जादुई शब्द
लेखिका: वालेन्तीना असेयेवा
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
लम्बी, सफ़ेद दाढ़ी वाला
छोटा-सा बूढ़ा बेंच पर बैठा था और छाते से बालू पर कुछ बना रहा था.
“थोड़ा-सा सरक जाइए,” पाव्लिक ने उससे कहा और
बेंच के किनारे पर बैठ गया.
बूढ़ा थोड़ा सा सरक गया और
बच्चे के लाल, तमतमाते मुँह की ओर देखकर उसने कहा:
“तुझे कुछ हुआ है क्या?”
“ठीक है, ठीक है! और आपसे मतलब?” पाव्लिक ने
तिरछी नज़रों से उसकी ओर देखा.
“मुझे तो कोई मतलब नहीं है. मगर तू अभी-अभी चीख़
रहा था, रो रहा था, किसी के साथ झगड़ा कर रहा था...”
“ये और
सुनो!” गुस्से से बच्चा बुदबुदाया. “मैं जल्दी ही हमेशा के लिए घर छोड़कर भाग
जाऊँगा.”
“भाग जाओगे?”
“भाग जाऊँगा! सिर्फ लेन्का की वजह से भाग
जाऊँगा,” पाव्लिक ने मुट्ठियाँ भींच लीं. “मैं अभी-अभी उसकी अच्छी धुलाई करने वाला
था! एक भी रंग मुझे नहीं देती है! और उसके पास कितने सारे हैं!...”
“नहीं देती? ठीक है, मगर सिर्फ़ इसी वजह से भाग
जाने में कोई तुक नहीं है.”
“सिर्फ़ इसी वजह से नहीं. दादी ने सिर्फ़ एक गाजर
के कारण मुझे किचन से बाहर भगा दिया...सीधे पोंछे के कपड़े से, पोंछे के कपड़े
से...”
पाव्लिक अपमान के कारण
गहरी-गहरी साँसें लेने लगा.
“बकवास!” बूढ़े ने कहा. “एक डाँटता है – दूसरा
दया दिखाता है.”
“कोई भी मुझ पर दया नहीं दिखाता!” पाव्लिक चीख़ा.
“भाई नाव पर सैर करने जाता है और मुझे नहीं ले जाता. मैं उससे कहता हूँ, ‘बेहतर है
मुझे ले चल, मैं वैसे भी तुझ से पीछे नहीं रहूँगा, चप्पू छीन लूँगा, ख़ुद ही नाव
में कूद कर नाव में चढ़ जाऊँगा!’
पाव्लिक ने बेंच पर मुट्ठी से
वार किया. और फिर अचानक ख़ामोश हो गया.
“तो, भाई तुझे नहीं ले जाता?”
“और आप हर बात क्यों पूछ रहे हैं?”
बूढ़े ने अपनी लम्बी दाढ़ी को
सहलाया:
“मैं तेरी मदद करना चाहता हूँ. एक जादुई शब्द
है...”
पाव्लिक का मुँह खुल गया.
“मैं तुझे वो शब्द बताऊँगा. मगर याद रख : उसे
बड़ी शांत आवाज़ में कहना होता है, सीधे उस इन्सान की आँखों में देखकर, जिससे तू बात
कर रहा है. याद रख – शांत आवाज़ में, सीधे उसकी आँखों में देखते हुए...”
“वो कौन सा शब्द है?”
बूढ़ा सीधे बच्चे के कान पर
झुका. उसकी नरम दाढ़ी पाव्लिक के गाल को छू रही थी. वह कान में कुछ फुसफुसाया और
फिर ज़ोर से बोला:
“ये जादुई शब्द है. मगर भूलना नहीं कि उसे कैसे
कहना है.”
“मैं कोशिश करूँगा,” पाव्लिक मुस्कुराया, “मैं
अभ्भी जाकर कोशिश करता हूँ”
वह उछला और घर की ओर भागा.
लेना मेज़ पर बैठी हुई ड्राइंग
बना रही थी. रंग – हरे, नीले, लाल – उसके सामने पड़े थे. पाव्लिक को देखते ही उसने
उन्हें फ़ौरन इकट्ठा कर लिया और उस ढेर को हाथ से छुपा लिया.
‘धोखा दिया बुड्ढे ने!’ बच्चे ने निराशा से
सोचा. ‘ऐसी लड़की जादुई शब्द को क्या समझ पाएगी!’
पाव्लिक किनारे से बहन के पास
गया और उसकी बाँह पकड़ कर खींचने लगा. बहन ने मुड़कर देखा. तब, उसकी आँखों में देखते
हुए, धीमी आवाज़ में बच्चे ने कहा, “लेना, मुझे एक रंग दे ना...प्लीज़...”
लेना ने आँखें फटी रह गईं.
उसकी उँगलियाँ ढीली पड़ गईं, और, मेज़ से हाथ निकालते हुए, वह परेशानी से बुदबुदाई:
“कौनसा चाहिए, तुझे?”
“मुझे नीला वाला चाहिए,” नम्रता से पाव्लिक ने
कहा.
उसने रंग लिया, उसे हाथों में
पकड़ा, उसे लेकर कमरे में थोड़ा सा घूमा और बहन को वापस दे दिया. उसे तो रंग चाहिए
ही नहीं था. अब वो सिर्फ जादुई शब्द के बारे में सोच रहा था.
“दादी के पास जाऊँ. वो कुछ बना रही है. क्या वह
मुझे भगा देगी या नहीं भगाएगी?”
पाव्लिक ने किचन का दरवाज़ा
खोला. दादी कड़ाही से गरम-गरम समोसे निकाल रही थी. पोता उसके पास भागा, दोनों हाथों
से उसका लाल, झुर्रियों वाला मुँह अपनी ओर मोड़ा, और सीधे उसकी आँखों में झाँककर
फुसफुसाया:
“ मुझे समोसे का एक टुकड़ा दो
ना...प्लीज़.”
दादी सीधी खड़ी हो गई. जादुई शब्द
उसके चेहरे की हर झुर्री में, उसकी आँखों में, उसकी मुस्कुराहट में चमक रहा था...
“गरम-गरम...गरम-गरम चाहिए मेरे लाड़ले को!” सबसे
बढिया, खस्ता समोसा उठाते हुए उसने कहा.
पाव्लिक ख़ुशी से उछल पड़ा और
उसने दादी के दोनों गालों की पप्पी ले ली.
“जादूगर! जादूगर!” बूढ़े को याद करते हुए वह अपने
आप से कहे जा रहा था.
लंच के समय पावेल शांत बैठा रहा और भाई के हर
शब्द को ग़ौर से सुनता रहा. जब भाई ने कहा कि वह नाव पर सैर के लिए जा रहा है, तो
पाव्लिक ने उसके कंधे पर हाथ रखा और हौले से विनती की:
“मुझे भी ले चलो, प्लीज़.”
मेज़ पर बैठे सभी लोग एकदम चुप
हो गए. भाई ने भौंहे ऊपर उठाईं और मुस्कुराया.
“उसे ले जाओ,” अचानक बहन ने कहा, “तुझे करना ही
क्या है!”
“हाँ, क्यों नहीं ले जाएगा?”
दादी मुस्कुराई. “बेशक, ले जाएगा.”
“प्लीज़,” पाव्लिक ने दुहराया.
भाई ठहका मारकर हँसने लगा,
उसने बच्चे का कंधा थपथपाया, उसके बालों को उलट-पुलट कर दिया.
“ऐह, तू, ट्रेवलर! ठीक है, चल, तैयार हो जा.”
‘ग़ज़ब हो गया! इसने तो कमाल कर दिया! फिर से कमाल
कर दिया!’
पाव्लिक उछल कर मेज़ से उठा और
रास्ते पर भागा. मगर चौक में बूढ़ा था ही नहीं. बेंच ख़ाली थी, सिर्फ़ रेत पर छाते से
बनाए गए कुछ समझ में न आनेवाले चिह्न थे.
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