बदलाव के लिये
लेखिका: मरीना द्रुझीनिना
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
पहली कक्षा में पढ़ने वाला
स्तासिक पढ़ने में बहुत अच्छा था. मतलब, उसकी डायरी में सिर्फ “पाँच” ही
होते थे. (पाँच का मतलब है – सर्वोत्तम; चार –
बहुत अच्छा; तीन–अच्छा; दो – बुरा,
एक - अनुत्तीर्ण –अनुवादक .) ये बेशक,
निहायत बढ़िया बात थी. मगर एक दिन स्तासिक अपनी डायरी के पन्ने पलट
रहा था और पलटते-पलटते ‘बोर’ होने लगा:
“हर पृष्ठ पर बस एक ही
बात! कोई परिवर्तन नहीं! गोश्का ज़ग्लूश्किन को देखो, कौनसा नंबर नहीं है उसकी डायरी
में! और मेरे तो बस, पाँच ही पाँच!”
और उसने हरे ‘फ्लोमास्टर’से खाली जगह पर कई सारे “3” बना दिये.
“3” , साफ़-साफ़ कहें
तो, बहुत आकर्षक तो नहीं नज़र आ रहे थे – वैसे वे किसे पसंद आ
सकते हैं! – मगर अपने पन्ने जैसे चमकदार रंग से उन्होंने पृष्ठ में, बेशक, जान डाल दी थी.
स्तासिक खूब खिलखिलाया और उसने
दिल खोलकर वहाँ नीले “4”. नारंगी “2”, कत्थई और गुलाबी “1” बना दिये.
डायरी का पृष्ठ शोख़ी से चमक
रहा था, मानो लॉन में खिला हुआ कोई फूल हो. कितना ख़ूबसूरत! स्तासिक को जैसे उससे प्यार
हो गया. और अचानक उसे गुस्से भरी आवाज़ सुनाई दी:
“ये तूने अपनी डायरी का क्या
कर डाला?” स्तासिक के सामने पापा खड़े थे.
“ये, बस यूँ ही
बदलाव के लिये,” स्तासिक ने समझाया.
“मतलब, ‘2’ नंबर वाला
बनना चाहता है? और क्या तुझे मालूम है, कि “2” नंबर वालों को सज़ा दी जाती है?” पापा ने स्तासिक
को कोने में खड़ा कर दिया और कठोरता से कहा – “ आज कोई मल्टी-फ़िल्म देखने को नहीं मिलेगी!
बदलाव के लिये.”
समय ‘बबल-गम’
की तरह लम्बा खिंचता जा रहा था. स्तासिक ने सोचते हुए कोने का वॉल-पेपर
खुरचा और गहरी सांस ली : “शायद हर बदलाव – अच्छा नहीं होता”. बीस मिनट बाद,
जो ख़ुद ‘2 नंबर वाला’ बन
बैठे को बीस घंटों जैसे प्रतीत हुए, पापा ने गंभीरता से पूछा:
“तो कोने में कैसा लग रहा है? हो सकता है,
कि अब शायद तू गुण्डा बनना चाहता है, जो पुलिस
में भर्ती हो गया है?” पापा ने डरावना चेहरा बनाया,
“नहीं” स्तासिक मुस्कुराया.
“मैं फिर से “5” वाला बढ़िया छात्र और तुम्हारा प्यारा बेटा बनना चाहता हूँ. बिना किसी
बदलाव के!” और वह पापा की बाँहों में समा गया.
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