोचती हो, कि आसान है?!”
मगर नीली आंखों वाली बच्ची
के रोने ने तीनों आवाजों को दबा दिया:
“मेरी गुलाबी ड्रेस
गीली हो जायेगी! और गुलाबी रिबन्स! और गुलाबी सैंडल्स! और मुझे ज़ुकाम हो जाएगा!
मगर फिर भी हम जायेंगे! फ़ौ-र-न! क्योंकि मैंने फैसला कर लिया है!”
तब बिल्ली मूर्ज़ेता ने
देखा, कि शायद, वह पीठ बाहर निकाले और
पूँछ फुलाए खड़ी है. अचरज से और असमंजस से. आखिर, हुआ क्या है? चैन नहीं था. मगर अब क्या हो रहा है? कुछ बिलकुल असंभव-सा.
आखिर बात क्या है? बारिश होने लगी है. तो क्या? आखिर, ख़त्म हो जायेगी. और फिर जा सकते हैं. ये
शोर-गुल किसलिए?
मगर कहाँ...मम्मी और
पापा जोर-जोर से आपस में बात कर रहे हैं. सही है, मम्मी पापा से कह रही है कि सूटकेसों में रहना संभव नहीं है, और पापा मम्मी से ये
कह रहे हैं, कि गीले रास्ते पर
सूटकेसों को खीचना संभव नहीं है. और दादी इस बात पर ज़ोर दे रही थी, कि किचन-गार्डन के
मुकाबले में ये सब महत्वपूर्ण नहीं है, और नीली आंखों वाली बच्ची भी अपनी गुलाबी ड्रेस में क्वार्टर में सरसराती
हुई घूम कर कुछ बताने की कोशिश कर रही थी. बेहद शोर हो रहा था, सब कुछ बेतरतीब था और
बिकुल अच्छा नहीं लग रहा था.
बिल्ली मूर्ज़ेता ने
गहरी सांस ली और सोचा: ‘कितने थकाने वाला है ये सब. कुछ न कुछ करना पडेगा’.
वह दरवाज़े की तरफ़ गई, उसे
हल्के से खुरचने लगी – वह ये विनती कर रही थी, कि उसे बाहर छोड़ा जाए. किसीने दरवाज़ा खोला. मूर्ज़ेता बाहर निकली, सीढियाँ चढ़कर अटारी पर
चढ़ गयी और वहां से छत पर रेंग गयी, भरी बरसात में. एक मिनट बैठी, जैसे कुछ सोच रही हो. और फिर उसने सिर उठाया और बातचीत करने लगी. ये बातचीत
उस भाषा में थी, जो कुत्ते और बिल्लियाँ, पेड़, फूल और मगर, बादल, नदियाँ और तितलियाँ जानते हैं और समझते हैं – संक्षेप में, हर कोई, हर कोई, हर कोई, सिवाय इन्सानों के.
“नमस्ते,” बिल्ली ने ऊपर देखा, “नमस्ते, बादल!”
“नमस्ते! क्या चाहिए?” बादल ने बेमन से जवाब
दिया.
“कुछ कहना है.”
“कहो.”
“मैं ये कहना चाहती हूँ, आदरणीय बादल, कि आपने हमारे शहर के
पेड़ों को बहुत अच्छी तरह पानी पिला दिया.”
“हुम्, बेशक.”
“और – आपने हमारे
रास्ते और छतें बढ़िया धो दिए.”
“हुम्, बेशक.”
“और सारी धूल साफ़ कर
दी.”
“हुम्, हाँ, हाँ! आगे क्या?”
“आगे? मेरा ख़याल है की अब
आपको आगे बढ़ जाना चाहिये.”
“कहाँ?”
“मैंने रेडिओ पर सुना,
की बगल वाले इलाके में कोई ख़ास चीज़ बोई गयी है, और वहाँ काफ़ी दिनों से बारिश नहीं हुई, और...”
“समझ गया. मैं उड़ चला.
फिर मिलेंगे.”
और विशाल काला-भूरा
बादल धीरे-धीरे रेंगने लगा (जिसे वह ‘उड़ना’ कह रहा था) आवश्यक दिशा में. और बिल्ली मूर्ज़ेता अटारी पर कूद गयी, उसने बारिश की बूँदें
झटक दीं और धीरे-धीरे सीढियां उतर कर अपने क्वार्टर में आई. मूर्ज़ेता अभी तक खुले
दरवाज़े से भीतर आई और फिर से उसने अपने आप को शोर-गुल में, हंगामें में, रोने-धोने के बीच पाया.
बिना समय गंवाए, बिल्ली कमरे से होते हुए खिड़की की तरफ गयी और जोर से ‘म्याँऊ-म्याँऊ’ करने
लगी.
मम्मी ने, पापा ने, दादी ने और बच्ची ने
खिड़की से देखा और ख़ामोश हो गए. क्योंकि आसमान फिर से बेहद नीला हो गया था, और सूरज तेज़ी से चमक
रहा था.
समर-कॉटेज के रास्ते पर, कार में, मम्मी भावी सैर-सपाटे
के बारे में सोचकर फिर से खुश हो गयी, दादी प्लान बनाने लगी कि बाग़ में कहाँ, क्या लगाएगी, पापा मछली पकड़ने के
बारे में सोच रहे थे, नीली आंखों वाली बची याद कर रही थी कि उसने गुलाबी जाली रखी है या नहीं. बिल्ली मूर्ज़ेता सिर्फ ऊंघ रही
थी. उसे कोई ख़ास काम नहीं था. मगर, सोचो, रात को चूहे पकड़ना...सोचो, मौसम पर नज़र रखना...हो सकता है, कुछ और छोटे-मोटे काम. ये सब ख़ास नहीं है. आखिर वह बिल्ली है. वह सब ठीक कर
लेगी.
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