शनिवार, 31 मई 2014

Tarro MenDhakee ka Safar

टर्रो मेंढकी का सफ़र
लेखक: व्सेवोलोद गार्शिन
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

एक बार की बात है, इस दुनिया में टर्रो मेंढकी रहती थी. वो दलदल में बैठती, मच्छर और दूसरे कीड़े पकड़ती; बसंत में अपनी सहेलियों के साथ मिलकर ज़ोर-ज़ोर से टर्राती. अगर कोई सारस-वारस उसे खा न जाता, तो पूरी ज़िन्दगी इसी तरह गुज़ार देती. मगर एक हादसा हो गया.
एक बार वो पानी से बाहर निकलते ठूँठ की नोक पर बैठकर गुनगुनी रिमझिम बारिश का मज़ा ले रही थी.     
 “आह, आज मौसम कितना नम है!” उसने सोचा. “कितना सुहावना है – दुनिया में जीना!”
 बारिश उसकी चटख, चमचमाती पीठ पर पड रही थी, बूँदें उसके जिस्म से होकर पंजों तक बह रही थीं, ये सब बेहद मज़ेदार था, इतना मज़ेदार कि वो बस टर्राने ही वाली थी, मगर तभी उसे याद आया कि ये पतझड़ का मौसम है, और पतझड़ में मेंढक टर्राते नहीं हैं – टर्राने के लिए होती है बसंत ऋतु, - और, इस समय टर्राकर वो अपनी मेंढकी की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचाएगी. इसलिए वो चुप रही और बस, बारिश का लुत्फ़ उठाती रही.
अचानक हवा में पतली, सीटी जैसी, टूटी-टूटी आवाज़ सुनाई दी. बत्तखों की एक ख़ास किस्म होती है: जब वे उड़ती हैं, तो हवा को काटते हुए उनके पंख मानो गाते हैं, या, यूँ कहिए कि सीटी बजाते हैं. जब हवा में काफ़ी ऊपर ऐसी बत्तखों का झुण्ड उड़ता है तो सुनाई देती है सिर्फ फ्यू-फ्यू-फ्यू-फ्यू, और वे ख़ुद इतनी ऊँचाई पर होते हैं कि दिखाई भी नहीं देते. इस बार बत्तखें बड़ा-सा अर्ध-गोल बनाते हुए नीचे उतरीं और उसी दलदल पे बैठीं जिसमें टर्रो मेंढकी रहती थी.
 “क्र्या, क्र्या!” उनमें से एक ने कहा, “काफ़ी दूर जाना है, कुछ खा लेना चाहिए.”
मेंढ़की फ़ौरन छिप गई. हालाँकि उसे मालूम था कि बत्तखें उस जैसी बड़ी और मोटी मेंढ़की को नहीं खाएँगी, मगर फिर भी, अपनी हिफ़ाज़त के लिए वो ठूँठ के नीचे दुबक गई. मगर, कुछ सोचने के बाद उसने अपना बिट-बिट आँखों वाला मुँह पानी से बाहर निकालने की ठानी: उसे ये जानना था कि बत्तखें किधर को उड़ रही हैं.
 “क्र्या, क्र्या!” दूसरी बत्तख़ ने कहा. “अभी से ठण्ड पड़ने लगी है! फ़ौरन ‘साऊथ’ जाना होगा! फ़ौरन ‘साऊथ!”
और उसकी बात से सहमति दर्शाते हुए सारी बत्तखें ज़ोर-ज़ोर से ‘क्र्या-क्र्या’ करने लगीं.
 “बत्तख़ महाशयों!” हिम्मत बटोरकर मेंढ़की ने पूछा, “ये ‘साऊथ’ क्या होता है, जहाँ आप उड़कर जाने वाले हैं? परेशानी के लिए माफ़ी चाहती हूँ.”
बत्तखों ने मेंढ़की को घेर लिया. पहले तो उनका दिल उसे खा जाने को करने लगा, मगर फिर उनमें से हरेक ने सोचा कि मेंढ़की काफ़ी बड़ी है और उनके गले में नहीं घुसेगी. तब वे सब अपने पंख फड़फड़ाते हुए चिल्लाने लगीं:
 “साऊथ में बहुत अच्छा होता है! अभी वहाँ गर्मी है! वहाँ ऐसी बढ़िया-बढ़िया गर्म-गर्म दलदलें हैं! कैसे-कैसे कीड़े हैं! बहुत अच्छा है साऊथ में!”
वो इतना चिल्लाईं कि मेंढ़की लगभग बहरी हो गई. बड़ी मुश्किल से उसने उन्हें चुप किया और उनमें से एक से, जो उसे सबसे मोटी और सबसे ज़्यादा अक्लमन्द लग रही थी, ये समझाने के लिए कहा कि ‘साऊथ’ क्या होता है. और जब उसने साऊथ के बारे में बताया, तो मेंढ़की जोश में आ गई, मगर फिर भी अंत में उसने बड़ी सावधानी से पूछ ही लिया:
 “क्या वहाँ खूब मच्छर और पतंगे होते हैं?”
 “ओह! गुच्छे के गुच्छे!” बत्तख ने जवाब दिया.
 “क्वा!” मेंढ़की ने कहा और फ़ौरन पीछे मुड़ कर देखा कि आसपास उसकी सहेलियाँ तो नहीं हैं, जो पतझड़ में टर्राने के लिए उसे डाँटने लगेंगी. वो अपने आप को टर्राने से रोक न पाई और एक बार उसने टर्र-टर्र कर ही दिया.                         
 “मुझे भी अपने साथ ले चलो!”
 “अरे, ये तो बड़े ताज्जुब की बात है!” बत्तख़ चहकी. “हम तुझे कैसे ले जा सकते हैं? तेरे तो पंख ही नहीं हैं.”
 “आप लोग कब उड़ रहे हो?”
”जल्दी, जल्दी!” सारी बत्तखें चीखीं. क्र्या! क्र्या! क्र्या! यहाँ तो बड़ी ठण्ड है! ‘साऊथ! साऊथ!”
“मुझे बस पाँच मिनट सोचने दीजिए,” मेंढकी ने कहा, “मैं अभी वापस आती हूँ, शायद मैं कोई अच्छी तरक़ीब सोच लूँ.”
और वो फुदकते हुए ठूँठ से, जिस पर वो फिर से चढ़ गई थी, पानी में कूद गई, कीचड़ में पूरी तरह घुस गई, जिससे आसपास की चीज़ें सोचने में ख़लल न डालें. पाँच मिनट बीत गए, बत्तख़ें बस उड़ने ही वाली थीं कि अचानक ठूँठ की बगल में, पानी से उसका थोबड़ा दिखाई दिया, किसी मेंढक का थोबड़ा जितना चमक सकता है, उतना वह चमक रहा था.
 “मैंने सोच लिया! मुझे मिल गया!” उसने कहा. “तुममें से दो बत्तख़ें अपनी चोंचों में एक टहनी पकडो, मैं उसके बीचोंबीच लटक जाऊँगी. आप उड़ते रहोगे, और मैं जाऊँगी. बस, तुम क्र्या-क्र्या मत करना, और मैं भी टर्र-टर्र न करूँगी, फिर सब बढ़िया हो जाएगा.”
एक बढ़िया, मज़बूत टहनी ढूँढी गई, दो बत्तखों ने उसे अपनी चोंचों में पकड़ा, मेंढकी ने अपने मुँह से उसे बीचोंबीच में पकड़ लिया, और पूरा झुण्ड हवा में ऊपर उठा. ऊँचाई के मारे मेंढकी की साँस रुकने लगी, इसके अलावा बत्तखें समान गति से नहीं उड़ रही थीं और टहनी को खींच रही थीं; बेचारी मेंढकी हवा में झूल रही थी, जैसे कागज़ का जोकर हो, और पूरी ताक़त से अपने जबड़े भींचे थी, जिससे टहनी से छूटकर ज़मीन पर न गिर जाए. मगर उसे जल्दी ही आदत हो गई और अब वो इधर-उधर देखने भी लगी. उसके नीचे खेत, चरागाह, नदियाँ और पहाड़ तेज़ी से गुज़रते जा रहे थे, उसे उन्हें ठीक से देखने में भी तकलीफ़ हो रही थी, क्योंकि, टहनी पर लटके-लटके, वो पीछे की ओर, और थोड़ा-सा ऊपर को देख रही थी, मगर फिर भी थोड़ा बहुत देख ही लिया, और ख़ुश भी होती रही. उसे गर्व भी महसूस हो रहा था.
 “देखा, मैंने कितनी बढ़िया बात सोची,” वह अपने बारे में सोच रही थी.
बत्तख़ें उसे ले जाने वाली जोडी के पीछे-पीछे उड़ रही थीं, चिल्ला रही थीं और उसकी तारीफ़ कर रही थीं.
 “हमारी मेंढ़की तो बड़ी होशियार है,” वे कह रही थीं, “बत्तखों में भी ऐसी होशियार बत्तख़ मुश्किल से मिलेगी.”
उसने बड़ी मुश्किल से अपने आप को उन्हें धन्यवाद देने से रोका, क्योंकि उसे याद आ गया कि मुँह खोलते ही वो भयानक ऊँचाई से गिर जाएगी, उसने जबड़ों को और भी कसके भींच लिया और सब्र करने का फ़ैसला कर लिया.
बत्तखें अब घने खेतों, पीले पड़ते हुए जँगलों और गेहूँ के ढेरों वाले गाँवों के ऊपर से उड़ रही थीं. यहाँ आदमियों की आवाज़ें, और अनाज अलग करने की साँटियों की आवाज़ें आ रही थीं. लोगों ने बत्त्खों के झुण्ड की ओर देखा और, मेंढ़की का दिल करने लगा कि ज़मीन के बिल्कुल क़रीब से उड़े, अपने आप को दिखाए और ये सुने कि लोग उसके बारे में क्या कह रहे हैं. अगले पड़ाव पर उसने कहा:
 “क्या हम कुछ कम ऊँचाई पर नहीं उड़ सकते? ऊँचाई के कारण मेरा सिर चकराने लगा है, और मुझे डर है कि अगर मेरी तबियत ख़राब हो गई तो मैं गिर पडूँगी.”
भली बत्तखों ने उससे कुछ नीचे उड़ने का वादा कर लिया. अगले दिन वो इतना नीचे उड़ रही थीं कि उन्हें आवाज़ें भी सुनाई दे रही थीं:
 “देखो, देखो!” एक गाँव में कुछ बच्चे चिल्लाए, “बत्तखें मेंढकी को ले जा रही हैं!”
मेंढ़की ने सुना और उसका दिल उछलने लगा.
 “देखो, देखो!” दूसरे गाँव में बड़े लोग चिल्लाए, “कैसा अजूबा है!”
 “क्या उन्हें मालूम है कि ये तरक़ीब मैंने सोची है, न कि बत्तखों ने?” टर्रो मेंढ़की ने सोचा.
 “ देखो, देखो!” तीसरे गाँव में लोग चिल्लाए. “कैसी अचरज की बात है! और ये, इतनी चालाक बात आख़िर सोची किसने?”
अब तो मेंढ़की अपने आप को रोक नहीं पाई और सावधानी-वावधानी सब भूल कर, पूरी ताक़त से चिल्लाई:
 “ये मैंने सोची है! मैंने!”
और इस चीख़ के साथ ही वो औंधे मुँह ज़मीन की ओर उड़ने लगी. बत्तखें ज़ोर से चिल्लाईं, उनमें से एक ने तो उड़ते-उड़ते बेचारी अपनी हमराही को पकड़ना चाहा, मगर चूक गई. मेंढ़की अपने चारों पंजों से कँपकँपाते हुए ज़मीन पर गिर पड़ी; मगर चूँकि बत्तखें बड़ी तेज़ी से उड़ रही थीं, इसलिए वो उस जगह पे नहीं गिरी, जहाँ चिल्लाई थी और जहाँ पक्की सड़क थी, बल्कि सौभाग्यवश, उससे काफ़ी दूर गिरी. वो टपकी गाँव के छोर पर स्थित एक गन्दे तालाब में.
वो फ़ौरन उछलकर पानी से बाहर आ गई और फिर से पूरी ताक़त से चिल्लाई:
 “मैंने! ये मैंने सोचा था!”
मगर आसपास तो कोई नहीं था. अचानक हुई इस छपाक से सभी स्थानीय मेंढ़क तालाब में छुप गए. जब वे पानी से बाहर निकले, तो आश्चर्य से नई मेंढकी को देखने लगे.
और, उसने उन्हें अचरजभरी कहानी सुनाई कि कैसे वो पूरी ज़िन्दगी सोचती रही और उसने बत्तखों पर उड़ने का नया तरीक़ा ईजाद किया, कैसे उसके पास अपनी बत्तखें थीं जो उसे जहाँ चाहो वहाँ ले जाती थीं; कैसे वह ख़ूबसूरत ‘साऊथ’ होकर आई है, जहाँ इतना अच्छा है, जहाँ गुनगुनी दलदल है और इत्ते सारे मच्छर और हर तरह के खाने लायक कीड़े हैं.
“मैं यहाँ ये देखने के लिए आई हूँ कि आप कैसे जीते हो,” उसने कहा. “मैं यहाँ बसंत तक रहूँगी, जब मेरी बत्तखें वापस लौटेंगी, जिन्हें मैंने फ़िलहाल छुट्टी दे दी है.”
मगर बत्तखें फिर कभी लौटकर नहीं आईं. उन्होंने सोचा कि टर्रो मेंढकी के ज़मीन पर टुकड़े-टुकड़े हो गए हैं, और वे बड़ी देर तक उसके लिए अफ़सोस करती रहीं.


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शुक्रवार, 30 मई 2014

Tez Dimag

तेज़ दिमाग़
लेखक: विताली बिआन्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
मक्खीपकड़-पतलीनाक पेड़ की टहनी पर बैठा था और अपने अगल-बगल नज़र डाल रहा था. जैसे ही बगल से कोई मक्खी या तितली गुज़रती, वह फ़ौरन लपक कर उसे पकड़ लेता और निगल जाता. फिर वापस टहनी पर बैठकर इंतज़ार करता, चारों ओर नज़र दौड़ाता. उसकी नज़र पास ही बैठे बलूतनाक पर पड़ी और वह लगा उससे अपनी ज़िन्दगी का रोना रोने.
”बेहद थक जाता हूँ मैं,” वह कहने लगा, “खाना ढूँढ़ते-ढूँढ़ते. सारा दिन मेहनत करते रहो-करते रहो, आराम का नाम नहीं, सुख-चैन का पता नहीं, फिर भी आधा पेट ही रहता हूँ. ख़ुद ही सोचो: आख़िर कितनी मक्खियाँ पकड़नी चाहिए, जिससे पेट भर जाए. अनाज के दाने मैं चुग नहीं सकता, मेरी नाक बेहद पतली है.”
”हाँ, तेरी नाक किसी काम की नहीं है!” बलूतनाक ने कहा. “मेरी नाक की बात ही और है! मैं उससे चेरी की गुठली छिलके जैसी चबा जाता हूँ. अपनी जगह पे बैठे रहो और बेरीज़ पे चोंच मारते रहो. तेरे पास ऐसी नाक होनी चाहिए थी.”
 क्लेस्त-सलीबनाक ने उसकी बात सुनकर कहा:
 “बलूतनाक, तेरी नाक तो बेहद सिम्पल है, जैसे चिड़िया की नाक होती है, बस, कुछ ज़्यादा मोटी है. मेरी नाक देख, कैसी बढ़िया है! मैं उससे पूरे साल छिलकों से बीज निकालता रहता हूँ. ऐसे. क्लेस्त ने हौले से अपनी मुड़ी हुई नाक से क्रिसमस ट्री के फल का छिलका उतार कर बीज बाहर निकाल दिया.
 “सही है,” मक्खीपकड़ ने कहा, “तेरी नाक बड़ी चालाकी से बनाई गई है!”
 “तुम लोग नाकों के बारे में कुछ भी नहीं जानते!” दलदल से बेकास-लम्बीनाक टर्राया. “अच्छी नाक सीधी और लम्बी होनी चाहिए, जिससे कीचड़ से कीड़े आराम से पकड़ सको. मेरी नाक देखो!”
पंछियों ने नीचे की ओर देखा, तो वहाँ पत्थर के नीचे से पेन्सिल जितनी लम्बी और दियासलाई जैसी पतली नाक झाँक रही थी.
 “आह,” मक्खीपकड़ ने कहा, “काश, मेरी नाक ऐसी होती!”
 “ठहरो!” दो चाहा-भाई – सुआनाक और क्रोन्श्नेप-हँसियानाक – चहके, “अभी तूने हमारी नाक देखी ही नहीं है!”
मक्खीपकड़ ने मुँह घुमाकर देखा तो उसे अपने सामने दो लाजवाब नाकें दिखाई दीं: एक ऊपर की ओर देख रही थी, दूसरी नीचे की ओर, और दोनों सुई जैसी महीन थीं.
 “मेरी नाक इसलिए ऊपर देखती है,” सुआनाक ने कहा, “जिससे कि मैं पानी के भीतर के छोटे-छोटे जीव पकड़ सकूँ.
 “और मेरी नाक नीचे इसलिए देखती है,” क्रोन्श्नेप-हँसियानाक ने कहा, “कि मैं घास से केंचुए और छोटे-छोटे कीड़े खोदकर निकाल सकूँ.”
  “ओह,” मक्खीपकड़ ने कहा, “आपसे अच्छी नाक तो किसीकी हो ही नहीं सकती!”
“ऐसा लगता है, कि तूने असली नाकें देखी ही नहीं हैं!” चौड़ीनाक ने डबरे से चिल्लाकर कहा. “देख, कैसी होती हैं असली नाकें. वॉव!”
सारे पक्षी चौड़ीनाक की नाक के ठीक सामने ठहाके लगाने लगे!
“अरे, ये तो बिल्कुल फ़ावड़ा है!”
 “मगर इससे पानी काटना कितना आसान है!” चौड़ीनाक ने दुख से कहा और फ़ौरन सिर के बल डबरे में घुस गया.
“मेरी नाक पर ग़ौर कीजिए!” पेड़ से नन्हा भूरा नाईटज़ार-जालीनाक फुसफुसाया. “चाहे वो छोटी हो, मगर वो जाली का काम भी करती है और निगलती भी है. जब मैं रात को धरती पे उड़ता हूँ, तब मच्छरों के, पतंगों के, तितलियों के झुँड के झुँड मेरे जाली-गले में फँस जाते हैं.”
 “ऐसा कैसे?” मक्खीपकड़ को बड़ा अचरज हुआ.
 “ऐसे!” नाईटज़ार-जालीनाक ने कहा और इस तरह से अपना जबड़ा खोला कि सारे पंछी घबरा कर उससे दूर हट गए.
“क़िस्मत वाला है!” मक्खीपकड़ ने कहा. “मैं तो एक-एक कीड़ा ही पकड़ पाता हूँ, और ये तो एकदम सैंकड़ों निगल जाता है!”
 “हाँ,” पंछियों ने सहमति दर्शाते हुए कहा, “ऐसे जबड़े से तो नाकाम हो ही नहीं सकते!”
 “ऐ तुम, नाचीज़ पंछियों!” तालाब से पॅलिकन- थैलीनाक ने चिल्लाकर उनसे कहा. “पकड़ लिया मच्छरों को, और हो गए ख़ुश. ये नहीं कि अपने लिए कुछ बचाकर भी रख लो. मैं तो मछली पकड़ता हूँ – और अपनी थैली में डाल देता हूँ, फिर से पकड़ता हूँ – फिर से थैली में डाल देता हूँ.”
मोटे पॅलिकन ने अपनी नाक उठाई, और उसकी नाक के नीचे दिखाई दी एक थैली, मछलियों से ठसाठस भरी हुई.
 “ये है नाक!” मक्खीपकड़ चहका. “पूरा स्टोर-रूम! इससे बेहतर तो कोई और चीज़ हो ही नहीं सकती!”
 “तूने, शायद, अभी तक मेरी नाक नहीं देखी है,” कठफोड़वा ने कहा. “ये देख, ख़ुश हो जा!”
 “उसमें ख़ुश होने वाली क्या बात है?” मक्खीपकड़ ने कहा. “साधारण-सी नाक है, बस: सीधी, ज़्यादा लम्बी नहीं है, न तो उसमें जाली है, न थैली. ऐसी नाक से खाना जुटाने में बहुत वक़्त लगता है, और कुछ बचाने-वचाने के बारे में तो सोचो ही मत!”
 “पूरे समय सिर्फ खाने ही के बारे में नहीं सोचना चाहिए,” कठफोड़वा-लम्बीनाक ने कहा. “हम जंगल में काम करने वालों के पास एक औज़ार ज़रूर होना चाहिए बढ़ईगिरी और जोड़ा-जोड़ी करने के लिए. हम इससे न सिर्फ अपने लिए खाना जुटाते हैं, बल्कि पेड़ भी छीलकर खोखला करते हैं : घर बनाते हैं, अपने लिए भी और दूसरे पंछियों के लिए भी. इसलिए मेरे पास ये बढ़िया छेनी है!”
 “आश्चर्यजनक!” मक्खीपकड़ ने कहा. “आज मैंने कितनी सारी नाकें देखीं, मगर मैं फ़ैसला नहीं कर पा रहा हूँ कि उनमें सबसे बढ़िया कौन सी है. तो, भाईयों, आप सब लोग एक साथ खड़े हो जाईये. मैं आपकी तरफ़ देखूँगा और सबसे बढ़िया नाक का चुनाव करूँगा.”
मछलीपकड़-पतलीनाक के सामने सारे पंछी एक कतार में खड़े हो गए : बलूतनाक, सलीबनाक, लम्बीनाक, सुआनाक, चौड़ीनाक, जालीनाक, थैलीनाक और छेनीनाक.
मगर तभी ऊपर से भूरा बाज़-हुकनाक टपक पड़ा, उसने मक्खीपकड़ को अपने खाने के लिए उठा लिया.
बाकी के पंछी फ़ौरन डर के मारे इधर-उधर उड़ गए.
  
  
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सोमवार, 5 मई 2014

Zoo-Corner

ज़ू-कॉर्नर
लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

क्लास ख़त्म होने से पहले हमारी टीचर, रईसा इवानोव्ना ने कहा:
”मुबारक हो, बच्चों! स्कूल-कमिटी ने हमारे स्कूल में ज़ू-कॉर्नर बनाने का फ़ैसला किया है. एक छोटा-सा ज़ू-पार्क. तुम लोग ख़ुद ही जानवरों की निगरानी और देखभाल किया करोगे.”
मैं तो ऐसे कूदा कि पूछो मत! ये तो वाक़ई में बहुत दिलचस्प है! मैंने पूछा:
 “ये ज़ू-कॉर्नर होगा कहाँ?”
 “तीसरी मंज़िल पर,” रईसा इवानोव्ना ने जवाब दिया, “स्टाफ़-रूम की बगल में...”
 “बाप रे,” मैंने कहा, “मगर जंगली भैंसा तीसरी मंज़िल पे चढ़ेगा कैसे?”
 “कैसा जंगली भैंसा?” रईसा इवानोव्ना ने पूछा.
 “झबरीला,” मैंने कहा, “सींगों वाला और पूँछ वाला.”
 “नहीं,” रईसा इवानोव्ना ने कहा, “जंगली भैंसा हमारे यहाँ नहीं होगा, हमारे पास होंगे कई सारे पंछी, बहुत से साही, खूब सारी मछलियाँ और चूहे. तुममें से हर कोई एक-एक छोटा-सा प्राणी हमारे ज़ू-कॉर्नर के लिए ला सकता है. फिर मिलेंगे!”
मैं घर गया, फिर हमारे कम्पाऊण्ड में गया, मैं पूरे समय यही सोचता रहा कि हमारे ज़ू-कॉर्नर में बड़ॆ हिरन को, या याक को, या फिर कम से कम हिप्पोपोटेमस को कैसे पाला जाए, कितने ख़ूबसूरत होते हैं वे...
मगर तभी वहाँ मीशा स्लोनोव भागकर आया और बोला:
 “अर्बात पे ज़ू-शॉप में सफ़ेद चूहे दे रहे हैं!!”
मैं बेहद ख़ुश हो गया और मम्मा के पास भागा.
 “मम्मा,” मैंने चिल्लाते हुए कहा, “मम्मा बोलो ‘हुर्रे!’ अर्बात पे सफ़ेद चूहे दे रहे हैं.”
मम्मा ने कहा:
 “कौन दे रहा है, किसको दे रहा है, क्यों दे रहा है, और मैं ‘हुर्रे’ क्यों कहूँ?”
 मैंने कहा:
 “ज़ू-शॉप में दे रहे हैं, ज़ू-कॉर्नर्स के लिए, मुझे पैसे दो, प्लीज़!”
मम्मा ने पर्स लिया और बोली:
 “और तुम लोगों को ज़ू-कॉर्नर के लिए सफ़ेद चूहे ही क्यों चाहिए? क्या साधारण, भूरे चूहों के पिल्लों से काम नहीं चल सकता?”
 “तुम भी ना, मम्मा” मैंने कहा, “दोनों में कैसा मुक़ाबला? भूरे चूहे – मतलब, एकदम साधारण; और सफ़ेद – जैसे नियमित, डाइट वाला खाना होता है, समझ गईं ना?”
अब मम्मा ने मुझे एक हल्की-सी चपत लगाई, पैसे दिए, और मैं ज़ू-शॉप की ओर लपका.
वहाँ लोगों की व्वो भीड़ थी. बेशक, ये बात समझ में भी आ रही थी, क्योंकि ज़ाहिर है, सफ़ेद चूहों को कौन प्यार नहीं करता?! इसलिए ज़ू-शॉप में धक्का-मुक्की हो रही थी, और मीश्का स्लोनोव काऊण्टर के पास खड़ा होकर व्यवस्था बनाने की कोशिश करने लगा. मगर फिर भी मेरा काम नहीं बना!
ठीक मेरी आँखों के सामने चूहे ख़तम हो गए.
मैंने सेल्स-गर्ल से कहा:
 “अब, और चूहे कब आएँगे?”
वो बोली:
 “जब हेड-ऑफ़िस से भेजेंगे. मेरा ख़याल है कि साल के अंत में.”
मैंने कहा:
 “आप जनता की ज़रूरत के मुताबिक चूहों की सप्लाई ठीक से नहीं करती हैं.”
और मैं दूर हट गया. और, शायद मूड ऑफ़ होने के कारण मैं अचानक दुबला होने लगा. मगर मम्मा ने जैसे ही मेरे चेहरे के भाव देखे, वो हाथ नचाते हुए बोली:
 “डेनिस, चूहों की वजह से अपना दिमाग़ ख़राब मत करो. नहीं हैं, तो कोई बात नहीं! चल, तेरे लिए मछली खरीदेंगे! पहली क्लास के बच्चे लिए सबसे बढ़िया चीज़ है – मछली! तुझे कैसी वाली चाहिए, हाँ?”
मैंने कहा:
 “ नील नदी का मगरमच्छ!”
 “और अगर छोटी लें तो?”
 “तो फिर मोलिनेज़िया?” मैंने कहा. “मोलिनेज़िया – इत्ती छोटी सी मछली होती है, बस आधी दियासलाई जित्ती.”
और हम वापस उस शॉप में आए. मम्मा ने पूछा:
 “ये मोलिनेज़िया कैसी दे रहे हैं आप? मुझे क़रीब दस ख़रीदनी हैं ये नन्ही-नही मछलियाँ, ज़ू-कॉर्नर के लिए.”
सेल्सगर्ल ने जवाब दिया:
 “डेढ़-डेढ़ रूबल्स की एक!”
मम्मा ने सिर पकड़ लिया.
 “ये,” मम्मा ने कहा, “मैंने कल्पना ही नहीं की थी! चल, बेटा, घर जाएँगे.”
  “और मम्मा, मोलिनेज़िया?”
 “हमें नहीं चाहिए,” मम्मा ने कहा. “घर जाएँगे. और मोलिनेज़िया, ओह, वो...वो काटती हैं.”
मगर फिर भी, मुझे बताइए तो सही कि मैं अपने ज़ू-कॉर्नर के लिए क्या ले जाऊँ? चूहे ख़तम हो गए, और मोलिनेज़िया काटती हैं. क्या मुसीबत है!

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