कलहँस की गर्दन
लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
जब हम लंच के लिए
बैठे, तो मैंने कहा:
“आज मैं बाहर जाने वाला हूँ. मीश्का के यहाँ.
बर्थडे पार्टी पे.”
“अच्छा?” पापा ने कहा. “वो कितने साल का हो
गया?”
“नौ,” मैंने जवाब दिया. वो नौ साल का पूरा हो
गया है, पापा. अब दसवाँ शुरू हो गया.”
“ वक़्त कैसे भागता
है,” मम्मा ने गहरी साँस ली. “अभी परसों-परसों तक तो वह खिड़की की सिल पर मेज़ से
निकाली हुई दराज़ में लेटा करता था, और अब देखिए, नौ साल का हो भी गया!”
“तो फिर क्या,” पापा ने इजाज़त दे दी, “जाकर
बर्थडे बॉय को मुबारकबाद दे देना. हाँ, ये तो बता कि इस यादगार दिन तू अपने दोस्त को क्या तोहफ़ा देगा?”
“है, तोहफ़ा भी है,” मैंने कहा, “मीश्का बहुत ख़ुश
हो जाएगा...”
“क्या है वो तोहफ़ा?” मम्मा ने पूछा.
“कलहँस की गर्दन!” मैंने कहा. “आज वेरा
सेर्गेयेव्ना कलहँस साफ़ कर रही थी, और मैंने उनसे कलहँस की गर्दन मांग ली, जिससे
मीश्का को गिफ्ट दे सकूँ.”
“दिखा,” पापा ने कहा.
मैंने
जेब से कलहँस की गर्दन निकाली. वो धुली हुई, साफ़-सुथरी थी, एकदम प्यारी लग रही थी,
मगर वो अभी कुछ नम थी, पूरी तरह से सूखी नहीं थी, मगर मम्मा उछल पड़ी और चीख़ी:
“इस गन्दी चीज़ को फ़ौरन यहाँ से ले जा! ओफ़,
भयानक!”
मगर
पापा ने कहा:
“मगर इसकी क्या ज़रूरत है? और ये इतना चिपचिपी
क्यों है?”
“अभी ये कच्ची है. मगर मैं ज़रूरत के मुताबिक इसे
सुखा लूँगा और इसका एक गोल पहिया बना लूँगा. देख रहे हो? ऐसे.”
मैंने पापा को
दिखाया. वो ग़ौर से देख रहे थे.
“देख रहे हो,
पापा?” मैंने कहा. “ये पतली वाली गर्दन मैं चौड़ी वाली में डाल दूंगा, उसमें क़रीब
पाँच चने डाल दूँगा, जब ये सूख जाएगा, तो मालूम है कैसी आवाज़ करेगा! फ़र्स्ट
क्लास!”
पापा मुस्कुराए:
“अच्छा है तोहफ़ा...मगर-मगर!”
और मैंने कहा:
“परेशान न हो, पापा. मीश्का को पसन्द आएगा. मैं
उसे अच्छी तरह जानता हूँ.”
मगर पापा उठे और
हैंगर्स की ओर गए. वहाँ उन्होंने जेबों में हाथ डाले.
“ये ले,” उन्होंने मेरी ओर कुछ सिक्के बढ़ाए, “ये
थोड़े से पैसे ले. मीश्का के लिए चॉकलेट्स ख़रीद ले. और ये होगा मेरी तरफ़ से तोहफ़ा.”
और पापा ने अपने कोट से एक ख़ूबसूरत नीला-नीला बैज निकाला जिस पर लिखा था ‘स्पूत्निक’.
मैंने कहा:
“हुर्रे! मीश्का तो सातवें आसमान पे चढ़ जाएगा.
उसके लिये तो मेरी ओर से पूरे तीन-तीन तोहफ़े होंगे. बैज, चॉकलेट्स और कलहँस की
गर्दन. इससे तो हर कोई ख़ुश हो जाएगा!”
मैंने कलहँस की
गर्दन सुखाने के लिए बैटरी के ऊपर रख दी. मम्मा ने कहा:
“हाथ धो ले और खाना खा!”
और हम खाना खाने
लगे, मैं खट्टा सूप खा रहा था और प्रसन्नता से हल्के-हल्के सी-सी रहा था. मगर
अचानक मम्मा ने बे-बात के अपना चम्मच नीचे रख दिया और बोली:
“समझ में नहीं आ
रहा है, कि इसे वहाँ भेजूँ या नहीं?”
लो, हो गया
कल्याण! साफ़ आसमान में बिजली कड़की! मैंने कहा:
“मगर क्यों?”
और पापा ने भी
पूछा:
“बात क्या है?”
“ये वहाँ हमे नीचा दिखाएगा. इसे तो बिल्कुल ही
खाना नहीं आता. सी-सी करता है, सुड़कता है, कुलबुलाता है...भयानक!”
“कोई बात नहीं,” मैंने कहा, “मीश्का भी सी-सी
करता है, मुझसे ज़्यादा.”
“ये कोई बात नहीं हुई,” पापा ने भौंहे चढ़ा लीं.
“सलीके से खाना चाहिए. क्या तुझे कम सिखाया है?”
“मतलब, कम ही सिखाया है,” मम्मा ने कहा.
“कुछ भी नहीं सिखाया,” मैंने कहा. “मैं जैसे दिल
चाहता है, वैसे खाता हूँ. और सब ठीक-ठाक ही है.
इसमें सिखाने वाली बात क्या है?”
“नियम जानना चाहिए,” पापा ने सख़्ती से कहा.
“क्या तुझे मालूम है? नहीं. ये होते हैं खाए के नियम: जब खाना खा रहे हो तो चप्-चप्
नहीं करते, मच्-मच् नहीं करते, सुड़-सुड़ नहीं करते, खाने पर फूँक नहीं मारते, ख़ुशी
के मारे सी-सी नहीं करते और आम तौर से खाते समय किसी भी तरह की आवाज़ नहीं करते.”
“मैं तो नहीं करता! क्या मैं आवाज़ निकालता हूँ?”
“और, कभी भी खाने से पहले ब्रेड और राई की चटनी
नहीं खाते!” मम्मा चहकी.
पापा बुरी तरह
लाल हो गए. क्यों न होते! अभी कुछ ही दिन पहले उन्होंने खाने से पहले, क़रीब-क़रीब
पूरी एक किलो ब्रेड राई की चटनी के साथ खा ली थी. जब मम्मा सूप लाई, तो पता चला कि
ब्रेड ही नहीं है, पापा पूरी ब्रेड खा गए थे, और मुझे भागकर बेकरी से नई ब्रेड
लानी पड़ी थी. इसीलिए अभी वो लाल हो गए थे, मगर वो चुप रहे. ऐसा लग रहा था कि मम्मा
कह तो मुझसे रही है, मगर इससे पापा को अटपटा लग रहा है. और मुझे भी. मम्मा ने इतनी
सुनाई, इतनी सुनाई, कि मैं तो डर ही गया. फिर कोई जिए कैसे? ये मत करो, वो मत
करो!”
“फ़ोर्क फर्श पर मत गिरा,” मम्मा ने कहा, “और अगर
गिरा दिया है, तो चुपचाप बैठा रह, चारों हाथों-पैरों पर खड़ा होकर, मेज़ के नीचे उसे
मत ढूँढ़ और आधा घण्टे तक वहीं मत रेंगता रह. मेज़ पर ऊँगलियों से बैण्ड न बजा, सीटी
मत बजा, गाना मत गा! मेज़ पर ठहाके न लगा! मछली चाकू से न खा, ख़ास तौर से जब किसी
और के घर में खा रहे हो.”
“मगर, वो बिल्कुल मछली ही नहीं थी,” पापा ने
कहा, और उनके चेहरे पर अपराधी भाव छा गए, “वो तो साधारण कैबेज-रोल्स थे.”
“ये तो और भी ज़रूरी है,” मम्मा को ज़रा भी दया
नहीं आ रही थी. “क्या बात है, कैबेज-रोल्स – चाकू से! न तो कैबेज-रोल्स और न ही
फ्राईड-एग्स चाकू से खाते हैं! ये नियम है!”
मुझे बेहद
आश्चर्य हुआ:
”मगर कैबेज-रोल्स
बगैर चाकू के कैसे खा सकते हैं?”
मम्मा ने कहा:
“वैसे ही जैसे कटलेट्स खाते हैं. फ़ोर्क से, और
बस.”
“फिर तो पूरे ही प्लेट में रह जाएँगे! फिर
कैसे?”
मम्मा ने कहा:
“रहते हैं तो रहने दो!”
“अफ़सोस तो होगा!” मैंने विनती की. “हो सकता है,
मैंने अभी पूरा नहीं खाया हो, और वहाँ बच गया है...ख़तम तो करना पड़ेगा ना!”
पापा ने कहा:
“तो जो है, उसे पूरा खा ले!”
मैंने कहा:
“फिर, थैंक्यू!”
फिर मुझे एक और
ज़रूरी बात याद आ गई:
“और शोरवा?”
मम्मा मेरी ओर
मुड़ी.
“क्या शोरवा?” उसने पूछा.
“ चाटना चाहिए...” मैंने कहा.
मम्मा की भौंहे
बिल्कुल उसके बालों तक उठ गईं. उसने मेज़ पर मुक्का मारा:
“चाटने की हिम्मत न करना!”
मैं समझ गया कि
अब अपने आपको बचाना चाहिए.
“तुम भी क्या, मम्मा? मुझे मालूम है कि ज़बान से
चाटना नहीं चाहिए! मैं क्या कोई कुत्ता हूँ! मैं, मम्मा, कभी भी नहीं चाटूँगा,
ख़ासकर और लोगों के सामने. मैं तुमसे पूछ रहा हूँ: क्या ब्रेड से साफ़ किया जाए?”
“नहीं,” मम्मा ने कहा.
“मैं ऊँगलियों की बात थोड़े ही कर रहा हूँ! मैं
ब्रेड की, ब्रेड-क्रम्प्स की बात कर रहा हूँ!”
“भाग जा,” मम्मा चीखी, “तुझसे कह रही हूँ!”
और उसकी आँखें
हरी-हरी हो गईं. जैसे गूज़-बेरी हो. मैं सोच रहा था : इसे, इस शोरवे को, न तो मैं
चाटूँगा, ना ही ब्रेड से साफ़ करूँगा, अगर इससे मम्मा को इतना गुस्सा आता है तो मैं
ऐसा नहीं करूँगा. मैंने कहा:
“ठीक है, मम्मा. नहीं करूँगा. बचा रहने दो.”
“वैसे,” पापा ने कहा, “मैं तुमसे एक बात पूछना
चाहता हूँ...
“पूछो,” मम्मा ने कहा, “तुम तो छोटे बच्चे से भी
ज़्यादा ख़तरनाक हो.”
“नहीं, सही में,” पापा कहते रहे, “हमारे यहाँ,
जानती हो, कभी कभी पार्टियाँ होती हैं, कई तरह के आयोजन होते हैं... तो: अगर मैं
वहाँ से कोई चीज़ उठा लूँ? जैसे कोई सेब, या संतरा....”
“पागल मत बनो!” मम्मा ने कहा.
“मगर क्यों?” पापा ने पूछा.
“इसलिए कि आज तुमने एक सेब उठा लिया, और कल को
तुम अपनी बगल वाली जेब में सलाद घुसा लोगे!”
“हाँ,” पापा ने कहा और छत की ओर देखने लगे,
“हाँ, कुछ लोग सोसाइटी के नियम बड़ी अच्छी
तरह से जानते हैं! बिल्कुल प्रोफ़ेसर! हम कहाँ! ...और, तेरा क्या ख़याल है, डेनिस्का
– पापा ने मेरा कंधा पकड़कर अपनी ओर घुमाया, “ तेरा क्या ख़याल है,” उन्होंने आवाज़
भी ऊँची कर ली, “अगर तुम्हारे यहाँ मेहमान आए हैं और अचानक उनमें से एक जाना चाहता
है...तू क्या सोचता है, क्या घर की मेज़बान को उसे दरवाज़े तक छोड़ने जाना चाहिए और
उसके साथ कॉरीडोर में बीस मिनट तक खड़ा रहना चाहिए?”
मुझे मालूम नहीं
था कि पापा को क्या जवाब दूँ. ज़ाहिर था कि उन्हें इसमें बेहद दिलचस्पी थी, क्योंकि
उन्होंने मेरा कंधा बहुत कसके पकड़ा था, वो दर्द भी कर रहा था. मगर मैं नहीं जानता
था कि उन्हें क्या जवाब दूँ. मगर, शायद, मम्मा को मालूम था, क्योंकि उसने कहा:
“अगर मैं उसे छोड़ने गई, तो इसका मतलब ये है कि
ऐसा करना ज़रूरी था. मेहमानों का जितना ज़्यादा ख़याल रखा जाए, उतना अच्छा होता है.”
अब पापा अचानक
ठहाके लगाने लगे. जैसे कि पिस्सू वाले गाने में है:
“हा-हा-हा-हा-हा! हा-हा-हा-हा-हा! और मेरा ख़याल
है कि अगर ये उसे छोड़ने नहीं जाएगी, तो वो मर नहीं जाएगा! हा-हा-हा-हा-हा!”
पापा ने अचानक
अपने बाल खड़े कर लिए और कमरे में इधर-उधर यूँ घूमने लगे, जैसे पिंजरे में बन्द शेर
हो. उनकी आँखें पूरे समय बाहर निकलने को हो रही थीं. अब तो वो हिचकियाँ ले लेकर
हँस रहे थे: “हा-हा! र्र र्र! हा-हा! र्र!” उनकी ओर देखते हुए मैं भी ठहाका मारकर
हँस पड़ा:
“बेशक, नहीं मरेगा! हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा!”
तभी एक
आश्चर्यजनक बात हुई. मम्मा उठकर खड़ी हो गई, उन्होंने मेज़ से कप उठाया, कमरे के
बीचोंबीच आईं और उस कप को फर्श पर दे मारा. कप के हज़ारों टुकड़े हो गए. मैंने कहा:
“ये क्या है, मम्मा? तुमने ये क्यों किया?”
मगर पापा बोले:
“कोई बात नहीं, कोई बात नहीं. ये खुशी के लिए
होता है! चल, डेनिस्का, तैयार हो जा. जा अपने मीश्का के यहाँ, वर्ना देर हो जाएगी!
जा और मछली चाकू से न खाना, परिवार को शर्मिन्दा न करना!”
मैंने अपनी
गिफ्ट्स उठाईं और मीश्का के यहाँ गया. हमने वहाँ ख़ूब मस्ती की. हम दीवान पर इतना
ऊँचे-ऊँचे उछलते रहे कि बस छत से भिड़ने वाले थे. इस उछलकूद से मीश्का लाल हो गया.
अपने परिवार को मैंने शर्मिन्दा नहीं किया, क्योंकि वहाँ न तो लंच था, न डिनर,
बल्कि लेमन जूस और मिठाईयाँ थीं. हमने सारी मिठाईयाँ खा लीं, सारी चॉकलेट्स ख़त्म
कर दीं, चॉकलेट्स का वो डिब्बा भी खा गए, जो मैं मीश्का के लिए लाया था. वैसे
मीश्का को कई तरह के तोहफ़े मिले: ट्रेन थी, किताबें थीं, कलर-बॉक्स थे. मीशा की
मम्मा ने कहा:
“ओह, कितने सारे तोहफ़े हैं मीशूक, तेरे पास!
तुझे कौन सा तोहफ़ा सबसे ज़्यादा पसन्द आया?”
”ये क्या पूछने
की बात हुई? बेशक, कलहँस की गर्दन!”
और वो ख़ुशी से
लाल हो गया.
मुझे तो ये मालूम
ही था.
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