दीवार पर मोटरसाइकल-रेस
लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनु. : आ. चारुमति रामदास
जब मैं छोटा था तभी मुझे तीन
पहियों वाली साइकल गिफ़्ट में दी गई थी. और मैं उस पर एकदम साइकल चलाना सीख गया.
फ़ौरन बैठ गया और चल पड़ा, ज़रा भी नहीं डरा, जैसे कि मैं बिल्कुल ज़िन्दगी भर
साइकिलों पर घूमता रहा हूँ.
मम्मा ने कहा:
”देखो, स्पोर्ट्स में कितना
होशियार है.”
मगर पापा ने कहा: “बिल्कुल
बन्दर की तरह बैठा है...”
अब मैं बहुत बढ़िया साइकिल
चलाना सीख गया और काफ़ी जल्दी साइकिल पर अलग-अलग तरह के करतब भी करना सीख गया जैसे
सर्कस के आर्टिस्ट करते हैं. मिसाल के तौर पर, मैं मुँह पीछे करके बैठता और आगे की
ओर साइकिल चलाता, या सीट पर पेट के बल लेट जाता और किसी भी हाथ से पैडल घुमा लेता –
चाहे सीधे हाथ से, चाहे उल्टे;
पैर फ़ैलाकर तिरछे बैठ जाता और
साइकिल चलाता;
हैंडिल पर बैठ कर या तो आँखें
बन्द कर लेता या फिर बिना हाथों के चलाता;
हाथ में पानी का गिलास पकड़े
चलाता. मतलब, हर करतब में माहिर हो गया था.
फिर अंकल झेन्या ने मेरी
साइकिल का एक पहिया मोड़ दिया, और वो दो पहियों वाली हो गई, मगर मैं बड़ी जल्दी फिर
से सब कुछ सीख गया. कम्पाउण्ड के बच्चे मुझे “चैम्पियन ऑफ़ वर्ल्ड और हिज़ लोकेलिटी”
कहने लगे.
और मैं अपनी साइकिल पर तब तक
घूमता रहा जब तक कि साइकिल चलाते हुए मेरे घुटने हैण्डिल से ऊपर नहीं उठने लगे. तब
मैंने अन्दाज़ लगाया कि अब इस साइकिल के लिए मैं बड़ा हो गया हूँ, और सोचने लगा कि न
जाने कब पापा मेरे लिये असली साइकिल “स्कूलबॉय” खरीदेंगे.
और लीजिए, एक दिन हमारे
कम्पाउण्ड में एक साइकिल आती है, और वो अंकल, जो उस पे बैठा है, पैर नहीं चला रहा
है, मगर उसके नीचे साइकिल ड्रैगन-फ्लाइ की तरह फ़ट्-फ़ट् कर रही है, और अपने आप चल
रही है. मुझे ख़ूब अचरज हुआ. मैंने तो ऐसा कभी देखा ही नहीं था कि साइकिल अपने आप
चल रही हो. मोटरसाइकिल – और बात है, कार भी – और बात है, रॉकेट- समझ में आता है,
मगर साइकिल? अपने आप?
मुझे अपनी आँखों पे विश्वास
ही नहीं हुआ.
और वो अंकल, जो साइकिल पे आया
था, मीश्का के प्रवेश-द्वार की ओर आया और रुक गया. और वो वाक़ई में अंकल था ही नहीं,
बल्कि एक नौजवान लड़का था. फिर उसने साइकिल पाइप के पास रखी और चला गया. मैं अपना
मुँह खोले वहीं रह गया. अचानक मीश्का बाहर निकला.
वो बोला:
“क्या हुआ? ऐसे क्या खड़ा है?”
मैंने कहा:
“ख़ुद-ब-ख़ुद चलती है, समझा?”
मीश्का ने कहा:
“ये हमारे भतीजे फ़ेद्का की गाड़ी है. मोटर वाली
साइकिल. फ़ेद्का हमारे यहाँ काम से आया है – चाय पीने.”
मैंने पूछा:
“क्या ऐसी मशीन वाली साइकिल चलाना मुश्किल है?”
“ बकवास,” मीश्का ने कहा. “ये तो आधी ही किक में
शुरू हो जाती है. एक बार पैडल दबाओ, और बस, तैयार – जा सकते हो. और इसमें सौ
किलोमीटर्स तक के लिए पेट्रोल आ सकता है. और इसकी स्पीड है – आधे घण्टे में बीस
किलोमीटर.
“ओहो! ये हुई न बात!” मैंने कहा. “ये है मोटर
वाली साइकिल! काश, इस पे घूम सकता!”
इस पर मीश्का ने सिर हिलाया:
“पड़ेगी! फ़ेद्का मार डालेगा. सिर काट देगा!”
“हाँ. ख़तरा है,” मैंने कहा.
मगर मीश्का ने इधर उधर देखा
और अचानक बोला:
“कम्पाउण्ड में कोई नहीं है, और तू वैसे भी
“चैम्पियन ऑफ़ वर्ल्ड” है. बैठ! मैं गाड़ी को धक्का देने में मदद करूँगा, और तू बस
एक बार पैडल को धक्का मार, बाकी सब कुछ बड़े आराम से हो जाएगा. गार्डन के चारों ओर
दो-तीन चक्कर लगा ले, और हम चुपके से गाड़ी वापस जगह पे रख देंगे. हमारा फ़ेद्का बड़ी
देर तक चाय पीता है. तीन गिलास गटक जाता है. चल!”
“चल!” मैंने कहा.
मीश्का साइकिल पकड़ने लगा, और
मैं उस पर विराजमान हो गया. एक पैर का मोज़ा तो वाक़ई में पैडल के किनारे को छू रहा
था, मगर दूसरा पैर हवा में लटक रहा था, मैकरोनी की तरह. इस मैकरोनी से मैंने पाइप
को धक्का दिया, और मीश्का मेरी बगल में दौड़ता हुआ चिल्लाया:
“पैडल दबा, चल, दबा!”
मैंने कोशिश की, तिरछा होकर
सीट से कुछ नीचे को सरका जिससे पैडल दबा सकूँ. मीश्का ने हैण्डिल में कोई चीज़
हिलाई...और अचानक गाड़ी फट्-फट् करने लगी, और मैं चल पड़ा!
मैं जा रहा था! अपने आप! पैडल
नहीं दबा रहा – वहाँ तक पहुँचता ही नहीं, बस, चला जा रहा हूँ, बैलेन्स बनाए हुए
हूँ!
ये बड़ा अद्भुत था! हवा मेरे
कानों में सन्-सन् कर रही थी, चारों ओर की हर चीज़ जल्दी-जल्दी एक गोल बनाते हुए
फिसलती जा रही थी: छोटा सा खम्भा, गेट, बेंच, बरसाती कुकुरमुत्ते, बालू-रेत, झूले,
हाउसिंग कमिटी ; और फिर से छोटा सा खम्भा, गेट, बेंच, बरसाती कुकुरमुत्ते,
बालू-रेत, झूले, हाउसिंग कमिटी, ; और फिर से खम्भा और शुरू से वही सब कुछ, और मैं
घूमे जा रहा था, हैण्डिल से चिपके, और मीश्का मेरे पीछे भागे जा रहा है, मगर तीसरे
चक्कर में वह चीख़ा:
“मैं थक गया!” और वह खम्भे पर झुक गया.
और मैं अकेला घूमे जा रहा था,
मुझे बड़ा अच्छा लग रहा था, मैं घूम ही रहा था और कल्पना कर रहा था, कि दीवार पर मोटर
साइकल चलाने की रेस में हिस्सा ले रहा हूँ. मैंने देखा था कि सांस्कृतिक-
पार्क में बहादुर आर्टिस्ट कैसे रेस लगा
रही थी...
और खम्भा, और मीश्का, और
झूले, और हाउसिंग कमिटी – सब कुछ मेरी आँखों के सामने बड़ी देर तक घूमता रहा, सब
कुछ बड़ा अच्छा था, सिर्फ़ मेरा पैर जो मैकरोनी की तरह लटक रहा था... उस पर जैसे
थोड़ी-थोड़ी चीटियाँ रेंगने लगी थीं...और अचानक ऐसे लगा कि मैं अपने आप में नहीं था,
हथेलियाँ फ़ौरन गीली हो गईं, और रुक जाने का मन करने लगा.
मैं मीश्का के क़रीब गया और
चिल्लाया:
“बस हो गया! रोक इसे!”
मीश्का मेरे पीछे भागा और
चिल्लाया:
“क्या? ज़ोर से बोल!”
मैं चिल्लाया:
“तू क्या बहरा हो गया है?”
मगर मीश्का कब का पीछे रह गया
था. तब मैं एक चक्कर और घूमा और चीखा:
“गाड़ी को रोक, मीश्का!”
तब उसने हैण्डिल पकड़ लिया,
गाड़ी उछली, वो गिर गया, और मैं फिर से आगे बढ़ गया. देखा कि वो फिर से खम्भे के पास
मुझे मिला और दहाड़ा:
“ब्रेक! ब्रेक!”
मैं उसके क़रीब से गुज़र गया और
ब्रेक ढूँढ़ने लगा. मगर, ज़ाहिर है, मुझे तो मालूम ही नहीं था कि वह कहाँ होता है!
मैं अलग-अलग तरह के स्क्रू घुमाने लगा और हैंडिल में कुछ-कुछ दबाने लगा. मगर कहाँ!
कोई फ़ायदा नहीं हुआ. गाड़ी तो ऐसे फट्-फट् कर रही थी जैसे कुछ हुआ ही न हो, मगर
मेरे मैकरोनी जैसे पैर में तो हज़ारों सुईयाँ चुभ रही थीं!
मैं चीख़ा:
“मीश्का, ये ब्रेक कहाँ है?”
और वो :
“मैं भूल गया!”
और मैं:
“याद कर!”
“ठीक है, याद करता हूँ, तब तक तू और घूम ले!”
“तू जल्दी से याद कर, मीश्का!” मैं फिर से चीखा.
और मैं और आगे घूमता रहा,
मुझे महसूस हो रहा था कि मैं बिल्कुल ठीक नहीं हूँ, जी मिचला रहा था. मगर अगले
चक्कर में मीश्का फिर से चिल्लाया:
“याद नहीं आ रहा हि! तू कूदने की कोशिश कर!”
मैंने उससे कहा:
“मेरा जी मिचला रहा है!”
अगर मैं जानता कि ये सब कुछ
होगा, तो कभी भी इस गाड़ी पर नहीं घूमता, बेहतर है पैदल चलना, क़सम से!”
“आगे से मीश्का फिर से चिल्लाया:
“एक गद्दा लाना पड़ेगा जिस पे सोते हैं! जिससे कि
तू उसमे घुस जाए और रुक जाए! तू काय पे सोता है?”
“फोल्डिंग कॉट पे!”
और मीश्का:
“तो फिर घूमता रह, जब तक पेट्रोल नहीं ख़तम हो
जाता!”
मैं इस बात के लिए उस पर गाड़ी
चढ़ाने ही वाला था. “जब तक पेट्रोल नहीं ख़तम हो जाता”... हो सकता है, मुझे दो
हफ़्तों तक इसी तरह पार्क का चक्कर लगाते रहना पड़े, और हमारे पास तो मंगलवार को
कठपुतलियों वाले थियेटर के टिकट हैं. और पैर में सुईयाँ चुभ रही हैं! मैं इस
बेवकूफ़ पर चिल्लाया:
“जा, अपने फ़ेद्का के पास भाग!”
“वो चाय पी रहा है!” मीश्का चिल्लाया.
“बाद में पी लेगा!” मैं दहाड़ा.
मगर उसने पूरी बात नहीं सुनी
और मुझसे सहमत हो गया:
“मार डालेगा! ज़रूर मार डालेगा!”
और सब कुछ फिर से मेरे सामने
घूमने लगा: खम्भा, गेट, बेंच, बरसाती कुकुरमुत्ते, बालू-रेत, झूले, हाउसिंग कमिटी.
फिर इसका उलटा: हाउसिंग कमिटी, झूले, बेंच, खम्भा, मगर फिर सब गड्ड्-मड्ड् हो गया:
हाउम्भा, खम्कमिटी, कुकुरेंच...और मैं समझ गया कि हालत बुरी है.
मगर इसी समय किसीने पूरी ताक़त
से गाड़ी को पकड़ लिया, उसने फट्-फट् करना बन्द कर दिया, और मेरे सिर पर ज़ोर से झापड़
मारा. मैंने अन्दाज़ लगाया कि मीश्का के फ़ेद्का ने आख़िरकार अपनी चाय ख़त्म कर ली है.
मैं फ़ौरन भागने लगा, मगर भाग नहीं सका, क्योंकि मैकरोनी वाला पैर मुझे चुभ रहा था,
खंजर की तरह. मगर फिर भी मैं बदहवास नहीं हुआ और एक ही पैर पर उछलते-उछलते फ़ेद्का
के हाथ से छूट गया.
उसने भी मेरा पीछा नहीं किया.
मैं भी सिर पर मारने के कारण उस
पर गुस्सा नहीं हुआ. क्योंकि बिना उसके तो, शायद मैं अब तक कम्पाउण्ड में गोल-गोल
घूमता ही रहता.