गुरुवार, 28 नवंबर 2013

Bahadur Balak







‘और अगर कोई ऐसा न करता तो?’

इस बच्चे का नाम है साशा. वह तोम्स्क प्रांत के तोगूर गाँव में रहता है. और वो अब सचमुच का ‘हीरो’ बन गया है!

5 नवम्बर 2013 को स्कूल से लौटते समय, दूसरी कक्षा में पढ़ने वाले साशा किर्साकोव ने तालाब की ओर से आती हुई बच्चों की चीख़ें सुनीं. जब वह दौड़कर तालाब के पास पहुँचा तो उसने दो छोटे बच्चों को देखा. वे तालाब की सतह पर जमी हुई हिम-सतह के नीचे गिर गए थे, और बाहर निकलने की कोशिश में थक कर पस्त हो चुके थे, और मदद के लिए पुकार रहे थे.

 - “पास ही में एक लकड़ी का लम्बा फट्टा पड़ा था,” साशा ने बताया, “मैंने उसे ही बच्चों के पास फेंक दिया.”

 ये एक छह मीटर का भारी भरकम बोर्ड था, और बड़े लोग बाद में बड़ी देर तक अचरज करते रहे कि साशा ने उसे उठाया कैसे! साशा ने एक एक करने दोनों बच्चों को पानी से बाहर खींचा, और फिर इन दोनों ‘बहादुरों’ को उन्हीं की स्लेज में बिठाकर घरों तक छोड़ आया.
यह सब करने में उसे डेढ़ घंटा लग गया .

बाद में पता चला कि बचाए गए दोनों बच्चे जो पांच-पांच साल के थे, मौसम की पहली गिरी हुई बर्फ पर घूमने निकले अपनी अपनी स्लेज गाड़ियों में और फिसलते हुए तालाब में गिर पड़े.
साशा के कारण डरे हुए बच्चे सही-सलामत बाहर निकल आए.

बच्चों को बचाने के लिए प्रशासन ने साशा को पुरस्कार स्वरूप एक नोटबुक और स्की प्रदान की, और साशा के माता-पिता को धन्यवाद ज्ञापन भेजा गया कि उन्होंने अपने बच्चे को साहसी और बहादुर बनाया.

सोमवार, 25 नवंबर 2013

Shoorik Nana ke Gaav me

शूरिक नाना के गाँव में

लेखक: निकोलाय नोसोव
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
गर्मियों में मैं और शूरिक नाना के गाँव गए. शूरिक – मेरा छोटा भाई है. वो अभी स्कूल नहीं जाता, और मैं तो पहली क्लास में भी चला गया. मगर वो ज़रा भी मेरी बात नहीं सुनता है...ख़ैर, कोई बात नहीं, नहीं सुनता तो न सुने! जब हम यहाँ पहुँचे, तो हमने फ़ौरन सारा आंगन छान मारा, सारे शेड्स और एटिक्स ढूँढ़ लिए. मुझे जैम की खाली काँच की बोतल और बूट-पॉलिश वाली लोहे की गोल डिब्बी मिली. और शूरिक को मिला दरवाज़े का पुराना हैंडिल और दाहिने पैर का बड़ा गलोश. फिर हम दोनों फिशिंग-रॉड (बंसी) के कारण शेड में ही एक दूसरे से उलझ पड़े. पहले मैंने देखा बंसी को और कहा:
”छोड़, मेरी है!”
शूरिक ने भी देखा और लगा चीख़ने:
 “छोड़, मेरी है! छोड़, मेरी है!”
मैंने बंसी को पकड़ लिया, और वह भी उससे चिपक गया और लगा मुझसे छीनने. मुझे गुस्सा आ गया – कैसे खींचा मैंने बंसी को!... वो एक किनारे को उड़ा और गिरते-गिरते बचा. फिर बोला:
  “तू क्या सोचता है, जैसे मुझे तेरी बंसी की बड़ी ज़रूरत है! मेरे पास तो गलोश है.”
 “बैठा रह अपने गलोश के साथ, पप्पी ले ले उसकी,” मैंने कहा, “ मेरे हाथ से बंसी खींचने की कोई ज़रूरत नहीं है.”
मैंने शेड में फ़ावड़ा ढूँढ़ निकाला और चला ज़मीन से कीड़े निकालने, जिससे कि मछलियाँ पकड़ सकूँ, और शूरिक पहुँचा नानी के पास और माचिस माँगने लगा.
 “तुझे क्यों चाहिए माचिस?” नानी ने पूछा.
 “मैं,” वो बोला, “आँगन में आग जलाऊँगा, गलोश को उस पर रखूँगा, गलोश पिघल जाएगा, और उससे रबड़ मिलेगा.”
 “ये तूने कहाँ की सोची है!” नानी हाथ हिलाते हुए बोली. “तू अपनी शरारतों से पूरे घर को ही आग लगा देगा. नहीं, मेरे प्यारे, पूछ भी मत. ये आग से खेलना कहाँ का खेल है! मैं तो इस बारे में कुछ सुनना ही नहीं चाहती.”
तब शूरिक ने दरवाज़े का हैंडिल लिया, जो उसे शेड में मिला था, उस पर एक रस्सी बांधी और रस्सी के दूसरे सिरे पर गलोश को बांध दिया. आँगन में घूमता है, रस्सी को हाथ में पकड़ता है, और गलोश उसके पीछे-पीछे ज़मीन पर चलता है. जहाँ वो – वहीं गलोश. मेरे पास आया, देखा कि मैं खोद कर कीड़े निकाल रहा हूँ, और बोला:
 “कोशिश करने की कोई ज़रूरत नहीं है: वैसे भी कुछ मिलने वाला नहीं है.”
 “ऐसा क्यों?” मैंने पूछा.
 “मैं मछली पर जादू कर दूँगा.”
 “प्लीज़, शौक से कर ले अपना जादू.”
मैंने खोद-खोद कर कीड़े जमा किए, उन्हें डिबिया में रखा और तालाब की ओर चल पड़ा. तालाब आँगन के पीछे ही था – वहाँ, जहाँ कोल्ख़ोज़ का बाग़ शुरू होता है. मैंने काँटे पर एक कीड़ा लगाया, किनारे पर आराम से बैठ गया और बंसी को पानी में फेंका. बैठा हूँ और पानी की सतह पर नज़र रखे हुए हूँ. और शूरिक चुपके से पीछे से आया और गला फ़ाड़ कर चिल्लाने लगा:
जादू कर, जादूगरनी, जादू कर, ऐ जादूगर,
भूरे भालू, जादू कर!
जादू कर, जादूगरनी, जादू कर, ऐ जादूगर,
भूरे भालू, जादू कर!

मैंने फ़ैसला कर लिया कि ख़ामोश रहूँगा और कुछ भी नहीं कहूँगा, क्योंकि उसके साथ हमेशा ऐसा ही होता है: अगर कुछ कहने जाओ तो और भी बुरा हो जाता है.
आख़िर में उसका जादू पूरा हुआ, उसने तालाब में गलोश छोड़ी और लगा रस्सी से उसे खींचने. फिर उसने एक नई बात सोची: गलोश को तालाब के बीचोंबीच में फ़ेंकता है और उस पर पत्थर मारता है, जब तक कि वह डूब नहीं जाता, और फिर उसे तालाब की तली से रस्सी से बाहर खींचने लगता है. 
पहले तो मैं चुपचाप बर्दाश्त करता रहा, मगर फिर मुझसे और बर्दाश्त नहीं हो सका:
 “भाग जा यहाँ से!” मैं चिल्लाया. “तूने सारी मछलियों को डरा दिया!”
और वह जवाब देता है:
 “फिर भी तू कुछ भी पकड़ नहीं पाएगा: मछली पर तो जादू हो चुका है.”
और उसने फिर से गलोश तालाब के बीचोंबीच फेंका! मैं उछला, एक टहनी उठाई और उसकी ओर लपका. वो भागने लगा, और गलोश उसके पीछे-पीछे रस्सी से घिसट रहा है. मुश्किल से मेरे हाथ से छूट के भागा.
मैं वापस तालाब की ओर लौटा और फिर से मछली पकड़ने लगा. पकड़ रहा हूँ, पकड़ रहा हूँ...सूरज आसमान में ऊपर चढ़ गया, मगर मैं बस बैठा हूँ और पानी की सतह पर देखे जा रहा हूँ. मछली कीड़े को खाने के लिए मुँह ही नहीं खोलती, चाहे बंसी को कितना ही हिलाओ! शूरिक पर भुनभुनाता हूँ, उसे धुनकने का मन हो रहा है. ये बात नहीं कि मैंने उसके जादू पर विश्वास कर लिया, बल्कि मैं जानता हूँ कि अगर मैं मछली के बगैर गया तो वो मुझ पर हँसेगा. मैंने कितनी ही कोशिश कर ली: किनारे से दूर बंसी फेंकी, पास में भी फेंकी, गहराई में कांटा डाला...मगर कुछ भी नहीं मिला. मुझे भूख लगने लगी, मैं घर गया, अचानक सुनता हूँ कि कोई गेट पर कुछ ठोंक रहा है: बूम्-बूम्! बाख्-बाख्!”
गेट के पास जाता हूँ, देखता क्या हूँ कि ये तो शूरिक है. कहीं से हथौड़ा उठा लाया, कीलें भी लाया और फाटक पर दरवाज़े का हैंडिल ठोंक रहा है.
 “ये तू किसलिए ठोंक रहा है?” मैंने पूछा.
उसने मुझे देखा, ख़ुश हो गया:
 “हि-हि! मच्छीमार आ गया. तेरी मछली कहाँ है?”
मैंने कहा:
 “ ये तू हैंडिल क्यों ठोंक रहा है? यहाँ तो एक हैंडिल पहले से ही है.”
 “कोई बात नहीं,” वो कहता है, “दोनों रहने दो. अचानक एक टूट जाए तो?”
हैंडिल ठोंका, मगर उसके पास एक कील बच गई. वो बड़ी देर तक सोचता रहा, कि इस कील से किया क्या जाए, उसे फाटक में यूँ ही ठोंक देने का मन किया, मगर उसने फिर से सोचा: गलोश को फाटक पे रखा, उसके तलवे को फाटक से चिपकाते हुए, और लगा उसे कील से मारने.
 “और ये किसलिए?” मैंने पूछा.
 “यूँ ही.”
 “बिल्कुल बेवकूफ़ी है,” मैंने कहा.
अचानक हम देखते क्या हैं --- नाना जी काम से लौट रहे हैं. शूरिक घबरा गया, वो गलोश को उखाड़ने लगा, मगर गलोश था कि उखड़ ही नहीं रहा था. तब वह उठा, गलोश को अपनी पीठ से छुपाते हुए खड़ा हो गया.
नाना जी नज़दीक आए और बोले:
 “शाबाश, बच्चों! जैसे ही आए--- फ़ौरन काम पे लग गए ...ये फ़ाटक पे दूसरा हैंडिल ठोंकने की बात किसने सोची?”
 “ये,” मैंने कहा, “शूरिक की हरकत है.”
नाना जी बस बुदबुदाए.
 “चलो, कोई बात नहीं,” उन्होंने कहा, “अब हमारे यहाँ दो-दो हैंडिल होंगे : एक ऊपर और एक नीचे. मान लो, अचानक कोई छोटा-सा आदमी आ जाता है. उसका हाथ ऊपर वाले हैंडिल तक नहीं पहुँचता, तो वो नीचे वाला हैंडिल पकड़ लेगा.”
अब नाना जी की नज़र गलोश पर पड़ी:
 “अब, ये और क्या है?”
मैं फी-फी करने लगा. ‘अच्छा हुआ,’ मैंने सोचा, ‘ अब शूरिक को नाना जी से डांट पड़ेगी.’
शूरिक लाल हो गया, वो ख़ुद भी नहीं जानता था कि क्या जवाब दे.
और नानाजी ने कहा:
 “ये क्या है? ये, शायद, लेटर-बॉक्स है. पोस्टमैन आयेगा, देखेगा, कि घर में कोई नहीं है, ख़त को गलोश में घुसा देगा और आगे बढ़ जाएगा. बड़ी अकलमन्दी का काम किया है.”
 “ये मैंने अपने आप ही सोचा!” शूरिक ने शेख़ी बघारी.
 “क्या सचमुच?”
“बिल्कुल, क़सम, से!”
”शाबाश!” नाना जी ने हाथ हिलाए.   
खाना खाते समय नानाजी हाथ हिला हिलाकर नानीजी को इस गलोश के बारे में बता रहे थे:
“मालूम है, कितना ज़हीन बच्चा है! इसने ऐसी बात सोची, जिस पर तुम यक़ीन ही नहीं करोगी! मालूम है, गलोश को फाटक पे, हाँ? मैं कब से कह रहा हूँ कि एक लेटर-बॉक्स ठोंकना चाहिए, मगर मैं इस बारे में सोच ही नहीं सका कि बस, सिर्फ़ एक गलोश ठोंक दो.”
 “बस, अब बस हो गया,” नानी हँसने लगी. “मैं लेटर-बॉक्स खरीद ही लूंगी, तब तक गलोश को ही वहाँ लटकने दो.”
खाने के बाद शूरिक बाग में भाग गया, और नाना जी ने कहा:
 “तो, शूरिक ने तो कमाल कर दिया, और निकोल्का, तूने भी शायद कुछ किया है. तू बता दे जल्दी से और नाना को ख़ुश कर दे.”
 “मैं,” मैंने कहा, “मछली पकड़ रहा था, मगर मछली फंसी ही नहीं.”
 “और तू कहाँ पकड़ रहा था मछली?”
 “तालाब में.”
 “ए-ए-ए-,” नाना जी ने कहा,” वहाँ कहाँ से आई मछली? ये तालाब तो अभी हाल ही में खोदा गया है. उसमें अभी तक मेंढक भी नहीं आए हैं. और तू, मेरे प्यारे, आलस न कर, फ़ौरन नदी पर जा. वहाँ पुल के पास बहाव तेज़ है. इस तेज़ बहाव वाली जगह पे ही पकड़.”
नानाजी काम पर चले गए, और मैंने बंसी उठाई और शूरिक से कहा:
 “चल, नदी पे जाएँगे, मिलकर मछली पकडेंगे.”
 “आहा,” वह बोला, “डर गया! अब मक्खन लगा रहा है!”
 “मैं क्यों मक्खन लगाने लगा?”
 “जिससे कि मैं और जादू न कर दूँ.”
 “कर ले जादू,” मैंने कहा, “शौक से कर ले.”
मैंने कीड़ों वाली डिब्बी ली, जैम वाली बोतल भी ली जिससे कि मछली उसमें डाल सकूँ, और चल पड़ा. शूरिक पीछे-पीछे आ रहा था.
हम नदी पर आए. मैं किनारे पर बैठ गया, पुल से कुछ ही दूर, जहाँ बहाव कुछ ज़्यादा तेज़ था, बंसी पाने में फेंकी.
और शूरिक मेरे आस-पास मंडरा रहा है और लगातार भुनभुनाए जा रहा है:
जादू कर, जादूगरनी, जादू कर, ऐ जादूगर,
भूरे भालू, जादू कर!

थोड़ी देर चुप रहता है, चुप रहता है और फिर से:
जादू कर, जादूगरनी, जादू कर, ऐ जादूगर,...
अचानक मछली कीड़े को काटती है, मैं फट् से बंसी खींचता हूँ! मछली हवा में पलट गई, काँटे से छिटक गई, किनारे पर गिरी और ठीक पानी के पास नाचने लगी.

 शूरिक चिल्लाया:
 “पकड़ उसे!”
मैं मछली की ओर लपका और लगा पकड़ने. मछली तो किनारे पर उलट-पुलट हो रही है, मगर शूरिक सीधे पेट के बल उस पर लपकता है, किसी भी तरह से पकड़ नहीं पाता; वह बस पानी में वापस छिटकने ही वाली थी.
आख़िर में उसने मछली को पकड़ लिया. मैं बोतल में पानी लाया, शूरिक ने उसे पानी में छोड़ दिया और देखने लगा.
 “ये,” उसने कहा,  “पेर्च है. क़सम से, पेर्च! देख रहा है न कैसी धारियाँ हैं उस पर. छोड़, ये मेरी है!”
 “ठीक है, जाने दे, तेरी ही है. हम बहुत सारी मछलियाँ पकड़ेंगे.”
उस दिन हम बड़ी देर तक मछलियाँ पकड़ते रहे. छह पेर्च मछलियाँ पकड़ीं, चार छोटी-छोटी मछलियाँ पकड़ीं और एक दूसरी किस्म की छोटी मछली भी पकड़ी.
वापस लौटते समय शूरिक ही हाथ में मछलियों वाली बोतल पकड़े रहा और मुझे उसे छूने भी नहीं दिया.

वो बड़ा ख़ुश था और उसे यह देखकर ज़रा भी बुरा नहीं लगा कि उसका गलोश गायब हो गया है और उसकी जगह पे फ़ाटक पे एकदम नया नीला-नीला लेटर-बॉक्स टंगा है.
“जाने दे,” उसने कहा, “मेरे ख़याल से लेटर-बॉक्स गलोश से ज़्यादा अच्छा है.”
उसने हाथ झटक दिया और फ़ौरन भागा नानी को मछलियाँ दिखाने. नानी ने हमारी खूब तारीफ़ की. और फिर मैंने उससे कहा:
 “देख, देख रहा है; और तूने जादू किया था! तेरे जादू का कोई मतलब नहीं है. मैं तो जादू में विश्वास नहीं करता.
 “ऊ!’ शूरिक ने कहा. “और, तू क्या सोचता है कि मैं विश्वास करता हूँ? वो तो सिर्फ अनपढ़ लोग और खूsssब बूढ़ी औरतें विश्वास करती हैं.
ऐसा कहकर उसने नानी को ख़ूब हँसा दिया, क्योंकि हमारी नानी थी तो खूsssब बूढ़ी, मगर वो भी जादू में विश्वास नहीं करती थी.

***

बुधवार, 20 नवंबर 2013

Shekhchilli

शेखचिल्ली

लेखक: निकोलाय नोसोव
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

मैं और वाल्या ड्रीमर्स हैं. हम हमेशा कोई न कोई नया खेल सोचते रहते हैं.
एक बार हमने ‘तीन सुअर के पिल्ले’ कहानी पढ़ी. और फिर हम खेलने लगे. पहले हम कमरे में भाग-दौड़ करते रहे, उछल-कूद करते रहे और चिल्लाते रहे :
 “हुर्रे! हमें भूरे भालू से डर नहीं लगता!”

फिर मम्मा डिपार्टमेंटल-स्टोर में चली गई, वाल्या ने कहा:
 “चल, पेत्या, एक छोटा-सा घर बनाते हैं, जैसा कि कहानी वाले सुअर के पिल्लों का था.”
हमने पलंग से कम्बल खींचा और उससे मेज़ को ढाँक दिया. बस, घर बन गया. हम रेंग कर उसमें घुस गए, मगर वहाँ था घुप् अंधेरा!

वाल्या ने कहा:
 “चलो, अच्छा हुआ कि हमारे पास अपना घर है! हम हमेशा यहीं रहा करेंगे और किसी को भी अन्दर नहीं आने देंगे, और अगर भूरा भालू आएगा, तो हम उसे भगा देंगे.
मैंने कहा:
 “अफ़सोस की बात है कि हमारे घर में खिड़कियाँ नहीं हैं, बहुत अंधेरा है!”
 “कोई बात नहीं,” वाल्या ने कहा, “”सुअर के पिल्लों के घरों में खिड़कियाँ थोड़े ही होती हैं.”
मैंने पूछा:
 “क्या तुम मुझे देख सकती हो?”
 “नहीं, और तू?”
 “मैं भी नहीं देख सकता,” मैंने कहा, “मैं तो अपने आप को भी नहीं देख सकता हूँ.”
अचानक किसी ने मेरा पैर पकड़ लिया! और मैं कैसे चिल्लाया! उछल के मेज़ के नीचे से बाहर आया, और वाल्या भी मेरे पीछे-पीछे बाहर आई!
 “क्या हुआ?” उसने पूछा.
 “मुझे,” मैंने कहा, “किसीने पैर पकड़ के खींचा. हो सकता है, भूरा भालू हो?”
वाल्या डर गई और तीर की तरह कमरे से भागी. मैं – उसके पीछे. भाग कर कॉरिडोर में आए और धड़ाम् से दरवाज़ा बन्द कर दिया.
 “चल, दरवाज़ा पकड़े रहते हैं, जिससे वो खोल न सके. हम दरवाज़ा पकड़े रहे, पकड़े रहे. वाल्या ने कहा:
 “हो सकता है, वहाँ कोई न हो?”
मैंने कहा:
 “तो फिर मेरे पैर को किसने छुआ था?”
”वो तो मैं थी,” वाल्या ने कहा. “मैं जानना चाहती थी कि तू कहाँ है.”
 “तूने पहले क्यों नहीं कहा?”
 “मैं,” उसने कहा. “डर गई थी. तूने मुझे डरा दिया था.”

हमने दरवाज़ा खोला. कमरे में कोई भी नहीं था. मगर फिर भी मेज़ के पास जाने से हम घबरा रहे थे : कहीं उसके नीचे से भूरा भालू तो नहीं आ जाएगा?

मैंने कहा:
 “जा, कम्बल निकाल दे. मगर वाल्या ने कहा:
 “नहीं, तू जा!’
मैंने कहा:
 “मगर वहाँ कोई नहीं है.”
 “और, हो सकता है कि हो! मैं पंजों के बल चलते हुए धीरे-धीरे मेज़ के पास पहुँचा, कम्बल का किनारा पकड़ कर खींचा और दरवाज़े के पास भागा.
कम्बल गिर गया, और मेज़ के नीचे कोई नहीं था. हम बड़े ख़ुश हो गए. घर को दुरुस्त करने लगे, मगर वाल्या ने कहा:
 “फिर से कोई अचानक पैर पकड़ लेगा!”

इसके बाद हमने फिर कभी ‘तीन सुअर के पिल्लों’ वाला खेल नहीं खेला.
                                       ***

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

Faithful Troy

वफ़ादार ट्रॉय

लेखक: येव्गेनी चारुशिन
अनुवाद : आ. चारुमति रामदास


मैंने और मेरे दोस्त ने स्कीइंग का प्रोग्राम बनाया. मैं सुबह उसके यहाँ गया. वह बड़ी बिल्डिंग में रहता है – पेस्तेल रोड पर.
मैं कम्पाउण्ड में घुसा. उसने खिड़की से मुझे देखा और चौथी मंज़िल से हाथ हिलाने लगा.
 “थोड़ा रुक – अभी आता हूँ.
और मैं कम्पाउण्ड में इंतज़ार कर रहा हूँ, दरवाज़े के पास. अचानक ऊपर से सीढ़ियों पर ज़ोर-ज़ोर से खड़खड़ाहट होने लगी.
खट्! गड़गड़! त्रा-ता-ता-ता-ता-ता-ता-ता-ता-ता!  कोई लकड़ी की चीज़ सीढ़ियों पर खट्-खट् करते हुए घिसट रही है, जैसे कोई झुनझुना हो.
 “ये कहीं,” मैं सोचने लगा, “मेरा दोस्त तो अपनी स्की और डंडों के साथ नहीं गिर गया, सीढ़ियाँ तो नहीं गिन रहा है?”
मैं दरवाज़े के और पास पहुँचा. देखने के लिए कि सीढ़ियों पर ये क्या लुढ़क रहा है? इंतज़ार कर रहा हूँ.
और देखता क्या हूँ : दरवाज़े से बाहर निकल रहा है एक धब्बेदार कुत्ता – बुलडॉग. बुलडॉग पहियों पर.
उसका धड़ खिलौने की गाड़ी से बंधा था – ये था ट्रक - ‘गाज़िक’.
और अगले पंजों से बुलडॉग ज़मीन पर चल रहा था – दौड़ रहा है और ख़ुद को पहियों पर घुमा रहा है.
चेहरा चपटा, झुर्रियों वाला. पंजे मोटे-मोटे, चौड़े खुले हुए. वो दरवाज़े से बाहर निकला, उसने गुस्से से इधर-उधर देखा. और तभी लाल बिल्ली कम्पाउण्ड पार कर रही थी. कैसे भागा बुलडॉग बिल्ली के पीछे – सिर्फ पहिए पत्थरों पर और कड़ी बर्फ पर उछल-कूद रहे थे. उसने बिल्ली को गोदाम वाली खिड़की के बाहर भगा दिया, और ख़ुद कम्पाउण्ड में घूमने लगा – ओने-कोने सूंघते हुए.
अब मैंने पेन्सिल और नोट-पैड निकाला, सीढ़ी पर बैठ गया और उसकी तस्वीर बनाने लगा.
मेरा दोस्त अपनी स्की लेकर बाहर आया, देखा कि मैं कुत्ते का चित्र बना रहा हूँ, और बोला:
 “बना उसका चित्र, चित्र बना – ये साधारण कुत्ता नहीं है. ये अपनी बहादुरी की वजह से अपाहिज हो गया है.”
 “ऐसा कैसे?” मैंने पूछा.
मेरे दोस्त ने बुलडॉग की गर्दन सहलाई, उसके दांतों में एक चॉकलेट दी और मुझसे बोला:
 “चल, मैं रास्ते में तुझे पूरी कहानी बताऊँगा. क़ाबिले तारीफ़ किस्सा है. तू यक़ीन ही नहीं करेगा.”
 “तो,” जब हम गेट से बाहर निकले तो दोस्त ने कहा, “सुन.”
 “इसका नाम है ट्रॉय. हमारी भाषा में इसका मतलब होता है – वफ़ादार.
 और बिल्कुल सही रक्खा था उसका नाम.
एक बार हम सब लोग अपने-अपने काम पर चले गए. हमारे फ्लैट में सब लोग काम करते हैं : एक स्कूल में टीचर है, दूसरा पोस्टऑफ़िस में टेलिग्राम्स भेजता है, हमारी पत्नियाँ भी काम करती हैं, और बच्चे पढ़ने जाते हैं. तो, हम सब निकल गए और ट्रॉय अकेला रह गया – फ्लैट की रखवाली करने.
किसी चोर-उचक्के ने भाँप लिया कि हमारा फ्लैट ख़ाली है, उसने दरवाज़े से ताला निकाल दिया और लगा मनमानी करने.
उसके पास एक बहुत बड़ा बोरा था. उसके हाथ जो भी लगता, वह सब कुछ उठाता जाता और बोरे में ठूँसता जाता, उठाता जाता और ठूँसता जाता. मेरी बन्दूक बोरे में चली गई, नए जूते, टीचर की घड़ी, त्सैसा-बाइनॉक्युलर्स, बच्चों के फेल्ट-बूट्स.
छह कोट, जैकेट्स, हर तरह के फुल-जैकेट्स उसने एक के ऊपर एक पहन लिए : बोरे में जगह भी नहीं बची.
और ट्रॉय भट्टी के पास लेटा है और ख़ामोश है – चोर ने उसे नहीं देखा था.
ट्रॉय की ऐसी आदत है कि वह आने तो चाहे जिसे देता है, मगर जब बाहर जाने का सवाल आता है – तो, बिल्कुल नहीं.
तो, चोर ने हमारा सारा सामान ले लिया. सबसे बढ़िया, सबसे महँगा सामान ले लिया. अब उसके बाहर जाने का समय हो चला. वह दरवाज़े की ओर लपका...
 और दरवाज़े में खड़ा है – ट्रॉय.
खड़ा है – चुपचाप.
और ट्रॉय का चेहरा – मालूम है कैसा हो रहा था?
छलांग लगाने को तैयार!
खड़ा है ट्रॉय, उसने नाक सिकोड़ी, आँखें खून बरसाने लगीं, और मुँह से नुकीला दाँत बाहर निकला.
चोर मानो फ़र्श से चिपक गया. बाहर जाने की कोशिश तो कर!
और ट्रॉय ने अपने दाँत निकाले, शरीर को गोल-गोल किया और एक किनारे से उसकी ओर आने लगा.
हौले-हौले आगे बढ़ रहा है. वह इसी तरह दुश्मन को डराता है – चाहे वो आदमी हो या कुत्ता हो.
चोर, ज़ाहिर है, बुरी तरह डर गया, इधर-उधर भागने लगा, और ट्रॉय उसकी पीठ पर कूदा और एक ही बार में उसके छहों कोट काट दिए.
तुझे मालूम है, बुल्डॉग कैसे ख़तरनाक ढंग से पकड़ते हैं?
आँखें भींच लेते हैं, जबड़े बन्द कर लेते हैं, जैसे ताला बन्द कर दिया हो, और दाँत भी नहीं खोलते, चाहे कोई उन्हें मार ही क्यों न डाले.
चोर कमरे में भाग रहा है. दीवार पर अपनी पीठ घिसट रहा है. फ्लॉवर पॉट्स से फूल, शेल्फ से किताबें फेंक रहा है. कोई फ़ायदा नहीं हो रहा है. ट्रॉय उस पर झूल रहा है, जैसे कोई वज़न लटक रहा हो.
ख़ैर, आख़िर में चोर ने भाँप लिया, वह अपने छहों कोटों से आज़ाद हो गया और ये पूरा ढेर, बुलडॉग समेत खिड़की से बाहर फेंक दिया!
जानता है, चौथी मंज़िल से!
गिरा बुलडॉग सिर के बल कम्पाउण्ड में.
धप्!
गाढ़ा-गाढ़ा पानी चारों ओर उछला, सड़े हुए आलू, मछलियों के सिर, हर तरह की गन्दगी.
ट्रॉय हमारे छहों कोटों समेत हमारे गन्दे पानी के गड्ढे में गिरा जो उस दिन लबालब भरा था.
देख, कैसा संयोग था! अगर वो किसी पत्थर से टकराता – सारी हड्डियाँ चूर चूर हो जातीं और मुँह से कूँ-कूँ भी न कर पाता. फ़ौरन ही मर गया होता.
मगर यहाँ तो ऐसे हुआ मानो किसी ने जान बूझ कर उसके सामने गन्दे पानी का गड्ढा रख दिया हो – जिससे वह आराम से गिर सके.
ट्रॉय गड्ढे से बाहर निकला, उसने अपने आपको आज़ाद कर लिया - जैसे उसे कुछ हुआ ही न हो. और सोच, उसने फिर से चोर को सीढ़ियों पर पकड़ लिया.
फिर से उससे चिपक गया, इस बार पैर से.
अब तो चोर ने ख़ुद ही हाथ-पैर ढीले कर दिए, वह चीख़ा, कराहा.
चीख़ें सुनकर सभी फ्लैट्स से लोग भागे-भागे आए: तीसरी मंज़िल से, और पाँचवीं मंज़िल से, और छठी मंज़िल से, चोर दरवाज़ों से भी.               
चोर भयानक रूप से चीखे जा रहा था.
 “कुत्ते को पकड़ो. ओ-ओ-ओय! मैं ख़ुद ही पुलिस में चला जाऊँगा. इस वहशी शैतान को मुझसे दूर हटाओ!
कहना आसान है – दूर हटाओ.
दो आदमियों ने बुलडॉग को खींचा, और उसने सिर्फ़ पूंछ हिलाई और अपने जबड़े और भी ज़्यादा कस कर बन्द कर लिए.
बिल्डिंग वाले पहली मंज़िल से एक चिमटा लाए, उसे ट्रॉय के दाँतों के बीच में रखा. तभी जाकर उसके जबड़े खुले.
चोर सड़क पर आया – चेहरा फक्, बुरी तरह काटा गया, थरथर कांप रहा है, पुलिस वाले का सहारा लिए खड़ा है.
  “क्या कुत्ता है,” बोला, “क्या कुत्ता है!”
चोर को पुलिस स्टेशन ले गए. वहाँ उसीने बताया कि क्या-क्या हुआ था.
शाम को मैं काम से वापस लौटा. देखता क्या हूँ कि दरवाज़े का ताला खुला है. फ्लैट में हमारे सामान से भरा हुआ बोरा पड़ा है.
और कोने में, अपनी हमेशा की जगह पर ट्रॉय लेटा है. पूरा गन्दा, गन्धाता हुआ.
मैंने ट्रॉय को अपने पास बुलाया.
मगर वो तो चल नहीं पा रहा था...घिसट रहा है, कूँ-कूँ कर रहा है.
उसके पिछले पैर उखड़ गए थे.
तो, अब हमारे फ्लैट के सब लोग बारी बारी से उसे घुमाने ले जाते हैं. मैंने उसे पहिए बिठा दिए. वो ख़ुद ही पहियों पर सीढ़ियों से उतरता है, मगर उन पर चढ़कर वापस नहीं जा सकता. किसी को पीछे से ये गाड़ी ऊपर उठानी पड़ती है. अगले पंजों से तो ट्रॉय ख़ुद ही चल लेता है.
तो, इस तरह से, अब कुत्ता पहियों पर रहता है.”

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सोमवार, 11 नवंबर 2013

Seedhiyaan

सीढ़ियाँ
लेखक: निकोलाय नोसोव
अनु.: आ. चारुमति रामदास

एक दिन पेत्या अपने प्ले-स्कूल से लौट रहा था. आज उसने दस तक गिनना सीखा था. वह अपने घर तक पहुँचा, उसकी छोटी बहन वाल्या गेट के पास ही उसकी राह देख रही थी.
 “ मुझे तो गिनना भी आता है!” पेत्या ने शेखी बघारी. “प्ले-स्कूल में सीख गया. अब मैं सारी सीढियों को गिन लूँगा.”
वे सीढ़ी पर चढ़ने लगे, और पेत्या ज़ोर-ज़ोर से सीढ़ियाँ गिन रहा है:
 “एक, दो, तीन, चार, पाँच...”
 “तू रुक क्यों गया?” वाल्या ने पूछा.
 “ठहर, मैं ये भूल गया कि अगली सीढ़ी कौन सी है. अभ्भी याद करता हूँ.”
 “ठीक है, याद कर,” वाल्या ने कहा.
वे सीढ़ियों पर खड़े हैं, खड़े हैं...पेत्या ने कहा:
 “ नहीं, मुझे ऐसे याद नहीं आएगा. चल, फिर से शुरू करते हैं.”
वे सीढ़ियों से नीचे उतरे. फिर से ऊपर चढ़ने लगे.
 “एक,” पेत्या ने कहा, “दो, तीन, चार, पाँच...”
और फिर से रुक गया.
 “फिर से भूल गया?” वाल्या ने पूछा.
 “भूल गया! अभी-अभी याद आया था और अचानक भूल गया! फिर से कोशिश करते हैं.”
फिर से सीढ़ियों से नीचे उतरे, और पेत्या ने शुरू से शुरूआत की:
 “ एक, दो, तीन, चार, पाँच...”
 “हो सकता है, पच्चीस?” वाल्या ने पूछा.
 “नहीं! तू मुझे सोचने नहीं दे रही है! देख, तेरी वजह से भूल गया! अब फिर से शुरू करना पड़ेगा.”
 “मुझे शुरू से नहीं करना है!” वाल्या ने कहा. “ये क्या बात हुई? कभी ऊपर, कभी नीचे! मेरे तो पैर ही दुखने लगे.”
 “अगर नहीं चाहती, तो ना ही सही,” पेत्या ने जवाब दिया. “मगर मुझे तो जब तक याद नहीं आएगा, मैं आगे नहीं जाऊँगा.”
 “वाल्या घर गई और मम्मा से बोली:
 “मम्मा, पेत्या सीढ़ियाँ गिन रहा है : एक, दो, तीन, चार पाँच, और आगे का उसे याद नहीं है.”
 “और आगे है छह,” मम्मा ने कहा.
वाल्या भाग कर वापस गई, मगर पेत्या अभी भी सीढ़ियाँ ही गिने जा रहा था.
 “एक, दो, तीन, चार, पाँच...”
 “छह!” वाल्या फुसफुसाई. “छह! छह!”
 “छह!” ख़ुश हो गया पेत्या और आगे बढ़ा. “सात, आठ, नौ, दस.”
ये तो अच्छा हुआ कि सीढ़ी यहीं ख़तम हो गई, वर्ना वो घर तक कैसे पहुँचता, क्योंकि उसने तो सिर्फ़ दस तक ही गिनना सीखा था.


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रविवार, 10 नवंबर 2013

Na Pif, Na Paf!

ना पिफ़्, ना पाफ़्      
लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनु. : आ. चारुमति रामदास

जब मैं स्कूल नहीं जाता था, तब मैं बहुत ही नर्म दिल वाला था. मैं किसी भी दर्द भरी बात के बारे में बिल्कुल नहीं सुन सकता था. और अगर किसी ने किसी को खा लिया, या फिर आग में फेंक दिया, या घुप् अंधेरे कमरे में बंद कर दिया – तो मैं फ़ौरन रोने लगता था. जैसे कि, मान लीजिए, भेड़ियों ने बकरी के छौने को खा लिया और इसके बाद बस उसका मुँह और उसकी टाँगें ही रह गईं. मैं तो बस बिसूरने लगता था. या फिर, जैसे कि, जादूगरनी ने राजकुमार और राजकुमारी को ड्रम में बिठाकर इस ड्रम को समन्दर में फेंक दिया. मैं फिर से बिसूरने लगता. और वो भी कैसे! मेरी आँखों से आँसुओं की मोटी मोटी धारें निकल कर फर्श पर बहने लगतीं और उनके डबरे भी बन जाते.
ख़ास बात ये थी कि जब मैं कहानी सुनता था, तो मैं पहले से ही, उस भयानक घटना के शुरू होने से पहले ही, रोने के लिए तैयार हो जाता. मेरे होंठ टेढ़े-मेढ़े हो जाते और मेरी आवाज़ कँपकँपाने लगती, जैसे कि किसी ने गर्दन से पकड़कर झकझोर दिया हो. और मम्मा समझ ही नहीं पाती थी कि उसे क्या करना चाहिए, क्योंकि मैं हमेशा उससे कहानियाँ पढ़ने के लिए या सुनाने के लिए कहता, और जैसे ही कहानी डरावनी बात तक पहुँचती, मैं फ़ौरन समझ जाता और बीच ही में मम्मा से कहानी को छोटा करने के लिए कहता. दुर्घटना होने के क़रीब दो-तीन सेकण्ड पहले ही मैं कँपकँपाती आवाज़ में उसे मनाता : “इस जगह को छोड़ दो, मम्मा!”
मम्मा, बेशक, वो जगह छोड़ देती, पाँचवें से दसवें पृष्ठ पर कूद जाती, और मैं आगे सुनने लगता, मगर बस थोड़ी ही देर, क्योंकि कहानियों में तो हर मिनट कुछ-न-कुछ होता ही रहता है, और जैसे ही मुझे समझ में आता कि अब कोई दुर्घटना होने वाली है, मैं फिर से बिसूरने लगता और मम्मा से कहता: “ये भी छोड़ दो!”
मम्मा फिर से कोई ख़ून-ख़राबे वाली बात छोड़ देती और मैं कुछ देर के लिए शांत हो जाता. और इस तरह परेशानियों से, रुक-रुक कर चलते-चलते, और कहानी को दनादन् छोटा-छोटा करते-करते हम आख़िरकार एक सुखी अंत तक पहुँच ही जाते.
बेशक, मुझे यह महसूस होता कि इस सबके कारण कहानियाँ उतनी दिलचस्प नहीं रह जातीं : पहली बात, वे बेहद छोटी हो जातीं, और दूसरी बात ये कि उनमें कोई भी साहसी कारनामे बाकी न बचते. मगर, मैं उन्हें आराम से तो सुन सकता था, सुनते-सुनते आँसुओं से नहा तो नहीं जाता, और फिर ऐसी कहानियों के बाद रात को चैन से तो सो सकता था, खुली आँखों से बिस्तर पर पड़ा तो नहीं रहता और सुबह तक डरता तो नहीं रहता. और इसीलिए इस तरह की संक्षिप्त कहानियाँ मुझे बहुत अच्छी लगतीं. वे इतनी शांत-शांत हो जातीं. जैसे कि ठण्डी, मीठी चाय. मिसाल के तौर पे, एक कहानी है – लाल हैट वाली. मैंने और मम्मा ने उसमें इत्ता सारा छोड़ दिया है कि वो दुनिया की सबसे छोटी कहानी बन गई है. मम्मा उसे इस तरह सुनातीं:
 ‘ लाल हैट वाली एक लड़की थी. एक बार उसने समोसे बनाए और चल पड़ी अपनी दादी से मिलने. और फिर वे दोनों सुख से रहने लगीं.’
  मैं बहुत ख़ुश हो गया कि उनके साथ सब कुछ अच्छा हो गया. मगर, अफ़सोस, बस यही एक परेशानी तो नहीं थी. एक और कहानी से, ख़रगोश वाली कहानी से, मुझे ख़ास तौर से बहुत दुख होता. ये एक छोटी सी कहानी है, किसी ‘राइम’ की तरह, दुनिया के सारे बच्चे उसे जानते हैं:
“एक, दो, तीन, चार, पाँच,
निकला ख़रगोश घूमने आज,
एक शिकारी फ़ौरन भागा...

बस, अब तो मेरी नाक में सुरसुराहट होने लगती और होंठ अलग-अलग दिशाओं में चले जाते, ऊपर वाला दाएँ, नीचे वाला बाएँ, और इस बीच कहानी चलती रहती...शिकारी, मतलब, अचानक भागते हुए आता और...
और ख़रगोश को मार गिराया!

यहाँ तो मेरे दिल की धड़कन ही रुक जाती. मैं समझ ही नहीं पाता कि ऐसा कैसे होता है. ये बदहवास शिकारी सीधे ख़रगोश पर गोली क्यों चलाता है? ख़रगोश ने उसका क्या बिगाड़ा था? पहले शुरूआत क्या उसने की थी? बिल्कुल नहीं! उसने उसे चिढ़ाया भी नहीं था. वो तो बस घूमने निकला था! और ये तो बिना बात के:

पिफ़्-पाफ़्
अपनी भारी भरकम दुनाली बन्दूक से! और मेरी आँखों से आँसू ऐसे बहने लगते, मानो नल से बह रहे हों. क्योंकि गोली ख़रगोश के पेट में लगी थी और वह बुरी तरह से ज़ख़्मी होकर चिल्ला रहा था:

ओय-ओय-ओय!

वह चिल्लाया:

    “ओय-ओय-ओय! अलबिदा, साथियों! अलबिदा, मेरे छौनों ! अलबिदा, मेरी ख़रगोशनी! अलबिदा, मेरी हँसती-खेलती ज़िन्दगी! अलबिदा, लाल-लाल गाजर और कुरकुरी गोभी! हमेशा के लिए अलबिदा मेरी चरागाह, और फूलों, और ओस की बूँदों, और पूरे जंगल, जहाँ हर झाड़ी के नीचे मेरे लिए घर और खाना तैयार था!
मैं जैसे अपनी आँखों के सामने देख रहा था कि कैसे भूरा ख़रगोश पतले बर्च के नीचे पड़ा है और मर रहा है...
मगर एक बार रात को, जब सब सोने चले गए, मैं बड़ी देर अपनी कॉट पर पड़ा-पड़ा बेचारे ख़रगोश को याद करता रहा और सोचता रहा कि कितना अच्छा होता अगर उसके साथ ये सब न हुआ होता. वाक़ई में कितना अच्छा होता, अगर ये सब न हुआ होता. और मैंने इतनी देर तक इसके बारे में सोचा कि अनजाने ही इस कहानी को दुबारा से बना डाला:
 
“एक, दो, तीन, चार, पाँच,
निकला ख़रगोश घूमने आज,
एक शिकारी फ़ौरन भागा...
और ख़रगोश को...
नहीं मारा!!!
ना पिफ़्! ना पाफ़्!
ना ही ओय-ओय-ओय!
नहीं मरा ख़रगोश मेरा!!!

ये हुई न बात! मैं हँसने भी लगा! कैसे सब कुछ अच्छा हो गया! ये तो वाक़ई में चमत्कार हो गया. ना पिफ़्! ना पाफ़्! मैंने बस एक छोटा-सा ‘ना’ लगा दिया, और शिकारी तो, जैसे कुछ हुआ ही न हो, अपने एड़ियों वाले फ़ेल्ट के जूतों को खटखटाते हुए ख़रगोश के क़रीब से निकल गया. और वो ज़िन्दा बच गया! वो फिर से सबेरे-सबेरे दूब से ढँके खेत में खेला करेगा, उछलेगा और कूदेगा और अपने पंजों से पुराने, सड़े हुए पेड़ के ठूँठ को खुरचेगा. कैसा मज़ेदार, बढ़िया ड्रम जैसा है वो ठूठ !
और मैं अँधेरे में लेटा-लेटा मुस्कुरा रहा था और मम्मा को इस आश्चर्य के बारे में बताना चाह रहा था, मगर उसे जगाने से डर रहा था. आख़िर में मेरी आँख लग गई. जब मैं उठा, तो मुझे हमेशा के लिए पता चल गया था कि अब मैं दुख भरी कहानियाँ को सुनकर कभी भी नहीं रोऊँगा, क्योंकि अब मैं इन भयानक अन्यायपूर्ण बातों में किसी भी समय दखल दे सकता था, दखल दे सकता था और हर चीज़ अपनी मर्ज़ी के मुताबिक बदल सकता था, और सब कुछ अच्छा हो जाएगा. बस, सिर्फ सही समय पर कहने की ज़रूरत है:

ना पिफ़्, ना पाफ़्!”

                                                                      ***