सोमवार, 28 जुलाई 2014

Boojho to jaane

बूझो तो जानें
लेखक: डैनियल चार्म्स
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
मैंने एक पेन्सिल ख़रीदी, घर आया और ड्राईंग बनाने बैठ गया.
जैसे ही मैंने घर का चित्र बनाना शुरू किया कि साशा आण्टी ने मुझे आवाज़ दी. मैंने पेन्सिल रख दी और साशा आण्टी के पास गया.
 “तुमने मुझे बुलाया?” मैंने आण्टी से पूछा.
 “हाँ,” आण्टी ने कहा. “ज़रा देख तो, ये दीवार पे क्या है, कॉक्रोच है या मकड़ी?”
 “मेरे ख़याल से ये कॉक्रोच है,” मैंने कहा और जाने लगा.
 “तू कर क्या रहा है!” साशा आण्टी चिल्लाई, “उसे मार डाल!”
 “ठीक है,” मैंने कहा और मैं कुर्सी पर चढ़ गया.
 “तू ये पुराना अख़बार ले,” आण्टी ने मुझसे कहा, “उसे अख़बार में पकड़ ले और बाथरूम में जाकर फ्लश कर दे.”
मैंने अख़बार लिया और कॉक्रोच की तरफ़ बढ़ा. मगर अचानक कॉक्रोच फ़ड़फ़ड़ाया और उड़ कर छत पर बैठ गया.
 “ई-ई-ई-ई-ई-ई!” साशा आण्टी चीत्कार करती हुई कमरे से बाहर भागी.
मैं ख़ुद भी डर गया. मैं कुर्सी पे खड़े-खड़े छत पे काले धब्बे को देखता रहा. काला धब्बा धीरे-धीरे खिड़की की ओर रेंग रहा था.
 “बोर्‍या, तूने पकड़ लिया? क्या है वो?” दरवाज़े के पीछे से परेशान आवाज़ में आण्टी ने पूछा.
अब मैंने ना जाने क्यों सिर घुमाया और फ़ौरन कुर्सी से कूद कर कमरे के बीच में भागा. दीवार पर, उस जगह के पास, जहाँ मैं अभी-अभी खड़ा था, एक समझ में न आने वाला बड़ा-सा कीड़ा बैठा था, उसकी लम्बाई दियासलाई से डेढ़ गुनी थी. वो अपनी दोनों काली-काली आँखों से मेरी ओर देख रहा था और अपना छोटा-सा मुँह हिला रहा था, जो फूल जैसा था.
 “बोर्‍या, तुझे हुआ क्या है!?” आण्टी कॉरीडोर से चिल्लाई.
 “यहाँ एक और है!” मैंने चिल्लाकर कहा. कीड़ा मेरी ओर देख रहा था और इस तरह से साँस ले रहा था जैसे कोई चिड़िया लेती है.
 “फू, कितना घिनौना है,” मैंने सोचा. मेरा जी मितलाने लगा.
और अगर ये ज़हरीला हुआ तो? मैं अपने आपको रोक न सका और चीख़ता हुआ दरवाज़े की ओर भागा.
जैसे ही मैंने अपने पीछे दरवाज़ा बन्द किया, अन्दर से कोई चीज़ ज़ोर से उससे टकराई.
  ये वही है,” मैंने गहरी साँस छोड़ते हुए कहा. आण्टी पहले ही फ्लैट से भाग चुकी थीं.
 “मैं अपने फ्लैट में अब और नहीं जाऊँगी! नहीं जाऊँगी! जो चाहे कर लें, मगर मैं फ्लैट में नहीं जाऊँगी!” आण्टी चिल्ला-चिल्लाकर हमारी बिल्डिंग में रहने वालों से कह रही थीं, जो वहाँ जमा हो गए थे.
 “आप बताईये तो सही, अलेक्सान्द्रा मिख़ाईलोव्ना, कि वो क्या था?” 53 नंबर के फ्लैट वाले सेर्गेई इवानोविच ने पूछा.
 “मालूम नहीं, मालूम नहीं, मालूम नहीं!” आण्टी चिल्लाई. बस, दरवाज़े पे उसने इतनी ज़ोर से मारा कि फर्श और छत थरथरा गए.”
 “ये बिच्छू है. हमारे यहाँ ‘साऊथ’ में तो वो ख़ूब होते हैं,” दूसरी मंज़िल पर रहने वाले एड़वोकेट की पत्नी ने कहा.
“हाँ, मगर मैं तो फ्लैट में नहीं जाऊँगी!” साशा आण्टी ने अपनी बात दुहराई.
 “नागरिक!” बैंगनी पतलून वाला आदमी ऊपर वाली लैण्डिंग से झुकते हुए चिल्लाया. “दूसरों के घर के बिच्छू पकड़ना हमारा काम नहीं है. आप हाऊसिंग-कमिटी के पास जाईये.
 “सही है, हाऊसिंग-कमिटी के पास!” एड़वोकेट की पत्नी ने ख़ुश होते हुए कहा.
साशा आण्टी हाऊसिंग कमिटी के पास गई.
53 नंबर वाले सेर्गेई इवानोविच ने अपने फ्लैट में जाते-जाते कहा:
 “मगर, फिर भी, ये बिच्छू नहीं हो सकता. पहली बात: यहाँ बिच्छू आएगा कहाँ से, और दूसरी बात, बिच्छू उछलते नहीं हैं.”
क्या आप बता सकते हैं कि ‘वो’ क्या था?
*****

शनिवार, 26 जुलाई 2014

Kutta-Chor

कुत्ता चोर
लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
ज़रा सुनिए तो सही, कि एक बार क्या हुआ. जब मैं अपने चाचा वोलोद्या के साथ समर-कॉटेज में रहता था, तो हमारी कॉटेज से कुछ दूर बोरिस क्लिमेंत्येविच रहते थे, दुबले-पतले अंकल, ख़ुशमिजाज़, हाथ में छड़ी लिए रहते और इतने ऊँचे थे, जितनी फेन्सिंग होती है.
उनके पास एक कुत्ता था जिसका नाम था चाप्का. बहुत ही बढ़िया कुत्ता था, काला, झबरा, थोबड़ा - जैसे ईंट, पूँछ - जैसे ठूँठ. मेरी उसके साथ बहुत दोस्ती हो गई.   
एक बार बोरिस क्लिमेंत्येविच ने तैरने के लिए जाने का, और चाप्का को अपने साथ न ले जाने का विचार किया. क्योंकि वो एक बार उनके साथ ‘बीच’ पे गया था और इस कारण वहाँ बड़ा हंगामा हो गया था. उस समय चाप्का पानी में घुस गया था, और पानी में तैर रही थी एक आण्टी. वो एक रबड़ के डिब्बे पर तैर रही थी, जिससे डूब न जाए. वो फ़ौरन चाप्का पर चिल्लाई:
 “भाग जा! बस, इसी की कमी थी. बस, कुत्ते का इन्फेक्शन ही यहाँ छोड़ना बाकी था!” और वो चाप्का पर पानी उड़ाने लगी: “भाग यहाँ से, भाग जा!”
चाप्का को ये अच्छा नहीं लगा, और वो तैरते-तैरते आण्टी को काटने की कोशिश करने  लगा, मगर उस तक तो पहुँच नहीं पाया, हाँ अपने तेज़ दाँतों से  उसने रबड़ के डिब्बे को ज़रूर पकड़ लिया. बस, एक ही बार काटा था, कि डिब्बा फुस् करके फ्लैट हो गया. आण्टी ने सोचा कि वह डूब रही है और वो चीख़ने लगी:सथ
 “डूब रही हूँ, बचाओ!”
पूरी ‘बीच’ बेहद घबरा गई. बोरिस क्लिमेंत्येविच उसे बचाने के लिए लपके. वहाँ, जहाँ ये आण्टी उछल-कूद मचा रही थी, नदी का पानी बस उनके घुटनों तक था, और आण्टी के कंधों तक. उन्होंने आण्टी को बचा लिया, मगर चाप्का को छड़ी से मारा – बेशक, सिर्फ दिखाने के लिए. तब से वो चाप्का को ‘बीच’ पर नहीं ले जाते.
तो, उन्होंने मुझसे विनती की कि मैं चाप्का के साथ कम्पाऊण्ड में घूमूं, जिससे वो उनके पीछे-पीछे न आए. और मैं कम्पाऊण्ड में आया, मैं चाप्का के खेलने लगा, उछलने लगा, भौंकने लगा, गिरने लगा, हँसने लगा. बोरिस क्लिमेंत्येविच इत्मीनान से चले गए. मैं और चाप्का बड़ी देर तक खेलते रहे, तभी फेन्सिंग के पास से हाथ में बंसी लिए वान्का दीखोव गुज़रा.
उसने कहा:
 “डेनिस्का, चल, मछली पकड़ते हैं!”
मैंने कहा:
 “नहीं आ सकता, मैं चाप्का की रखवाली कर रहा हूँ.”
उसने कहा:
 “चाप्का को घर में बन्द कर दे. अपनी जाली ले ले और भाग के आ जा.”
और वो आगे निकल गया. मैंने चाप्का का पट्टा पकड़कर उसे हौले से घास पे खींचा. वो पंजे ऊपर उठाकर लेट गया, और ऐसे चल पड़ा जैसे छोटी से स्लेज पर फिसल रहा हो. मैंने दरवाज़ा खोला, उसे खींचकर कॉरीडोर में लाया, दरवाज़ा बन्द किया और जाली लेने चला गया. जब मैं वापस रास्ते पे आया, तो वान्का जा चुका था. वह नुक्कड़ के पीछे छुप गया था. मैं उसके पीछे भागा और अचानक क्या देखता हूँ कि जनरल स्टोर्स के पास रास्ते के ठीक बीचोंबीच बैठा है मेरा चाप्का, जीभ बाहर निकाले मेरी ओर ऐसे देख रहा है, जैसे कुछ हुआ ही ना हो...
तो, ये बात है! मतलब, मैंने दरवाज़ा ठीक से बन्द नहीं किया, या फिर ये चालाकी से बाहर आ गया और लोगों के कम्पाऊण्ड से होते हुई यहाँ आकर बैठ गया, मुझसे मिलने के लिए! बहुत होशियार है! मगर मुझे तो जल्दी जाना है. वहाँ, शायद, वान्का तो मछली भी खींच रहा होगा, और मुझे इसकी ही फिकर करनी है. ख़ास बात ये है, कि मैं इसे अपने साथ ले भी चलता, मगर बोरिस क्लिमेंत्येविच कभी भी वापस लौट सकते हैं, और अगर उन्हें ये घर पे नहीं मिला, तो वो परेशान हो जाएँगे, इसे ढूँढ़ने निकल पड़ेंगे, और फिर मुझे डाँटेंगे... नहीं, ऐसे नहीं चलेगा! इसे वापस ले जाकर बन्द करना होगा.
मैंने उसे पट्टे से पकड़ा और खींचते हुए घर ले आया. इस बार चाप्का अपने चारों पंजे ज़मीन में गड़ाकर विरोध कर रहा था. वो मेरे पीछे इस तरह घिसट रहा था जैसे मेंढ़क हो. मैं बड़ी मुश्किल से उसे दरवाज़े तक लाया. दरवाज़ा थोड़ा-सा खोलकर उसे भीतर धकेल दिया और दरवाज़े को कस के बन्द कर दिया. वो अन्दर से भौंकने लगा, बिसूरने लगा, मगर मैंने उसे चुप कराने की कोशिश नहीं की. मैंने पूरे घर का चक्कर लगाया, सारी खिड़कियाँ और जाली भी बन्द कर दी. और, हालाँकि मैं ये सब करते-करते बहुत थक गया, फिर भी मैं नदी की ओर भागा. मैं काफ़ी तेज़ दौड़ रहा था, और जब मैं ट्रान्सफॉर्मर वाले डिब्बे तक पहुँचा, तो उसके पीछे से उछल कर बाहर आया...फिर से चाप्का! मैं जल्दी-जल्दी भागने लगा. मुझे अपनी आँखों पे भरोसा नहीं हुआ. मुझे लगा कि शायद मुझे चाप्का का सपना आ रहा है...मगर चाप्का तो मानो काटने के लिए तैयार था, क्योंकि मैं उसे घर पे छोड़ आया था. गुर्रा रहा है और मुझ पर भौंक रहा है! अच्छा, रुक जा, अभी दिखाता हूँ तुझे! और मैं उसे पट्टे से पकड़ने लगा, मगर वो मेरे हाथ नहीं आया, वो घूम गया, गुर्राया, पीछे हटा, उछला और पूरे समय भौंकता रहा. तब मैं उसे मनाने लगा:
 “चापोच्का, चापोच्का, त्यु-त्यु-त्यु, झबरीले, आ-आ-आ!”
मगर वो नख़रे करता रहा और मेरी पकड़ में नहीं आया. ख़ास बात ये थी कि मेरी जाली मुझे परेशान कर रही थी, मैं उतनी फुर्ती नहीं दिखा सकता था. हम बड़ी देर तक ट्रान्सफॉर्मर वाले डिब्बे के चारों ओर उछलते रहे. और अचानक मुझे याद आया कि मैंने हाल ही में टीवी पर फिल्म देखी थी – जंगल की पगड़ण्डी. उसमें दिखाया गया था कि कैसे शिकारी जालियों से बन्दरों को पकड़ते हैं. मैंने भी अपनी जाली धप् से उसके ऊपर फेंकी! चाप्का को ढाँक दिया, जैसे बन्दर को ढाँकते हैं. वो पूरे ज़ोर से बिसूरने लगा, मगर मैंने जल्दी-जल्दी उसे जाली में लपेटा, कंधे पर डाला, और, एक सचमुच के शिकारी की तरह पूरी बस्ती से होता हुआ उसे घर ले आया. चाप्का मेरे पीछे जाली में टँगा हुआ था, और रुक रुक कर रोने लगता था. मगर मैंने उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया, उसे खिड़की से घर के भीतर फेंक दिया और खिड़की को बाहर से डण्डा लगाकर बन्द कर दिया. वो फ़ौरन अलग-अलग तरह की आवाज़ें निकालते हुए वहाँ से रोने लगा, भौंकने लगा, मगर मैं तीसरी बार वान्का के पास भागा. ये तो मैं जल्दी-जल्दी बता रहा हूँ, वर्ना तो इस सब में काफ़ी समय निकल गया. नदी पे मैं वान्का से मिला. वो ख़ुश-ख़ुश चला आ रहा था, और उसके हाथ में घास की रस्सी थी, और उस पे लटक रही थीं दो मछलियाँ, बड़ी-बड़ी, हरेक चाय के चम्मच जितनी. मैंने कहा:
 “ओहो! बढ़िया काम किया है!”
वान्का ने कहा:
 “हाँ, और ज़्यादा खींच नहीं सका. चल, ये मछली मेरी मम्मा को देते हैं, सूप बनाने के लिए, और खाने के बाद दुबारा जाएँगे. हो सकता है कि तू भी कुछ पकड़ ले.”
और इस तरह बातें करते हुए हम बोरिस क्लिमेंत्येविच के घर तक पहुँच गए. मगर घर के पास कुछ लोगों की भीड़ खड़ी थी. वहाँ धारियों वाला कच्छा पहने एक अंकल थे, उनका पेट तकिये जैसा था, और वहाँ एक आण्टी भी थी, वो भी कच्छे में थी और उसकी पीठ खुली थी. एक चश्मे वाला लड़का था और, और भी कोई था. वे सब हाथ हिला-हिलाकर चिल्ला रहे थे. फिर चश्मे वाले लड़के ने मुझे देखा और चीख़ा:
 “ये ही है, ये ही है वो!”
अब सब लोग हमारी तरफ़ मुड़े, और धारियों वाले अंकल चिल्लाए:
 “कौन सा? मछली वाला या छोटा?!”
चश्मे वाले लड़के ने कहा:
 “छोटा वाला! पकड़ो उसे! ये ही है वो!”
और वे सब मुझ पर झपट पड़े. मैं थोड़ा सा घबरा गया और उनसे दूर भागा, जाली फेंक दी और फ़ेन्सिंग पर चढ़ गया. फ़ेन्सिंग काफ़ी ऊँची थी: नीचे से मुझे पकड़ना मुश्किल था. खुली पीठ वाली आण्टी फ़ेन्सिंग के पास आई और भयानक आवाज़ में चिल्लाने लगी:
 “फ़ौरन मेरे बोब्का को वापस दे! उसे कहाँ छुपा कर रखा है तूने, दुष्ट?”
और अंकल अपने पेट समेत फेन्सिंग से चिपक गया, मुक्कों से खटखटाने लगा:
 “और मेरा ल्युस्का कहाँ है? तू उसे कहाँ ले गया? क़ुबूल कर ले!”
मैंने कहा:
 “फेन्सिंग से दूर हट आईये. मैं किसी बोब्का-वोव्का को और किसी ल्युस्का-प्स्लुस्का को नहीं जानता. मैं तो उन्हें पहचानता भी नहीं! वान्का, इनसे कह दे!”
वान्का चिल्लाया:
 “ये आप बच्चे पे क्यों टूट पड़ॆ हैं? मैं अभी मम्मा के पास भागता हूँ, तब पता चलेगा तुम लोगों को!”
मैं चीख़ा:
 “तू जल्दी से भाग, वान्का, वर्ना ये लोग मेरे टुकड़े-टुकड़े कर डालेंगे!”
वान्का चीख़ा:
“डटा रह, फेन्सिंग से नीचे मत उतरना!” और वो भाग गया.
मगर अंकल बोले:
 “ये उसका साथी है, और कोई हो ही नहीं सकता. उनकी पूरी गैंग है! ऐ तू, फेन्सिंग के ऊपरवाला, फ़ौरन जवाब दे, मेरा ल्युस्या कहाँ है?”
मैंने कहा:
 “अपनी लड़की को आप ख़ुद ही ढूँढ़ लीजिए!”
 “अच्छा, तो तू मज़ाक करने लगा? फ़ौरन नीचे उतर, पुलिस के पास जाएँगे.”
मैंने कहा:
 “बिल्कुल नहीं उतरूँगा!”
तब चश्मे वाला लड़का बोला:
”अभ्भी मैं इसे पकड़ता हूँ!”
और वो फेन्सिंग पर चढ़ने लगा. मगर उसे आता ही नहीं है. क्योंकि उसे मालूम ही नहीं है की कील कहाँ है, पकड़ने के लिए कोई चीज़ कहाँ है. मगर मैं तो सैकड़ों बार इस फेन्सिंग पर चढ़ चुका हूँ. फिर मैं इस लड़के को लात भी मार रहा हूँ. और वो, ख़ुदा का शुक्र है, गिर जाता है!
 “रुक, पाव्ल्या,” अंकल ने कहा, “आ, मैं तुझे ऊपर बिठाता हूँ!”
और ये पाव्ल्या इस अंकल पर चढ़ने लगा. और मैं फिर से डर गया, क्योंकि पाव्ल्या हट्टा-कट्टा लड़का था, शायद तीसरी या चौथी क्लास में पढ़ता था. और मैंने सोचा कि अब मेरा अंत निकट है, मगर तभी मैंने देखा कि बोरिस क्लिमेंत्येविच भागते हुए आ रहे हैं, और नुक्कड़ से वान्का और उसकी मम्मा भी भागते हुए आ रहे हैं. वे चिल्लाते हैं:
 “रुक जाईये! क्या बात है?”
अंकल गरजे:
 “कोई बात नहीं है! सिर्फ, ये लड़का कुत्ते चुराता है! उसने मेरे कुत्ते ल्युस्का को चुराया है.”
और कच्छे वाली आण्टी बोली:
 “और मेरे बोब्का को चुराया है!”
वान्का की मम्मा ने कहा:
 “मैं कभी भी यक़ीन नहीं कर सकती, चाहे मुझे चीर ही क्यों न डालो.”
मगर चश्मे वाला लड़का बीच में टपक पड़ा:
 “मैंने ख़ुद देखा था. वो हमारे कुत्ते को जाली में डालकर ले जा रहा था, कंधे पे! मैं छत पर बैठा था और देख रहा था!”
मैंने कहा:
 “शरम नहीं आती झूठ बोलते हुए? मैं चाप्का को ले जा रहा था. वो घर से भाग गया था!”
बोरिस क्लिमेंत्येविच ने कहा:
 “ये बहुत अच्छा लड़का है. वो अचानक कुत्ते क्यों चुराएगा? घर के अन्दर चलते हैं, फ़ैसला करेंगे! आ, डेनिस, यहाँ आ जा!”
वो फेन्सिंग के पास आए, और मैं सीधा उनके कंधों पर आ गया, क्योंकि वो बहुत ऊँचे हैं, मैंने पहले ही बताया था.
अब सब लोग कम्पाऊण्ड में आ गए. अंकल गुरगुरा रहा था, कच्छे वाली आण्टी ऊँगलियाँ चटखा रही थी, चश्मे वाला पाव्ल्या उनके पीछे-पीछे था, और मैं बोरिस क्लिमेंत्येविच के कंधों पर सवार था. हम ड्योढ़ी में आए, बोरिस क्लिमेंत्येविच ने दरवाज़ा खोला, और अचानक वहाँ से तीन कुत्ते उछल कर बाहर आए! तीन-तीन चाप्का! बिल्कुल एक जैसे! मैंने सोचा कि मेरी आँखों को ही तीन-तीन दिखाई दे रहे हैं.
अंकल चिल्लाया:
 “ल्युसेच्का!”
और एक चाप्का लपक कर आगे आया और सीधे उसके पेट पर चढ़ गया!
और कच्छे वाली आण्टी और पाव्ल्या चीखे:
 “बोबिक! बोबिक!”
दोनों दूसरे चाप्का को दोनों ओर से खींचने लगे: वो अगले पैर पकड़ कर अपने ओर खींच रही थी और लड़का पिछले पैरों से – अपनी ओर! बस, सिर्फ तीसरा कुत्ता हमारे पास खड़ा था और पूँछ गोल-गोल घुमा रहा था.
बोरिस क्लिमेंत्येविच ने कहा:
 “देख, तेरी पोल कैस खुल गई? मुझे ज़रा भी इसकी उम्मीद नहीं थी. तूने पराए कुत्तों से घर क्यों भर दिया?”
मैंने कहा:
 “मैं समझा कि वो चाप्का है! कितने मिलते-जुलते हैं! एक सा चेहरा. बिल्कुल जुड़वाँ कुत्ते हैं.”
और मैंने सब कुछ सिलसिले से बताया. अब तो सब लोग हँसने लगे, और जब उनकी हँसी रुकी, तो बोरिस क्लिमेंत्येविच ने कहा:
 “बेशक, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि तू धोखा खा गया. स्कॉच-टेरिअर्स एक दूसरे से बहुत मिलते जुलते हैं, इतने कि उनमें फ़रक करना मुश्किल हो जाता है. जैसे आज हुआ, सच कहा जाए, तो ये हमने, इन्सानों ने, कुत्तों को नहीं पहचाना, बल्कि कुत्तों ने हमें पहचाना है. तो, तेरा कोई क़ुसूर नहीं है. मगर फिर भी एक बात समझ ले, कि अब से मैं तुझे कुत्ता-चोर कहकर बुलाया करूँगा.
....और सही में, वो मुझे इसी नाम से बुलाते हैं...

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गुरुवार, 24 जुलाई 2014

Barbos ke ghar aaya Bobik

बार्बोस के घर आया बोबिक
लेखक: निकोलाय नोसोव
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
एक था कुत्ता – बार्बोस्का. उसका दोस्त था – बिल्ला वास्का. वे दोनों दद्दू के घर में रहते थे. दद्दू काम पे जाते, बार्बोस्का घर की रखवाली करता, और बिल्ला वास्का चूहे पकड़ता.
एक बार दद्दू काम पे गए, बिल्ला वास्का कहीं घूमने निकल पड़ा, और बार्बोस घर में रह गया. कुछ काम न होने के कारण वह खिड़की की सिल पे चढ़ गया और बाहर देखने लगा. उसे बड़ी उकताहट हो रही थी, वो उबासियाँ ले रहा था.
‘हमारे दद्दू की तो मौज है!’ बार्बोस्का सोच रहा था, ‘काम पर चले गए और काम कर रहे हैं. वास्का के भी ठाठ हैं – घर से भाग गया और छतों पे घूम रहा है. मगर मुझे बैठना पड़ रहा है, घर की रखवाली कर्ना पड़ रही है.’
इसी समय रास्ते पर बार्बोस्का का दोस्त बोबिक नज़र आया. वे अक्सर कम्पाऊण्ड में मिला करते थे और एक साथ खेलते. बार्बोस ने दोस्त को देखा और ख़ुश हो गया:     
 “ऐ,बोबिक, कहाँ भागा जा रहा है?”
 “कहीं नहीं,” बोबिक ने कहा. “बस, यूँ ही भाग रहा हूँ. और तू क्यों घर में बैठा है? चल, घूमने चलते हैं.”
 “मैं नहीं आ सकता,” बार्बोस ने जवाब दिया, “दद्दू ने घर की रखवाली करने के लिए कहा है. तू ही मेरे यहाँ आ जा.”
 “मुझे कोई भगाएगा तो नहीं?”
 “नहीं. दद्दू काम पे चले गए. घर में कोई भी नहीं है. खिड़की से घुसकर अन्दर आ जा.”
बोबिक खिड़की से अन्दर आ गया और उत्सुकता से कमरे का निरीक्षण करने लगा.
 “तेरे तो ठाठ हैं!” उसने बार्बोस से कहा. “तू अच्छे ख़ासे घर में रहता है, और मैं कुत्ता-घर में. जगह की इतनी तंगी है वहाँ, क्या बताऊँ! और छत भी टपकती है. बड़े बुरे हाल हैं! “
 “हाँ,” बार्बोस ने जवाब दिया, “हमारा फ्लैट अच्छा है: दो कमरे, किचन और ऊपर से बाथरूम भी. जहाँ चाहे, घूमो.”
 “और मुझे तो मालिक लोग कॉरीडोर में भी नहीं घुसने देते!” बोबिक ने शिकायत की. “कहते हैं – मैं गली का कुत्ता हूँ, इसलिए मुझे कुत्ता-घर में रहना चाहिए. एक बार कमरे में घुस गया था – क्या हाल बनाया! चिल्लाने लगे, चीख़ने लगे, पीठ पर डण्डे भी मारे.” उसने पंजे से कान के पीछे खुजाया, फिर दीवार पर लगी पेण्डुलम वाली घड़ी देखी और पूछने लगा:
 “और ये तुम्हारे यहाँ दीवार पे क्या चीज़ लटक रही है? पूरे समय बस टिक-टाक, टिक-टाक, और नीचे कोई चीज़ घूमे जा रही है.”
 “ये घड़ी है,” बार्बोस ने जवाब दिया. “क्या तूने कभी घड़ी नहीं देखी?”
 “नहीं. और वो होती किसलिए है?”
बार्बोस को तो ख़ुद ही मालूम नहीं था कि घड़ी किसलिए होती है, मगर फिर भी वह समझाने लगा:
 “ओह, ये ऐसी चीज़ होती है, मालूम है...घड़ी...वो चलती है...”
 “क्या – चलती है?” बोबिक को अचरज हुआ. “उसके तो पैर ही नहीं हैं!”
 “अरे, ऐसा समझ कि, ऐसा कहते हैं, कि चलती है, मगर असल में वो सिर्फ टक्-टक् करती है, और फिर मारने लगती हैं.”
 “ओहो! तो ये झगड़ा भी करती है?” बोबिक घबरा गया.
 “अरे नहीं! वो झगड़ा कैसे कर सकती हैं!”
 “तूने ही तो अभी कहा - मारने लगती है!”
 “मारने का मतलब है – बजाना : बोम्! बोम्!”
 “हुँ, तो ऐसा कहना चाहिए था!”
बोबिक ने मेज़ पर पड़ी कंघी देखी और पूछा:
 “और ये तुम्हारे पास आरी जैसा क्या है?
 “कहाँ की आरी! ये कंघी है.”
 “आह, वो किसलिए है?”
 “तू भी ना!” बार्बोस ने कहा. “एकदम पता चल जाता है कि पूरी ज़िन्दगी कुत्ता-घर में ही बीती है. मालूम नहीं है कि कंघी किसलिए होती है? बाल बनाने के लिए.”
 “ये बाल बनाना क्या होता है?”
बार्बोस ने कंघी उठाई और अपने सिर पर फेरने लगा:
  “देख, बाल ऐसे बनाते हैं. आईने के पास आ जा और बाल बना ले.”
बोबिक ने कंघी ले ली, आईने के पास गया और उसमें अपना प्रतिबिम्ब देखा.
 “सुन,” वो आईने की ओर इशारा करते हुए चिल्लाने लगा, “वहाँ तो कोई कुत्ता है!”
 “अरे, ये तो तू ख़ुद ही है, आईने में!” बार्बोस हँसने लगा.
 “ऐसे कैसे – मैं हूँ? मैं तो यहाँ हूँ, और वहाँ कोई दूसरा कुत्ता है.” बार्बोस भी आईने के पास गया.
 बोबिक ने उसका प्रतिबिम्ब देखा और चिल्लाया:
 “अरे, अब तो वो दो हैं!”
 “नहीं रे !” बार्बोस ने कहा. “वो दो नहीं हैं, बल्कि हम दो हैं. वो वहाँ, आईने में, ज़िन्दा वाले नहीं हैं.”
 “क्या - ज़िन्दा वाले नहीं हैं?” बोबिक चीख़ा. “वो तो हलचल कर रहे हैं!”
 “वाह रे, अकलमन्द!” बार्बोस ने जवाब दिया. “ये तो हम हलचल कर रहे हैं. देख, उनमें से एक कुत्ता बिल्कुल मेरे जैसा है!”
 “सही है, तेरे जैसा है!” बोबिक ख़ुश हो गया. बिल्कुल तेरे जैसा ही है!”
“और दूसरा कुत्ता तेरे जैसा है.”
 “क्या कह रहा है!” बोबिक ने जवाब दिया. “वहाँ तो कोई गलीज़-सा कुता है, और उसके पंजे टेढ़े हैं.”
 “वैसे ही पंजे हैं, जैसे तेरे हैं.”
 “नहीं, ये तो तू मुझे धोखा दे रहा है! वहाँ किन्हीं दो कुत्तों को लाकर बिठा दिया और समझ रहा है कि मैं तेरा यक़ीन कर लूँगा,” बोबिक ने कहा.
वो आईने के सामने कंघी करने लगा और एकदम ठहाका मार कर हँसने लगा:
 “देख तो, और ये आईने वाला बेवकूफ़ भी कंघी कर रहा है! क्या बात है!”
बार्बोस ने सिर्फ फुर्-फुर् किया और एक ओर को हट गया. बोबिक ने कंघी कर ली, कंघी को वापस उसकी जगह पे रख दिया और बोला:
 “बहुत बढ़िया है तेरा घर! कैसी-कैसी घड़ी है, ढेर सारी सटर-फ़टर चीज़ें हैं और कंघी भी है!”
 “और हमारे यहाँ टीवी भी है!” बर्बोस ने शेख़ी मारी और टीवी दिखाया.
 “ये किसलिए है?” बोबिक ने पूछा.
 “ये एक ग़ज़ब की चीज़ है – ये सब कुछ करता है : गाता है, खेलता है, तस्वीरें भी दिखाता है.”
 “ये, ये डिब्बा?”
 “हाँ.”
 “नहीं,ये तो कोरी गप् हुई!”
 “कसम से कह रहा हूँ!”
 “तो चल, दिखा, कैसे खेलता है!”
बार्बोस ने टीवी चला दिया. गाना सुनाई दिया. कुत्ते ख़ुश हो गए और लगे कमरे में उछलने. नाचते रहे, नाचते रहे, थक कर चूर हो गए.
 “मुझे तो भूख भी लग आई है,” बोबिक ने कहा.
 “मेज़ पे बैठ, अभी तेरी ख़ातिरदारी करता हूँ,” बार्बोस ने कहा.
बोबिक मेज़ के पास बैठ गया. बार्बोस्का ने अलमारी खोली, देखा – वहाँ दही का बर्तन रखा है, और ऊपर वाली शेल्फ पर – बड़ी सारी केक है. उसने दही वाला बर्तन उठाया, उसे फर्श पर रखा, और ख़ुद ऊपर वाली शेल्फ पर केक लेने के लिए चढ़ गया. केक उठाया, नीचे उतरने लगा, मगर उसका पंजा दही के बर्तन को लग गया. फिसलते हुए वो सीधा बर्तन पर ही धम् से गिरा, और पूरी पीठ दही से तरबतर हो गई.
 “बोबिक, जल्दी आ, दही खाने के लिए!” बार्बोस चिल्लाया.
बोबिक भाग कर आया:
 “कहाँ है दही?”
 “ये रहा, मेरी पीठ पर. चाट ले.” बोबिक लगा उसकी पीठ को चाटने.
 “ओह, बढ़िया दही है!” उसने कहा.
फिर उन्होंने केक को मेज़ पे रखा. ख़ुद भी मेज़ के ऊपर बैठ गए, जिससे खाने में आसानी हो. खाते-खाते वे बातें करने लगे.
 “तेरी तो ठाठ हैं,” बोबिक ने कहा. “तेरे पास सब कुछ है.”
 “हाँ,” बार्बोस ने कहा. “मैं बढ़िया ढंग से रहता हूँ. जो मन में आए, वो ही करता हूँ: चाहूँ तो कंघी से बाल सँवार लेता हूँ, चाहूँ तो टीवी के साथ खेलता हूँ, जो जी चाहे वो खाता हूँ और पीता हूँ या पलंग पर लुढ़क जाता हूँ.”
 “दद्दू तुझे ऐसा करने देता है?”
 “दद्दू मेरे सामने क्या है! क्या सोच रहा है! ये पलंग मेरा है.”
 “मगर, फिर दद्दू कहाँ सोता है?”
 “दद्दू वहाँ, उस कोने में, कालीन पे.”
बार्बोस इतना झूठ बोल रहा था कि रुक ही नहीं पा रहा था.
 “यहाँ सब कुछ मेरा है!” उसने डींग मारी. “मेज़ मेरी है, अलमारी मेरी है, और हर चीज़, जो अलमारी में है, वो भी मेरी ही है.”
 “क्या मैं पलंग पे लुढ़क सकता हूँ?” बोबिक ने पूछा. “ज़िन्दगी में मैं कभी भी पलंग पे नहीं सोया हूँ.”
  “ठीक है, चल, सोते हैं,” बार्बोस मान गया. वे पलंग पर लेट गए.
बोबिक की नज़र चाबुक पर पड़ी, जो दीवार पर लटक रहा था. उसने पूछा:
 “और तुम्हारे यहाँ ये चाबुक किसलिए है?”
 “चाबुक? वो तो दद्दू के लिए है. अगर वो सुनता नहीं है, तो मैं उस पर चाबुक बरसाता हूँ,” बार्बोस ने जवाब दिया.
 “ये बहुत अच्छा है,” बोबिक ने तारीफ़ की.
वो पलंग पे लेटे रहे, लेटे रहे, उन्हें गर्माहट महसूस हुई और उनकी आँख लग गई. उन्हें ये भी पता नहीं चला कि दद्दू काम से कब वापस लौटा.
उसने अपने पलंग पे दो कुत्तों को देखा, दीवार से चाबुक उठाया और लगा उन पर बरसाने.
बोबिक तो डर के मारे खिड़की से बाहर कूद गया और जाकर अपने कुत्ता-घर में छुप गया, और बार्बोस पलंग के नीचे ऐसे छुप गया कि उसे फर्श साफ़ करने वाले ब्रश से भी बाहर खींचना संभव नहीं हुआ. शाम तक वो वहीं बैठा रहा.
शाम को बिल्ला वास्का वापस आया. उसने बार्बोस को पलंग के नीचे देखा तो सब समझ गया, कि बात क्या है.
 “ऐख़, वास्का, मुझे फिर से सज़ा मिली है! मुझे भी मालूम नहीं कि क्यों. अगर दद्दू तुझे सॉसेज देता है तो मुझे भी देना!”
 वास्का दद्दू के पास आया, म्याऊँ-म्याऊँ करते हुए अपनी पीठ दद्दू के पैरों से रगड़ने लगा. दद्दू ने उसे सॉसेज का टुकड़ा दिया. वास्का ने आधा खाया, और दूसरा पलंग के नीचे जाकर बार्बोस्का को दिया.

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सोमवार, 21 जुलाई 2014

Aankhe aur Kaan

आँखें और कान

लेखक: विताली बिआन्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
जंगल की टेढ़ी-मेढ़ी नदी के किनारे पे इन्क्वोय-ऊदबिलाव रहता था. ऊदबिलाव की झोंपड़ी बढ़िया थी: उसने ख़ुद ही लकड़ियाँ छीली, ख़ुद ही पानी से उन्हें खींच कर लाया, ख़ुद ने ही दीवारें और छत बनाई.
ऊदबिलाव का फ़र-कोट भी बढ़िया है: सर्दियों में गर्माहट रहती है, और पानी में भी उससे गर्माहट ही मिलती है, हवा भी उसे नहीं उड़ाती.
ऊदबिलाव के कान बड़े तेज़ हैं: चाहे मछली नदी में अपनी पूँछ फ़ड़फ़ड़ाए, चाहे कहीं पत्ता गिरे, उसे सब सुनाई देता है.
मगर ऊदबिलाव की आँखों ने उसे धोखा दे दिया: बहुत कमज़ोर हैं उसकी आँखें. ऊदबिलाव आधा-अंधा है, सौ ऊदबिलावी-क़दमों की दूरी तक भी नहीं देख पाता.
मगर ऊदबिलाव के पड़ोस में, जंगल के साफ़-सुथरे तालाब में रहता था होत्तीन-राजहँस. ख़ूबसूरत था और घमण्डी भी, उसे किसी से भी दोस्ती करना अच्छा नहीं लगता, ‘नमस्ते’ भी बड़ी बेदिली से करता. अपनी सफ़ेद गर्दन उठाता, और पड़ोसी को बड़ी तुच्छता से देखता – उससे दुआ-सलाम करो, तो जवाब में बस, अपनी गर्दन ज़रा सी हिला देता.
एक बार क्या हुआ कि इन्क्वोय-ऊदबिलाव नदी के किनारे पर काम कर रहा था, मेहनत कर रहा था: पहाड़ी पीपल को दाँतों से छील रहा था. चारों ओर से छीलते-छीलते उसने तने को आधा कर दिया, ज़ोर की हवा आई और उसने पहाड़ी-पीपल को गिरा दिया. इन्क्वोय-ऊदबिलाव ने छील-छीलकर उसके लट्ठे बना दिए और एक-एक करके उन्हें नदी तक घसीटने लगा. एक लट्ठा अपनी पीठ पर डाल दिया, एक हाथ से उसे पकड़े रखा - बिल्कुल जैसे कोई आदमी चल रहा हो, बस दाँतों में पाइप की ही कमी है.
अचानक देखता है कि नदी में होत्तीन-राजहँस तैर रहा है, बिल्कुल नज़दीक से. इन्क्वोय-ऊदबिलाव ठहर गया, पीठ का लट्ठा नीचे गिरा दिया और सम्मानपूर्वक बोला:
”ऊज़्या-ऊज़्या!”
मतलब, नमस्ते कह रहा है.         
राजहँस ने अपनी गर्वीली गर्दन उठाई, हौले से सिर को हिलाया और कहा:
 “तूने तो इतना क़रीब आने के बाद मुझे देखा! मैंने तो तुझे नदी के मोड़ पर ही देख लिया था. ऐसी आँखों के कारण तो तू मर ही जाएगा.”
और वो इन्क्वोय-ऊदबिलाव का मज़ाक उड़ाने लगा:
 “अरे, अंधे! तुझे तो शिकारी हाथों से ही पकड़कर जेब में डाल लेंगे.”
इन्क्वोय-ऊदबिलाव सुनता रहा, सुनता रहा और फिर बोला:
इसमें शक की कोई बात ही नहीं है कि तुम्हारी नज़र मुझसे तेज़ है. मगर क्या तुम एक ख़ामोश-सी लहर की छपछपाहट को वहाँ से, नदी के तीसरे मोड़ से, सुन सकते हो?”
 “तू तो बस, कल्पना कर रहा है, कोई लहर-वहर की छप-छप नहीं है. जंगल में एकदम ख़ामोशी है.”
इन्क्वोय-ऊदबिलाव ने इंतज़ार किया, किया और फिर पूछा:
 “क्या अब सुन रहे हो छप-छप?”
 “कहाँ?” होत्तीन-राजहँस ने पूछा.
 “अरे, वहाँ, नदी के दूसरे मोड़ पर.”
“नहीं,” होत्तीन-राजहँस ने कहा, “कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा. जंगल में ख़ामोशी ही है.”
इन्क्वोय-ऊदबिलाव ने कुछ देर और इंतज़ार किया. फिर से पूछा:
 “सुन रहे हो?”
 “कहाँ?”
 “ये, मुहाने के पास, बिल्कुल नज़दीक के पानी में!”
 “नहीं,” खोत्तीन-राजहँस ने जवाब दिया, “कुछ भी तो नहीं सुनाई दे रहा. जंगल में ख़ामोशे ही है. तू बेकार ही में सोच रहा है.”
 “तब,” इन्क्वोय-ऊदबिलाव ने कहा, “अलबिदा. तेरी आँखें तुझे मुबारक, मेरे लिए तो मेरे कान ही अच्छे हैं.”
उसने पानी में डुबकी लगाई और छुप गया.
होत्तीन-राजहँस ने अपनी सफ़ेद गर्दन उठाई और गर्व से चारों ओर देखा: उसने सोचा कि उसकी तेज़ आँखें हमेशा समय रहते ख़तरे को भाँप लेती हैं, और इसलिए वो किसी भी चीज़ से नहीं डरता था.
तभी जंगल के पीछे से एक हल्की-छोटी सी नाव, शिकारी-नौका, उछलते हुए बाहर आई. उसमें एक शिकारी बैठा था.
शिकारी ने बन्दूक उठाई – और होत्तीन-राजहँस अपने पंख भी न फड़फड़ा पाया, कि गोली की आवाज़ गूँजी.
होत्तीन-राजहँस का गर्वीला सिर पानी में गिर गया.   
इसीलिए जंगल में रहने वाले होशियार लोग कहते हैं, “जंगल में सबसे पहले हैं कान, और उसके बाद – आँखें.”

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रविवार, 20 जुलाई 2014

Barf ki Kitaab

बर्फ की किताब
लेखक: विताली बिआन्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास

जंगली जानवर बर्फ़ पर घूम रहे थे और अपने पैरों के निशान छोड़ रहे थे. एकदम से समझ पाना मुश्किल है कि वहाँ क्या था. बाईं ओर झाड़ी के नीचे खरगोश के पंजों के निशान थे. पिछले पंजों के निशान थे खिंचे हुए, लम्बे; अगले पंजों के – गोल, छोटे-छोटे. ख़रगोश के पंजों के निशान खेत पर जा रहे थे. उसके एक तरफ़ को – एक बड़ा निशान था; नाख़ूनों से बर्फ़ पर सुराख़ बनाते लोमड़ी के पंजों का निशान. और ख़रगोश के निशान के दूसरी ओर भी एक निशान था: ये भी लोमड़ी के पंजों का ही था, बस, वापस आ रहा था.
ख़रगोश के पंजे खेत पर गोला बना रहे थे; लोमड़ी के भी. ख़रगोश के निशान एक किनारे पर थे – लोमड़ी के उसके पीछे-पीछे. दोनों ही निशान खेत के बीचों-बीच जाकर ख़तम हो रहे थे.
और ये, किनारे पे – फिर से हैं - ख़रगोश के निशान. ग़ायब हो जाते हैं, फिर आगे जाते हैं...
जाते हैं, जाते हैं, जाते हैं – और अचानक ख़त्म हो जाते हैं – मानो ज़मीन में घुस गए हों! और जहाँ वो ग़ायब हुए हैं, वहाँ बर्फ़ जैसे कुचली गई है, और किनारों पर जैसे किसीने ऊँगलियों से खुरचा हो.
लोमड़ी कहाँ गई?
ख़रगोश कहाँ ग़ायब हो गया?
चलो, निशानों से पता लगाते हैं.
ये है झाड़ी. उसकी छाल खरोची गई है. झाड़ी के नीचे पैरों से कुचलने के, पंजों के निशान हैं. निशान हैं ख़रगोश के. यहाँ ख़रगोश खा-पी रहा था: झाड़ी की छाल नोंच-नोंच कर खा रहा था. खड़ा है पिछले पैरों पे, दाँतों से एक टुकड़ा खींचता है, चबाता है, पंजों से पीछे हटता है, बगल में एक और टुकड़ा खींचकर निकालता है. भरपेट खा लिया और अब उसकी सोने की इच्छा हुई. चल पड़ा छुपने के लिए कोई अच्छी सी जगह ढूँढ़ने.
और ये – लोमड़ी के पैरों के निशान, ख़रगोश के निशानों की बगल में. हुआ कुछ ऐसा: ख़रगोश सोने के लिए चला गया. एक घंटा बीता, दूसरा चल रहा है. खेत से आ रही है लोमड़ी. देखती है, बर्फ पे ख़रगोश के पंजों के निशान! लोमड़ी नाक ज़मीन पर झुकाती है. सूँघ लिया - निशान ताज़े हैं! निशानों के पीछे-पीछे भागने लगी.
लोमड़ी चालाक है, ख़रगोश भी कुछ कम नहीं: उसे अपने निशानों को गड्ड-मड्ड करना आता था. वो खेत पर उछला-उछला, फिर मुड़ गया, एक बड़ा सा गोल बनाया, अपने ही निशानों को पार किया – और एक किनारे चला गया.
निशान अभी एक जैसे हैं, उनमें कोई जल्दबाज़ी नहीं दिखाई देती: ख़रगोश आराम से जा रहा था, अपने पीछे मंडराते ख़तरे को महसूस नहीं कर रहा था.
लोमड़ी भागती रही, भागती रही – देखा कि निशान के पार ताज़े निशान हैं. वो समझ नहीं पाई, कि ख़रगोश ने गोला बनाया था.
एक ओर को मुड़ गई – ताज़े निशानों का पीछा करते हुए; भाग रही है, भाग रही है – और रुक गई: निशान अचानक टूट गए हैं! अब कहाँ जाऊँ?
बात एकदम सीधी थी: ये ख़रगोश की नई चालाकी थी: उसने अपने ही निशानों को पार कर लिया था, थोड़ा आगे गया और फिर वापस मुड़ा – और वापस अपने ही निशानों पर चल पड़ा.
ठीक-ठीक जा रहा है – पंजों पे पंजा रखते हुए.
लोमड़ी खड़ी रही, खड़ी रही – और वापस मुड़ गई.
फिर से चौराहे पर पहुँची.
पूरे गोल पर पीछा किया.
चल रही है, चल रही है, देखती है – खरगोश ने उसे धोखा दिया है, ये निशान तो कहीं भी नहीं जाते!
वो गुर्राई और अपने काम से जंगल में चली गई.
बात ये हुई थी: ख़रगोश ने दो का अंक बनाया – वापस अपने ही निशानों पर चल पड़ा.
गोल तक पहुँचा ही नहीं – बल्कि बर्फ को फाँदकर एक ओर को चला गया.
झाड़ी को लाँघा और सूखी टहनियों के ढेर के नीचे लेट गया.
जब तक लोमड़ी निशानों को देखते हुए उसकी तलाश करती रही, वहीं पर लेटा रहा.
और जब लोमड़ी चली गई – फ़ौरन टहनियों के नीचे से उछला – और पहुँच गया जंगल की गहराई में.
लम्बी लम्बी छलाँगें – पंजों के पास पंजे : निशान ऐसे थे जैसे उसका पीछा हो रहा हो.
बिना इधर-उधर देखे भाग रहा है. रास्ते में है एक ठूँठ. ख़रगोश निकल गया बगल से. मगर ठूँठ पर था...ठूँठ पर बैठा था एक बड़ा बाज़ जैसा उल्लू.    
उसने ख़रगोश को देखा, नीचे उतरा, उसके पीछे पीछे चला. पकड़ लिया और खप् से पीठ में नाख़ून गड़ा दिए!
ख़रगोश बर्फ में दुबक गया, और बाज़ - उल्लू उसके ऊपर बैठ गया, पंखों से बर्फ पर चोट कर रहा है, उसे ज़मीन से खींच रहा है.
जहाँ ख़रगोश गिरा था, वहाँ पर बर्फ कुचली गई है. जहाँ बाज़-उल्लू ने पंखों से वार किया, वहाँ बर्फ पर पंखों के निशान हैं, मानो ऊँगलियों से बनाए गए हों.
ख़रगोश जैसे उड़ते हुए जंगल के भीतर घुस गया. इसीलिए आगे कोई निशान नहीं हैं.

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शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

Kissa Char Behron Ka

किस्सा चार बहरों का
लेखक: व्लादीमिर ओदोयेव्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
गाँव से कुछ दूर एक चरवाहा अपनी भेडें चरा रहा था. दोपहर हो चुकी थी, और बेचारे चरवाहे को ज़ोर की भूख लगी थी. ये सही है, कि घर से निकलते हुए उसने अपनी बीबी से कहा ज़रूर था कि खेत में खाना लेकर आए, मगर, बीबी, मानो जानबूझकर नहीं आई.
चरवाहा सोच में पड़ गया: घर जाना तो मुमकिन नहीं है – भेड़ों के झुण्ड को कैसे छोड़े? जब देखो, तब चुरा ले जाते हैं; यहीं पर जमे रहना – और भी बुरा है: भूख सताये जा रही थी. वो इधर-उधर देखने लगा, देखता क्या है कि  - तल्यारी अपनी गाय के लिए घास काट रहा है. चरवाहा उसके पास गया और बोला:
 “प्यारे दोस्त, मेहेरबानी कर: देख, मेरी भेड़ें इधर-उधर ना भाग जाएँ. मैं बस, घर जाकर नाश्ता करके फ़ौरन वापस लौटता हूँ और तेरे काम का अच्छा इनाम दूँगा.”
 शायद चरवाहे ने बड़ी समझदारी का काम किया था; वाक़ई में वो था भी होशियार और सावधान किस्म का इन्सान. उसमें बस एक बात बुरी थी: वो बहरा था, इत्ता ज़्यादा बहरा कि कान के ऊपर हो रही तोप के गोले की आवाज़ भी उसे पलटने पर मजबूर नहीं कर सकती थी; और सबसे बुरी बात तो ये हुई कि वो बात भी बहरे से ही कर रहा था. तल्यारी भी चरवाहे जितना ही बहरा था – न कम न ज़्यादा, इसलिए, ज़ाहिर है कि चरवाहे की बात का एक भी शब्द उसकी समझ में नहीं आया. बल्कि, उसे ऐसा लगा, कि चरवाहा उससे घास छीनना चाहता है, और वो चिल्लाने लगा:
“मेरी घास से तुझे क्या मतलब है? तूने तो उसे नहीं काटा है, मैंने काटा है. क्या तेरी भेड़ों का पेट भरने के लिए मेरी गाय को भूखा मारना है? तू चाहे कुछ भी कहे, मैं ये घास तुझे नहीं दूँगा. भाग जा यहाँ से!”
ये कहते हुए तल्यारी ने गुस्से से हाथ झटका, मगर चरवाहा समझा कि वो उसकी भेड़ों का ध्यान रखने का वादा कर रहा है, और, निश्चिंत होकर वह घर की ओर लपका. उसका इरादा बीबी की अच्छी खिंचाई करने का था, जिससे वो आगे कभी उसके लिए खाना लाना ना भूले.
चरवाहा अपने घर पहुँचा – देखता क्या है कि उसकी बीबी देहलीज़ पर पड़ी बिसूर रही है, शिकायत कर रही है.
आपको बताना पड़ेगा कि कल रात को उसने कुछ ज़्यादा ही खा लिया था, वो भी कच्चे मटर, और आपको तो मालूम ही है कि कच्चे मटर मुँह में तो शहद से भी ज़्यादा मीठे लगते हैं, मगर पेट में जस्ते से भी ज़्यादा भारी साबित होते हैं.
हमारे भले चरवाहे ने बीबी की यथासंभव मदद की, उसने उसे पलंग पर लिटाया और कड़वी दवा पिलाई, जिससे उसकी तबियत कुछ संभल गई. इस बीच वो खाना खाना भी नहीं भूला. इस झंझट में काफ़ी समय बीत गया. “पता नहीं मेरी भेड़ों के झुण्ड का क्या हो रहा है? मुसीबत आते देर कितनी लगती है!” चरवाहे ने सोचा.
वह जल्दी-जल्दी वापस लौटा और देखा कि उसका रेवड़ आराम से उसी जगह चर रहा है जहाँ वो उसे छोड़कर गया था. मगर, फिर भी, होशियार आदमी होने की वजह से उसने अपनी भेड़ों को फिर से गिना. वे उतनी ही थीं, जितनी उसके जाने से पहले थीं, और उसने सोचा, ‘ये तल्यारी ईमानदार आदमी है! इसे इनाम देना चाहिए.’
चरवाहे की रेवड़ में एक जवान भेड़ थी: हाँ, वह लंगड़ाती ज़रूर थी, मगर अच्छी मोटी-ताज़ी थी. चरवाहे ने उसे कंधे पर उठाया और तल्यारी के पास आकर बोला:
 “धन्यवाद, तल्यारी महाशय, कि तुमने मेरी रेवड़ का ध्यान रखा! ये ले एक पूरी भेड़ इनाम में.”
तल्यारी, ज़ाहिर है, चरवाहे की किसी भी बात को समझ नहीं पाया, मगर लंगड़ी भेड़ को देखकर पूरी ताक़त से चीखा:
 “अगर ये लंगड़ाती है, तो मैं क्या करूँ! मुझे कैसे मालूम कि किसने उसे ऐसा अपाहिज बना दिया? मैं तो तेरी रेवड़ के पास फटका तक नहीं. मुझे क्या करना है?”
 “ये सच है कि ये लंगड़ाती है,” तल्यारी की बात न सुनते हुए चरवाहा कहता रहा, “मगर फिर भी ये अच्छी भेड़ है – जवान है, और मोटी-ताज़ी भी. इसे रख ले, पका के अपने दोस्तों के साथ खा लेना.”
 “तू यहाँ से जाता है कि नहीं!” तल्यारी आपे से बाहर होकर चीखा. “मैं तुझे फिर से कहता हूँ कि मैंने तेरी भेड़ का पैर नहीं तोड़ा और ना तो मैं तेरे रेवड़ की तरफ़ गया, ना ही उस पर नज़र डाली.”
मगर चरवाहा, उसकी बात न समझते हुए उसके सामने भेड़ लेकर खड़ा ही रहा और उसकी तारीफ़ करता रहा. तल्यारी और ज़्यादा बर्दाश्त न कर सका और उस पर मुक्का दे मारा.
चरवाहे को भी गुस्सा आ गया, और वो भी आत्म रक्षा की तैयारी करने लगा, और वे आपस में भिड़ ही जाते यदि वहाँ से गुज़रता हुआ एक घुड़सवार उन्हें रोक न लेता.
आपको बता दूँ कि हिन्दुस्तानियों की एक आदत होती है कि जब वे किसी बात के बारे में बहस करने लगते हैं, तो जो आदमी उन्हें नज़र आ जाता है, उससे फ़ैसला करने की प्रार्थना करते हैं.
तो, चरवाहे और तल्यारी ने दोनों ओर से घोड़े की लगाम पकड़ ली जिससे की वे घुड़सवार को रोक लें.
 “मेहेरबानी करके एक मिनट रुक जाइये और फ़ैसला कीजिए: हममें से कौन सच्चा है और कौन क़ुसूरवार है? मैं इस आदमी को उसकी सेवाओं के लिए धन्यवाद स्वरूप अपनी रेवड़ की एक भेड़ दे रहा हूँ, और इसने मेरी इस भलमनसाहत के बदले मुझे बस मार ही डाला.”
 “मेहेरबानी करके एक मिनट रुक जाईये और फ़ैसला कीजिए: हममें से कौन सच्चा है और कौन क़ुसूरवार है? ये दुष्ट चरवाहा मुझ पर इल्ज़ाम लगा रहा है कि मैंने उसकी भेड़ को लंगड़ा बना दिया, जबकि मैं इसकी रेवड़ के पास गया तक नहीं.”
मगर अफ़सोस, उन्होंने जिस आदमी को फ़ैसला करने के लिए चुना था, वो इन दोनों से भी ज़्यादा बहरा निकला. उसने हाथ के इशारे से दोनों को चुप रहने को कहा और बोला:
 “मुझे आपके सामने स्वीकार करना होगा कि ये घोड़ा मेरा नहीं है, मुझे तो ये रास्ते में मिला था, और चूँकि मुझे ज़रूरी काम से जल्दी शहर पहुँचना है, मैं इस पर बैठ गया. अगर ये आपका है, तो ले लीजिए, मगर मुझे छोड़ दीजिए : मेरे पास रुकने के लिए समय नहीं है.”
चरवाहे ने और तल्यारी ने कुछ भी नहीं सुना, मगर उनमें से हरेक को ऐसा लगा कि घुड़सवार उसके ख़िलाफ़ फ़ैसला दे रहा है.
इसी समय रास्ते पर एक बूढ़ा ब्राह्मण दिखाई दिया.
तीनों उसके पास लपके और अपनी-अपनी बात उसे सुनाने लगे. मगर ब्राह्मण भी उतना ही बहरा था जितने ये तीनों थे.
 “समझ रहा हूँ! सब समझ रहा हूँ!” उसने जवाब दिया, “उसने तुम तीनों को मुझे मनाने के लिए भेजा है, जिससे मैं घर वापस लौट जाऊँ (ब्राह्मण अपनी पत्नी के बारे में कह रहा था). मगर तुम लोग क़ामयाब नहीं होगे. क्या तुम्हें मालूम है कि पूरी दुनिया में इस औरत से बुरी और कोई औरत नहीं हो सकती. जब से मेरी उससे शादी हुई है, उसने मुझसे इतने पाप करवाए हैं कि गंगा के पानी से भी वे धुल नहीं सकते. बेहतर है कि मैं परदेस में जाकर भीख माँगने लगूँ. मैंने पक्का फ़ैसला कर लिया है और तुम्हारी सारी मिन्नतें भी मुझे अपना इरादा बदलकर उस औरत के साथ रहने पर मजबूर नहीं कर सकतीं.”
अब तो पहले से भी ज़्यादा शोर होने लगा; सभी गला फ़ाड़-फ़ाड़कर चिल्ला रहे थे, कोई भी एक दूसरे की बात नहीं समझ रहा था. इस बीच घोड़ा-चोर ने कई आदमियों को उनकी ओर भागकर आते देखा, उसने समझा कि ये घोड़े के मालिक हैं. वह फ़ौरन घोड़े से कूदकर भाग गया.
चरवाहे ने देखा कि देर होती जा रही है, और उसकी भेड़ें इधर-उधर भाग गई हैं, इसलिए उसने जल्दी-जल्दी अपनी भेड़ों को इकट्ठा किया और गाँव की ओर चल पड़ा. वह भुनभुना रहा था कि दुनिया में इन्साफ़ नामकी चीज़ ही नहीं है, और सारा दोष उस साँप पर लगा रहा था, जिसने आज घर से निकलते ही उसका रास्ता काटा था – हिन्दुस्तानियों में ये एक बुरा शगुन समझा जाता है. 
तल्यारी अपने काटे हुए घास के ढेर के पास आया, और वहाँ निरपराध, मोटी-ताज़ी भेड़ को देखा जो इस झगड़े का कारण थी. उसने उसे कंधे पर डाला और अपने घर ले आया. उसकी नज़र में चरवाहे की यही सज़ा थी.
ब्राह्मण पास ही के गाँव में रात गुज़ारने के लिए रुक गया. भूख और थकान ने उसके क्रोध को काफ़ी हद तक शांत कर दिया था. और दूसरे दिन उसके रिश्तेदारों और मित्रों ने आकर उसे घर वापस लौटने के  मना लिया. उन्होंने ये वादा किया कि उसकी झगडालू बीबी को अच्छी सलाह देकर ठीक कर देंगे.
दोस्तों, इस कहानी को पढ़कर तुम्हारे दिमाग़ में कौन सा ख़याल आता है? शायद, कुछ इस तरह का: दुनिया में सब तरह के लोग होते हैं, बड़े भी और छोटे भी, जो हालाँकि बहरे नहीं होते, मगर बहरों से बेहतर भी नहीं होते: उनसे अगर कुछ कहो, तो वो सुनते नहीं हैं; किसी भी बात का यक़ीन दिलाओ – समझते नहीं हैं; अगर एक दूसरे से मिलते हैं तो बहस करने लगते हैं, वे ख़ुद भी नहीं जानते कि किस बात पर बहस कर रहे हैं. बगैर किसी कारण के झगड़ने लगते हैं, बिना अपमान के बुरा मान जाते हैं, मगर ख़ुद लोगों की शिकायत करते रहते हैं, क़िस्मत को दोष देते हैं या फिर अपने दुख का कारण किसी शगुन-वगुन को मान बैठते हैं, जैसे कि नमक का बिखरना, काँच का टूटना. मिसाल के तौर पर मेरा एक दोस्त कभी भी क्लास में टीचर की बात नहीं सुनत था, और अपनी बेंच पर बहरे जैसा बैठा रहता था. हुआ क्या? वो बेवकूफ़ ही रहा: कोई भी काम उससे हो नहीं पाता था. होशियार लोगों को उस पर दया आती है, चालाक लोग उसे धोखा देते हैं, और वो, क़िस्मत को ही दोष देता है.
दोस्तों, मेहेरबानी करके बहरे मत बनो! हमें ईश्वर ने कान इसलिए दिए हैं कि हम सुन सकें. एक बुद्धिमान आदमी ने ये कहा था कि हमारे पास दो कान और एक ज़ुबान होती है और इसलिए, हमें ज़्यादा बोलने के बजाय ज़्यादा सुनना चाहिए.

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