बुधवार, 23 जून 2021

सुनहरे बालों वाला ततमबाय

 

 

सुनहरे बालों वाला ततमबाय

कज़ाक लोककथा

अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

 

पुराने ज़माने में एक ग़रीब आदमी रहता था. उसके नौ लड़के और एक लड़की थी. बड़े भाईयों में कोई ख़ास बात नहीं थी, मगर छोटे बेटे के बाल सुनहरे थे. उसका नाम था ततमबाय. उनके पास सिर्फ एक घोड़ी थी. वह हर साल बियाती थी, मगर हर बार आसमान से एक काला बादल नीचे उतरता और बछड़े को चुरा लेता. भाई बारी-बारी से पहरा देते, मगर कुछ भी नहीं कर सकते थे.

अब ततमबाय की बछड़े की रखवाली करने की बारी आई. वह घोड़ी के पीछे-पीछे स्तेपी में गया और इंतज़ार करने लगा कि कब काला बादल आता है. सुबह-सुबह ततमबाय ऊँघने लगा, मगर शोर से उसकी नींद खुल गई : आसमान से काला बादल उतर रहा था. ततमबाय ने इस बादल पर गोली चलाई. बादल थरथराया, और उसमें से कोई चीज़ ज़मीन पर गिरी. यह किसी औरत की उंगली थी. जब ततमबाय घर वापस आया, तो उसने देखा कि बहन की एक उंगली ग़ायब है. ततमबाय ने ऐसा दिखाया, जैसे उसने कुछ देखा ही नहीं है, मगर जब भाई आये, तो उसने उनसे कहा, कि उनकी बहन जादूगरनी है. भाईयों ने विश्वास नहीं किया और छोटे भाई को घर से बाहर निकाल दिया.

ततमबाय पड़ोस के ख़ान की खानत (सल्तनत) में चला गया और वहाँ चरवाहे की नौकरी करने लगा. हर बार जब वह रेवड़ को नदी की ओर पानी पिलाने ले जाता, तो वहाँ ख़ान की लड़कियाँ तैरती हुई दिखाई देतीं. ऐसा कई बार हुआ. छोटी लड़की ने सुनहरे बालों वाले चरवाहे को देखा और उसे उससे प्यार हो गया.          

बड़ी लड़कियों की अमीर और कुलीन लड़कों से शादियाँ हुईं. उनके बाप को उनके लिये काफ़ी दहेज़ मिला. छोटी लड़की ने अपने लिये चरवाहे को चुना, मगर बाप राज़ी नहीं हुआ. लड़की ने बाप की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ शादी कर ली और उसे बाप से कुछ भी नहीं मिला: जो पहने थी, उन्हीं कपडों में वह चल पड़ी.

ततमबाय बीबी के साथ रहने लगा, एक साल बीत गया, दूसरा भी बीत गया...खान अपने ग़रीब दामाद की शक्ल भी नहीं देखना चाहता. मगर एक बार खान बीमार पड़ा. मुल्क के हर कोने में जानकारों और जादूगरों के लिये आदमी भेजे गये. कई सारे लोग आये. दिन और रात वे जादू करते और बूझा करते, मगर कुछ भी न कर सके – खान की तबियत सुधर ही नहीं रही थी. आख़िरकार उनमें से एक ने खान से कहा कि अगर वह जंगली बकरी का मांस खाये तो अच्छा हो जायेगा. खान ने अपनी चहेती लड़कियों और उनके शौहरों को बुलाया और उनसे कहा कि वे उसके लिये जंगली बकरी का मांस लेकर आयें. दामाद शिकार पर निकल पड़े. ततमबाय ने भी उनके साथ जाने की इजाज़त मांगी, मगर खान ने उसकी हंसी उड़ाई. ततमबाय ने अपनी प्रार्थना दुहराई, और खान ने उसे घोड़ा दिया, मगर वह बेहद कमज़ोर था.

ततमबाय ने जल्दी ही कई बकरियाँ मार डालीं, मगर खान के दामादों ने एक भी नहीं मारी. उन्हें शर्म आ रही थी, और वे ततमबाय से विनती करने लगे कि वह बकरियाँ उन्हें दे दे. ततमबाय राज़ी हो गया, मगर एक शर्त पर : वह हर एक की कमीज़ के नीचे एक निशान बनायेगा. वे राज़ी हो गये.

शिकारी महल में लौटे. खान बहुत ख़ुश था. माँस पकाया गया और उसे खान को खिलाया गया. वह जल्दी ही अच्छा हो गया. प्यारे दामादों को इनाम दिये गये.

एक बार खान ने फिर अपने प्रिय दामादों को बुलाया और उनसे कहा:

“मेरी पाँच लड़कियाँ थीं, और सिर्फ तीन बची हैं, दो लड़कियों को भयानक राक्षस – द्याऊ - चुरा कर ले गये. मैं आपसे विनती करता हूँ कि उन्हें ढूँढ़ कर आज़ाद करो. इसके लिये आपको अपनी पूरी दौलत दूँगा.

खान के चहेते दामाद खान की विनती पूरी करने के लिये तैयार हो गये और द्याऊ को ढूँढ़ने निकल पड़े. ततमबाय भी उनसे पीछे न रहा. वे काफ़ी समय तक रेगिस्तानों में चलते रहे, थक गये और आराम करने लगे. ततमबाय ने इन कठिनाईयों को आसानी से झेल लिया, वह राह में रुका नहीं, और आगे चलता रहा.

ततमबाय जा रहा है और देखता है कि एक जगह पर पाँच सफ़ेद झोंपड़ियाँ खड़ी हैं. ततमबाय उनके नज़दीक गया और रुका. वह पहली झोंपड़ी में गया और देखा : एक औरत बैठी है. उसने ततमबाय से पूछा कि वह कौन है और कहाँ से आया है? ततमबाय ने उसे पूरी बात बताई. तब उस औरत ने कहा कि वह खान की बेटी है और उसकी बहन बगल वाली झोंपड़ी में रहती है. जल्दी ही द्याऊ लौटे और ततमबाय से युद्ध करने लगे. वे काफ़ी देर युद्ध करते रहे, आख़िरकार ततमबाय ने द्याऊ को मार डाला. बहनों ने अपने रक्षक को धन्यवाद दिया. इसके बाद वे ततमबाय के साथ चल पड़ीं बाप के पास.

वापसी के रास्ते में थके-हारे, भूखे खान के चहेते दामाद ततमबाय से मिले. ततमबाय ने उन्हें खाना खिलाया और उन्हें आराम करने के लिये बुलाया. वे राज़ी हो गये. मगर जब ततमबाय जागा, तो देखा कि खान के दामाद औरतों को लेकर आगे निकल चुके हैं, जिससे खान से वादा की हुई दौलत पा सकें.

खान ने अपना वादा पूरा किया. वह बेटियों के लौटने से बेहद ख़ुश था, उसने दावत दी, अपने दामादों को सारी दौलत दे दी. ततमबाय के बारे में दामादों ने कहा कि वह रास्ते में मर गया.

दावत चालीस दिनों तक चलती रही, और आख़िरी दिन ततमबाय आ पहुँचा. उसने खान को बताया कि कैसे उसने जंगली बकरियों को और द्याऊ को मारा था और उसके चहेतों ने कुछ भी नहीं किया था. खान को यकीन नहीं हुआ. तब ततमबाय ने उसके चहेतों को शेखीमार कहा और खान से विनती की कि वह उन्हें अपने कपड़े उतारने पर मजबूर करे और कमीज़ के नीचे बनाये गये निशान को देखे. खान ने ऐसा ही किया. और जब उसे ततमबाय की सच्चाई पर यकीन हो गया तो उसने धोखेबाज़ों को अपने से दूर भगा दिया और पूरी जायदाद ततमबाय को दे दी.     

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रविवार, 20 जून 2021

बदलाव के लिये

 

बदलाव के लिये

लेखिका: मरीना द्रुझीनिना

अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

 

पहली कक्षा में पढ़ने वाला स्तासिक पढ़ने में बहुत अच्छा था. मतलब, उसकी डायरी में सिर्फ “पाँच” ही होते थे. (पाँच का मतलब है – सर्वोत्तम; चार – बहुत अच्छा; तीन–अच्छा; दो – बुरा, एक - अनुत्तीर्ण –अनुवादक .) ये बेशक, निहायत बढ़िया बात थी. मगर एक दिन स्तासिक अपनी डायरी के पन्ने पलट रहा था और पलटते-पलटते बोरहोने लगा:

“हर पृष्ठ पर बस एक ही बात! कोई परिवर्तन नहीं! गोश्का ज़ग्लूश्किन को देखो, कौनसा नंबर नहीं है उसकी डायरी में! और मेरे तो बस, पाँच ही पाँच!”

और उसने हरे फ्लोमास्टरसे खाली जगह पर कई सारे “3” बना दिये.

“3” , साफ़-साफ़ कहें तो, बहुत आकर्षक तो नहीं नज़र आ रहे थे – वैसे वे किसे पसंद आ सकते हैं! – मगर अपने पन्ने जैसे चमकदार रंग से उन्होंने पृष्ठ में, बेशक, जान डाल दी थी.

स्तासिक खूब खिलखिलाया और उसने दिल खोलकर वहाँ नीले “4”. नारंगी “2”, कत्थई और गुलाबी “1” बना दिये.

डायरी का पृष्ठ शोख़ी से चमक रहा था, मानो लॉन में खिला हुआ कोई फूल हो. कितना ख़ूबसूरत! स्तासिक को जैसे उससे प्यार हो गया. और अचानक उसे गुस्से भरी आवाज़ सुनाई दी:

“ये तूने अपनी डायरी का क्या कर डाला?” स्तासिक के सामने पापा खड़े थे.

“ये, बस यूँ ही बदलाव के लिये,” स्तासिक ने समझाया.

“मतलब, ‘2’ नंबर वाला बनना चाहता है? और क्या तुझे मालूम है, कि “2” नंबर वालों को सज़ा दी जाती है?” पापा ने स्तासिक को कोने में खड़ा कर दिया और कठोरता से कहा – “ आज कोई मल्टी-फ़िल्म देखने को नहीं मिलेगी! बदलाव के लिये.”

समय बबल-गमकी तरह लम्बा खिंचता जा रहा था. स्तासिक ने सोचते हुए कोने का वॉल-पेपर खुरचा और गहरी सांस ली : “शायद हर बदलाव – अच्छा नहीं होता”. बीस मिनट बाद, जो ख़ुद ‘2 नंबर वालाबन बैठे को बीस घंटों जैसे प्रतीत हुए, पापा ने गंभीरता से पूछा:

“तो कोने में कैसा लग रहा है? हो सकता है, कि अब शायद तू गुण्डा बनना चाहता है, जो पुलिस में भर्ती हो गया है?” पापा ने डरावना चेहरा बनाया,  

“नहीं” स्तासिक मुस्कुराया. “मैं फिर से “5” वाला बढ़िया छात्र और तुम्हारा प्यारा बेटा बनना चाहता हूँ. बिना किसी बदलाव के!” और वह पापा की बाँहों में समा गया.                    

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मंगलवार, 8 जून 2021

Shararati Chooze

 

शरारती चूज़े

लेखक – मरीना द्रुझीनिना

अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

म्यूज़िक की क्लास में ग्लफ़ीरा पित्रोव्ना ने कठोरता से कहा:

“बच्चों! आज मैं तुम्हें नये गाने का डिक्टेशन देती हूँ. और आप अच्छी तरह उसे लिख लो, एक भी शब्द मत छोड़ना! तो, शुरू करें! “त्सिप, त्सिप, मेरे चूज़ों...”

इसी समय पेत्का रेद्किन ने व्लादिक गूसेव को गुदगुदी करने की ठान ली. व्लादिक चीखा और उछला. पेत्का खिलखिला रहा था.

“ये क्या कर रहे हो तुम लोग? बदतमीज़!” ग्लफ़ीरा पित्रोव्ना को गुस्सा आ गया. “अच्छी डाँट पिलाऊँगी!” और उसने डिक्टेशन जारी रखा. “त्सिप, त्सिप, मेरी व्हेलों, रूई के फ़ाहों...”

अब व्लादिक गूसेव ने रेद्किन से बदला लेने का फ़ैसला किया. और उसने भी गुदगुदी की. और अब पेत्का चीखा और उछला. ग्लफ़ीरा पित्रोव्ना को और ज़्यादा गुस्सा आया और वह चिल्लाई:

“बिल्कुल बेशरम हो गये हो! हाथ से निकल गये हो! अगर सुधरे नहीं, तो आपका कुछ भी अच्छा नहीं हो सकता! सिर्फ बदमाश और डाकू! अपने बर्ताव पर फ़ौरन ग़ौर करो!”

और वह चूज़ों के बारे में आगे लिखवाने लगी:

 और पेत्का रेद्किन अपने बर्ताव के बारे में सोचता रहा, सोचता रहा और उसने अपने आप को सुधारने का फ़ैसला किया. मतलब, उसने व्लादिक को गुदगुदी करना बंद कर दिया और सीधे उसकी नाक के नीचे से नोटबुक छीन ली. दोनों उस बेचारी नोटबुक को अपनी-अपनी तरफ़ खींचने लगे, और आख़िरकार वह फ़ट गई. और पेत्का और व्लादिक धडाम् से अपनी अपनी कुर्सियों से गिर गये.

अब तो ग्लफ़ीरा पित्रोव्ना के सब्र का बांध टूट गया.

“क्लास से बाहर जाओ!: वह भयानक आवाज़ में चिल्लाई. “और कल ही अपने माँ-बाप को लेकर आओ!”

पेत्का और व्लादिक आज्ञाकारिता से बाहर चले गये. ग्लफ़ीरा पित्रोव्ना को फिर किसी ने परेशान नहीं किया. मगर वह शांत नहीं हो पा रही थी और लगातार दुहरा रही थी:

“सज़ा दूँगी! सज़ा दूंगी शैतान बच्चों को! हमेशा याद रखेंगे!”

आख़िरकार हमने गाना लिख लिया, और ग्लफीरा पित्रोव्ना ने कहा;

“आज रूच्किन बहुत अच्छी तरह बर्ताव कर रहा है. और, शायद, उसने सारे शब्द लिख लिये हैं.”

उसने मेरी नोटबुक ली. और ज़ोर से पढ़ने लगी. और उसका चेहरा धीरे-धीरे लम्बा होने लगा, और आँखें गोल-गोल घूमने लगीं.

“त्सिप, त्सिप, मेरे चूज़ों. अच्छी डाँट पिलाऊँगी! त्सिप, त्सिप, मेरी व्हेलों! बेशरम, कैसा बर्ताव कर रहे हो? आप, रूई के फ़ाहों, बिल्कुल बेशरम हो गये हो! मेरी भावी मुर्गियों! तुम जैसे लोगों से निकलते हैं डाकू और बदमाश! पानी पीने आओ और अपने बर्ताव के बारे में सोचो! तुम्हें दाने दूँगी और पानी दूँगी, और कल ही अपने माँ-बाप को लेकर आना! ऊह, अच्छी सज़ा दूँगी इन शैतानों को! हमेशा याद रखेंगे!”

पूरी क्लास मुँह दबाये रही और फिर ठहाके फूट पड़े.  

मगर ग्लफ़ीरा पित्रोव्ना मुस्कुराई तक नहीं.

“तो..ओ..रूच्किन,” उसने खनखनाती आवाज़ में कहा: “और तू भी बिना माँ-बाप के स्कूल में मत आना. और आज की क्लास के लिये तुझे – दो नंबर. (दो नंबर का अर्थ है – अनुत्तीर्ण).

“...मगर दो नम्बर किसलिये? माँ-बाप को स्कूल में क्यों लाना? मैंने तो वही सब लिखा जो ग्लफ़ीरा पित्रोव्ना कह रही थी! एक भी शब्द नहीं छोडा था!”

 

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शनिवार, 5 जून 2021

Mera Dimaag Kya Sochataa hai

 

मेरा दिमाग़ किस बारे में सोचता है

लेखिका: इरीना पिववारवा

अनुवाद: आ. चारुमति रामदास  

 

अगर आप सोचते हैं कि मैं पढ़ाई में अच्छी हूँ, तो आप गलत हैं. मैं ठीक-ठाक पढ़ती हूँ. क्यों कि सब समझते हैं कि मैं होशियार हूँ, मगर आलसी हूँ. मुझे पता नहीं कि मैं होशियार हूँ या नहीं हूँ. मगर यह बात मुझे अच्छी तरह मालूम है कि मैं आलसी नहीं हूँ. मैं तीन घंटे तक होम-वर्क करती हूँ. जैसे, मिसाल के तौर पर, अभी मैं बैठी हूँ और अपनी पूरी सामर्थ्य से सवाल हल करना चाहती हूँ. मगर वह हो ही नहीं रहा है. मैं मम्मा से कहती हूँ:

“मम्मा, मुझसे ये सवाल हल नहीं हो रहा है.”

“आलसीपन मत कर,” मम्मा कहती है. “अच्छी तरह से सोच, और सब ठीक हो जायेगा. सिर्फ अच्छी तरह से सोचना!”

वह काम करने चली जाती है. और मैं अपना सिर दोनों हाथों में पकड़कर उससे कहती हूँ:

सोच, मेरे दिमाग़. अच्छी तरह सोच... “दो आदमी पॉइंट A से पॉइंट B की ओर पैदल चले...” मेरे दिमाग़, तू क्यों नहीं सोच रहा है? अरे, दिमाग़, अरे, सोच, प्लीज़! अरे, तेरा क्या जाता है!

खिड़की के बाहर छोटा सा बादल तैर रहा है. वह हल्का है, पंख की तरह. लो, वह रुक गया. नहीं, तैर रहा है आगे.

दिमाग़, तू क्या सोच रहा है? तुझे शरम नहीं आती!!!! “पॉइंट A से पॉइंट B की ओर दो आदमी पैदल चले” ल्यूस्का भी शायद बाहर आ गई है. वह घूम रही है. अगर वह पहले मेरे पास आती, तो मैं, बेशक, उसे माफ़ कर देती. मगर क्या वह मेरे पास आयेगी, इतनी चिपकू ?!

“पॉइंट A से पॉइंट B की ओर...” नहीं, वह नहीं आयेगी. बल्कि, जब मैं बाहर कम्पाऊण्ड में निकलूँगी, तो वह ल्येना का हाथ पकड़कर उसके साथ फुसफुसाने लगेगी. फिर वह कहेगी, “ल्येना, मेरे घर चल, मेरे पास कोई चीज़ है”. वे चली जायेंगी, फिर खिड़की की सिल पर बैठ जायेंगी और हँसती रहेंगी और बीज कुतरती रहेंगी.

“...पॉइंट A से पॉइंट B की ओर दो आदमी चले पैदल...” और, मैं क्या कर रही हूँ? और तब मैं कोल्या को, पेत्का को और पाव्लिक को बुलाऊँगी क्रिकेट खेलने के लिये. और वह क्या करेगी? आहा, वह रेकॉर्ड चलायेगी “तीन मोटे”. और इतनी ज़ोर से कि कोल्या, पेत्का और पाव्लिक सुनेंगे और भागकर उसके पास जायेंगे, कहेंगे कि वह उन्हें भी सुनने दे. सौ बार सुन चुके हैं फिर भी उनका दिल नहीं भरता! और तब ल्यूस्का खिड़की बंद कर लेगी, और वे सब वहाँ रेकॉर्ड सुनेंगे.

 “...पॉइंट A से पॉइंट...पॉइंट...” और तब मैं सीधे उसकी खिड़की पर कुछ मारूँगी. काँच – झन्! – और उड़ जायेगा. वो भी जान ले!

तो. मैं सोचते-सोचते थक गई हूँ. सोचो या न सोचो – सवाल तो होने वाला नहीं है. ओह, कितना ख़तरनाक सवाल है! चलो, थोड़ी देर घूम लेती हूँ और फिर सोचूँगी.

मैंने अपनी नोटबुक बंद की और खिड़की से बाहर देखा. कम्पाऊण्ड में अकेली ल्यूस्का घूम रही थी. वह लंगडीखेल रही थी. मैं कम्पाऊण्ड में आई और बेंच पर बैठ गई. ल्यूस्का ने मेरी तरफ़ देखा भी नहीं.

“सिर्योझ्का! वीत्का!” अचानक ल्यूस्का चिल्लाई – चलो, क्रिकेट खेलेंगे!”

कर्मानव भाईयों ने खिड़की से झाँककर देखा.

“हमारा गला ख़राब है,” दोनों भाईयों ने भर्राये गले से कहा. “हमें बाहर निकलने की इजाज़त नहीं है.”

“ल्येना!” ल्यूस्का चिल्लाई. “ल्येना! बाहर आ!”

ल्येना के बदले उसकी दादी ने बाहर देखा और ल्यूस्का को ऊँगली से धमकाया.

“पाव्लिक!” ल्यूस्का चिल्लाई.

खिड़की में कोई भी नहीं आया.

“पे-ए-ए-त्का!” ल्यूस्का और ज़ोर से चीख़ी.

“बच्ची, अरे, तू क्यों इतना चिल्ला रही है?!” छोटी सी खिड़की से किसी का सिर झांका. “बीमार इन्सान को आराम भी नहीं करने देते! चैन नहीं है!” और सिर वापस खिड़की में छुप गया.

ल्यूस्या ने तिरछी नज़र से मेरी ओर देखा और केंकड़े की तरह लाल हो गई. उसने अपनी चोटी खींची. फिर अपनी आस्तीन से धागा निकाला. फिर पेड़ की तरफ़ देखा और बोली:

“ल्यूसा, चल लंगड़ी खेलते हैं”.

“चल!” मैंने कहा.

हम कुछ देर लंगड़ी खेले और मैं घर चली आई अपना सवाल हल करने. जैसे ही मैं मेज़ पर बैटःई, मम्मा आ गई.

“तो, सवाल हल हो गया?”

“नहीं हो रहा है.”

“तू दो घंटे से उस पर अटकी बैठी है! ये सब क्या है! ख़तरनाक! बच्चों को इतने मुश्किल सवाल दे देते हैं! अच्छा, चल, दिखा अपना सवाल! शायद, मैं कर दूँ? मैंने भी इन्स्टीट्यूट ख़त्म की है... तो... “...पॉइंट A से पॉइंट B की ओर दो आदमी चले पैदल...” रुक, रुक, ये सवाल तो मेरी पहचान का है! सुन! तूने ही तो पिछली बार पापा के साथ मिलकर उसे हल किया था! मुझे अच्छी तरह याद है!”

“क्या?” मुझे अचरज हुआ – सच में?...ओय, सही में, ये पैंतालीसवाँ सवाल है, और हमें छियालीसवाँ दिया है.”

अब मम्मा को बेहद गुस्सा आ गया.

“ये बेहद बुरी बात है!” मम्मा ने कहा. – “अनसुनी बात है! ये बदतमीज़ी है! तेरा दिमाग़ कहाँ है?! वह किस बारे में सोचता है?!”

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