जूतों
वाली बिल्ली
लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
“बच्चों!
” रईसा इवानोव्ना ने कहा. “ तुम लोगों ने
ये सेमेस्टर अच्छी तरह पूरा कर लिया है. मुबारक हो. अब तुम लोग आराम कर सकते हो.
छुट्टियों में हम एंटरटेनमेन्ट शो और कार्निवाल का आयोजन करेंगे. हर कोई अपनी
मनपसन्द फैन्सी ड्रेस पहनेगा, और सबसे बढ़िया फैन्सी ड्रेस को इनाम दिया जाएगा, तो
तैयारी शुरू कर दो.” और रईसा इवानोव्ना ने अपनी कॉपियाँ उठाईं, हमसे बिदा ली और
चली गई.
और जब
हम घर जा रहे थे तो मीश्का ने कहा, “ मैं तो कार्निवाल में बौना बनूँगा. मेरे लिए
कल रेनकोट और टोप खरीदा है. मैं बस चेहरे पर कोई मास्क लगा लूँगा, और बस, बौना
तैयार ! तू क्या बनेगा?”
“देखा जाएगा.”
और मैं
इस बारे में भूल गया. क्योंकि घर पे मम्मी ने कहा कि वह दस दिन के लिए
हेल्थ-रिसॉर्ट जा रही हैं और मैं अच्छी तरह से रहूँ और पापा का ख़याल रखूँ. और वह
दूसरे दिन चली भी गईं, और मैं पापा के साथ बस पूरी तरह परेशान हो गया. कभी कुछ, तो
कभी कुछ, और बाहर बर्फ भी गिर रही थी, मैं बस पूरे टाइम यही सोचता रहा कि मम्मी कब
लौटेंगी. अपने कैलेण्डर में मैं तारीखों के ख़ानों पर क्रॉस लगाता रहा.
और
अचानक मीश्का दौड़ता हुआ आया और दरवाज़े से ही चिल्लाया:
”तू आ
रहा है या नहीं?”
मैंने पूछा
:
“कहाँ?”
मीश्का चीख़ा
:
“क्या – कहाँ? स्कूल में! आज तो एंटरटेनमेन्ट शो
है ना, सब लोग फैन्सी ड्रेस में होंगे! तू, क्या देख नहीं रहा है कि मैं बौना बन
गया हूँ?”
सही है,
वह टोप वाले लबादे में था.
मैंने
कहा:
” मेरे
पास कोई ड्रेस नहीं है! हमारे यहाँ मम्मी चली गई हैं.”
मीश्का ने
कहा :
“चल, ख़ुद ही कुछ सोचते हैं! क्या तुम्हारे घर
में कोई अजीब सी चीज़ है? तू वो ही पहन लेना, वही ड्रेस हो जाएगी कार्निवाल के
लिए.”
मैंने कहा,
“हमारे पास कुछ भी नहीं है. बस पापा की
फिशिंग वाली ‘बाखिली’ हैं.”
‘बाखिली’-
मतलब रबड़ के ऐसे SSS ऊँचे-ऊँचे जूते होते हैं. अगर बारिश या कीचड़ हो – तो सबसे
पहले ज़रूरत होती है ‘बाखिली’ की. पैर ज़रा भी गन्दे नहीं होते, न गीले होते हैं.
मीश्का ने
कहा:
“
अच्छा, पहन तो सही, देखेंगे, कैसे दिखता है!”
मैं
अपने जूतों समेत पापा के ऊँचे वाले बूट्स में घुस गया. पता चला कि ‘बाखिली’ तो
मेरी बगल तक पहुँच रहे थे. मैंने उन्हें पहन कर चलने की कोशिश की. कोई बात नहीं,
बहुत मुश्किल हो रही थी. मगर वे ख़ूब चमक रहे थे. मीश्का को बहुत पसन्द आ गया. उसने
पूछा :
“और हैट
कौन सी है?”
मैं बोला:
“ शायद, मम्मी को स्ट्रा-हैट होगी, जो धूप से
बचाती है?”
”जल्दी
ला!”
मैंने
हैट ढूँढ़ी, उसे पहन लिया. पता चला कि वह काफ़ी बड़ी है, नाक तक आती है, मगर, फिर भी,
उस पर फूल बने हैं.
मीश्का
ने देखा और कहने लगा:
”ड्रेस
अच्छी है. बस, मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि इसका मतलब क्या है?”
मैंने कहा:
“शायद, इसका मतलब हो - ज़हरीला कुकुरमुत्ता?”
मीश्का
हँस पड़ा:
“तू भी न, ज़हरीले कुकुरमुत्ते की टोपी पूरी लाल
होती है! तेरी ड्रेस “बूढ़े मछुआरे ” से बहुत मिलती जुलती है!”
मैंने मीश्का को झिड़क दिया: “क्या कहता है! ‘बूढ़ा
मछुआरा’ !... और दाढ़ी कहाँ है?”
अब
मीश्का सोचने लगा, और मैं कोरीडोर में निकल आया, और वहाँ खड़ी थी हमारी पड़ोसन वेरा
सेर्गेयेव्ना. जब उसने मुझे देखा तो हाथ नचाते हुए कहने लगी:
“ओय! बिल्कुल सचमुच की जूतों वाली बिल्ली!”
मैं
फ़ौरन समझ गया कि मेरी ड्रेस का क्या मतलब है! मैं –“जूतों वाली बिल्ली” हूँ! बस,
अफ़सोस की बात ये है कि मेरी पूँछ नहीं है! मैं पूछता हूँ:
“”वेरा सेर्गेयेव्ना, क्या आपके पास पूँछ है?”
वेरा
सेर्गेयेव्ना बोली:
“क्या मैं शैतान जैसी दिखती हूँ?”
“नहीं, बहुत नहीं,” मैंने कहा, “मगर बात ये नहीं
है. अभी आपने कहा कि इस ड्रेस का मतलब है “जूतों वाली बिल्ली”, मगर बगैर पूँछ के
बिल्ली कैसे हो सकती है? कोई-न- पूँछ तो चाहिए ही होगी ना ! वेरा सेर्गेयेव्ना, आप
हेल्प करेंगी, प्लीज़?”
तब वेरा
सेगेयेव्ना ने कहा:
“एक मिनट...”
और उसने
मुझे खूब गन्दी भूरी पूँछ लाकर दी जिस पर काले-काले धब्बे थे.
“ये,” उसने कहा, “ पुरानी मफ़लर का टुकड़ा है.
आजकल मैं इससे केरोसीन-स्टोव साफ़ करती हूँ, मगर, मेरा ख़याल है कि तुम्हारे काम के लिए
ये बढ़िया है.”
मैंने
कहा, “बहुत बहुत शुक्रिया” और पूँछ लेकर मीश्का के पास आया.
जैसे ही
मीश्का ने उसे देखा, बोला:
”फ़ौरन सुई-धागा
ला, मैं इसे तुझ पर सी देता हूँ. यह बड़ी लाजवाब पूँछ है.”
और
मीश्का पीछे से मुझ पर पूँछ सीने लगा. वह बडी आसानी से सी रहा था, मगर फिर अचानक न
जाने कै- -से मुझे सुई गड़ा दी!
मैं
चिल्लाया:
“आराम से, तू बहादुर टेलर-मास्टर! क्या तू समझ
नहीं रहा है कि सीधे ज़िन्दा आदमी के ऊपर सी रह है? तू मुझे गड़ा रहा है!”
“वो, मेरा अन्दाज़ थोड़ा गलत हो गया!” और उसने फिर
सुई गड़ा दी!
“मीश्का, ध्यान से कर, वर्ना मैं तेरी चटनी बना
दूँगा!”
और वह
बोला:
”मैं ज़िन्दगी
में पहली बार तो सी रहा हूँ!”
और फिर –
चुभा दी!...
मैं गला
फ़ाड़ कर चीख़ा:
“ क्या तू समझ नहीं रहा है कि इसके बाद मैं पूरी
तरह अपाहिज हो जाऊँगा और बैठने के लायक भी नहीं रहूँगा?”
मगर तभी मीश्का ने कहा: ”हुर्रे! हो गया! और
क्या पूँछ है! हर बिल्ली की ऐसी नहीं होती!”
फिर
मैंने काला रंग लिया और ब्रश से अपनी मूँछें बना लीं, दोनों तरफ तीन-तीन मूँछें –
लम्बी-लम्बी, बिल्कुल कानों तक!
और हम
स्कूल के लिए चल पड़े.
वहाँ
इत्ते--- सारे लोग थे, और सभी फैन्सी ड्रेस में थे. बौने ही क़रीब पचास थे. और बहुत
सारे बर्फ़ के ‘सफ़ेद’ फ़ाहे थे. ये ऐसी ड्रेस होती है जिसमें चारों ओर से ढेर सारी सफ़ेद
झालर लगी होती है, और बीच में से छोटी-सी लड़की झाँकती है.
हम सब
खुश हो रहे थे, डांस कर रहे थे.
मैं भी
डान्स कर रहा था, मगर पूरे समय लड़खड़ा रहा था और बड़े-बड़े जूतों के कारण गिरने-गिरने
को हो रहा था, और हैट भी, जैसे जानबूझ कर लगातार ठोढ़ी तक फिसल रही थी.
और फिर
हमारी लीडर ल्यूस्या स्टेज पर आई और खनखनाती आवाज़ में बोली:
”जूतों वाली
बिल्ली” से निवेदन है कि स्टेज पर आए और सबसे बेस्ट ड्रेस के लिए पहला इनाम ले.!”
और मैं स्टेज
की ओर जाने लगा, मगर लास्ट वाली सीढ़ी पर लड़खड़ा गया और फिर गिरते-गिरते बचा. सब
ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे, और ल्यूस्या ने मुझसे हाथ मिलाया और मुझे दो किताबें दीं: “अंकल
स्त्योपा को” और “कहानियाँ-पहेलियाँ”. अब बोरिस सेर्गेयेविच ने एक तेज़ धुन बजाना शुरू कर दिया और मैं स्टेज से
नीचे उतरने लगा, और जब मैं उतर रहा था, तो फिर से लड़खड़ा गया और गिरते-गिरते बचा,
सब लोग फिर से हँस पड़े.
जब हम
घर जा रहे थे तो मीश्का ने कहा:
” बेशक,
बौने बहुत सारे थे, मगर तू एक ही था!”
“हँ,” मैंने कहा, “ मगर सारे बौने अलग-अलग थे,
और तू भी बड़ा मज़ेदार लग रहा था, इसलिए तुझे भी किताब मिलनी चाहिए. मेरी एक ले ले.”
मीश्का
ने कहा:
“कोई ज़रूरत नहीं है, तू कर क्या रहा है!”
मैंने
पूछा:
“कौन सी चाहिए?”
“अंकल स्त्योपा”.
और
मैंने उसे “अंकल स्त्योपा” दे दी.
घर आकर
मैंने अपनी भारी भरकम ‘बाखिली’ उतार दीं, कैलेण्डर के पास भागा, और आज की तारीख़
वाले ख़ाने पर क्रॉस बना दिया. फिर कल की तारीख पर भी क्रॉस बना दिया.
देखा –
आह, मम्मी के लौटने में अभी तीन दिन बचे हैं!
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