सोमवार, 25 अगस्त 2014

Tyoopa ka Naam...

त्यूपा का नाम त्यूपा क्यों पड़ा
लेखक: येव्गेनी चारूशिन
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
जब त्यूपा को बहुत अचरज होता है या वो कोई समझ में न आने वाली या दिलचस्प चीज़ देखता है तो वह जल्दी जल्दी अपने होंठ हिलाता है और त्युपत्युपाता है : “त्युप-त्युप-त्युप-त्युप...”
हवा के कारण घास सिहरती हो, छोटा सा पंछी उड़ते हुए गया हो, तितली फड़फड़ाई हो – त्यूपा रेंगने लगता, पास जाता है, छुप जाता है और त्युपत्युपाता है “त्युप-त्युप-त्युप-त्युप... “लपक लूँगा! हिलगा लूँगा! पकड़ लूँगा! खेलूँगा!”
इसीलिए त्यूपा का नाम त्यूपा पड़ गया.
त्यूपा ने सुना कि कोई पतली-सी आवाज़ में सीटी बजा रहा है.
देखा कि गूज़बेरी की झाड़ियों में, जहाँ काफ़ी घना जंगल सा है, भूरे रंग के चंचल पंछी खा-पी रहे हैं – पेड़ के ठूँठों में ढूँढ़ते हैं, कहीं छोटे-छोटे कीट-पतंगे तो नहीं हैं.
त्यूपा रेंगता है. लुकते-छुपते आगे बढ़ता है. त्युप-त्युप भी नहीं करता – पंछियों को डराना नहीं चाहता. नज़दीक, बिल्कुल नज़दीक रेंग जाता है और क्या छलांग लगाता है – ज़ूम्! कैसे पकड़ता है....मगर, नहीं पकड़ा.
पंछियों को पकड़ने के लिए त्यूपा अभी बड़ा नहीं हुआ है.
त्यूपा – स्मार्ट-अनाड़ी है.
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त्यूपा को मार पड़ी. ये नेपून्का ने, त्यूपा की माँ ने, उसे झापड़ मारा. अब उसके पास त्यूपा के लिए फुर्सत नहीं है. नेपून्का इंतज़ार कर रही है, जल्दी ही उसके और बिलौटे होंगे, नए नन्हे-नन्हे दूध चूसने वाले.
उसने जगह भी चुन ली थी – एक बास्केट. वहाँ वो उन्हें दूध पिलाया करेगी, लोरियाँ सुनाएगी.
त्यूपा अब उससे डरता है. पास भी नहीं जाता. किसी को भी झापड़ खाने का शौक नहीं होता.
बिल्लियों की आदत होती है: नन्हे को दूध पिलाती है, और बड़े को दूर भगाती है. मगर नेपून्का-बिल्ली के बिलौटों को कोई उठाकर ले गया.
नेपून्का भटक रही है, बिलौटों को ढूँढ़ रही है, उन्हें पुकार रही है. नेपून्का के थनों में दूध बहुत है, मगर पिलाने के लिए कोई नहीं है.
उसने उन्हें ढूँढ़ा, खूब ढूँढ़ा, और अचानक त्यूप्का को देखा. वो उससे छुप रहा था, झापड़ खाने से डर रहा था.
और तब नेपून्का ने फ़ैसला कर लिया कि त्यूपा – त्यूपा नहीं, बल्कि उसका नया दूध पीता बिलौटा है, जो खो गया था.
ख़ुश हो गई नेपून्का, और वह म्याँऊ-म्याँऊ कर रही है, नन्हे को बुला रही है, उसे दूध पिलाना चाह रही है, सहलाना चाहती है.
मगर त्यूपा – होशियार है, वो नज़दीक नहीं जाता.
उसे कल ही तो सहलाय था – अब तक याद है!
और नेपून्का गा रही है:
 “आ जा, दूध पिलाऊँगी” – एक करवट को लेट गई. नेपून्का का दूध गरम-गरम है. स्वादिष्ट है! त्यूपा ने अपने होंठ चाटे. वह काफ़ी पहले अपने आप खाना सीख गया था, मगर उसे याद है.
नेपून्का त्यूपा को मना रही थी.
उसने दूध पिया और – सो गया.
मगर तभी दूसरी अचरजभरी बात हुईं.
त्यूपा तो बड़ा है ना. मगर नेपून्का के लिए तो वो छोटा ही है.
उसने त्यूपा को पलटा और चाट-चाटकर उसे साफ़ करने लगी.
त्यूप्का जाग गया, उसे बड़ा अचरज हुआ, ये क्यों, किसलिए? वो ख़ुद ही अपने आप को साफ़ कर सकता है. वो जाना चाहता था. मगर नेपून्का उसे मना रही थी          
“सो जा तू, मेरे नन्हे, किसी के पैरों के नीचे आ जाएगा, खो जाएगा”...
लोरी गाती रही, गाती रही, और ख़ुद ही सो गई.
तब त्यूप्का बास्केट से बाहर आया और अपने काम करने लगा. ये काम, वो काम...
तितलियाँ पकड़ने लगा. चिड़िया के पास दबे पाँव पहुँचा.
नेपून्का जाग गई. आह, उसका त्यूपेन्का कहाँ है?
भागकर कम्पाऊण्ड में आई, पुकारने लगी.
मगर त्यूपा छत पर पहुँच गया और वहाँ रेंग रहा है, दौड़ रहा है – किसी पंछी को डरा रहा है.
नेपून्का फ़ौरन उसके पास पहुँची:
 “देख, गिरना नई! फिसलना नई!”
मगर त्यूपा उसकी बात नहीं सुनता.
नेपून्का ने त्यूप्का की गर्दन पकड़ी और नन्हे बिलौटे की तरह उसे छत से ले चली. त्यूपा छिटक जाता है, प्रतिकार करता है, छत से जाना नहीं चाहता.
नेपून्का समझ नहीं पा रही है कि त्यूपा अब छोटा नहीं रहा.
*****


सोमवार, 18 अगस्त 2014

Poonchhe


पूंछें
लेखक: विताली बिआन्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
एक बार मक्खी उड़कर एक आदमी के पास आई और बोली:
 “तू सारे जानवरों का मालिक है, तू जो चाहे वो कर सकता है. मेरी एक पूंछ बना दे.”
 “तुझे पूंछ क्यों चाहिए?” आदमी ने पूछा.
 “मुझे पूंछ इसलिए चाहिए,” मक्खी ने कहा, “जिस लिए वो सारे जानवरों की होती है – ख़ूबसूरती के लिए.”
”मैं ऐसे जानवरों को नहीं जानता जिनके पास ख़ूबसूरती के लिए पूंछ होती है. तू तो बग़ैर पूंछ के भी अच्छी तरह ही जी रही है.”
मक्खी को गुस्सा आ गया और वो लगी आदमी को सताने: कभी मिठाई पर बैठ जाती, कभी उड़कर उसकी नाक पर बैठ जाती, कभी एक कान के पास झूँ-झूँ करती, कभी दूसरे के पास. ख़ूब सताया, निढ़ाल हो गई. आदमी ने उससे कहा:  “अच्छा, ठीक है! जा, तू उड़कर जंगल में जा, नदी पे जा, खेत में जा. अगर तुझे वहाँ कोई ऐसा जानवर मिले, या पंछी मिले, या रेंगने वाला कीड़ा मिले, जिसकी पूंछ सिर्फ ख़ूबसूरती के लिए बनी है, तो तू उसकी पूंछ ले ले. मैं इसकी इजाज़त देता हूँ. ख़ुश हो गई मक्खी और उड़ गई खिड़की से बाहर.
वह बगीचे में उड़ रही थी जब उसने देखा कि एक पत्ती पर घोंघा रेंग रहा है. मक्खी उड़कर घोंघे के पास आई और चिल्लाई:
 “मुझे अपनी पूंछ दे दे, घोंघे! तेरे पास तो वो सिर्फ ख़ूबसूरती के लिए है.”
 “क्या कहती हो, क्या कहती हो!” घोंघा बोला. “मेरे पास तो पूंछ नहीं है, ये तो मेरा पेट है. मैं उसे कस के बन्द करता हूँ और खोलता हूँ, - बस, इसी तरह मैं रेंग सकता हूँ. मैं – पेट-पाँव वाला हूँ.”
मक्खी ने देखा कि उससे गलती हो गई थी. वो आगे उड़ चली. उड़ते हुए नदी के पास आई, नदी में देखा मछली को और झींगे को – दोनों पूंछ वाले थे.
मक्खी मछली से बोली:
 “मुझे अपनी पूंछ दे दे! तेरे पास तो वो सिर्फ ख़ूबसूरती के लिए है.”
 “बिल्कुल नहीं. ख़ूबसूरती के लिए बिल्कुल नहीं है,” मछली ने जवाब दिया. “मेरी पूंछ – स्टीयरिंग है. देख: अगर मुझे दाईं ओर मुड़ना है – तो मैं अपनी पूंछ दाईं ओर घुमाती हूँ, अगर बाईं ओर जाना है – मैं अपनी पूंछ को बाईं ओर करती हूँ. अपनी पूंछ मैं तुझे नहीं दे सकती.”
मक्खी झींगे से बोली:
“मुझे अपनी पूंछ दे दे, झींगे!”
“नहीं दे सकता,” झींगे ने जवाब दिया. “मेरे पैर कमज़ोर हैं, पतले हैं, मैं उनसे पानी नहीं हटा सकता. मगर पूंछ तो मेरी चौड़ी और मज़बूत है. पूंछ से मैं पानी में छपछपाता हूँ, और आगे बढ़्ता हूँ. छपछप, छपछप, और बस – जहाँ जाना है उस तरफ़ तैरता हूँ. मेरी पूंछ चप्पू का काम करती है.”
मक्खी और आगे उड़ी. उड़ती हुई जंगल में पहुँची, देखती है कि एक टहनी पे कठफोड़वा बैठा है. मक्खी उसके पास आई:
 “मुझे अपनी पूंछ दे दे, कठफोड़वे! तेरे पास तो वो सिर्फ ख़ूबसूरती के लिए है.”
बड़ी होशियार है!” कठफोड़वा ने कहा. “और मैं पेड़ों में छेद कैसे करूँगा, उन्हें ढूंढूंगा कैसे, पिल्लों के लिए घोंसले कैसे बनाऊँगा?”
”ये तो तू नाक से भी कर सकता है,” मक्खी ने कहा.
 “नाक से तो नाक से,” कठफोड़वा ने जवाब दिया, “सही है, मगर बगैर पूंछ के भी काम नहीं चल सकता. ये देख, मैं कैसे पेड़ में छेद करता हूँ.”
कठफोडवा ने अपनी मज़बूत कड़ी पूंछ को पेड़ की छाल में गड़ा दिया, पूरे बदन को फड़फड़ाने लगा और नाक से टहनी पर टक्-टक् करने लगा – बस, छिपटियाँ उड़ने लगीं!
मक्खी ने देखा, कि सही में, जब कठफोड़वा छेद करता है तो अपनी पूंछ पर बैठता है – वह बगैर पूंछ के काम नहीं चला सकता. पूंछ उसके लिए टेक का काम करती है.
वह आगे उड़ चली.
देखती है कि एक हिरनी अपने छौनों के साथ झाड़ियों में है. हिरनी के पास भी छोटी सी पूंछ है – बहुत छोटी, रोएँदार, सफ़ेद सी पूंछ. मक्खी ज़ोर-ज़ोर से भिनभिनाने लगी.
 “मुझे अपनी पूंछ दे दे, हिरनी!”
हिरनी घबरा गई.
 “क्या कहती हो, क्या कहती हो!” उसने कहा. “अगर मैं अपनी पूंछ तुझे दे दूँ तो मेरे छौने खो जाएँगे.”
 “छौनों को तेरी पूंछ क्यों चाहिए?” मक्खी को अचरज हुआ.
 “क्यों नहीं है,” हिरनी ने कहा. “जैसे, अगर कोई भेड़िया हमारा पीछा कर रहा हो, तो मैं जंगल में छलाँग लगा देती हूँ – छुपने के लिए. और छौने – मेरे पीछे पीछे. सिर्फ पेड़ों के बीच में मैं उन्हें दिखाई नहीं देती. मैं रूमाल की तरह अपनी सफ़ेद पूँछ हिलाकर उन्हें इशारा करती हूँ: “यहाँ आओ भागकर, यहाँ!” वे देखते हैं – कोई सफ़ेद चीज़ सामने चमक रही है – मेरे पीछे भागते हैं. इस तरह हम सब भेड़िए से अपनी जान बचाते हैं.”
क्या किया जाए! मक्खी आगे उड़ी.
आगे उड़ी और देखा उसने लोमड़ी को. ऐख़! लोमड़ी की भी पूंछ है! खूब रोएँदार और भूरी, ख़ूब सुन्दर-सुन्दर!         
 “ठीक है,” मक्खी ने सोचा, “ये पूंछ तो मेरी ही बनेगी.”
उड़कर लोमड़ी के पास आई और चिल्लाई:
 “अपनी पूंछ दे दे!”
 “क्या कहती है, मक्खी!” लोमड़ी ने जवाब दिया. “बिना पूंछ के तो मैं मर जाऊँगी. कुत्ते जब मेरे पीछे भागेंगे, तो मुझ बिनपूंछ वाली को, आसानी से पकड़ लेंगे. मगर पूंछ से मैं उन्हें धोखा देती हूँ.”
 “तू पूंछ से कैसे धोखा देती है?” मक्खी ने पूछा.
  “जैसे ही कुत्ते मुझ पर झपटने को होते हैं, मैं अपनी पूंछ व्वोssss घुमाती हूँ, व्वोssss घुमाती हूँ... यहाँ-वहाँ...पूंछ दाएँ, मैं बाएँ. कुत्ते देखते हैं कि मेरी पूंछ दाईं तरफ गई है, और वो भी दाईं तरफ़ लपकते हैं. जब तक वो समझ पाते हैं कि ग़लती कर रहे हैं, तब तक तो मैं नौ दो ग्यारह हो जाती हूँ.”
मक्खी समझ गई कि सभी जानवरों की पूंछ किसी न किसी काम के लिए बनी है, फ़ालतू की पूंछें न तो जंगल में हैं न ही नदी में. मक्खी उड़कर वापस घर आ गई. ख़ुद ही सोचने लगी:
 “आदमी से चिपक जाती हूँ, उसे तंग कर डालूँगी, जब तक वो मेरी पूंछ नहीं बना देता.”
आदमी खिड़की के पास बैठा हुआ बाहर आँगन में देख रहा है.
मक्खी उसकी नाक पे बैठ गई. आदमी ने नाक पे ज़ोर से ‘धप्’ किया! – मगर मक्खी उसके माथे पे बैठ गई थी. आदमी ने माथे पे ‘धप्’ किया! मक्खी फिर से नाक पे बैठ गई.
 “मुझसे दूर हट, तू, मक्खी!” आदमी ने उसे मनाया.
 “नहीं हटूँगी,” मक्खी भिनभिनाई. “तूने मेरा मज़ाक क्यों उड़ाया, मुझे ख़ाली पूंछें ढूंढ़ंने क्यों भेजा? मैंने सारे जानवरों से पूछा – सभी की पूंछ किसी न किसी काम के लिए है.”
आदमी ने देखा कि अब मक्खी से छुट्टी पाना मुश्किल है – कैसी बोरिंग है! उसने थोड़ी देर सोचा और फिर बोला:
 “मक्खी, ऐ मक्खी, वो गाय है न आंगन में. उससे पूछ ले कि उसे पूंछ की क्या ज़रूरत है.”
 “अच्छा ठीक है,” मक्खी ने कहा – “गाय से भी पूछ लेती हूँ. और अगर गाय ने मुझे अपनी पूंछ नहीं दी तो, ऐ आदमी, मैं तुझे दुनिया से उठा दूँगी.”
मक्खी खिड़की से बाहर उड़ गई, गाय की पीठ पे बैठ गई और लगी भिनभिनाने, लगी उससे पूछने:
 “गाय, गाय, तुझे पूंछ की क्या ज़रूरत है? गाय, गाय, तुझे पूंछ की क्या ज़रूरत है?”
गाय चुप रही, चुप रही, और फिर अपनी पीठ पर पूंछ से इतनी ज़ोर से मारा – कि उसने मक्खी को कुचल दिया.
मक्खी ज़मीन पे गिर पड़ी – उसकी जान निकल गई, और पैर ऊपर उठ गए. और आदमी खिड़की से बोला:
 “तेरे साथ ऐसा ही होना चाहिए, मक्खी – लोगों से मत चिपक, जानवरों से मत चिपक, बोरिंग कहीं की!”
                                                 
                                         ******

शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

Luka-Chhipee

लुका-छिपी
लेखक: निकोलाय नोसोव
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
वीत्या और स्लाविक - पड़ोसी हैं. वे अक्सर एक दूसरे के घर जाते हैं. एक बार वीत्या स्लाविक के घर आया. स्लाविक ने उससे कहा:
 “चल, लुका-छिपी का खेल खेलते हैं!”
 “चल,” वीत्या मान गया. “मगर पहले मैं छुपूँगा!”
 “अच्छा, ठीक है, मैं ढूंढूंगा,” स्लाविक ने कहा और कॉरीडोर में चला गया.
वीत्या भाग कर कमरे में आया, पलंग के नीचे रेंग गया और चिल्लाया:
 “रेडी!”
स्लाविक आया, उसने पलंग के नीचे झाँका और फ़ौरन उसे ढूंढ़ लिया. वीत्या पलंग के नीचे से बाहर निकला और बोला:
 “ये गलत है! मैं अच्छे से नहीं छुपा था! अगर मैं अच्छे से छुपता तो तू मुझे ढूंढ़ नहीं पाता. मैं फिर से छुपता हूँ.”
 “ठीक है, छुप जा फिर से, प्लीज़,” स्लाविक मान गया और फिर से कॉरीडोर में गया.
वीत्या कम्पाऊण्ड में गया और ढूंढ़ने लगा कि कहाँ छुपा जाए. देखता है कि गोदाम के पास कुत्ता-घर है, और उसमें बोबिक बैठा है. उसने फ़ौरन कुत्ता-घर से बोबिक को भगा दिया, ख़ुद उसकी जगह पे रेंग गया और फिर से चिल्लाया:
 “रेडी!”
स्लाविक कम्पाऊण्ड में आया और वीत्या को ढूंढ़ने लगा. ढूंढ़ता रहा, ढूंढ़ता रहा , मगर वो मिला ही नहीं.
मगर वीत्या कुत्ता-घर में बैठे बैठे बोर हो गया, वो बाहर झाँकने लगा. तभी स्लाविक ने उसे देख लिया और वो चिल्लाया:
 “ओह, तू भी कहाँ जाकर छुप गया! बाहर निकल!”
 वीत्या कुत्ता-घर से बाहर निकला और बोला:
 “ये सही नहीं है! तूने मुझे नहीं ढूंढ़ा. मैं ख़ुद ही बाहर झाँक रहा था.”
 “तू बाहर क्यों झाँक रहा था?”
”कुता-घर में गुड़ी-मुड़ी बनकर बैठने से मैं उकता गया. अगर मैं गुड़ी-मुड़ी नहीं बना होता, तो तू मुझे ढूंढ़ ही नहीं सकता था. मैं फिर से छुपूँगा.”
 “नहीं अब छुपने की बारी मेरी है,” स्लाविक ने कहा.
 “तो, फिर मैं बिल्कुल नहीं खेलूँगा!” वीत्या बुरा मान गया.
 “ठीक है, फिर से छुप जा, तू ऐसा ही है,” स्लाविक मान गया.
वीत्या कमरे में भागा, उसने दरवाज़ा बन्द किया, और ख़ुद हैंगर्स के पास जाकर ओवरकोट के नीचे छुप गया. स्लाविक फिर से उसे ढूंढ़ने लगा. उसने दरवाज़ खोला, मगर बोबिक भीतर घुस गया, सीधा हैंगर्स के पास भागा और वीत्या से प्यार जताने लगा. वीत्या गुस्सा हो गया और वो बोबिक को पैर से धकेलने लगा. स्लाविक ने देख लिया और वो चिल्लाया:
 “आह, ये रहा तू! हैंगर्स के पीछे! बाहर निकल!”
 वीत्या बाहर निकला और कहने लगा:
 “ये सही नहीं है! तूने मुझे नहीं ढूंढ़ा! बोबिक ने मुझे ढूंढ़ा है. मैं फिर से छुपूँगा.”
 “ये क्या हो रहा है?” स्लाविक ने कहा. “तू हर बार छुपेगा और मैं हर बार तुझे ढूंढूंगा?”
 “बस, एक और बार मुझे ढूंढ़ ले, तब तू छुप जाना,” वीत्या ने कहा.
  स्लाविक ने फिर से आँखें भींच लीं, और वीत्या किचन में भागा, बर्तनों की अलमारी से सारे बर्तन निकाले, ख़ुद अलमारी में घुस गया और चिल्लाया:
 “रेडी!”
स्लाविक किचन में गया, देखा – अलमारी से सारे बर्तन निकले पड़े हैं, और वो फ़ौरन समझ गया, कि वीत्या कहाँ है.
वो दबे पाँव अलमारी के पास आया, उसे बन्द करके ताला लटका दिया, और ख़ुद कम्पाऊण्ड में भागा और बोबिक के साथ लुका-छिपी खेलने लगा. वो छुप जाता, और बोबिक उसे ढूंढ़ निकालता.
 “ये बढ़िया है!” स्लाविक ने सोचा. “वीत्या के मुक़ाबले बोबिक से खेलना कहीं ज़्यादा अच्छा है.”
और वीत्या अलमारी में बैठा है, बैठा है, बैठे-बैठे बोर हो गया. वो बाहर निकलना चाहता था, मगर दरवाज़ा ही नहीं खुल रहा था. वो डर गया और लगा चिल्लाने:
 “स्लाविक! स्लाविक!” स्लाविक ने सुन लिया और भागकर आया.
 “मुझे यहाँ से बाहर निकाल!” वीत्या चिल्लाया. न जाने क्यों दरवाज़ा ही नहीं खुल रहा है.”
 “तो फिर, तू मुझे ढूंढ़ेगा? तभी मैं तुझे बाहर निकालूँगा.”
 “मैं क्यों तुझे ढूंढ़ने लगा, जब तूने मुझे ढूँढ़ा ही नहीं.”
 “मैंने तो ढूंढ़ लिया था.”
 “ये तूने मुझे नहीं ढूंढ़ा! मैं ख़ुद ही चिल्लाया था. अगर मैं चिल्लाया न होता, तो तू मुझे ढूँढ़ नहीं सकता था!”
 “अच्छा, तो फिर बैठा रह अलमारी में, और मैं जा रहा हूँ घूमने,” स्लाविक ने जवाब दिया.
 “ऐसा करने का तुझे कोई हक़ नहीं है!” वीत्या चीख़ा. “ये दोस्तों वाली बात नहीं है!”
 “और, पूरे टाईम मुझे ही ढूंढ़ने पर मजबूर करना – क्या ये दोस्तों वाली बात है?”
 “दोस्तों वाली ही बात है.”
 “तो फिर शाम तक अलमारी में ही बैठा रह.”
 “ठीक है, अब मैं तुझे ढूंढूंगा, बस मुझे बाहर निकाल,” वीत्या मनाने लगा.
स्लाविक ने ताला हटाया. वीत्या अलमारी से बाहर आया, उसने ताला देखा और बोला:
 “ये तूने जानबूझ कर मुझे बन्द किया था? अब मैं तुझे नहीं ढूंढूंगा!”
 “ज़रूरत भी नहीं है,” स्लाविक ने कहा. “इससे अच्छा तो मैं बोबिक के साथ खेलूँगा.”
 “क्या बोबिक ढूंढ़ सकता है?
 “ओहो! तुझसे ज़्यादा अच्छा!”
“चल, फिर हम मिलकर बोबिक से छुप जाते हैं.”
वीत्या और स्लाविक कम्पाऊण्ड में गए और बोबिक से छुपने लगे. बोबिक को लुका-छिपी का खेल बहुत अच्छी तरह आता था, सिर्फ वो आँखें नहीं मींच सकता था.
                 

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रविवार, 10 अगस्त 2014

Tyoopaa...

त्यूपा पंछी क्यों नहीं पकड़ता
लेखक: येव्गेनी चारुशिन
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
त्यूपा ने देखा कि उससे कुछ ही दूरी पर चिड़िया बैठी है और गाने गा रही है – चिर-चिर कर रही है.
 “चिव-चिव!
चिव-चिव!”
 “त्युप-त्युप-त्युप -त्युप,” त्यूपा ने कहा. “लपक लूँगा! हिलगा लूँगा! पकड़ लूँगा! खेलूँगा!” और वो चिड़िया की ओर रेंगा.
मगर चिड़िया ने उसे फ़ौरन देख लिया – वो चिड़ियों की आवाज़ में चिल्लाई:
 “चिव!-चिव! डाकू आ रहा है रेंगते हुए! ये यहाँ छुपा है! यहाँ है वो!”
और फिर चारों ओर से चिड़ियाएँ उड़-उड़कर आने लगीं, कोई झाड़ियों पे बैठ गईं, कोई बिल्कुल त्यूपा के सामने रास्ते पे.
और लगीं वे त्यूपा पे चिल्लाने:
 “चिव-चिव!
 चिव-चिव!”
चिल्ला रही हैं, चहचहा रही हैं, कलरव कर रही हैं, मतलब, ज़रा भी सब्र नहीं है.
घबरा गया त्यूपा – ऐसी चीख-चिल्लाहट उसने आज तक नहीं सुनी थी – और वो वहाँ से फ़ौरन हट गया.
चिड़िया उसके पीछे बड़ी देर तक चिल्लाती रहीं.
शायद, वे एक दूसरे को बता रही थीं कि कैसे त्यूपा रेंगा – छुप गया, कैसे वह उन्हें पकड़कर खाना चाहता था. और वे, चिड़िया लोग, कैसी बहादुर हैं और कैसे उन्होंने त्यूपा को डरा दिया.
कोई भी नहीं था जिसे त्यूपा पकड़ सके. कोई भी उसके पंजों में नहीं आ रहा था. त्यूपा पेड़ पर रेंग गया, टहनियों के बीच में छुप गया और इधर उधर देखने लगा.
मगर शिकारी ने तो शिकार को देखा ही नहीं, उल्टे शिकार ने शिकारी को ढूँढ़ लिया.     
त्यूपा ने देखा कि वो अकेला नहीं है, कुछ पक्षी उसकी ओर देख रहे हैं, न तो वे छोटे-छोटे गाने वाले पंछी थे, न ही चिड़िया जैसे चिल्लाने वाले पंछी थे, मगर वो कुछ ऐसे थे, कि त्यूपा से थोड़े ही छोटे थे. शायद ये  ब्लैकबर्ड्स थे जो घोंसला बनाने के लिए जगह ढूँढ़ रहे थे, और उन्होंने एक अजीब से जानवर  – त्यूप्का को देखा.
त्यूपा ख़ुश हो गया.
 “मज़ेदार बात है! त्यूप-त्यूप-त्यूप-त्यूप-त्यूप! ये कौन हैं? त्यूप-त्यूप-त्यूप-त्यूप! पकड़ लूँगा! त्यूप-त्यूप-त्यूप-त्यूप! लपक लूँगा! त्यूप-त्यूप-त्यूप-त्यूप! हिलगा लूँगा! खेलूँगा!”
त्यूपा बस इतना ही नहीं जानता कि पहले किसे पकड़ना है.
एक ब्लैकबर्ड त्यूप्का के पीछे बैठा है, दूसरा त्यूप्का के सामने – ये यहाँ, बिल्कुल पास.
त्यूपा कभी इधर मुड़ता है, कभी उधर – त्युप-त्युपाता है. कभी एक को, तो कभी दूसरे को देखता है.
पीछे वाले की ओर से मुड़ा, मगर दूसरा, जो सामने था, त्यूप्का पर ऐसे झपटा, चोंच पे चोंच मारे जा रहा है!
त्यूपा ने फ़ौरन त्युपत्युपाना बन्द कर दिया.
वह समझ नहीं पा रहा है कि ये हो क्या रहा है.
उसका अपमान हुआ था! चोंचें मारी गई थीं!
त्यूपा झाड़ियों में कूद गया – और चल पड़ा, कहीं छुपने के लिए.
और अब अगर त्यूपा किसी पंछी को देखता है, तो उसकी ओर ज़रा भी ध्यान नहीं देता.
इसीलिए त्यूपा पंछी नहीं पकड़ता.

                                         *****

मंगलवार, 5 अगस्त 2014

Soorma

सूरमा
लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
जब लड़कों के ‘कोरस’ की रिहर्सल ख़तम हुई तो म्यूज़िक-टीचर बोरिस सेर्गेयेविच ने कहा:
 “अच्छा चलो, ये बताओ कि तुममें से किस-किसने मम्मा को आठ मार्च पर तोहफ़ा दिया था? चल, डेनिस, तू बता.”
 “मैंने आठ मार्च को मम्मा को सुईयाँ रखने का छोटा सा कुशन दिया. ख़ूबसूरत. मेंढ़क जैसा. तीन दिनों तक सीता रहा, सारी ऊँगलियाँ लहुलुहान हो गईं. मैंने ऐसे दो कुशन्स बनाए.”
मीश्का ने भी जोड़ा:
 “हम सबने दो-दो सिए. एक मम्मा के लिए, और दूसरा – रईसा ईवानोव्ना के लिए.”
 “ये सबने कुशन्स क्यों सिये?” बोरिस सेर्गेयेविच ने पूछा. “आपने क्या तय कर लिया था, कि सब लोग एक ही चीज़ बनाएँगे?”
 “ओह, नहीं,” वालेर्का ने कहा, “ये तो हमारे ‘कुशल-हाथ’ ग्रुप में है – हम आजकल कुशन्स बनाना सीख रहे हैं. पहले हमने छोटे-छोटे शैतान बनाए, और अब छोटे-छोटे कुशन्स की बारी है.”
 “ कैसे शैतान?” बोरिस सेर्गेयेविच चौंक गए.
मैंने कहा:
 “प्लास्टीसीन के. हमारे लीडर्स, आठवीं क्लास के वोलोद्या और तोल्या छह महीनों तक हमसे शैतान बनवाते रहे. जैसे ही आते, फ़ौरन कहते, “शैतान बनाओ!” तो, हम बनाते रहते, और वे शतरंज खेलते रहते.”
 “पागल हो जाऊँगा,” बोरिस सेर्गेयेविच ने कहा. “कुशन्स! इस बात पर गौर करना ही पड़ेगा! ठहरो!” और वो अचानक ठहाका मारकर हँस पड़े. “और तुम्हारी, पहली ‘बी’ क्लास में कितने लड़के हैं?”
 “पन्द्रह,” मीश्का ने कहा, “और लड़कियाँ – पच्चीस.”
अब तो बोरिस सेर्गेयेविच हँसते-हँसते लोट पोट हो गए.
मैंने कहा:
 “हमारे देश में औरतों की आबादी आदमियों के मुक़ाबले में ज़्यादा है.”
मगर बोरिस सेर्गेयेविच ने मेरी बात पर हाथ झटक दिया.
 “मैं उस बारे में नहीं कह रहा हूँ. मुझे तो ये देखने में बड़ा मज़ा आएगा कि रईसा ईवानोव्ना को कैसे पन्द्रह कुशन्स का तोहफ़ा मिलता है! अच्छा, ठीक है, सुनो: तुममें से कौन अपनी मम्मा को पहली मई की मुबारकबाद देने वाला है?”
अब हँसने की बारी हमारी थी. मैंने कहा:
 “बोरिस सेर्गेयेविच, आप शायद मज़ाक कर रहे हैं, बस, पहली मई की मुबारकबाद ही बाकी रह गई थी.”
“ बिल्कुल नहीं, यही तो गलत है, पहली मई की मुबारकबाद अपनी-अपनी मम्मा को देना ज़रूरी है. साल में सिर्फ एक बार मुबारकबाद देना -  ये बुरी बात है. और अगर हर त्यौहार मनाया जाए तो ये होगा सूरमाओं जैसा काम. कौन बताएगा कि सूरमा कौन होता है?”
मैंने कहा:
 “वो घोड़े पे होता है, फ़ौलादी ड्रेस में.”
बोरिस सेर्गेयेविच ने सिर हिलाया.
 “ हाँ, ऐसा बहुत पहले होता था. और तुम लोग भी, जब बड़े हो जाओगे, तो सूरमाओं के बारे में बहुत सारी किताबें पढ़ोगे, मगर आज भी, अगर किसी के बारे में कहते हैं कि वो सूरमा है, तो इसका मतलब है कि वो बड़े दिल वाला है, साहसी है और भला इन्सान है. और मैं समझता हूँ कि हर ‘पायनियर’ को ज़रूर सूरमा होना चाहिए. जो यहाँ सूरमा है, अपना हाथ उठाए?”
हम सब ने हाथ उठा दिए.
 “मुझे मालूम ही था,” बोरिस सेर्गेयेविच ने कहा, “जाओ, सूरमाओं!”
हम अपने-अपने घरों को चल पड़े. रास्ते में मीश्का ने कहा:
 “ठीक है, मैं मम्मा के लिए चॉकलेट खरीद लेता हूँ, मेरे पास पैसे हैं.”
मैं घर आ गया, मगर घर में कोई नहीं था. मैं निराश हो गया. अब, जब सूरमा बनना चाहता हूँ, तो पैसे ही नहीं हैं! तभी, जैसे जले पर नमक छिड़कने मीश्का भागते हुए आया, हाथों में ख़ूबसूरत डिब्बा था, जिस पर लिखा था : ‘पहली मई’.
मीश्का ने कहा:
”तैयार है, अब बाईस कोपेक में मैं सूरमा बन गया. और तू क्यों ऐसे बैठा है?”
 “मीश्का, तू सूरमा है ना?” मैंने कहा.
 “बिल्कुल, सूरमा हूँ,” मीश्का ने कहा.
 “तब मुझे पैसे उधार दे.”
मीश्का दुखी हो गया:
 “मैंने तो सारे पैसे खर्च कर दिए.”
 “तो, अब क्या किया जाए?”
”ढूँढ़ना पड़ेगा,” मीश्का ने कहा, “बीस कोपेक का सिक्का तो छोटा सा होता है, हो सकता है कि एकाध कहीं पड़ा मिल जाए, चल ढूँढ़ते हैं.”
और हमने पूरा कमरा छान मारा – दीवान के पीछे, अलमारी के नीचे, मैंने मम्मा के सारे जूते भी झटक के देख लिए, उसकी पावडर के डिब्बे में भी ऊँगली डालकर टटोल लिया. कहीं भी कुछ नहीं मिला.
अचानक मीश्का ने खाने के बर्तनों वाली अलमारी खोली:
 “रुक, ये क्या है?”
 “कहाँ?” मैंने पूछा. “आह, ये बोतलें हैं. तुझे, क्या दिखाई नहीं दे रहा है? यहाँ दो तरह की वाईन्स हैं: एक बोतल में – काली, और दूसरी में – पीली. ये मेहमानों के लिए है, हमारे यहाँ कल मेहमान आ रहे हैं.”
मीश्का ने कहा:
 “ऐख, अगर तुम्हारे मेहमान कल आ जाते तो तेरे पास पैसे होते.”
 “वो कैसे?”
 “बोतलें,” मीश्का ने कहा, “हाँ, ख़ाली बोतलों के बदले में पैसे देते हैं. नुक्कड़ पे. वहाँ लिखा है काँच का सामान लिया जाता है! ”      
 “तूने पहले क्यों नहीं बताया! अब हम ये काम कर डालेंगे. ला इधर, वो फलों के जूस का डिब्बा दे, वहाँ खिड़की में रखा है.”
मीश्का ने मेरी ओर डिब्बा बढ़ाया, और मैंने बोतल खोली और काली-लाल वाईन डिब्बे में उँडेल दी.
 “राईट,” मीश्का ने कहा. “उसे कुछ नहीं होगा?...”
 “बेशक, कुछ नहीं होगा,” मैंने कहा. “और दूसरी कहाँ डालूँ?”
 “वहीं,” मीश्का ने कहा, “क्या सब एक ही नहीं है? ये भी वाईन है, और वो भी वाईन है.”
 “हाँ, ठीक है,” मैंने कहा. “अगर एक वाईन होती, और दूसरा केरोसिन, तब ऐसा करना मना है, मगर इस हालत में, ये तो ज़्यादा अच्छा है. पकड़ डिब्बा.”
और हमने दूसरी बोतल भी उसी में उँडेल दी.
मैंने कहा:
 “इसे खिड़की में रख दे! ठीक है. प्लेट से ढाँक दे, और चल, अब भागते हैं!”
हम दुकान में गए. इन दो बोतलों के बदले हमें चौबीस कोपेक मिले. मैंने मम्मा के लिए चॉकलेट खरीदा. मुझे दो कोपेक वापस भी मिले. मैं ख़ुशी-ख़ुशी घर वापस आया, क्योंकि मैं सूरमा बन गया था, और, जैसे ही मम्मा और पापा घर लौटे, मैंने कहा:
“मम्मा, मैं सूरमा बन गया हूँ. बोरिस सेर्गेयेविच ने हमें सिखाया था!”
मम्मा ने कहा:
 “चल, पूरी बात बता!”
मैंने बताया कि कल मैं मम्मा को सरप्राइज़ देने वाला हूँ. मम्मा ने कहा:
 “मगर तुझे पैसे कहाँ से मिले?”
 “मम्मा मैंने काँच का ख़ाली सामान बेच दिया. ये दो कोपेक वापस भी मिले.”
अब पापा बोले:
 “शाबाश! ये दो कोपेक मुझे दे दे, टेलिफोन-बूथ के लिए!”
हम खाना खाने बैठे. फिर पापा कुर्सी की पीठ से टिक गए और मुस्कुराए:
 “फलों का जूस होता तो मज़ा आ जाता.”
 “माफ़ करना, आज मैं ला नहीं पाई,” मम्मा ने कहा.
मगर पापा मेरी ओर देखकर आँख मिचकाते हुए बोले:
 “और ये क्या है? मैं बहुत दिनों से देख रहा हूँ.”
और वो खिड़की की तरफ़ गए, प्लेट हटाई और सीधा डिब्बे से पीने लगे. मगर वहाँ क्या था! बेचारे पापा इस तरह खाँसने लगे, जैसे उन्होंने लौंगें पी ली हों. वो डरावनी आवाज़ में चिल्लाए:
 “ये क्या है? ये कैसा ज़हर है?!”
मैंने कहा:
 “पापा, घबराओ मत! ये ज़हर नहीं है. ये तुम्हारी दो वाईन्स हैं!”
पापा कुछ लड़खड़ा गए और उनका चेहरा बदरंग हो गया.
 “कौन सी दो वाईन्स?!” वो पहले से भी ज़्यादा ज़ोर से चिल्लाए.
 “काली और पीली,” मैंने कहा, “जो क्रॉकरी वाली अलमारी में थीं. पहली बात, तुम घबराओ मत.”
पापा क्रॉकरी वाली अलमारी के पास भागे और उसका दरवाज़ा खोल दिया. फिर वो आँखें झपकाने लगे और अपना सीना सहलाने लगे. उन्होंने मेरी तरफ़ इतने आश्चर्य से देखा जैसे मैं कोई साधारण बच्चा नहीं, बल्कि नीले रंग का हूँ या मेरे मुँह पर धब्बे हैं. मैंने कहा:
 “क्या पापा, तुम्हें आश्चर्य हो रहा है? मैंने तुम्हारी दोनों वाईन्स डिब्बे में उँडेल दीं, वर्ना मुझे ख़ाली बोतलें कहाँ से मिलतीं? ख़ुद ही सोचो!”
मम्मा चीख़ी, “ओय!”
और वो दीवान लुढ़क गई. वो हँसने लगी, मगर इतनी ज़ोर से कि मुझे लगा कि उसकी तबियत बिगड़ जाएगी. मैं कुछ भी नहीं समझ पा रहा था, मगर पापा चिल्लाए:
 “हँस रही हो? ठीक है, हँसो, हँसो! और हँसो! मगर तुम्हारा ये सूरमा मुझे पागल बना देगा, मैं अभी इसकी धुनाई करता हूँ, जिससे कि वो हमेशा के लिए अपने सूरमाई कारनामे भूल जाए.”
और पापा ऐसा दिखाने लगे, जैसे चाबुक ढूँढ़ रहे हों.
 “कहाँ है वो? ज़रा मेरे पास लाना इस आयवेंगो को! कहाँ ग़ायब हो गया?”
मैं अलमारी के पीछे था. मैं तो कब से वहाँ छुप गया था, न जाने कब क्या हो जाए. और पापा बड़े गुस्से में थे. वो चीख़ रहे थे:
 “कहीं ऐसा सुना है कि सन् 1954 की ब्लैक ‘मुस्कात’ को डिब्बे में उण्डॆल दो और उसमें झिगुली की बियर मिला दो?!”
मम्मा हँसते-हँसते बेहाल हो रही थी. उसने बड़े मुश्किल से कहा:
 “मगर ये उसने....अच्छे इरादे से...आख़िर, वो...सूरमा...मैं हँसी के मारे मर रही हूँ.”
और वो हँसती रही.
पापा कुछ देर और कमरे में घूमते रहे और फिर अचानक मम्मा की ओर बढ़े. उन्होंने कहा:
”तुम्हारी हँसी मुझे कितनी पसन्द है!”
और उन्होंने झुककर मम्मा को ‘किस’ कर लिया.
तब मैं आराम से अलमारी के पीछे से निकल आया.

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शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

Kalhans ki gardan

कलहँस की गर्दन
लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
जब हम लंच के लिए बैठे, तो मैंने कहा:
 “आज मैं बाहर जाने वाला हूँ. मीश्का के यहाँ. बर्थडे पार्टी पे.”
 “अच्छा?” पापा ने कहा. “वो कितने साल का हो गया?”
 “नौ,” मैंने जवाब दिया. वो नौ साल का पूरा हो गया है, पापा. अब दसवाँ शुरू हो गया.”
 “ वक़्त कैसे भागता है,” मम्मा ने गहरी साँस ली. “अभी परसों-परसों तक तो वह खिड़की की सिल पर मेज़ से निकाली हुई दराज़ में लेटा करता था, और अब देखिए, नौ साल का हो भी गया!”
 “तो फिर क्या,” पापा ने इजाज़त दे दी, “जाकर बर्थडे बॉय को मुबारकबाद दे देना. हाँ, ये तो बता कि इस यादगार दिन तू अपने दोस्त को क्या तोहफ़ा देगा?”
 “है, तोहफ़ा भी है,” मैंने कहा, “मीश्का बहुत ख़ुश हो जाएगा...”
 “क्या है वो तोहफ़ा?” मम्मा ने पूछा.
 “कलहँस की गर्दन!” मैंने कहा. “आज वेरा सेर्गेयेव्ना कलहँस साफ़ कर रही थी, और मैंने उनसे कलहँस की गर्दन मांग ली, जिससे मीश्का को गिफ्ट दे सकूँ.”
 “दिखा,” पापा ने कहा.
मैंने जेब से कलहँस की गर्दन निकाली. वो धुली हुई, साफ़-सुथरी थी, एकदम प्यारी लग रही थी, मगर वो अभी कुछ नम थी, पूरी तरह से सूखी नहीं थी, मगर मम्मा उछल पड़ी और चीख़ी:
 “इस गन्दी चीज़ को फ़ौरन यहाँ से ले जा! ओफ़, भयानक!”
मगर पापा ने कहा:
 “मगर इसकी क्या ज़रूरत है? और ये इतना चिपचिपी क्यों है?”       
 “अभी ये कच्ची है. मगर मैं ज़रूरत के मुताबिक इसे सुखा लूँगा और इसका एक गोल पहिया बना लूँगा. देख रहे हो? ऐसे.”
मैंने पापा को दिखाया. वो ग़ौर से देख रहे थे.
“देख रहे हो, पापा?” मैंने कहा. “ये पतली वाली गर्दन मैं चौड़ी वाली में डाल दूंगा, उसमें क़रीब पाँच चने डाल दूँगा, जब ये सूख जाएगा, तो मालूम है कैसी आवाज़ करेगा! फ़र्स्ट क्लास!”
पापा मुस्कुराए:
 “अच्छा है तोहफ़ा...मगर-मगर!”
और मैंने कहा:
 “परेशान न हो, पापा. मीश्का को पसन्द आएगा. मैं उसे अच्छी तरह जानता हूँ.”
मगर पापा उठे और हैंगर्स की ओर गए. वहाँ उन्होंने जेबों में हाथ डाले.
 “ये ले,” उन्होंने मेरी ओर कुछ सिक्के बढ़ाए, “ये थोड़े से पैसे ले. मीश्का के लिए चॉकलेट्स ख़रीद ले. और ये होगा मेरी तरफ़ से तोहफ़ा.” और पापा ने अपने कोट से एक ख़ूबसूरत नीला-नीला बैज निकाला जिस पर लिखा था ‘स्पूत्निक’.
मैंने कहा:
 “हुर्रे! मीश्का तो सातवें आसमान पे चढ़ जाएगा. उसके लिये तो मेरी ओर से पूरे तीन-तीन तोहफ़े होंगे. बैज, चॉकलेट्स और कलहँस की गर्दन. इससे तो हर कोई ख़ुश हो जाएगा!”
मैंने कलहँस की गर्दन सुखाने के लिए बैटरी के ऊपर रख दी. मम्मा ने कहा:
 “हाथ धो ले और खाना खा!”
और हम खाना खाने लगे, मैं खट्टा सूप खा रहा था और प्रसन्नता से हल्के-हल्के सी-सी रहा था. मगर अचानक मम्मा ने बे-बात के अपना चम्मच नीचे रख दिया और बोली:
“समझ में नहीं आ रहा है, कि इसे वहाँ भेजूँ या नहीं?”
लो, हो गया कल्याण! साफ़ आसमान में बिजली कड़की! मैंने कहा:
 “मगर क्यों?”
और पापा ने भी पूछा:
 “बात क्या है?”
 “ये वहाँ हमे नीचा दिखाएगा. इसे तो बिल्कुल ही खाना नहीं आता. सी-सी करता है, सुड़कता है, कुलबुलाता है...भयानक!”
 “कोई बात नहीं,” मैंने कहा, “मीश्का भी सी-सी करता है, मुझसे ज़्यादा.”
 “ये कोई बात नहीं हुई,” पापा ने भौंहे चढ़ा लीं. “सलीके से खाना चाहिए. क्या तुझे कम सिखाया है?”
 “मतलब, कम ही सिखाया है,” मम्मा ने कहा.
 “कुछ भी नहीं सिखाया,” मैंने कहा. “मैं जैसे दिल चाहता है, वैसे खाता हूँ. और सब ठीक-ठाक ही है.    इसमें सिखाने वाली बात क्या है?”
 “नियम जानना चाहिए,” पापा ने सख़्ती से कहा. “क्या तुझे मालूम है? नहीं. ये होते हैं खाए के नियम: जब खाना खा रहे हो तो चप्-चप् नहीं करते, मच्-मच् नहीं करते, सुड़-सुड़ नहीं करते, खाने पर फूँक नहीं मारते, ख़ुशी के मारे सी-सी नहीं करते और आम तौर से खाते समय किसी भी तरह की आवाज़ नहीं करते.”
 “मैं तो नहीं करता! क्या मैं आवाज़ निकालता हूँ?”
 “और, कभी भी खाने से पहले ब्रेड और राई की चटनी नहीं खाते!” मम्मा चहकी.
पापा बुरी तरह लाल हो गए. क्यों न होते! अभी कुछ ही दिन पहले उन्होंने खाने से पहले, क़रीब-क़रीब पूरी एक किलो ब्रेड राई की चटनी के साथ खा ली थी. जब मम्मा सूप लाई, तो पता चला कि ब्रेड ही नहीं है, पापा पूरी ब्रेड खा गए थे, और मुझे भागकर बेकरी से नई ब्रेड लानी पड़ी थी. इसीलिए अभी वो लाल हो गए थे, मगर वो चुप रहे. ऐसा लग रहा था कि मम्मा कह तो मुझसे रही है, मगर इससे पापा को अटपटा लग रहा है. और मुझे भी. मम्मा ने इतनी सुनाई, इतनी सुनाई, कि मैं तो डर ही गया. फिर कोई जिए कैसे? ये मत करो, वो मत करो!”
 “फ़ोर्क फर्श पर मत गिरा,” मम्मा ने कहा, “और अगर गिरा दिया है, तो चुपचाप बैठा रह, चारों हाथों-पैरों पर खड़ा होकर, मेज़ के नीचे उसे मत ढूँढ़ और आधा घण्टे तक वहीं मत रेंगता रह. मेज़ पर ऊँगलियों से बैण्ड न बजा, सीटी मत बजा, गाना मत गा! मेज़ पर ठहाके न लगा! मछली चाकू से न खा, ख़ास तौर से जब किसी और के घर में खा रहे हो.”
 “मगर, वो बिल्कुल मछली ही नहीं थी,” पापा ने कहा, और उनके चेहरे पर अपराधी भाव छा गए, “वो तो साधारण कैबेज-रोल्स थे.”
 “ये तो और भी ज़रूरी है,” मम्मा को ज़रा भी दया नहीं आ रही थी. “क्या बात है, कैबेज-रोल्स – चाकू से! न तो कैबेज-रोल्स और न ही फ्राईड-एग्स चाकू से खाते हैं! ये नियम है!”
मुझे बेहद आश्चर्य हुआ:
”मगर कैबेज-रोल्स बगैर चाकू के कैसे खा सकते हैं?”
मम्मा ने कहा:
 “वैसे ही जैसे कटलेट्स खाते हैं. फ़ोर्क से, और बस.”
 “फिर तो पूरे ही प्लेट में रह जाएँगे! फिर कैसे?”
मम्मा ने कहा:
 “रहते हैं तो रहने दो!”
 “अफ़सोस तो होगा!” मैंने विनती की. “हो सकता है, मैंने अभी पूरा नहीं खाया हो, और वहाँ बच गया है...ख़तम तो करना पड़ेगा ना!”
पापा ने कहा:
 “तो जो है, उसे पूरा खा ले!”
मैंने कहा:
 “फिर, थैंक्यू!”
फिर मुझे एक और ज़रूरी बात याद आ गई:
 “और शोरवा?”
मम्मा मेरी ओर मुड़ी.
 “क्या शोरवा?” उसने पूछा.
 “ चाटना चाहिए...” मैंने कहा.
मम्मा की भौंहे बिल्कुल उसके बालों तक उठ गईं. उसने मेज़ पर मुक्का मारा:
 “चाटने की हिम्मत न करना!”
मैं समझ गया कि अब अपने आपको बचाना चाहिए.
 “तुम भी क्या, मम्मा? मुझे मालूम है कि ज़बान से चाटना नहीं चाहिए! मैं क्या कोई कुत्ता हूँ! मैं, मम्मा, कभी भी नहीं चाटूँगा, ख़ासकर और लोगों के सामने. मैं तुमसे पूछ रहा हूँ: क्या ब्रेड से साफ़ किया जाए?”
 “नहीं,” मम्मा ने कहा.
 “मैं ऊँगलियों की बात थोड़े ही कर रहा हूँ! मैं ब्रेड की, ब्रेड-क्रम्प्स की बात कर रहा हूँ!”
 “भाग जा,” मम्मा चीखी, “तुझसे कह रही हूँ!”
और उसकी आँखें हरी-हरी हो गईं. जैसे गूज़-बेरी हो. मैं सोच रहा था : इसे, इस शोरवे को, न तो मैं चाटूँगा, ना ही ब्रेड से साफ़ करूँगा, अगर इससे मम्मा को इतना गुस्सा आता है तो मैं ऐसा नहीं करूँगा. मैंने कहा:
 “ठीक है, मम्मा. नहीं करूँगा. बचा रहने दो.”
 “वैसे,” पापा ने कहा, “मैं तुमसे एक बात पूछना चाहता हूँ...
 “पूछो,” मम्मा ने कहा, “तुम तो छोटे बच्चे से भी ज़्यादा ख़तरनाक हो.”
 “नहीं, सही में,” पापा कहते रहे, “हमारे यहाँ, जानती हो, कभी कभी पार्टियाँ होती हैं, कई तरह के आयोजन होते हैं... तो: अगर मैं वहाँ से कोई चीज़ उठा लूँ? जैसे कोई सेब, या संतरा....”
 “पागल मत बनो!” मम्मा ने कहा.
 “मगर क्यों?” पापा ने पूछा.
 “इसलिए कि आज तुमने एक सेब उठा लिया, और कल को तुम अपनी बगल वाली जेब में सलाद घुसा लोगे!”
 “हाँ,” पापा ने कहा और छत की ओर देखने लगे, “हाँ, कुछ लोग सोसाइटी के नियम  बड़ी अच्छी तरह से जानते हैं! बिल्कुल प्रोफ़ेसर! हम कहाँ! ...और, तेरा क्या ख़याल है, डेनिस्का – पापा ने मेरा कंधा पकड़कर अपनी ओर घुमाया, “ तेरा क्या ख़याल है,” उन्होंने आवाज़ भी ऊँची कर ली, “अगर तुम्हारे यहाँ मेहमान आए हैं और अचानक उनमें से एक जाना चाहता है...तू क्या सोचता है, क्या घर की मेज़बान को उसे दरवाज़े तक छोड़ने जाना चाहिए और उसके साथ कॉरीडोर में बीस मिनट तक खड़ा रहना चाहिए?”
मुझे मालूम नहीं था कि पापा को क्या जवाब दूँ. ज़ाहिर था कि उन्हें इसमें बेहद दिलचस्पी थी, क्योंकि उन्होंने मेरा कंधा बहुत कसके पकड़ा था, वो दर्द भी कर रहा था. मगर मैं नहीं जानता था कि उन्हें क्या जवाब दूँ. मगर, शायद, मम्मा को मालूम था, क्योंकि उसने कहा:
 “अगर मैं उसे छोड़ने गई, तो इसका मतलब ये है कि ऐसा करना ज़रूरी था. मेहमानों का जितना ज़्यादा ख़याल रखा जाए, उतना अच्छा होता है.”
अब पापा अचानक ठहाके लगाने लगे. जैसे कि पिस्सू वाले गाने में है:
 “हा-हा-हा-हा-हा! हा-हा-हा-हा-हा! और मेरा ख़याल है कि अगर ये उसे छोड़ने नहीं जाएगी, तो वो मर नहीं जाएगा! हा-हा-हा-हा-हा!”
पापा ने अचानक अपने बाल खड़े कर लिए और कमरे में इधर-उधर यूँ घूमने लगे, जैसे पिंजरे में बन्द शेर हो. उनकी आँखें पूरे समय बाहर निकलने को हो रही थीं. अब तो वो हिचकियाँ ले लेकर हँस रहे थे: “हा-हा! र्र र्र! हा-हा! र्र!” उनकी ओर देखते हुए मैं भी ठहाका मारकर हँस पड़ा:
 “बेशक, नहीं मरेगा! हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा!”
तभी एक आश्चर्यजनक बात हुई. मम्मा उठकर खड़ी हो गई, उन्होंने मेज़ से कप उठाया, कमरे के बीचोंबीच आईं और उस कप को फर्श पर दे मारा. कप के हज़ारों टुकड़े हो गए. मैंने कहा:
 “ये क्या है, मम्मा? तुमने ये क्यों किया?”
मगर पापा बोले:
 “कोई बात नहीं, कोई बात नहीं. ये खुशी के लिए होता है! चल, डेनिस्का, तैयार हो जा. जा अपने मीश्का के यहाँ, वर्ना देर हो जाएगी! जा और मछली चाकू से न खाना, परिवार को शर्मिन्दा न करना!”
मैंने अपनी गिफ्ट्स उठाईं और मीश्का के यहाँ गया. हमने वहाँ ख़ूब मस्ती की. हम दीवान पर इतना ऊँचे-ऊँचे उछलते रहे कि बस छत से भिड़ने वाले थे. इस उछलकूद से मीश्का लाल हो गया. अपने परिवार को मैंने शर्मिन्दा नहीं किया, क्योंकि वहाँ न तो लंच था, न डिनर, बल्कि लेमन जूस और मिठाईयाँ थीं. हमने सारी मिठाईयाँ खा लीं, सारी चॉकलेट्स ख़त्म कर दीं, चॉकलेट्स का वो डिब्बा भी खा गए, जो मैं मीश्का के लिए लाया था. वैसे मीश्का को कई तरह के तोहफ़े मिले: ट्रेन थी, किताबें थीं, कलर-बॉक्स थे. मीशा की मम्मा ने कहा:
 “ओह, कितने सारे तोहफ़े हैं मीशूक, तेरे पास! तुझे कौन सा तोहफ़ा सबसे ज़्यादा पसन्द आया?”
”ये क्या पूछने की बात हुई? बेशक, कलहँस की गर्दन!”
और वो ख़ुशी से लाल हो गया.
मुझे तो ये मालूम ही था.


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