मंगलवार, 21 दिसंबर 2021

Easier to speak Truth

 ज़्यादा आसान क्या है?  

 लेखिका: वलेन्तीना असेयेवा

अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

        

तीन लड़के घूमते हुए जंगल में गए. जंगल में थे मश्रूम्स, बेरीज़, पंछी. लड़के देर तक घूमते रहे. उन्हें पता ही नहीं चला कि कब दिन गुज़र गया. घर की ओर जा रहें – डर रहे हैं:

“घर पे हमें डांट पड़ेगी!”

वे रास्ते में रुक गये और सोचने लगे कि क्या ज़्यादा अच्छा रहेहा – झूठ बोलना या सच बता देना?

“मैं कहूँगा,” पहले लड़के ने कहा, “कि जंगल में मुझ पर भेड़िये ने हमला कर दिया. बाप डर जायेगा और नहीं डाँटेगा,”

“मैं कहूँगा,” दूसरा बोला, “कि दद्दू मिल गये थे. माँ ख़ुश हो जायेगी और मुझे नहीं डाँटेगी.”

“मगर मैं तो सच बात कहूँगा,” तीसरे ने कहा, “सच बोलना हमेशा ज़्यादा आसान होता है, क्योंकि वह सच होता है, और कुछ भी सोचने की ज़रूरत नहीं होती.”

वे अपने-अपने घर चले गये. मगर जैसे ही पहले लड़के ने बाप को भेड़िये के बारे में बताया – देखा कि जंगल का चौकीदार आ रहा है.

उसने कहा कि इस जगह पर भेड़िये हैं ही नहीं.

बाप गुस्सा हुआ. पहली गलती पर तो गुस्सा हुआ मगर झूठ बोलने के लिये – उससे भी दुगुना.

दूसरे लड़के ने दद्दू के बारे में बताया. मगर दद्दू तो वहीं है – उन्हीं से मिलने आ रहे हैं,

माँ को सच का पता चल गया. पहली गलती के लिये गुस्सा हुई, मगर झूठ बोलने के लिये – उससे भी दुगुना.

और तीसरे लड़का जैसे ही घर पहुँचा, उसने देहलीज़ पर ही अपनी गलती स्वीकार कर ली. चाची उस पर थोड़ा-सा गुर्राई और उसे माफ़ कर दिया.

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2021

The Stolen Food

 

चुराए हुए खाने से पेट नहीं भरता

(बेलारूसी परीकथा)

अनुवाद : आ. चारुमति रामदास 

 

एक आदमी के दो बेटे थे. जब वे बड़े हो गये, तो बाप ने उनसे कहा:

“मेरे बेटों, अब सचमुच का काम करने का समय आ गया है. तुममें से कौन क्या करना चाहता है?”

बेटे ख़ामोश रहे, उन्हें पता नहीं है कि कौनसा काम चुनें.

“ठीक है, चलो,” बाप ने कहा, “दुनिया घूमेंगे और देखेंगे कि लोग क्या-क्या काम करते हैं.”

उन्होंने तैयारी की और निकल पड़े. चल रहे थे, बेटे हर चीज़ को ग़ौर से देखते, सोचते, कि उन्हें अपने लिये कौनसा काम चुनना चाहिये.

वे एक गाँव के पास पहुँचे. देखते हैं – चरागाह के पास एक लुहार की दुकान है.

वे लुहार की दुकान में गये. लुहार से दुआ-सलाम की, उससे बातें कीं. बड़े बेटे ने हाथों में हथौड़ा भी लिया – लुहार को हल की नोक बनाने में मदद की. फ़िर आगे बढ़े.

दूसरे गाँव के पास पहुँचे. बड़े बेटे ने इधर-उधर नज़र दौड़ाई: इस गाँव में कहीं लुहार की दुकान नहीं दिखाई दे रही है. वह बाप से बोला:

“यहाँ भी लुहार की दुकान क्यों न लगाई जाये? मैं लुहार बन जाता. मुझे यह काम अच्छा लग रहा है.”

बाप ख़ुश हो गया : सोचा, बड़े बेटे ने रोज़गार ढूँढ़ लिया है!”

ठीक है,” उसने कहा, “इस गाँव में लुहार का काम कर ले.”

उसने बेटे के लिये लुहार की दुकान खोल दी, वह लुहारगिरी के काम करने लगा. लोग उसके काम की तारीफ़ करते, और वह ख़ुद भी अपने काम से ख़ुश था.

मगर छोटा बेटा काफ़ी भटकने के बाद भी मनचाहा काम नहीं ढूँढ़ सका.

एक बार वह बाप के साथ चरागाह की बगल से गुज़र रहा था. देखा – चरागाह में एक बैल चर रहा है. और गाँव दूर है, और चरवाहा भी नज़र नहीं आ रहा है.

“अब्बू, क्या मैं बैलों को चुराने लगूँ?” बेटे ने कहा, “यह काम तो बहुत आसान है, और हर रोज़ माँस भी मिलता रहेगा. मैं ख़ुद भी बैल की तरह मोटा हो जाऊँगा.”

चुरा ले,” बाप ने कहा. “इसके बाद मैं तुम्हें ले जाऊँगा ताकि तू कोई पक्का काम चुन ले.”

बेटे ने बैल चुरा लिया और उसे घर की ओर हाँकने लगा. मगर बाप ने कहा:

“जंगल के पास मेरा इंतज़ार कर,” मुझे अभी इस गाँव में झाँकना है : यहाँ मेरा एक परिचित रहता है...”

बेटा बैल को हाँकते हुए ले जा रहा था, मगर पूरे समय भेड़िये की तरह कनखियों से देख लेता, कि कोई उसके पीछे तो नहीं आ रहा है. जब तक जंगल तक आया, पूरी तरह डरा हुआ था. डर के मारे जी मिचलाने लगा.

वह जंगल के किनारे बाप के लौटने का इंयज़ार करने लगा, और फ़िर वे मिलकर बैल को घर ले गये.

घर में बैल को काटा, उसकी खाल उतारी और माँस पकाने लगे. पका लिया, और बाप बेटे से बोला:

“चल, बेटा, पहले नाप लेते हैं और देखेंगे कि इस बैल से कौन कितना मोटा हुआ है.”

उसने जूते की लेस ली, अपनी और बेटे की नाप लेकर गाँठें लगा दीं.

मेज़ पर बैठे. बाप तो शांति से खा रहा था, मगर बेटा पूरे समय दरवाज़े की ओर देख रहा था : कहीं बैल को ढूँढ़ने के लिये कोई आ तो नहीं रहा है. कुत्ता भौंकता, झोंपड़ी के पास से कोई गुज़रता – बेटा माँस लेकर अलमारी में छुप जाता. और उसके हाथ-पैर हमेशा थरथराते रहते...इस तरह से दिन गुज़रते रहे.

आख़िरकार उन्होंने पूरा बैल खा लिया. बाप ने बेटे से कहा:  

“चल, अब गर्दन की नाप लेंगे : हममें से कौन मोटा हुआ है?”

नाप ली गई – बाप की गर्दन दुगुनी मोटी हो गई थी, मगर बेटे की आधी रह गई थी.

बेटे को बड़ा अचरज हुआ:

“ऐसा कैसे हुआ?”

इसलिये, कि तूने चुराए हुए बैल को खाया है,” बाप ने जवाब दिया.

“मगर तुमने भी तो चुराया हुआ ही खाया था!”

“नहीं, मैंने मालिक को बैल के लिये पैसे दिये और तभी उसे खाया, अपने माल की तरह. इसीलिये मैं मोटा हो गया. मगर तू मेज़ पर बैठता है – तुझे डर दबोच लेता है और तेरा गला घोंटने लगता है! इसीलिये वह दुबला हो रहा है. भाई मेरे, चुराये हुए खाने से संतोष नहीं होगा, पेट नहीं भरेगा!

 

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बुधवार, 8 दिसंबर 2021

Saving Nature

 

 

पर्यावरण-संरक्षण दिवस

लेखिका: इरीना पिववारवा

अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

“क्या नई ख़बर है?” कात्या ने कोस्त्या पाल्किन से पूछा, जब कोस्त्या पाल्किन हाथों में अख़बार पकड़े कम्पाऊण्ड में आया.

कोस्त्या हमेशा अख़बार लेकर ही कम्पाऊण्ड में निकलता था. कम उम्र का होने के बावजूद उसे अख़बार पढ़ना अच्छा लगता था.

और वह फ़ौरन कात्या और मान्या को उसका सारांश बताने लगा:

हाँ, ये, पर्यावरण की सुरक्षा के बारे में लिख रहे हैं,” कोस्त्या ने कहा. “आजकल सभी अच्छे आदमी पर्यावरण की रक्षा कर रहे है. और बुरे आदमी पर्यावरण को बिगाड़ रहे हैं. पेड़ काटते हैं, जंगलों की हिफ़ाज़त नहीं करते, नदियों को गंदा करते हैं. अगर ऐसा ही चलता रहा तो कोई पर्यावरण  बचेगा ही नहीं!”

“मगर हम पर्यावरण  की हिफ़ाज़त क्यों नहीं करते?” कात्या ने कहा. “चलो, हम भी पर्यावरण  की रक्षा करें!”

“चलो! चलो!” मानेच्का चिल्लाई. “हे, मैं पहला नम्बर!”

“मगर हम उसकी रक्षा कहाँ करेंगे?” कोस्त्या ने कहा. “क्या कम्पाऊण्ड में?”

“क्या हमारे कम्पाऊण्ड में पर्यावरण  नहीं है?” कात्या ने कहा. “कितना बढ़िया है! चलो, हमारे कम्पाऊण्ड में पर्यावरण-संरक्षण दिवस की घोषणा करें!”

उन्होंने फ़ैसला भी कर लिया. उनके कम्पाऊण्ड में पर्यावरण-संरक्षण दिवस की घोषणा करने का. वे कुछ जल्दी ही कम्पाऊण्ड में निकले और पहरा देने लगे कि कोई भी लॉन्स पर न भागे.

मगर कोई नहीं भागा.

उन्होंने यह भी देखा कि कोई पेड़ तो नहीं तोड़ रहा है.

मगर कोई भी पेड़ नहीं तोड़ रहा था.

“और हो सकता है, अचानक कोई क्यारी से फूल तोड़ने लगे?” कात्या ने कहा. “दोनों क्यारियों पर नज़र रखनी होगी.”

देखते रहे, देखते रहे...अचानक एक छोटा-सा कुत्ता क्यारी में कैसी उछल-कूद करने लगा! और फूलों को सूंघने लगा.

“छू-छू!” कात्या और मान्या हाथ हिलाने लगीं. “क्यारी से भाग जा!”

मगर कुत्ते ने उनकी ओर देखा, अपनी पूँछ हिलाई और लगा फ़िर से फूल सूंघने!

“मत सूंघ!” कात्या और मान्या चिल्ला रही थीं. “क्यारी से बाहर भाग! फूल तोड़ देगा!”

और कुत्ते ने उनकी तरफ़ देखा और कोई घास की पत्ती चबाने लगा.

“छि!” तू क्यों पर्यावरण  को बिगाड़ रहा है?” कात्या और मान्या चिल्ला रही थीं और क्यारी के चारों ओर भाग रही थीं, वे कुत्ते को भगाना चाहती थीं.

मगर कुत्ता क्यारी में ही खड़ा रहा और घास की दूसरी पत्ती भी चबाने लगा, वह कात्या और मानेच्का पर ज़रा भी ध्यान नहीं दे रहा था!

तब कात्या और मानेच्का से रहा नहीं गया और वे क्यारी में घुस गईं. मानेच्का कुत्ते को पकड़ना चाहती थी, मगर वह मुँह के बल गिरी. सीधे डहलिया पर, डहलिया के दो फूल तोड़ दिये. कुत्ता भाग गया, और खिड़की से वाचमैन – सीमा आण्टी चिल्लाई:

“ऐ, फ़िर से क्यारी में घुस गये! फ़िर से बदमाशी करने लगे?! मैं तुम्हें दिखाऊँगी, कैसे फूल तोड़ते हैं!”

तो, ऐसा रहा पर्यावरण-संरक्षण दिवस!

“कोई बात नहीं,” कोस्त्या पाल्किन ने कहा. “तुम लोग बुरा न मानो. जानवर भी पर्यावरण  का हिस्सा होते हैं. चलो, अपने कम्पाऊण्ड में प्राणियों की रक्षा करें.”

“चलो!” कात्या ख़ुश हो गई.

“चलो! चलो!” मानेच्का चिल्लाई. “चलो, अपने मीश्किन की रक्षा करें!”

“तुम्हारे मीश्किन को कोई नहीं सताता,” कोस्त्या ने कहा, “बल्कि हमें यह देखना होगा कि हमारे कम्पाऊण्ड में कोई प्राणियों के साथ बुरा बर्ताव तो नहीं कर रहा है?”

“मगर हम इस बात की जाँच कैसे करेंगे,” कात्या ने कहा.

“हर क्वार्टर में जाना होगा,” कोस्त्या ने कहा, “तुम लोग इस प्रवेश द्वार से जाओ. और मैं उस वाले से जाता हूँ. और अगर तुम देखो कि कोई प्राणियों को मार रहा है, या उन्हें खाना नहीं दे रहा है, या किसी और तरह से उनका अपमान कर रहा है, तो हम “पर्यावरण-मित्र” पत्रिका को ख़त लिखेंगे.”

“ठीक है,” कात्या ने कहा, “चल, मान्”.

और वे एक के बाद एक सभी क्वार्टर्स में घंटी बजाने लगीं, भीतर जाकर पूछने लगीं:

“प्लीज़, बताइये, क्या आपके यहाँ कोई पालतू-प्राणी हैं?”

“हैं,” पाँचवें क्वार्टर वालों ने कहा, “हमारे यहाँ कैनरी है, तो क्या?”

“और आप उसे ठीक से खिलाते तो हैं?” कात्या और मानेच्का ने पूछा.

“बेशक.”

“और आप उसे मारते तो नहीं हैं?”

“ये भी क्या बात हुई?! क्या कोई कैनरी को मारता है? सुनो इनकी बात!”

“क्या आप उसे घुमाने ले जाते हैं?”

“बेशक, हम उसे जंज़ीर बांध कर ले जाते हैं,” पाँचवें क्वार्टर के लोग हँसने लगे. “लड़कियों, लगता है कि तुम्हारे पास कोई काम नहीं है – तुम हर तरह के बेवकूफ़ी भरे सवाल पूछ रही हो!”

“ऐसी कोई बात नहीं है! हम सिर्फ प्राणियों की रक्षा कर रहे हैं! अगर आप अपनी कैनरी का अपमान करेंगे तो हम आपके बारे में “पर्यावरण-मित्र” पत्रिका में पत्र लिख देंगे!”

“तुम लोग तो पीछे ही पड़ गईं? हम कैनरी का अपमान करने के बारे में सोचते भी नहीं हैं! ये कहाँ से तुम लोग हमारे सिर पे चढ़ गईं!”

तेरह नंबर के क्वार्टर में एक बड़े लड़के ने दरवाज़ा खोला, जो देखने में पाँचवीं क्लास का लगता था. पता चला कि इस क्वार्टर में एक बिल्ली रहती है अपने बिलौटों के साथ.

“तू अपनी बिल्ली को ठीक से खिलाता तो है?” कात्या और मान्या ने उस पाँचवीं क्लास वाले से पूछा.

“तो क्या?”

“कैसे – क्या? पूछ रहे हैं कि तू अपनी बिल्ली को ठीक से खिलाता तो है?”

“आपसे मतलब?”

“बहुत बड़ा मतलब है! बिल्लियों को ठीक से खिलाना चाहिये, समझा? और बिलौटों को भी.”

“क्या वाकई में?” पाँचवीं क्लास वाले को अचरज हुआ. “मुझे तो पता ही नहीं था! बताने के लिये शुक्रिया!”

“ठीक है! और क्ता तू उन्हें मारता है?”

“किसे?”

“बिल्ली को और बिलौटों को.”

“मारता हूँ. डंडे से. सुबह-सुबह,” पाँचवीं क्लास वाले लड़के ने कहा और उसने कात्या और मानेच्का को दरवाज़े से बाहर धकेल दिया.

“बेवकूफ़,” मानेच्का ने कहा. ज़रा सोच, कैसा है वो! और ऊपर से चश्मा भी पहनता है.”

इकतीस नंबर के क्वार्टर में दरवाज़े के पीछे कुत्ता विलाप कर रहा था, मगर मालिकों ने दरवाज़ा नहीं खोला.

“घर में कोई नहीं है,” कात्या ने कहा. “बेचारा कुत्ता! शायद वह भूखा है! यहाँ फिर से आना पड़ेगा, उसे खिलाना पड़ेगा...”

चालीस नंबर के क्वार्टर में एक जर्मन-शेफ़र्ड रहता था. जब कात्या और और मानेच्का के लिये दरवाज़ा खुला, तो वह उछला और उन्हें सूंघने के लिये लपका.

“ऑय!” मानेच्का डर गई. “इसे हटाइये, प्लीज़, नहीं तो काट लेगा!”

“तुम्हें क्या चाहिये, बच्चियों?”

“कुछ नहीं, शुक्रिया, हमने गलती से घंटी बजा दी! अच्छा, ये बताइये, कि आप अपने कुत्ते का अपमान तो नहीं करते?”

“हम उसका अपमान क्यों करने लगे? वह बेहद होशियार है, दो मेडल्स जीते हैं उसने.”

“बहुत-बहुत शुक्रिया.”

“तो?” जब वे प्रवेश द्वारों से निकलकर कम्पाऊण्ड में मिले तो कोस्त्या पाल्किन ने पूछा. “किसी की सुरक्षा की?”        

“नहीं” कात्या और मानेच्का ने कहा. “दूसरे प्रवेश द्वार में जाना होगा.”

“और मैंने भी किसी की रक्षा नहीं की,” कोस्त्या ने कहा. “बात कुछ बनी नहीं...हो सकता है, कल थोड़ी सफ़लता मिले!”

का-आ-त्या! मा-आ-ने-च्का!” वेरोनिका व्लदिमीरव्ना ने खिड़की से पुकारा. “घर चलो!”

“कहाँ थीं तुम? मैं घंटे भर से चिल्ला रही हूँ!” जब बेटियाँ वापस आईं तो उसने गुस्से से कहा. “जैसे ही बाहर निकलती हो, तुम्हारा दिमाग़ ख़राब हो जाता है. अपनी ज़िम्मेदारियों के बारे में भी भूल जाती हो! सुबह से शाम तक घूमने को तैयार, और तुम्हारे हैम्स्टर्स बेचारे भूखे बैठे हैं. और उनका पिंजरा गंदा है! और मछलियों का पानी कितने दिनों से नहीं बदला है! और क्या मीश्किन के लिये रेत लाने फ़िर मैं ही भागूँ? तीन दिनों से तुमसे कह रही हूँ – मगर तुम लोग हो कि सुनती ही नहीं हो!!! क्या तुम लोगों को प्राणियों पर दया नहीं आती! कैसे बेदर्द बच्चे हैं!”

 

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शनिवार, 4 दिसंबर 2021

The Sparrow and Mouse

 

 

चिड़िया और चूहा

(बेलारूसी परीकथा)

अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

 

चिड़िया और चूहा अड़ोस-पड़ोस में रहते थे : चिड़िया एक बड़े घर की कंगनी के नीचे, और चूहा तहख़ाने में एक बिल में. मालिकों से जो भी मिलता उसीसे गुज़ारा करते. गर्मियों में तो किसी तरह काम चला लेते, खेत में या बाग में जाकर कुछ न कुछ चुन लेते. मगर सर्दियों में अगर तुम रोने भी लगो तब भी कुछ नहीं हो सकता था : चिड़िया के लिये मालिक पिंजरा लगा देता, और चूहे के लिये – चूहेदानी.

इस तरह की ज़िंदगी से वे बेज़ार हो गये, और उन्होंने सोचा कि एक क्यारी खोदकर गेंहू बोयेंगे.

बगल में ही एक क्यारी खोदी.

“तो, क्या बोयेंगे?” चिड़िया ने पूछा.

“वही, जो लोग बोते हैं,” चूहे ने जवाब दिया. उन्होंने दाने इकट्ठा किये और गेंहू बोये.

“तू क्या लेगी,” चूहे ने चिड़िया से पूछा, “जड़ या पौधा?”

“मैं ख़ुद ही नहीं जानती.”

“जड़ ले ले,” चूहे ने सलाह दी.

“ठीक है, चल, जड़ ही ले लूँगी.”

गर्मियाँ आईं. गेंहू पक गया. चूहे ने बालियाँ दबोच लीं, और चिड़िया के लिये डंडियाँ छोड़ दीं.

चूहा बालियों को अपने बिल में ले गया, उसे कूटा, कूटा, रोटियाँ बनाईं और सर्दियों में खाने लगा. बढ़िया चल रही थी ज़िंदगी, किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं थी.

और चिड़िया ने भूसा खाने की कोशिश की – बिल्क्ल बेस्वाद था.

बेचारी को कूड़े के गढ़े में, भूखे रहकर सर्दियाँ गुज़ारनी पड़ीं. 

बसंत का मौसम आया. चूहा बिल से बाहर आया, उसने चिड़िया को देखा और पूछा:

“कैसी बीतीं सर्दियाँ, प्यारी पड़ोसन?”

“बुरी,” चिड़िया ने कहा, “मुश्किल से ज़िंदा हूँ, हमारा गेंहू बिल्कुल बेस्वाद था.”

“चल, तो इन सर्दियों में गाजर बोयेंगे, वो मीठा होता है. सारे ख़रगोश उसे पसंद करते हैं.”

“चल, अगर झूठ नहीं कह रहा है, तो!” चिड़िया ख़ुशी से उछली.

उन्होंने नई क्यारी खोदी, गाजर बोया.

“तू क्या लेगी? जड़ या पौधा?”

“पौधा,” चिड़िया ने कहा, “जड़ लेने में डर लगता है : एक बार मैं गेहूँ के बारे में धोखा खा चुकी हूँ.”

“ठीक है, पौधा ले ले.”

गाजर का पौधा बड़ा हुआ. चिड़िया ने ऊपर की पत्तियाँ लीं, और चूहे ने – जड़ें. वह अपनी जड़ें बिल में ले गया और थोड़ा-थोड़ा करके खाने लगा.

और चिड़िया ने पौधा खाया, मगर वह तो गेहूँ के भूसे से ज़्यादा अच्छा नहीं था...

चिड़िया बुरा मान गई, पंख फ़ुलाकर बैठी और रोने-रोने को हो गई. इतने में एक कौआ उड़कर आया. उसने चिड़िया को देखा.

“मुँह फ़ुलाए क्यों बैठी है, चिड़िया?” उसने पूछा.

चिड़िया ने उसे बताया कि कैसे उसने और चूहे ने मिलकर गेहूँ और गाजर बोया था.

कौए ने उसकी बात सुनी और ठहाका लगाया:

“बेवकूफ़ है तू, चिड़िया! चूहे ने तुझे धोखा दिया...गेहूँ में सबसे स्वादिष्ट होती हैं ऊपर वाली बालियाँ, और गाजर में – जड़ें.”

चिड़िया को गुस्सा आ गया, फ़ुदकती हुई चूहे के पास आई.

“आह, तू, कमीने, आह, तू धोखेबाज़! मैं तुझसे लड़ाई करूँगी.”

“ठीक है,” चूहे ने कहा, “चल लड़ाई करते हैं!”

चिड़िया ने अपनी मदद के लिये ब्लैकबर्ड्स और मैंना को बुलाया, और चूहे ने – घूस और छछूंदरों को.

उन्होंने लड़ना शुरू किया. बड़ी देर तक लड़ते रहे, मगर कोई भी किसी को न हरा पाया.

चिड़िया को अपनी फ़ौज के साथ कूड़े के गढ़े की ओर पीछे हटना पड़ा.

कौए ने यह देखा:

“हा-हा, चिड़िया, तूने कमज़ोर मददगारों को चुना! तू समुद्री-बाज़ को बुलाती, वह फ़ौरन सारे चूहों और घूसों और छछूंदरों को निगल जाता.”

समुद्री-बाज़ आया और चूहे की पूरी फ़ौज को निगल गया. सिर्फ एक वही चूहा बचा, जिसने चिड़िया को धोखा दिया था, बच गया : वह अपने बिल में छुप गया था.

शाम हो गई. बाज़ सोने के लिये राई के खेत पर गया. वह एक पत्थर पर बैठा और गहरी नींद सो गया. और चिड़िया ख़ुशी से चहचहाती रही और कंगनी पर चढ़ गई.

इस बीच चालाक चूहा खेत पर चरवाहों के पास भागा, मशाल उठाई और राई के खेत में आग लगा दी, जहाँ बाज़ सो रहा था. लपटें सरसराईं, शोर मचाने लगीं – आग भड़क गई और उसने बाज़ के पंखों को जला दिया.

बाज़ जागा, मगर उसके पास तो अब पंख ही नहीं हैं...वह बहुत दुखी हुआ और पैदल ही समुंदर की ओर घिसटने लगा. रास्ते में एक शिकारी ने उसे देखा, और उसने बाज़ पर गोली चलाना चाहा, मगर बाज़ ने उससे कहा:

“ऐ भले आदमी, मुझे मत मार. बेहतर है कि तू मुझे अपने साथ ले चल: जब मेरे पंख फ़िर से आ जायेंगे, तो मैं इस एहसान का बदला ज़रूर चुकाऊँगा.”

शिकारी ने बाज़ को अपने साथ ले लिया. पूरा साल उसे खिलाता-पिलाता रहा, उसकी देखभाल करता रहा.

बाज़ कें पंख फ़िर से उग आये, वह शिकारी से बोला:

“और अब मुझे अपने साथ शिकार पर ले चल. मैं तेरे लिये पंछियों और ख़रगोशों को पकडूंगा.

तब से बाज़ हमेशा शिकारी की मदद करता है.

*****