रविवार, 30 जून 2013

Bachpan ka Dost

बचपन का दोस्त
लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

जब मैं छह या साढ़े छह साल का था, तो बिल्कुल नहीं जानता था कि इस दुनिया में मैं आख़िर क्या बनूँगा. मुझे अपने चारों ओर के सब लोग अच्छे लगते थे और सारे काम भी अच्छे लगते थे. तब मेरे दिमाग़ में बड़ी भयानक उलझन थी, मैं काफ़ी परेशान था और तय नहीं कर पा रहा था कि मुझे क्या करना चाहिए.
कभी मैं एस्ट्रोनॉमर बनने की सोचता, जिससे कि रात को सोना न पड़े और मैं रात भर टेलिस्कोप में दूर-दराज़ के तारे देख सकूँ; या फिर दूर की यात्रा करने वाले जहाज़ का कप्तान बनने का सपना देखता, जिससे कप्तान के ब्रिज पर पैर फैलाए खड़ा रहूँ और दूर-दूर वाले सिंगापुर की सैर कर सकूँ और वहाँ एक अच्छा–सा दिलचस्प बन्दर ख़रीद सकूँ. कभी-कभी मेरा दिल बुरी तरह चाहता कि मेट्रो-ड्राइवर या स्टेशन-मास्टर बन जाऊँ, लाल कैप पहनूँ और मोटी आवाज़ में चिल्लाऊँ:
 “रे-ए-डी!”
कभी मैं ऐसा आर्टिस्ट बनने का ख़्वाब देखता जो सड़क पर आने-जाने वाली मोटर गाड़ियों के लिए सफ़ेद पट्टे बनाता है. या फिर मुझे ऐसा लगता कि एलेन बोम्बार जैसा बहादुर यात्री बनना – छोटी-सी बोट पर सारे महासागर तैर जाना, वो भी सिर्फ मछली खाकर – ये भी बुरी बात नहीं है. ये सच है कि अपनी समुद्री यात्रा के बाद बोम्बार का वज़न पच्चीस किलो कम हो गया था, और मेरा तो कुल वज़न ही सिर्फ छब्बीस किलो है, तो इसका मतलब ये हुआ कि अगर मैं भी बोट में जाऊँ, उसकी तरह, तो मैं तो इतना दुबला हो ही नहीं सकता; सफ़र ख़तम होने पर मेरा वज़न रह जाएगा सिर्फ एक किलो. और, अगर अचानक,  मान लो कभी एकाध-दूसरी मछली भी न पकड़ पाऊँ और इससे भी ज़्यादा दुबला हो जाऊँ तो? तब तो मैं बस हवा में पिघल ही जाऊँगा धुँए की तरह, फिर तो बस हो गई छुट्टी.
जब मैंने इन सारी बातों पर गौर किया तो तय किया कि मैं ये जोख़िम नहीं उठाऊँगा; मगर दूसरे ही दिन मेरा दिल बॉक्सर बनने के लिए मचलने लगा, क्योंकि  मैंने टी.वी. पर बॉक्सिंग की यूरोपियन चैम्पियनशिप का ड्रा-मैच देखा. हा! कैसे वे एक दूसरे को धुन रहे थे – बहुत डरावना था! और फिर उनकी ट्रेनिंग कैसे होती है ये दिखाया गया, यहाँ वे मुक्के बरसाए जा रहे थे एक बड़ी भारी चमड़े की “नाशपाती” पर – ये ऐसी लम्बी, भारी-भरकम गेंद होती है; उस पर पूरी ताक़त से मुक्के बरसाए जा सकते हैं, उसका कचूमर बनाया जा सकता है, जिससे कि आपके भीतर इस मार का फोर्स बढ़ता जाए. मैं ये सब देखते-देखते इतना मगन हो गया, कि मैंने अपने कम्पाउण्ड में सबसे ज़्यादा ताक़तवर इन्सान बनने का फ़ैसला कर लिया, जिससे कि ज़रूरत पड़ने पर मैं सबको मार सकूँ.
मैंने पापा से कहा:
 “पापा, मेरे लिए नाशपाती ख़रीद दो.”
 “अभी जनवरी का महीना है, नाशपातियाँ नहीं मिलतीं. फ़िलहाल तुम गाजर खा लो.”
मैं हँसने लगा:
 “नहीं, पापा, वो वाली नहीं! खाने वाली नाशपाती नहीं! तुम, प्लीज़ मुझे ऑर्डिनरी वाली, चमड़े की,  बॉक्सरों वाली नाशपाती खरीद दो.”          
 “वो तुझे किसलिए चाहिए?” पापा ने कहा.
 “ट्रेनिंग के लिए,” मैंने कहा. “क्योंकि मैं बॉक्सर बनूँगा और सबको मारा करूँगा. खरीदोगे ना, हाँ?
 “कितने की आती है वो नाशपाती?” पापा ने दिलचस्पी से पूछा.
 “बहुत कम में,” मैंने कहा, “यही कोई दस या पचास रुबल की होगी.”
 “तू पागल हो गया है, मेरे भाई,” पापा ने कहा , “बिना नाशपाती के ही किसी तरह मैनेज करो. तुम्हें कुछ नहीं होगा.”
 और वो कपड़े पहन कर काम पे चले गए.
और मैं उनके ऊपर इसलिए गुस्सा  हो गया कि उन्होंने हँसकर मुझे टाल दिया. मगर मम्मी फ़ौरन ताड़ गईं कि मैं गुस्सा हो गया हूँ, वो फ़ौरन बोलीं:
 “ ठहर ज़रा, मेरे दिमाग़ में शायद कोई ख़याल आया है. क्या-है, क्या-है, सबर-कर एक मिनट.”
वह झुकी और दीवान के नीचे से एक बड़ी बुनी हुई बास्केट निकाली; उसमें पुराने खिलौने रखे हुए थे जिनसे मैं अब नहीं खेलता था. क्योंकि मैं अब बड़ा हो गया था और पतझड़ में मेरे लिए स्कूल यूनिफॉर्म और शानदार कैप खरीदी जाने वाली थी.
मम्मी बास्केट में कुछ ढूँढ़ने लगी, और, जब तक वह ढूँढ़ रही थी, मैंने अपनी पुरानी ट्रामगाड़ी देखी – बिना पहियों के, रस्सी से बँधी हुई, प्लैस्टिक की बाँसुरी देखी, धारियों वाला लट्टू देखा, एक तीर रेक्ज़ीन के टुकड़े में लिपटा हुआ; नाव के पाल का टुकड़ा, बहुत सारे झुनझुने, और भी बहुत कुछ टूटे-फूटे खिलौने देखे. और अचानक मम्मी ने बास्केट की तली से तन्दुरुस्त, मोटे-ताज़े, रोएँदार मीश्का (टैडी बेअर) को निकाला.
उसने उसे मेरी ओर दीवान पर फेंका और बोलीं:
 “ये देख. ये वही है जो तुझे मीला आंटी ने दिया था. तू तब दो साल का हुआ था. अच्छा मीश्का है, बढ़िया. देख, कैसा टाइट है! पेट कितना मोटा है! ओफ़, कितना खेलता था तू इससे! क्या ये नाशपाती जैसा नहीं है? उससे भी बढ़िया है! और खरीदने की भी ज़रूरत नहीं है! जी भर के इस पर प्रैक्टिस कर! शुरू हो जा!
मगर तभी उसे टेलिफोन सुनने कोरीडोर में जाना पड़ा.
मैं बहुत ख़ुश हो गया, कि मम्मी ने इतनी बढ़िया बात सोची. मैंने मीश्का को दीवान पर अच्छी तरह से बैठा दिया, जिससे मैं उस पर प्रैक्टिस कर सकूँ और मार की ताकत बढ़ा सकूँ.
वो मेरे सामने बैठा था - ऐसे बढ़िया चॉकलेट-कलर का, मगर उसका रंग काफ़ी उड़ चुका था; और उसकी आँखें भी अलग-अलग तरह की थीं: एक, जो उसकी ख़ुद की थी – पीली काँच की, और दूसरी बड़ी, सफ़ेद – तकिए के गिलाफ़ से बनी बटन की; मुझे तो ये भी याद नहीं कि वो कब आया था. मगर ये ज़रूरी नहीं था, क्यों कि मीश्का अपनी अलग-अलग तरह की आँखों से मेरी ओर इतनी ख़ुशी से देख रहा था, और उसने अपने पैर फ़ैलाए हुए थे, मुझसे मिलने के लिए अपने पेट को बाहर निकाल लिया था, और दोनों हाथ ऊपर उठा लिए थे, जैसे मज़ाक कर रहा हो कि वो पहले ही हार मान रहा है....
मैं उसकी ओर देखता रहा और अचानक मुझे याद आया कि कैसे मैं इस मीशा से एक मिनट को भी अलग नहीं होता था, हर जगह उसे अपने साथ घसीट कर ले जाता था, उसको गोद में खिलाता, उसके लाड करता, और खाना खाते समय उसे अपनी बगल में मेज़ पर बिठाता, उसे चम्मच से नूडल्स खिलाता, और जब मैं उसके चेहरे पर कुछ पोत देता - चाहे वही नूडल्स या पॉरिज हो - तो उसका चेहरा इतना मज़ेदार और प्यारा हो जाता, जैसे बिल्कुल ज़िन्दा हो! मैं उसे अपने साथ सुलाता, उसे अपनी गोद में झुलाता मानो वो मेरा छोटा भाई हो; उसके मखमली, मज़बूत कानों में कहानियाँ फुसफुसाता; तब मैं उसे प्यार करता था, अपनी पूरी आत्मा से प्यार करता था, उसके लिए उस समय मैं अपनी जान भी दे देता. और इस समय वो बैठा है दीवान पर – मेरा पुराना, सबसे बढ़िया दोस्त, बचपन का सच्चा दोस्त. वो बैठा है, अपनी अलग-अलग तरह की आँखों से मुस्कुरा रहा है, और मैं हूँ कि उस पर मार की ताक़त आज़माना चाहता हूँ...
 “तू क्या,” मम्मी ने कहा, वह कॉरिडोर से वापस आ गई थी, “क्या हुआ है तुझे?”
मगर मैं नहीं जानता था कि मुझे क्या हुआ है, मैं बड़ी देर तक ख़ामोश रहा और फिर मैंने मुँह फेर लिया, जिससे कि वह मेरे होठों से और मेरी आवाज़ से कोई अन्दाज़ न लगा सकें कि मुझे क्या हुआ है, और मैंने झटके से सिर छत की ओर उठा दिया जिससे आँसू वापस लौट जाएँ, और फिर जब मैंने अपने आप पर थोड़ा काबू पा लिया तो मैंने कहा:
  “किस बारे में पूछ रही हो, मम्मी? मुझे कुछ भी नहीं हुआ...बस मैंने अपना इरादा बदल दिया है. बस, मैं कभी भी बॉक्सर नहीं बनूँगा.

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गुरुवार, 27 जून 2013

The Cat with Shoes

जूतों वाली बिल्ली
लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

“बच्चों! ”  रईसा इवानोव्ना ने कहा. “ तुम लोगों ने ये सेमेस्टर अच्छी तरह पूरा कर लिया है. मुबारक हो. अब तुम लोग आराम कर सकते हो. छुट्टियों में हम एंटरटेनमेन्ट शो और कार्निवाल का आयोजन करेंगे. हर कोई अपनी मनपसन्द फैन्सी ड्रेस पहनेगा, और सबसे बढ़िया फैन्सी ड्रेस को इनाम दिया जाएगा, तो तैयारी शुरू कर दो.” और रईसा इवानोव्ना ने अपनी कॉपियाँ उठाईं, हमसे बिदा ली और चली गई.
और जब हम घर जा रहे थे तो मीश्का ने कहा, “ मैं तो कार्निवाल में बौना बनूँगा. मेरे लिए कल रेनकोट और टोप खरीदा है. मैं बस चेहरे पर कोई मास्क लगा लूँगा, और बस, बौना तैयार ! तू क्या बनेगा?”
 “देखा जाएगा.”
और मैं इस बारे में भूल गया. क्योंकि घर पे मम्मी ने कहा कि वह दस दिन के लिए हेल्थ-रिसॉर्ट जा रही हैं और मैं अच्छी तरह से रहूँ और पापा का ख़याल रखूँ. और वह दूसरे दिन चली भी गईं, और मैं पापा के साथ बस पूरी तरह परेशान हो गया. कभी कुछ, तो कभी कुछ, और बाहर बर्फ भी गिर रही थी, मैं बस पूरे टाइम यही सोचता रहा कि मम्मी कब लौटेंगी. अपने कैलेण्डर में मैं तारीखों के ख़ानों पर क्रॉस लगाता रहा.
और अचानक मीश्का दौड़ता हुआ आया और दरवाज़े से ही चिल्लाया:
”तू आ रहा है या नहीं?”
मैंने पूछा :
 “कहाँ?”  
मीश्का चीख़ा :
 “क्या – कहाँ? स्कूल में! आज तो एंटरटेनमेन्ट शो है ना, सब लोग फैन्सी ड्रेस में होंगे! तू, क्या देख नहीं रहा है कि मैं बौना बन गया हूँ?”
सही है, वह टोप वाले लबादे में था.
मैंने कहा:
” मेरे पास कोई ड्रेस नहीं है! हमारे यहाँ मम्मी चली गई हैं.”
मीश्का ने कहा :
 “चल, ख़ुद ही कुछ सोचते हैं! क्या तुम्हारे घर में कोई अजीब सी चीज़ है? तू वो ही पहन लेना, वही ड्रेस हो जाएगी कार्निवाल के लिए.”
मैंने कहा,  “हमारे पास कुछ भी नहीं है. बस पापा की फिशिंग वाली ‘बाखिली’ हैं.”
‘बाखिली’- मतलब रबड़ के ऐसे SSS ऊँचे-ऊँचे जूते होते हैं. अगर बारिश या कीचड़ हो – तो सबसे पहले ज़रूरत होती है ‘बाखिली’ की. पैर ज़रा भी गन्दे नहीं होते, न गीले होते हैं.
मीश्का ने कहा:
“ अच्छा, पहन तो सही, देखेंगे, कैसे दिखता है!”
मैं अपने जूतों समेत पापा के ऊँचे वाले बूट्स में घुस गया. पता चला कि ‘बाखिली’ तो मेरी बगल तक पहुँच रहे थे. मैंने उन्हें पहन कर चलने की कोशिश की. कोई बात नहीं, बहुत मुश्किल हो रही थी. मगर वे ख़ूब चमक रहे थे. मीश्का को बहुत पसन्द आ गया. उसने पूछा :
“और हैट कौन सी है?”
मैं बोला:
 “ शायद, मम्मी को स्ट्रा-हैट होगी, जो धूप से बचाती है?”
”जल्दी ला!”
मैंने हैट ढूँढ़ी, उसे पहन लिया. पता चला कि वह काफ़ी बड़ी है, नाक तक आती है, मगर, फिर भी, उस पर फूल बने हैं.
मीश्का ने देखा और कहने लगा:
”ड्रेस अच्छी है. बस, मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि इसका मतलब क्या है?”
मैंने कहा:
 “शायद, इसका मतलब हो -  ज़हरीला कुकुरमुत्ता?”
मीश्का हँस पड़ा:
 “तू भी न, ज़हरीले कुकुरमुत्ते की टोपी पूरी लाल होती है! तेरी ड्रेस “बूढ़े मछुआरे ” से बहुत मिलती जुलती है!”
मैंने  मीश्का को झिड़क दिया: “क्या कहता है! ‘बूढ़ा मछुआरा’ !... और दाढ़ी कहाँ है?”
अब मीश्का सोचने लगा, और मैं कोरीडोर में निकल आया, और वहाँ खड़ी थी हमारी पड़ोसन वेरा सेर्गेयेव्ना. जब उसने मुझे देखा तो हाथ नचाते हुए कहने लगी:
 “ओय! बिल्कुल सचमुच की जूतों वाली बिल्ली!”
मैं फ़ौरन समझ गया कि मेरी ड्रेस का क्या मतलब है! मैं –“जूतों वाली बिल्ली” हूँ! बस, अफ़सोस की बात ये है कि मेरी पूँछ नहीं है! मैं पूछता हूँ:
 “”वेरा सेर्गेयेव्ना, क्या आपके पास पूँछ है?”
वेरा सेर्गेयेव्ना बोली:
 “क्या मैं शैतान जैसी दिखती हूँ?”
 “नहीं, बहुत नहीं,” मैंने कहा, “मगर बात ये नहीं है. अभी आपने कहा कि इस ड्रेस का मतलब है “जूतों वाली बिल्ली”, मगर बगैर पूँछ के बिल्ली कैसे हो सकती है? कोई-न- पूँछ तो चाहिए ही होगी ना ! वेरा सेर्गेयेव्ना, आप हेल्प करेंगी, प्लीज़?”     
तब वेरा सेगेयेव्ना ने कहा:
 एक मिनट...”
और उसने मुझे खूब गन्दी भूरी पूँछ लाकर दी जिस पर काले-काले धब्बे थे.
 “ये,” उसने कहा, “ पुरानी मफ़लर का टुकड़ा है. आजकल मैं इससे केरोसीन-स्टोव साफ़ करती हूँ, मगर, मेरा ख़याल है कि तुम्हारे काम के लिए ये बढ़िया है.”
मैंने कहा, “बहुत बहुत शुक्रिया” और पूँछ लेकर मीश्का के पास आया.
जैसे ही मीश्का ने उसे देखा, बोला:
”फ़ौरन सुई-धागा ला, मैं इसे तुझ पर सी देता हूँ. यह बड़ी लाजवाब पूँछ है.”
और मीश्का पीछे से मुझ पर पूँछ सीने लगा. वह बडी आसानी से सी रहा था, मगर फिर अचानक न जाने कै- -से मुझे सुई गड़ा दी!
मैं चिल्लाया:
 “आराम से, तू बहादुर टेलर-मास्टर! क्या तू समझ नहीं रहा है कि सीधे ज़िन्दा आदमी के ऊपर सी रह है? तू मुझे गड़ा रहा है!”
 “वो, मेरा अन्दाज़ थोड़ा गलत हो गया!” और उसने फिर सुई गड़ा दी!
 “मीश्का, ध्यान से कर, वर्ना मैं तेरी चटनी बना दूँगा!”
और वह बोला:
”मैं ज़िन्दगी में पहली बार तो सी रहा हूँ!”
और फिर – चुभा दी!...
मैं गला फ़ाड़ कर चीख़ा:
 “ क्या तू समझ नहीं रहा है कि इसके बाद मैं पूरी तरह अपाहिज हो जाऊँगा और बैठने के लायक भी नहीं रहूँगा?”
 मगर तभी मीश्का ने कहा: ”हुर्रे! हो गया! और क्या पूँछ है! हर बिल्ली की ऐसी नहीं होती!”
फिर मैंने काला रंग लिया और ब्रश से अपनी मूँछें बना लीं, दोनों तरफ तीन-तीन मूँछें – लम्बी-लम्बी, बिल्कुल कानों तक!  
  और हम स्कूल के लिए चल पड़े.
वहाँ इत्ते--- सारे लोग थे, और सभी फैन्सी ड्रेस में थे. बौने ही क़रीब पचास थे. और बहुत सारे बर्फ़ के ‘सफ़ेद’ फ़ाहे थे. ये ऐसी ड्रेस होती है जिसमें चारों ओर से ढेर सारी सफ़ेद झालर लगी होती है, और बीच में से छोटी-सी लड़की झाँकती है.
हम सब खुश हो रहे थे, डांस कर रहे थे.
मैं भी डान्स कर रहा था, मगर पूरे समय लड़खड़ा रहा था और बड़े-बड़े जूतों के कारण गिरने-गिरने को हो रहा था, और हैट भी, जैसे जानबूझ कर लगातार ठोढ़ी तक फिसल रही थी.
और फिर हमारी लीडर ल्यूस्या स्टेज पर आई और खनखनाती आवाज़ में बोली:
”जूतों वाली बिल्ली” से निवेदन है कि स्टेज पर आए और सबसे बेस्ट ड्रेस के लिए पहला इनाम ले.!”
और मैं स्टेज की ओर जाने लगा, मगर लास्ट वाली सीढ़ी पर लड़खड़ा गया और फिर गिरते-गिरते बचा. सब ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे, और ल्यूस्या ने मुझसे हाथ मिलाया और मुझे दो किताबें दीं: “अंकल स्त्योपा को” और “कहानियाँ-पहेलियाँ”. अब बोरिस सेर्गेयेविच ने एक  तेज़ धुन बजाना शुरू कर दिया और मैं स्टेज से नीचे उतरने लगा, और जब मैं उतर रहा था, तो फिर से लड़खड़ा गया और गिरते-गिरते बचा, सब लोग  फिर से हँस पड़े.
जब हम घर जा रहे थे तो मीश्का ने कहा:
” बेशक, बौने बहुत सारे थे, मगर तू एक ही था!”
 “हँ,” मैंने कहा, “ मगर सारे बौने अलग-अलग थे, और तू भी बड़ा मज़ेदार लग रहा था, इसलिए तुझे भी किताब मिलनी चाहिए. मेरी एक ले ले.”
मीश्का ने कहा:
 “कोई ज़रूरत नहीं है, तू कर क्या रहा है!”
मैंने पूछा:
 “कौन सी चाहिए?”
 “अंकल स्त्योपा”.
और मैंने उसे “अंकल स्त्योपा”  दे दी.
घर आकर मैंने अपनी भारी भरकम ‘बाखिली’ उतार दीं, कैलेण्डर के पास भागा, और आज की तारीख़ वाले ख़ाने पर क्रॉस बना दिया. फिर कल की तारीख पर भी क्रॉस बना दिया.
देखा – आह, मम्मी के लौटने में अभी तीन दिन बचे हैं!

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मंगलवार, 25 जून 2013

Ajeeb Ghatna


अजीब घटना

लेखक: डैनियल चार्म्स
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास


यक़ीन नहीं होता! कौन मुझे समझाएगा कि क्या हुआ है? आज तीसरा दिन है जब मैं दीवान पर लेटा हूँ और डर से काँप रहा हूँ. मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है.

ये इस तरह से हुआ.

मेरे कमरे में , दीवार पर, मेरे दोस्त कार्ल इवानोविच शूस्तेर्लिंग की तस्वीर टँगी है.

तीन दिन पहले , जब मैं अपना कमरा साफ़ कर रहा था, मैंने दीवार से तस्वीर उतारी, उसकी धूल झाड़ी  और उसे वापस टाँग दिया. फिर मैं पीछे हटा, जिससे दूर से ये देख सकूँ कि वह टेढ़ी तो नहीं लटक रही है. मगर जब मैंने देखा तो मेरे पैर ठण्डे पड़ गए, सिर के बाल खड़े हो गए. कार्ल इवानोविच शूस्तेर्लिंग के बदले मेरी ओर देख रहा था एक डरावना, दाढ़ी वाला बूढ़ा जिसने एक अजीब सी टोपी पहन रखी थी. मैं चीख़कर कमरे से बाहर भागा.

कार्ल इवानोविच शूस्तेर्लिंग एक ही मिनट में इस अजीब दाढ़ी वाले में कैसे बदल गया? कोई भी मुझे समझा नहीं सकता...

हो सकता है, आप मुझे बताएँगे कि मेरा प्यारा कार्ल इवानोविच कहाँ गायब हो गया?

.......

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सोमवार, 24 जून 2013

My Music Class - Ivan Kozlovsky...

इवान कोज़्लोव्स्की की शोहरत
लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

मेरी मार्कशीट में सारे ‘ए’ ग्रेड्स ही हैं. बस, सिर्फ शुद्धलेखन में ‘बी’ है. धब्बों की वजह से. समझ में नहीं आता कि क्या करूँ! मेरे पेन से हमेशा धब्बे गिरते ही रहते हैं. मैं स्याही में पेन की निब का बस सिरा ही डुबाता हूँ, मगर फिर भी धब्बे गिर ही जाते हैं. जैसे कोई अजूबा हों! एक बार तो मैंने पूरा पेज बिल्कुल साफ़-साफ़ लिखा, बड़ा प्यारा और अच्छा लग रहा था उसे देखना – अस्सल ‘ए’ ग्रेड वाला पेज था. सुबह उसे रईसा इवानोव्ना को दिखाया, वहाँ तो बिल्कुल बीचोंबीच धब्बा पड़ा था! वो कहाँ से आया? कल तो नहीं था! हो सकता है वह किसी और पेज से छनकर आ गया हो? मालूम नहीं...
 तो, वैसे मेरी हमेशा ‘ए’ ग्रेड ही आती है. बस, म्युज़िक में आया ‘सी’. वो ऐसे हुआ. हमारी म्युज़िक की क्लास थी. पहले तो हम सबने मिलकर कोरस गाया “नन्ही बेर्योज़्का खड़ी खेत में”. बहुत बढ़िया गाया, मगर बोरिस सेर्गेयेविच पूरे टाइम त्योरियाँ चढ़ाए चिल्लाए जा रहे थे:
 “मात्राएँ खींचो, दोस्तों, मात्राएँ खींचे!...”
तब हम मात्राएँ खींच-खींच कर गाने लगे, मगर बोरिस सेर्गेयेविच ने ताली बजाई और कहा:
 “बिल्कुल बिल्लियों की कॉन्सर्ट है! चलो, हर-एक-से अलग-अलग प्रैक्टिस करवाते हैं.”
इसका मतलब हुआ हर कोई अलग-अलग गाएगा.
 और बोरिस सेर्गेयेविच ने मीश्का को बुलाया.
मीश्का पियानो के पास गया और उसने फुसफुसाकर बोरिस सेर्गेयेविच से कुछ कहा.
तब बोरिस सेर्गेयेविच पियानो बजाने लगे, और मीश्का ने धीमी आवाज़ में गाना शुरू किया :
झिलमिल करती कड़ी बर्फ पर
गिरा बर्फ का नन्हा टुकड़ा...
बड़े मज़ाकिया तरीके से चीं-चीं कर रहा था मीश्का! बिल्कुल, जैसे हमारी बिल्ली का बच्चा मूर्ज़िक चिचियाता है. क्या कोई ऐसे गाता है! कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा है. मैं अपने आप को बिल्कुल रोक न सका और हँस पड़ा.
तब बोरिस सेर्गेयेविच ने मीश्का को ‘ए’ दिया और मेरी ओर देखा.
उन्होंने कहा:
 “तो-, ठहाका मास्टर, आओ!”
मैं लपक कर पियानो की ओर भागा.
 “ओके, तुम क्या गाओगे?” – बोरिस सेर्गेयेविच ने बड़ी शराफ़त से पूछा.
मैंने कहा:
 “गृह-युद्ध का गीत “ले चलो, बूदेन्नी, निडर हैं हम युद्ध में.”
बोरिस सेर्गेयेविच ने सिर को झटका दिया और बजाना शुरू किया, मगर मैंने उन्हें फ़ौरन रोक दिया :
”प्लीज़, ज़ोर-ज़ोर से बजाइए!” मैंने कहा.
बोरिस सेर्गेयेविच ने कहा:
 “तुम्हारी आवाज़ सुनाई नहीं देगी.”
मगर मैंने कहा:
”देगी. ऐसी भी क्या बात है!”
 बोरिस सेर्गेयेविच ने बजाना शुरू किया , और मैंने खूब गहरी साँस लेकर गाना शुरू किया:
साफ़ ऊँचे आसमान में
लहराता है झंडा लाल...
ये गाना मुझे बहुत अच्छा लगता है.
आँखों के सामने तैर जाता है नीला-नीला आसमान, गर्मी, घोड़ों की टापों की खटखट, उनकी ख़ूबसूरत बैंगनी आँखें, और आसमान में लहराता है लाल झंडा.
अब तो जोश से मैंने आँखें भी सिकोड़ लीं और पूरी ताक़त से चीख़ने लगा:
घोड़ों पर सरपट हम जाते
जहाँ दिखाई देता दुश्मन!
और सम्मोहित करते युद्ध में...

मैं बहुत अच्छा गा रहा था, दूसरी सड़क पर भी सुनाई दे रहा था.
तेज़ फिसलती हिम चट्टानों से! आगे जाते हम सरपट!...हुर्रे!...
लाल फ़ौज विजयी है हमेशा! हटो पीछे, ऐ दुश्मन! डालो हथियार!!!

मैंने हथेलियों से अपना पेट दबाया, गाना और भी ज़ोर से निकला, मैं बस गिरते-गिरते बचा:
हम घुस गए क्रीमिया में!
यहाँ मैं रुक गया, क्योंकि मैं पसीने से तरबतर हो गया था और मेरे घुटने भी काँप रहे थे.
और बोरिस सेर्गेयेविच हालाँकि बजा रहे थे, मगर पियानो पर दुहरे हुए जा रहे थे, और उनके भी कन्धे थरथरा रहे थे...
मैंने कहा:
 “तो, कैसा लगा?”
 “ग़ज़ब का!’ – बोरिस सेर्गेयेविच ने तारीफ़ की.
 “अच्छा गाना है, है ना?” मैंने पूछा.
  “अच्छा है,” बोरिस सेर्गेयेविच ने कहा और रुमाल से आँखें ढाँक लीं.
 “मगर, अफ़सोस की बात है कि आपने बहुत धीरे से बजाया, बोरिस सेर्गेयेविच,” मैंने कहा, “और भी ज़ोर से बजाना चाहिए था.”
 “ठीक है, मैं ध्यान रखूँगा,” बोरिस सेर्गेयेविच ने कहा. “और क्या तुमने इस पर ध्यान नहीं दिया कि मैं एक धुन बजा रहा था और तुम थोड़ी अलग ही धुन में गा रहे थे!”
 “नहीं,” मैंने कहा, “इस बात पर मैंने ध्यान ही नहीं दिया! हाँ, मगर वो इतनी ख़ास बात नहीं है.  बस आपको और ज़ोर से बजाना चाहिए था.
 “ओके,” बोरिस सेर्गेयेविच ने कहा, “चूँकि तुमने किसी बात पर ध्यान नहीं दिया इसलिए फिलहाल तुम्हें ‘सी’ ग्रेड देते हैं. तुम्हारी कोशिश के लिए.”
क्या –‘सी’? मुझे बड़ा शॉक लगा. ऐसा कैसे हो सकता है? ‘सी’ – ये तो बहुत कम है! मीश्का ने इतना धीरे गाया और उसे ‘ए’ मिला...मैंने कहा:
 “ बोरिस सेर्गेयेविच, जब मैं थोड़ा-सा आराम कर लूँगा, तो मैं और भी ज़ोर से गा सकूँगा, आप कुछ न सोचिए. वो तो आज मैंने ठीक से नाश्ता नहीं किया. वर्ना तो मैं ऐसे गा सकता हूँ, कि सबके कान बहरे हो जाएँगे. मुझे एक और गाना आता है. जब मैं घर में उसे गाता हूँ तो सारे पड़ोसी भागकर आ जाते हैं और पूछने लगते हैं कि क्या हुआ है.
 “आख़िर कौन सा है वो गाना?” बोरिस सेर्गेयेविच ने पूछा.
 “बड़ा दर्द भरा है,” मैंने कहा और गाने लगा:
 मैंने चाहा तुम्हें...
चाहत की आग अब भी शायद...
मगर बोरिस सेर्गेयेविच ने फ़ौरन कहा:
 “ठीक है, ठीक है, इस सब के बारे में अगली बार बात करेंगे.”
और तब घण्टी बज गई.
मम्मी मुझे क्लोकरूम में मिली. जब हम निकलने ही वाले थे, तो बोरिस सेर्गेयेविच हमारे पास आए.
  “ तो,” उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, “”हो सकता है कि आपका बच्चा लोबाचेव्स्की बन जाए, हो सकता है मेंडेलेव बन जाए. वह सूरिकोव या कोल्त्सोव भी बन सकता है. मुझे अचरज नहीं होगा अगर वह पूरे देश में कॉम्रेड निकोलाय ममाय या किसी बॉक्सर जैसा प्रसिद्ध हो जाए, मगर एक बात के बारे में आपको पक्का यक़ीन दिला सकता हूँ, कि वह इवान कोज़्लोव्स्की जैसी शोहरत नहीं पा सकेगा. कभी नहीं!”
मम्मी एकदम खूब लाल हो गई और बोली:
 “अच्छा, देखा जाएगा!’
और जब हम घर जा रहे थे तो मैं सोचता जा रहा था:
 “क्या सचमुच ये कोज़्लोव्स्की मुझसे भी ज़्यादा ज़ोर से गाता है?”

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शनिवार, 22 जून 2013

Ek se badhakar ek

एक से बढ़कर एक
लेखक: निकोलाय नोसोव
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

मीशूत्का और स्तासिक एक पार्क में बेंच पर बैठकर बातें कर रहे थे. बस, वो और बच्चों की तरह सीधी-सादी बातें नहीं कर रहे थे, बल्कि एक दूसरे को तरह-तरह की गप्पें सुना रहे थे, मानो उनमें होड़ लगी थी कि कौन किससे ज़्यादा बड़ी गप्प हाँकता है.
 “ तू कितने साल का है?” मीशूत्का पूछता है.
 “ 95 का. और तू?”
 “ और मैं 140 का. मालूम है,” मीशूत्का कहता है, “पहले मैं बड़ा-बहुत बड़ा हुआ करता था, अंकल बोर्‍या जैसा, मगर बाद में छोटा हो गया.”
 “और मैं,” स्तासिक कहता है, “पहले छोटा था, मगर फिर बड़ा हो गया, और वापस फिर से छोटा हो गया, और अब जल्दी ही फिर से बड़ा हो जाऊँगा.”
 “और, पता है, जब मैं बड़ा था, पूरी नदी तैर कर पार कर जाता था,” मीशूत्का कहता है.
 “ऊँह! और मैं तो समन्दर तैर जाता था!”
 “समन्दर क्या चीज़ है! मैं तो कित्ती ही बार महासागर तैर चुका हूँ!”
 “और, मैं तो पहले उड़ सकता था!”
 “अच्छा तो फिर उड़ के दिखा!”
 “अब नहीं उड़ सकता : भूल गया.”
 “और मैं एक बार जब समन्दर में नहा रहा था,” मीशूत्का कहता है, “ तो एक शार्क ने मुझ पर हमला कर दिया. मैंने उस पर दनादन् मुक्के बरसाए, और उसने खच् से मेरा सिर पकड़ किया – और खा गई.”
 “झूठ !”
 “नहीं, सच में!”
 “तो फिर तू मरा क्यों नहीं?
 “अरे, मैं क्यों मरता? मैं तैर कर किनारे पे आ गया और घर चला गया.”
 “बिना सिर के?”
 “बेशक, बिना सिर के. मुझे सिर की क्या ज़रूरत है?”
 “मगर, तू बिना सिर के चला कैसे?”
 “बस, वैसे ही चला. तू तो ऐसे कह रहा है, जैसे बिना सिर के चलना मना है.”
  “तो अब तेरे पास सिर कैसे है?”
  “ दूसरा आ गया.”
  “बड़ी सफ़ाई से सोच लिया!” स्तासिक को जलन होने लगी. उसका मन मीशूत्का से भी बड़ा झूठ बोलने को करने लगा.
 “तो, ये कौन-सी बड़ी बात हुई!” उसने कहा, “ एक बार मैं अफ्रीका गया था, तो वहाँ पर एक मगर मुझे खा गया.”
 “झूठ, सरासर झूठ!” मीशूत्का ठहाके लगाने लगा.
 “ज़रा भी नहीं.”
 “तो, अब तू ज़िन्दा क्यों है?”
 “उसीने थूक कर मुझे बाहर निकाल दिया.”
मीशूत्का सोचने लगा. उसका दिल चाहा कि स्तासिक से बड़ा झूठ बोले. उसने सोचा, सोचा और फिर बोला:
 “एक बार मैं रास्ते पे चल रहा था. चारों ओर ट्रामें, बसें, ट्रक्स ...”
 “मालूम है, मालूम है!” स्तासिक चिल्लाया, “अब तू ये बताएगा कि तेरे ऊपर से कैसे ट्राम निकल गई. इसके बारे में तो तू पहले ही गप्प मार चुका है.”
 “ऐसी कोई बात नहीं है. मैं उसके बारे में नहीं कह रहा.”
 “ठीक है. चल, आगे झूठ बोल.”
 “तो, मैं चल रहा हूँ, किसी को हाथ नहीं लगा रहा हूँ. अचानक सामने से एक बस आ टपकी. मैंने उसे देखा ही नहीं, और उस पर पाँव रख दिया---खट्! – और उसे चकनाचूर कर दिया.”
  “हा-हा-हा! सरासर झूठ !
 “बिल्कुल भी झूठ नहीं है! ”
  “तू बस को कैसे दबा सका?”
 “अरे, वो तो बिल्कुल छोटी थी, खिलौने की बस. एक लड़का डोरी बांधकर उसे खींच रहा था.”
  “ इसमें कोई  अचरज की बात नहीं है,” स्तासिक ने कहा, “ मगर मैं तो एक बार चाँद पर उड़ा था.”
 “वा व्वा, कहाँ की फेंकी है!” मीशूत्का  हँसने लगा.
 “यक़ीन नहीं होता? क़सम से!”
 “तू उड़ा किस पे था?”
 “रॉकेट पे. चाँद पे और किस पे उड़ते हैं? जैसे कि तुझे मालूम ही नहीं है!”
 “और, तूने चाँद पे देखा क्या?”
 “और क्या...” स्तासिक थोड़ा हिचकिचाया. “मैंने वहाँ क्या देखा? कुछ भी नहीं देखा.”
 “हा-हा-हा!” मीशूत्का खिलखिलाकर हँस पड़ा. “और कहता है कि चाँद पर गया था!”
 “ बेशक, गया था.”
 “तो फिर कुछ देखा क्यों नहीं?”
 “अँधेरा जो था. मैं तो रात में गया था ना. सपने में. रॉकेट में बैठा और ज़ूँ S-S-S करके उड़ा स्पेस में. ऊ-ऊ-ऊ!. और फिर जैसे ही वापस आ रहा था...उड़ रहा था, उड़ रहा था, और धम् से धरती से टकराया...और नींद खुल गई...”  
 “ आ-आ,” मीशूत्का अपना राग अलापता रहा. “तो तू पहले ही बता देता ना. मुझे थोड़े ही मालूम था कि तू सपने में गया था.”
हम अब वहाँ पड़ोस का ईगोर आया और उनकी बगल में बेंच पर बैठ गया. वह मीशूत्का और स्तासिक की बातें सुनता रहा, सुनता रहा और बोला:
 “झूठ बोल रहे हो! तुम्हें शरम नहीं आती?”
 “शरम किस बात की? किसी को धोखा थोड़े ही दे रहे हैं,” स्तासिक ने कहा. “बस सोच-सोच के कल्पना कर रहे हैं, जैसे परी-कथाएँ सुना रहे हैं.”
 “परी-कथाएँ!” ईगोर ने ताना देते हुए कहा, “ बड़ा अच्छा काम कर रहे हो!”
 “तू क्या समझता है, सोचना करना आसान है !”
 “बेहद आसान!”
 “तू कुछ सोच के दिखा.”
 “अभ्भी लो...” ईगोर ने कह. “सुनो.”
मीशूत्का और स्तासिक ख़ुश हो गए और सुनने के लिए तैयार हो गए.
 “अभ्भी,” ईगोर ने फिर कहा, “ ए-ए-ए...हम्...खम् ए-ए-ए...”
  “तो तो बस “ए” और “ए” ही कर रहा है!”
 “अभ्भी! सोचने दो.”
 : अच्छा, सोच, सोच!”
 “ए-ए-ए,” ईगोर ने फिर से कहा और आसमान की ओर देखने लगा. “अभ्भी,  अभ्भी...ए-ए-ए...”
 “ओह, तू सोच क्यों नहीं रहा है? कह रहा था ना...बेहद आसान है!”
 “अभ्भी ...लो! एक बार मैं कुत्ते को छेड़ रहा था, और उसने घप् से मेरा पकड़ लिया और काट लिया . देखो निशान रह गया.”
 “तो तूने इसमें सोचा क्या?” स्तासिक ने पूछा.
 “कुछ नहीं. जैसा हुआ था, वैसा ही बता दिया.”
 “और कहता था...सोचने में उस्ताद है!”
 “मैं उस्ताद तो हूँ, मगर वैसा नहीं, जैसे  तुम हो. तुम लोग बस झूठ बोले जाते है, बिना किसी फ़ायदे के, और मैंने कल झूठ बोला तो मुझे उसका फ़ायदा हुआ.”
 “कैसा फ़ायदा?”
 “सुनो. कल शाम को मम्मी और पापा बाहर चले गए और मैं और ईरा घर पर रह गए. ईरा सो गई, मगर मैं छोटी वाली अलमारी में घुस गया और जैम का आधा डिब्बा खा गया. फिर सोचने लगा : मार से कैसे बचूँ. मैंने ईरा के होठों पर जैम लगा दिया. मम्मी वापस आई, “ ये जैम किसने खा लिया?” मैंने कहा : “ ईरा ने.” मम्मी ने देखा, और उसके होठों पर तो जैम लगा था. आज सुबह उसे मम्मी से मार पड़ी, और मुझे मम्मी ने और जैम दिया. ये हुआ फ़ायदा.”
 “मतलब, तेरी वजह से दूसरे को मार पड़ी, और तू ख़ुश है!” मीशूत्का ने कहा.
 “तुझे क्या?”
 “मुझे कुछ नहीं. मगर तू, क्या कहते हैं...बेईमान! बस!”
 “तुम्ही बेईमान!”
 “भाग! तेरे साथ बेंच पर नहीं बैठना है.”
 “मैं ख़ुद ही तुम्हारे साथ नहीं बैठूँगा.”
ईगोर उठकर चला गया. मीशूत्का और स्तासिक भी घर की ओर चल पड़े. रास्ते में उन्हें आईस्क्रीम का तम्बू दिखाई दिया. वे रुक गए, अपनी अपनी जेबें टटोल कर देखने लगे कि उनके पास कितने पैसे हैं. दोनों के मिलाकर सिर्फ उतने ही पैसे थे जिसमें बस एक आईस्क्रीम आ सकती थी.
 “एक खरीदते हैं और आधा-आधा कर लेंगे,” स्तासिक ने सुझाव दिया.
सेल्सगर्ल ने डंडी वाली आईस्क्रीम दी.
 “चल, घर चलते हैं,” मीशूत्का कहता है, “चाकू से काटेंगे, जिससे बराबर हिस्से हो जाएँ.”
 “चल.”
सीढ़ियों पर उन्हें ईरा मिली. उसकी आँखें रोने से लाल हो रही थीं.
 “तू क्या रोई थी?” मीशूत्का पूछता है.
 “मम्मी ने मुझे घूमने नहीं जाने दिया.”
 “किसलिए?”
 “जैम की वजह से. मगर मैंने जैम नहीं खाया. ईगोर ने मेरी झूठी शिकायत कर दी. शायद, उसने खुद खा लिया और मेरा नाम ले लिया.”
 “बेशक, ईगोर ने खाया था. वो ख़ुद ही शेखी मार रहा था. तू मत रो. चल, मैं तुझे अपने हिस्से की आईस्क्रीम दूँगा,” मीशूत्का ने कहा.
”और मैं भी तुझे अपना हिस्सा दूँगा, बस एक बार चख लूँ फिर दे दूँगा,” स्तासिक ने वादा किया.
 “मगर, क्या तुम लोग खाना नहीं चाहते?”
 “नहीं चाहते. आज तो हम दस-दस आईस्क्रीम खा चुके हैं,” स्तासिक ने कहा.
 “चलो, इस आईस्क्रीम को तीन हिस्सों में बाँटते हैं,” ईरा ने सुझाव दिया.
 “ठीक है!” स्तासिक बोला. “वर्ना , अगर तू अकेली पूरी खा जाएगी तो तेरा गला दुखने लगेगा.”
 “वे घर गए और आईस्क्रीम के तीन हिस्से किए.
 “बढ़िया है!,” मीशूत्का ने कहा. “मुझे आईस्क्रीम बहुत पसन्द है. एक बार मैं आईस्क्रीम की पूरी बकेट खा गया था.”
 “ओह, तू तो बस गप मारता है!” ईरा हँसने लगी. “कौन यक़ीन करेगा कि तूने आईस्क्रीम की बकेट खाई थी!”
 “वो तो बहुत छोटी बकेट थी, नन्हीं सी बकेटिया ! ऐसी , कागज़ की, गिलास से बड़ी थोड़े ही थी...”


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