सीढ़ियाँ
लेखक: निकोलाय नोसोव
अनु.: आ. चारुमति रामदास
एक दिन पेत्या अपने प्ले-स्कूल से लौट रहा
था. आज उसने दस तक गिनना सीखा था. वह अपने घर तक पहुँचा, उसकी छोटी बहन वाल्या गेट
के पास ही उसकी राह देख रही थी.
“
मुझे तो गिनना भी आता है!” पेत्या ने शेखी बघारी. “प्ले-स्कूल में सीख गया. अब मैं
सारी सीढियों को गिन लूँगा.”
वे सीढ़ी पर चढ़ने लगे, और पेत्या ज़ोर-ज़ोर
से सीढ़ियाँ गिन रहा है:
“एक, दो, तीन, चार, पाँच...”
“तू रुक क्यों गया?” वाल्या ने पूछा.
“ठहर, मैं ये भूल गया कि अगली सीढ़ी कौन सी है.
अभ्भी याद करता हूँ.”
“ठीक है, याद कर,” वाल्या ने कहा.
वे सीढ़ियों पर खड़े हैं, खड़े हैं...पेत्या
ने कहा:
“
नहीं, मुझे ऐसे याद नहीं आएगा. चल, फिर से शुरू करते हैं.”
वे सीढ़ियों से नीचे उतरे. फिर से ऊपर चढ़ने
लगे.
“एक,” पेत्या ने कहा, “दो, तीन, चार, पाँच...”
और फिर से रुक गया.
“फिर से भूल गया?” वाल्या ने पूछा.
“भूल गया! अभी-अभी याद आया था और अचानक भूल गया!
फिर से कोशिश करते हैं.”
फिर से सीढ़ियों से नीचे उतरे, और पेत्या
ने शुरू से शुरूआत की:
“
एक, दो, तीन, चार, पाँच...”
“हो सकता है, पच्चीस?” वाल्या ने पूछा.
“नहीं! तू मुझे सोचने नहीं दे रही है! देख, तेरी
वजह से भूल गया! अब फिर से शुरू करना पड़ेगा.”
“मुझे शुरू से नहीं करना है!” वाल्या ने कहा. “ये
क्या बात हुई? कभी ऊपर, कभी नीचे! मेरे तो पैर ही दुखने लगे.”
“अगर नहीं चाहती, तो ना ही सही,” पेत्या ने जवाब
दिया. “मगर मुझे तो जब तक याद नहीं आएगा, मैं आगे नहीं जाऊँगा.”
“वाल्या घर गई और मम्मा से बोली:
“मम्मा, पेत्या सीढ़ियाँ गिन रहा है : एक, दो,
तीन, चार पाँच, और आगे का उसे याद नहीं है.”
“और आगे है छह,” मम्मा ने कहा.
वाल्या भाग कर वापस गई, मगर पेत्या अभी भी
सीढ़ियाँ ही गिने जा रहा था.
“एक, दो, तीन, चार, पाँच...”
“छह!” वाल्या फुसफुसाई. “छह! छह!”
“छह!” ख़ुश हो गया पेत्या और आगे बढ़ा. “सात, आठ,
नौ, दस.”
ये तो अच्छा हुआ कि सीढ़ी यहीं ख़तम हो गई,
वर्ना वो घर तक कैसे पहुँचता, क्योंकि उसने तो सिर्फ़ दस तक ही गिनना सीखा था.
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