गुरुवार, 31 अक्टूबर 2013

Deewar par motorcycle...

  दीवार पर मोटरसाइकल-रेस
लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनु. : आ. चारुमति रामदास
जब मैं छोटा था तभी मुझे तीन पहियों वाली साइकल गिफ़्ट में दी गई थी. और मैं उस पर एकदम साइकल चलाना सीख गया. फ़ौरन बैठ गया और चल पड़ा, ज़रा भी नहीं डरा, जैसे कि मैं बिल्कुल ज़िन्दगी भर साइकिलों पर घूमता रहा हूँ.
मम्मा ने कहा:
”देखो, स्पोर्ट्स में कितना होशियार है.”
मगर पापा ने कहा: “बिल्कुल बन्दर की तरह बैठा है...”
अब मैं बहुत बढ़िया साइकिल चलाना सीख गया और काफ़ी जल्दी साइकिल पर अलग-अलग तरह के करतब भी करना सीख गया जैसे सर्कस के आर्टिस्ट करते हैं. मिसाल के तौर पर, मैं मुँह पीछे करके बैठता और आगे की ओर साइकिल चलाता, या सीट पर पेट के बल लेट जाता और किसी भी हाथ से पैडल घुमा लेता – चाहे सीधे हाथ से, चाहे उल्टे;
पैर फ़ैलाकर तिरछे बैठ जाता और साइकिल चलाता;
हैंडिल पर बैठ कर या तो आँखें बन्द कर लेता या फिर बिना हाथों के चलाता;
हाथ में पानी का गिलास पकड़े चलाता. मतलब, हर करतब में माहिर हो गया था.
फिर अंकल झेन्या ने मेरी साइकिल का एक पहिया मोड़ दिया, और वो दो पहियों वाली हो गई, मगर मैं बड़ी जल्दी फिर से सब कुछ सीख गया. कम्पाउण्ड के बच्चे मुझे “चैम्पियन ऑफ़ वर्ल्ड और हिज़ लोकेलिटी” कहने लगे.
और मैं अपनी साइकिल पर तब तक घूमता रहा जब तक कि साइकिल चलाते हुए मेरे घुटने हैण्डिल से ऊपर नहीं उठने लगे. तब मैंने अन्दाज़ लगाया कि अब इस साइकिल के लिए मैं बड़ा हो गया हूँ, और सोचने लगा कि न जाने कब पापा मेरे लिये असली साइकिल “स्कूलबॉय” खरीदेंगे.
और लीजिए, एक दिन हमारे कम्पाउण्ड में एक साइकिल आती है, और वो अंकल, जो उस पे बैठा है, पैर नहीं चला रहा है, मगर उसके नीचे साइकिल ड्रैगन-फ्लाइ की तरह फ़ट्-फ़ट् कर रही है, और अपने आप चल रही है. मुझे ख़ूब अचरज हुआ. मैंने तो ऐसा कभी देखा ही नहीं था कि साइकिल अपने आप चल रही हो. मोटरसाइकिल – और बात है, कार भी – और बात है, रॉकेट- समझ में आता है, मगर साइकिल? अपने आप?
मुझे अपनी आँखों पे विश्वास ही नहीं हुआ.
और वो अंकल, जो साइकिल पे आया था, मीश्का के प्रवेश-द्वार की ओर आया और रुक गया. और वो वाक़ई में अंकल था ही नहीं, बल्कि एक नौजवान लड़का था. फिर उसने साइकिल पाइप के पास रखी और चला गया. मैं अपना मुँह खोले वहीं रह गया. अचानक मीश्का बाहर निकला.
वो बोला:
 “क्या हुआ? ऐसे क्या खड़ा है?”
मैंने कहा:
 “ख़ुद-ब-ख़ुद चलती है, समझा?”
मीश्का ने कहा:
 “ये हमारे भतीजे फ़ेद्का की गाड़ी है. मोटर वाली साइकिल. फ़ेद्का हमारे यहाँ काम से आया है – चाय पीने.” 
मैंने पूछा:
 “क्या ऐसी मशीन वाली साइकिल चलाना मुश्किल है?”
 “ बकवास,” मीश्का ने कहा. “ये तो आधी ही किक में शुरू हो जाती है. एक बार पैडल दबाओ, और बस, तैयार – जा सकते हो. और इसमें सौ किलोमीटर्स तक के लिए पेट्रोल आ सकता है. और इसकी स्पीड है – आधे घण्टे में बीस किलोमीटर.
 “ओहो! ये हुई न बात!” मैंने कहा. “ये है मोटर वाली साइकिल! काश, इस पे घूम सकता!”
इस पर मीश्का ने सिर हिलाया:
 “पड़ेगी! फ़ेद्का मार डालेगा. सिर काट देगा!”
  “हाँ. ख़तरा है,” मैंने कहा.
मगर मीश्का ने इधर उधर देखा और अचानक बोला:
 “कम्पाउण्ड में कोई नहीं है, और तू वैसे भी “चैम्पियन ऑफ़ वर्ल्ड” है. बैठ! मैं गाड़ी को धक्का देने में मदद करूँगा, और तू बस एक बार पैडल को धक्का मार, बाकी सब कुछ बड़े आराम से हो जाएगा. गार्डन के चारों ओर दो-तीन चक्कर लगा ले, और हम चुपके से गाड़ी वापस जगह पे रख देंगे. हमारा फ़ेद्का बड़ी देर तक चाय पीता है. तीन गिलास गटक जाता है. चल!”
 “चल!” मैंने कहा.
मीश्का साइकिल पकड़ने लगा, और मैं उस पर विराजमान हो गया. एक पैर का मोज़ा तो वाक़ई में पैडल के किनारे को छू रहा था, मगर दूसरा पैर हवा में लटक रहा था, मैकरोनी की तरह. इस मैकरोनी से मैंने पाइप को धक्का दिया, और मीश्का मेरी बगल में दौड़ता हुआ चिल्लाया:
 “पैडल दबा, चल, दबा!”
मैंने कोशिश की, तिरछा होकर सीट से कुछ नीचे को सरका जिससे पैडल दबा सकूँ. मीश्का ने हैण्डिल में कोई चीज़ हिलाई...और अचानक गाड़ी फट्-फट् करने लगी, और मैं चल पड़ा!
मैं जा रहा था! अपने आप! पैडल नहीं दबा रहा – वहाँ तक पहुँचता ही नहीं, बस, चला जा रहा हूँ, बैलेन्स बनाए हुए हूँ!
ये बड़ा अद्भुत था! हवा मेरे कानों में सन्-सन् कर रही थी, चारों ओर की हर चीज़ जल्दी-जल्दी एक गोल बनाते हुए फिसलती जा रही थी: छोटा सा खम्भा, गेट, बेंच, बरसाती कुकुरमुत्ते, बालू-रेत, झूले, हाउसिंग कमिटी ; और फिर से छोटा सा खम्भा, गेट, बेंच, बरसाती कुकुरमुत्ते, बालू-रेत, झूले, हाउसिंग कमिटी, ; और फिर से खम्भा और शुरू से वही सब कुछ, और मैं घूमे जा रहा था, हैण्डिल से चिपके, और मीश्का मेरे पीछे भागे जा रहा है, मगर तीसरे चक्कर में वह चीख़ा:
 “मैं थक गया!” और वह खम्भे पर झुक गया.
और मैं अकेला घूमे जा रहा था, मुझे बड़ा अच्छा लग रहा था, मैं घूम ही रहा था और कल्पना कर रहा था, कि दीवार पर मोटर साइकल चलाने की रेस में हिस्सा ले रहा हूँ. मैंने देखा था कि सांस्कृतिक- पार्क  में बहादुर आर्टिस्ट कैसे रेस लगा रही थी...
और खम्भा, और मीश्का, और झूले, और हाउसिंग कमिटी – सब कुछ मेरी आँखों के सामने बड़ी देर तक घूमता रहा, सब कुछ बड़ा अच्छा था, सिर्फ़ मेरा पैर जो मैकरोनी की तरह लटक रहा था... उस पर जैसे थोड़ी-थोड़ी चीटियाँ रेंगने लगी थीं...और अचानक ऐसे लगा कि मैं अपने आप में नहीं था, हथेलियाँ फ़ौरन गीली हो गईं, और रुक जाने का मन करने लगा.
मैं मीश्का के क़रीब गया और चिल्लाया:
 “बस हो गया! रोक इसे!”
मीश्का मेरे पीछे भागा और चिल्लाया:
 “क्या? ज़ोर से बोल!”
मैं चिल्लाया:
 “तू क्या बहरा हो गया है?”
मगर मीश्का कब का पीछे रह गया था. तब मैं एक चक्कर और घूमा और चीखा:
 “गाड़ी को रोक, मीश्का!”
तब उसने हैण्डिल पकड़ लिया, गाड़ी उछली, वो गिर गया, और मैं फिर से आगे बढ़ गया. देखा कि वो फिर से खम्भे के पास मुझे मिला और दहाड़ा:
 “ब्रेक! ब्रेक!”
मैं उसके क़रीब से गुज़र गया और ब्रेक ढूँढ़ने लगा. मगर, ज़ाहिर है, मुझे तो मालूम ही नहीं था कि वह कहाँ होता है! मैं अलग-अलग तरह के स्क्रू घुमाने लगा और हैंडिल में कुछ-कुछ दबाने लगा. मगर कहाँ! कोई फ़ायदा नहीं हुआ. गाड़ी तो ऐसे फट्-फट् कर रही थी जैसे कुछ हुआ ही न हो, मगर मेरे मैकरोनी जैसे पैर में तो हज़ारों सुईयाँ चुभ रही थीं!
मैं चीख़ा:
 “मीश्का, ये ब्रेक कहाँ है?”
और वो :
 “मैं भूल गया!”
 और मैं:
 “याद कर!”
 “ठीक है, याद करता हूँ, तब तक तू और घूम ले!”
 “तू जल्दी से याद कर, मीश्का!” मैं फिर से चीखा.
और मैं और आगे घूमता रहा, मुझे महसूस हो रहा था कि मैं बिल्कुल ठीक नहीं हूँ, जी मिचला रहा था. मगर अगले चक्कर में मीश्का फिर से चिल्लाया:
 “याद नहीं आ रहा हि! तू कूदने की कोशिश कर!”
मैंने उससे कहा:
 “मेरा जी मिचला रहा है!”
अगर मैं जानता कि ये सब कुछ होगा, तो कभी भी इस गाड़ी पर नहीं घूमता, बेहतर है पैदल चलना, क़सम से!”
 “आगे से मीश्का फिर से चिल्लाया:
 “एक गद्दा लाना पड़ेगा जिस पे सोते हैं! जिससे कि तू उसमे घुस जाए और रुक जाए! तू काय पे सोता है?”
 “फोल्डिंग कॉट पे!”
और मीश्का:
 “तो फिर घूमता रह, जब तक पेट्रोल नहीं ख़तम हो जाता!”
मैं इस बात के लिए उस पर गाड़ी चढ़ाने ही वाला था. “जब तक पेट्रोल नहीं ख़तम हो जाता”... हो सकता है, मुझे दो हफ़्तों तक इसी तरह पार्क का चक्कर लगाते रहना पड़े, और हमारे पास तो मंगलवार को कठपुतलियों वाले थियेटर के टिकट हैं. और पैर में सुईयाँ चुभ रही हैं! मैं इस बेवकूफ़ पर चिल्लाया:
 “जा, अपने फ़ेद्का के पास भाग!”
 “वो चाय पी रहा है!” मीश्का चिल्लाया.
 “बाद में पी लेगा!” मैं दहाड़ा.
मगर उसने पूरी बात नहीं सुनी और मुझसे सहमत हो गया:
 “मार डालेगा! ज़रूर मार डालेगा!”
और सब कुछ फिर से मेरे सामने घूमने लगा: खम्भा, गेट, बेंच, बरसाती कुकुरमुत्ते, बालू-रेत, झूले, हाउसिंग कमिटी. फिर इसका उलटा: हाउसिंग कमिटी, झूले, बेंच, खम्भा, मगर फिर सब गड्ड्-मड्ड् हो गया: हाउम्भा, खम्कमिटी, कुकुरेंच...और मैं समझ गया कि हालत बुरी है.
मगर इसी समय किसीने पूरी ताक़त से गाड़ी को पकड़ लिया, उसने फट्-फट् करना बन्द कर दिया, और मेरे सिर पर ज़ोर से झापड़ मारा. मैंने अन्दाज़ लगाया कि मीश्का के फ़ेद्का ने आख़िरकार अपनी चाय ख़त्म कर ली है. मैं फ़ौरन भागने लगा, मगर भाग नहीं सका, क्योंकि मैकरोनी वाला पैर मुझे चुभ रहा था, खंजर की तरह. मगर फिर भी मैं बदहवास नहीं हुआ और एक ही पैर पर उछलते-उछलते फ़ेद्का के हाथ से छूट गया.
उसने भी मेरा पीछा नहीं किया.
मैं भी सिर पर मारने के कारण उस पर गुस्सा नहीं हुआ. क्योंकि बिना उसके तो, शायद मैं अब तक कम्पाउण्ड में गोल-गोल घूमता ही रहता.


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गुरुवार, 24 अक्टूबर 2013

Jaadui Shabd

जादुई शब्द
लेखिका: वालेन्तीना असेयेवा
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

लम्बी, सफ़ेद दाढ़ी वाला छोटा-सा बूढ़ा बेंच पर बैठा था और छाते से बालू पर कुछ बना रहा था.
 “थोड़ा-सा सरक जाइए,” पाव्लिक ने उससे कहा और बेंच के किनारे पर बैठ गया.
बूढ़ा थोड़ा सा सरक गया और बच्चे के लाल, तमतमाते मुँह की ओर देखकर उसने कहा:
 “तुझे कुछ हुआ है क्या?”
 “ठीक है, ठीक है! और आपसे मतलब?” पाव्लिक ने तिरछी नज़रों से उसकी ओर देखा.
 “मुझे तो कोई मतलब नहीं है. मगर तू अभी-अभी चीख़ रहा था, रो रहा था, किसी के साथ झगड़ा कर रहा था...”
  “ये और सुनो!” गुस्से से बच्चा बुदबुदाया. “मैं जल्दी ही हमेशा के लिए घर छोड़कर भाग जाऊँगा.”
 “भाग जाओगे?”
 “भाग जाऊँगा! सिर्फ लेन्का की वजह से भाग जाऊँगा,” पाव्लिक ने मुट्ठियाँ भींच लीं. “मैं अभी-अभी उसकी अच्छी धुलाई करने वाला था! एक भी रंग मुझे नहीं देती है! और उसके पास कितने सारे हैं!...”
 “नहीं देती? ठीक है, मगर सिर्फ़ इसी वजह से भाग जाने में कोई तुक नहीं है.”
 “सिर्फ़ इसी वजह से नहीं. दादी ने सिर्फ़ एक गाजर के कारण मुझे किचन से बाहर भगा दिया...सीधे पोंछे के कपड़े से, पोंछे के कपड़े से...”
पाव्लिक अपमान के कारण गहरी-गहरी साँसें लेने लगा.
 “बकवास!” बूढ़े ने कहा. “एक डाँटता है – दूसरा दया दिखाता है.”
 “कोई भी मुझ पर दया नहीं दिखाता!” पाव्लिक चीख़ा. “भाई नाव पर सैर करने जाता है और मुझे नहीं ले जाता. मैं उससे कहता हूँ, ‘बेहतर है मुझे ले चल, मैं वैसे भी तुझ से पीछे नहीं रहूँगा, चप्पू छीन लूँगा, ख़ुद ही नाव में कूद कर नाव में चढ़ जाऊँगा!’
पाव्लिक ने बेंच पर मुट्ठी से वार किया. और फिर अचानक ख़ामोश हो गया.
 “तो, भाई तुझे नहीं ले जाता?”
 “और आप हर बात क्यों पूछ रहे हैं?”
बूढ़े ने अपनी लम्बी दाढ़ी को सहलाया:
 “मैं तेरी मदद करना चाहता हूँ. एक जादुई शब्द है...”
पाव्लिक का मुँह खुल गया.
 “मैं तुझे वो शब्द बताऊँगा. मगर याद रख : उसे बड़ी शांत आवाज़ में कहना होता है, सीधे उस इन्सान की आँखों में देखकर, जिससे तू बात कर रहा है. याद रख – शांत आवाज़ में, सीधे उसकी आँखों में देखते हुए...”
 “वो कौन सा शब्द है?”
बूढ़ा सीधे बच्चे के कान पर झुका. उसकी नरम दाढ़ी पाव्लिक के गाल को छू रही थी. वह कान में कुछ फुसफुसाया और फिर ज़ोर से बोला:
 “ये जादुई शब्द है. मगर भूलना नहीं कि उसे कैसे कहना है.”
 “मैं कोशिश करूँगा,” पाव्लिक मुस्कुराया, “मैं अभ्भी जाकर कोशिश करता हूँ”
वह उछला और  घर की ओर भागा.
लेना मेज़ पर बैठी हुई ड्राइंग बना रही थी. रंग – हरे, नीले, लाल – उसके सामने पड़े थे. पाव्लिक को देखते ही उसने उन्हें फ़ौरन इकट्ठा कर लिया और उस ढेर को हाथ से छुपा लिया.
       
 ‘धोखा दिया बुड्ढे ने!’ बच्चे ने निराशा से सोचा. ‘ऐसी लड़की जादुई शब्द को क्या समझ पाएगी!’
पाव्लिक किनारे से बहन के पास गया और उसकी बाँह पकड़ कर खींचने लगा. बहन ने मुड़कर देखा. तब, उसकी आँखों में देखते हुए, धीमी आवाज़ में बच्चे ने कहा, “लेना, मुझे एक रंग दे ना...प्लीज़...”
लेना ने आँखें फटी रह गईं. उसकी उँगलियाँ ढीली पड़ गईं, और, मेज़ से हाथ निकालते हुए, वह परेशानी से बुदबुदाई:
 “कौनसा चाहिए, तुझे?”
 “मुझे नीला वाला चाहिए,” नम्रता से पाव्लिक ने कहा.
उसने रंग लिया, उसे हाथों में पकड़ा, उसे लेकर कमरे में थोड़ा सा घूमा और बहन को वापस दे दिया. उसे तो रंग चाहिए ही नहीं था. अब वो सिर्फ जादुई शब्द के बारे में सोच रहा था.
 “दादी के पास जाऊँ. वो कुछ बना रही है. क्या वह मुझे भगा देगी या नहीं भगाएगी?”
पाव्लिक ने किचन का दरवाज़ा खोला. दादी कड़ाही से गरम-गरम समोसे निकाल रही थी. पोता उसके पास भागा, दोनों हाथों से उसका लाल, झुर्रियों वाला मुँह अपनी ओर मोड़ा, और सीधे उसकी आँखों में झाँककर फुसफुसाया:
“ मुझे समोसे का एक टुकड़ा दो ना...प्लीज़.”
दादी सीधी खड़ी हो गई. जादुई शब्द उसके चेहरे की हर झुर्री में, उसकी आँखों में, उसकी मुस्कुराहट में चमक रहा था...
 “गरम-गरम...गरम-गरम चाहिए मेरे लाड़ले को!” सबसे बढिया, खस्ता समोसा उठाते हुए उसने कहा.
पाव्लिक ख़ुशी से उछल पड़ा और उसने दादी के दोनों गालों की पप्पी ले ली.
 “जादूगर! जादूगर!” बूढ़े को याद करते हुए वह अपने आप से कहे जा रहा था.
 लंच के समय पावेल शांत बैठा रहा और भाई के हर शब्द को ग़ौर से सुनता रहा. जब भाई ने कहा कि वह नाव पर सैर के लिए जा रहा है, तो पाव्लिक ने उसके कंधे पर हाथ रखा और हौले से विनती की:
 “मुझे भी ले चलो, प्लीज़.”
मेज़ पर बैठे सभी लोग एकदम चुप हो गए. भाई ने भौंहे ऊपर उठाईं और मुस्कुराया.
 “उसे ले जाओ,” अचानक बहन ने कहा, “तुझे करना ही क्या है!” 
“हाँ, क्यों नहीं ले जाएगा?” दादी मुस्कुराई. “बेशक, ले जाएगा.”                
 “प्लीज़,” पाव्लिक ने दुहराया.
भाई ठहका मारकर हँसने लगा, उसने बच्चे का कंधा थपथपाया, उसके बालों को उलट-पुलट कर दिया.
 “ऐह, तू, ट्रेवलर! ठीक है, चल, तैयार हो जा.”
 ‘ग़ज़ब हो गया! इसने तो कमाल कर दिया! फिर से कमाल कर दिया!’
पाव्लिक उछल कर मेज़ से उठा और रास्ते पर भागा. मगर चौक में बूढ़ा था ही नहीं. बेंच ख़ाली थी, सिर्फ़ रेत पर छाते से बनाए गए कुछ समझ में न आनेवाले चिह्न थे.

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बुधवार, 23 अक्टूबर 2013

Fedya's Homework



फ़ेद्या का होमवर्क

लेखक: निकोलाय नोसोव
अनु. : आ. चारुमति रामदास

सर्दियों में एक बार फ़ेद्या रीब्किन  स्केटिंग-हॉल से लौटा. घर में कोई भी नहीं था. फ़ेद्या की छोटी बहन, रीना, अपना होम वर्क ख़तम करके सहेलियों के साथ खेलने के लिए जा चुकी थी. मम्मा भी कहीं बाहर गई थी.
 “कितनी अच्छी बात है!” फ़ेद्या ने कहा, “कम से कम होम वर्क करते समय कोई डिस्टर्ब तो नहीं करेगा.”
उसने टेलिविजन चालू किया, बैग में से अपनी स्कूल-डायरी निकाली और होम वर्क के प्रश्न ढूँढ़ने लगा. टेलिविजन के स्क्रीन पर अनाउन्सर प्रगट हुआ.
 “आपकी फ़रमाइश पर कॉन्सर्ट पेश करते हैं,” उसने घोषणा की.
 “कॉन्सर्ट! – ये तो बढ़िया बात हुई,” फ़ेद्या ने कहा, “होमवर्क करने में मज़ा आएगा.”
उसने टेलिविजन का वॉल्यूम बढ़ाया, जिससे अच्छी तरह सुनाई दे, और मेज़ पे बैठ गया.
 “तो, हमें क्या मिला है होम-वर्क?  एक्सरसाइज़ नम्बर 639? ठीक है... मिल में राइ के (एक विशेष प्रकार का अनाज – अनु.) 450 बोरे लाए गए, हर बोरे में 80 किलोग्राम राइ थी...
अनाऊन्सर की जगह स्क्रीन पर काले सूट में एक गायक प्रकट हुआ और गहरी, गरजदार आवाज़ में गाने लगा:

कभी रहता था एक राजा,
पिस्सू रहता उसके साथ.
सगे भाई से भी ज़्यादा,
पिस्सू था उसको प्यारा.

 “छिः, कितना गलीज राजा है!” फ़ेद्या ने कहा, “पिस्सू, देखो तो, उसे सगे भाई से भी ज़्यादा प्यारा है!”
उसने नाक का सिरा खुजाया और शुरू से सवाल पढ़ने लगा:
  ... “ मिल में राइ के 450 बोरे लाए गए, हर बोरे में 80 किलोग्राम राइ थी. राइ को पीसा गया, इससे छह किलोग्राम बीजों से पाँच किलोग्राम आटा निकला...

पिस्सू को! हा-हा! ...
गायक हँसने लगा और आगे गाता रहा:
राजा ने बुलाया दर्ज़ी को:
...सुन, तू, ऐ मूरख!
प्यारे मित्र को
सी दे मखमल का कफ़्तान.
 ...”छिः, अब ये भी सोच लिया!...” फ़ेद्या चीख़ा, “ कफ़्तान! अजीब बात है, दर्ज़ी उसे सिएगा कैसे? पिस्सू तो बेहद छोटा होता है!”
उसने गाने को आख़िर तक सुना, मगर समझ ही नहीं पाया कि दर्ज़ी ने अपना काम कैसे पूरा किया. गाने में इस बारे में कुछ भी नहीं बताया गया.
 “बुरा गाना है,” फ़ेद्या ने अपनी राय ज़ाहिर कर दी और फिर से अपना सवाल पढ़ने लगा : ... मिल में राइ के 450 बोरे लाए गए, हर बोरे में 80 किलोग्राम राइ थी. राइ को पीसा गया, तब छह किलोग्राम बीजों से...”
“ वह था एक सरकारी अफ़सर,
और वो...जनरल की बेटी,...”

गायक ने फिर से गाना शुरू किया.
... “मज़ेदार है, ये सरकारी अफ़सर कौन होता है?” फ़ेद्या ने कहा. “हुम्!”

उसने दोनों हाथों से अपने कान मले, मानो वे जम गए हों, और गाने की ओर ध्यान न देने की कोशिश करते हुए सवाल आगे पढ़ने लगा:
 “तो ऐसा है. छह किलोग्राम बीजों से निकला पाँच किलोग्राम आटा. पूरे आटे को ले जाने के लिए कितनी
गाड़ियों की ज़रूरत पड़ेगी, अगर हर गाड़ी में तीन टन आटा रख जा सकता हो?”
जब तक फ़ेद्या ने अपना सवाल पढ़ा, सरकारी अफ़सर वाला गाना ख़त्म हो गया था और दूसरा गाना शुरू हो गया:
दिल को सुकून देता है ख़ुशी भरा एक गीत,
कभी न उकताता वो दिल को,
पसन्द उसे करते हैं सारे कस्बे, सारे गाँव,
बड़े बड़े शहर भी करते इसे पसन्द!

ये गाना फ़ेद्या को बहुत अच्छा लगा. वह अपने सवाल के बारे में भी भूल गया और पेन्सिल से मेज़ पर ताल देने लगा.
 “बहुत बढ़िया गाना है!” जब गाना ख़तम हो गया तो उसने कहा, ...”तो, हमारे सवाल में क्या लिखा है? ‘मिल में 450 बोरे राइ के लाए गए...
एकसुर में बजती है घण्टी,...
टेलिविजन पर आदमी की ऊँची आवाज़ सुनाई दी.
 “ठीक है, बजती है तो बजती रहे...,” फ़ेद्या ने कहा, “हमें क्या करना है? हमें तो अपना सवाल हल करना है. तो, हम कहाँ रुके थे? ठीक है...रेस्ट हाउस के लिए बीस कम्बल और एक सौ पैंतीस चादरें ख़रीदी गईं दो सौ छप्पन रूबल्स में. तो कम्बलों और चादरों के लिए अलग अलग कितना पैसा दिया गया... माफ़ कीजिए! ये कम्बल और चादरें कहाँ से टपक पड़ीं? क्या हम कम्बलों के बारे में बात कर रहे थे? फूः, भाड़ में जाए! अरे, ये वो वाला सवाल नहीं है! वो है कहाँ? ...ओ, ये रहा! मिल में राइ के 450 बोरे लाए गए...
सर्दियों के उकताए रास्ते पर
भाग रही शिकारी कुत्तों की त्रोयका,
 घण्टी जिसकी एकसार,
गूंज रही थकावट से....  

“...अरे! फिर से घण्टी के बारे में!...” फ़ेद्या चहका. “ घण्टियों पर ही अटक गए! तो...गूंज रही थकावट से......हर बोरे में ....राइ को पीसा गया, जिससे छह किलोग्राम आटे से पाँच किलोग्राम बीज निकले...मतलब, आटा निकला, न कि बीज! बिल्कुल उलझा दिया!”

स्तेपी के मेरे प्यारे, घण्टी जैसे फूलों!
क्यों देखते हो मुझको, तुम गहरी गुलाबी आभा से?

 “फूः!” फ़ेद्या ने थूका. “इन घण्टियों से तो बचना मुश्किल है! चाहे घर से ही क्यों न भाग जाओ, पागल कर देंगी!... छह किलोग्राम बीजों से पाँच किलोग्राम आटा निकला और पूछते हैं कि पूरे आटे को ले जाने के लिए कितनी गड़ियों की ज़रूरत पड़ेगी...
पत्थर की गुफ़ाओं में हैं अनगिनत हीरे,
दोपहर के समन्दर में –अथाह मोती.

“ बड़ी ज़रूरत है हमें हीरे गिनने की! यहाँ तो आटे के बोरे ही गिनना मुश्किल हो रहा है! बिल्कुल पनिशमेन्ट है! बीस बार सवाल पढ़ चुका हूँ...मगर कुछ भी समझ में नहीं आया! इससे तो अच्छा है कि मैं यूरा सोरोकिन के पास चला जाऊँ, उससे कहूँगा कि इसका मतलब समझा दे.”

फ़ेद्या रीब्किन ने अपनी स्कूल-डायरी बगल में दबाई, टीवी बन्द किया और अपने दोस्त सोरोकिन के पास चल पड़ा.