बुधवार, 20 नवंबर 2013

Shekhchilli

शेखचिल्ली

लेखक: निकोलाय नोसोव
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

मैं और वाल्या ड्रीमर्स हैं. हम हमेशा कोई न कोई नया खेल सोचते रहते हैं.
एक बार हमने ‘तीन सुअर के पिल्ले’ कहानी पढ़ी. और फिर हम खेलने लगे. पहले हम कमरे में भाग-दौड़ करते रहे, उछल-कूद करते रहे और चिल्लाते रहे :
 “हुर्रे! हमें भूरे भालू से डर नहीं लगता!”

फिर मम्मा डिपार्टमेंटल-स्टोर में चली गई, वाल्या ने कहा:
 “चल, पेत्या, एक छोटा-सा घर बनाते हैं, जैसा कि कहानी वाले सुअर के पिल्लों का था.”
हमने पलंग से कम्बल खींचा और उससे मेज़ को ढाँक दिया. बस, घर बन गया. हम रेंग कर उसमें घुस गए, मगर वहाँ था घुप् अंधेरा!

वाल्या ने कहा:
 “चलो, अच्छा हुआ कि हमारे पास अपना घर है! हम हमेशा यहीं रहा करेंगे और किसी को भी अन्दर नहीं आने देंगे, और अगर भूरा भालू आएगा, तो हम उसे भगा देंगे.
मैंने कहा:
 “अफ़सोस की बात है कि हमारे घर में खिड़कियाँ नहीं हैं, बहुत अंधेरा है!”
 “कोई बात नहीं,” वाल्या ने कहा, “”सुअर के पिल्लों के घरों में खिड़कियाँ थोड़े ही होती हैं.”
मैंने पूछा:
 “क्या तुम मुझे देख सकती हो?”
 “नहीं, और तू?”
 “मैं भी नहीं देख सकता,” मैंने कहा, “मैं तो अपने आप को भी नहीं देख सकता हूँ.”
अचानक किसी ने मेरा पैर पकड़ लिया! और मैं कैसे चिल्लाया! उछल के मेज़ के नीचे से बाहर आया, और वाल्या भी मेरे पीछे-पीछे बाहर आई!
 “क्या हुआ?” उसने पूछा.
 “मुझे,” मैंने कहा, “किसीने पैर पकड़ के खींचा. हो सकता है, भूरा भालू हो?”
वाल्या डर गई और तीर की तरह कमरे से भागी. मैं – उसके पीछे. भाग कर कॉरिडोर में आए और धड़ाम् से दरवाज़ा बन्द कर दिया.
 “चल, दरवाज़ा पकड़े रहते हैं, जिससे वो खोल न सके. हम दरवाज़ा पकड़े रहे, पकड़े रहे. वाल्या ने कहा:
 “हो सकता है, वहाँ कोई न हो?”
मैंने कहा:
 “तो फिर मेरे पैर को किसने छुआ था?”
”वो तो मैं थी,” वाल्या ने कहा. “मैं जानना चाहती थी कि तू कहाँ है.”
 “तूने पहले क्यों नहीं कहा?”
 “मैं,” उसने कहा. “डर गई थी. तूने मुझे डरा दिया था.”

हमने दरवाज़ा खोला. कमरे में कोई भी नहीं था. मगर फिर भी मेज़ के पास जाने से हम घबरा रहे थे : कहीं उसके नीचे से भूरा भालू तो नहीं आ जाएगा?

मैंने कहा:
 “जा, कम्बल निकाल दे. मगर वाल्या ने कहा:
 “नहीं, तू जा!’
मैंने कहा:
 “मगर वहाँ कोई नहीं है.”
 “और, हो सकता है कि हो! मैं पंजों के बल चलते हुए धीरे-धीरे मेज़ के पास पहुँचा, कम्बल का किनारा पकड़ कर खींचा और दरवाज़े के पास भागा.
कम्बल गिर गया, और मेज़ के नीचे कोई नहीं था. हम बड़े ख़ुश हो गए. घर को दुरुस्त करने लगे, मगर वाल्या ने कहा:
 “फिर से कोई अचानक पैर पकड़ लेगा!”

इसके बाद हमने फिर कभी ‘तीन सुअर के पिल्लों’ वाला खेल नहीं खेला.
                                       ***

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.