सोमवार, 25 फ़रवरी 2019

Granny's Gift




दादी का गिफ़्ट
लेखक : मिखाइल ज़ोशेन्का
अनुवाद : आ. चारुमति रामदास

मेरी एक दादी थी और वह मुझसे बेहद प्यार करती थी.
हर महीने वह हमारे यहाँ आती और हमें खिलौने देती. ऊपर से पेस्ट्रियों का एक पूरी टोकरी भी लाती.
सारी पेस्ट्रियों में से वह मुझे अपनी पसन्द की पेस्ट्री चुनने देती.
मगर मेरी बड़ी बहन ल्योल्या को दादी उतना प्यार नहीं करती थी. उसे अपनी पसन्द की पेस्ट्री भी नहीं चुनने देती. वह ख़ुद ही उसे, जो हाथ आती, वह दे देती.
इस वजह से मेरी बहन ल्योल्या सारा गुस्सा मुझ पर उतारती,  हाँ दादी से वह कुछ न कहती.
एक बार गर्मियों में दादी हमारे पास समर-कॉटेज में आई. दिन बेहद ख़ूबसूरत था, दादी समर कॉटेज में आई और बाग से होकर घर में आने लगी. उसके एक हाथ में पेस्ट्रियों की टोकरी और दूसरे हाथ में - पर्स था.
मैं और ल्योल्या दादी के पास भागे और उसे नमस्ते किया. हमने बड़े अफ़सोस के साथ देखा कि इस बार दादी हमारे लिए पेस्ट्रियों के अलावा और कुछ नहीं लाई है.
तब मेरी बहन ल्योल्या ने दादी से कहा:
“दादी, क्या सचमुच तुम पेस्ट्रियों के अलावा हमारे कुछ भी नहीं लाई हो?”
मेरी दादी को ल्योल्या पर गुस्सा आ गया और उसने उसे जवाब दिया :
“लाई हूँ. मगर बुरी लड़की को नहीं दूँगी, जो इतनी बेशर्मी से उसके बारे में पूछती है. गिफ्ट तो अच्छे बच्चे मीन्या को मिलेगा, जो अपनी समझ-बूझ वाली ख़ामोशी की वजह से दुनिया में सबसे अच्छा है.”
इतना कहकर दादी ने मुझे हाथ खोलने के लिए कहा.
और उसने मेरी हथेली पर दस-दस कोपेक के नये-नये सिक्के रख दिए.
मैं बेवकूफ़ की तरह खड़ा-खड़ा नये सिक्कों की ओर देखता रहा, जो मेरी हथेली पर पड़े थे. और ल्योल्या भी इन सिक्कों की ओर देख रही थी. वह कुछ भी नहीं कह रही थी. सिर्फ उसकी आँखों से दुष्टता झाँक रही थी.   
दादी ने मेरा लाड़ किया और चाय पीने चली गई. और तब ल्योल्या ने मेरे हाथ पर ज़ोर से नीचे से ऊपर को मारा, जिससे सारे सिक्के हथेली में उछलकर घास में और गड्ढों में गिर गए. मैं ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा, जिससे सब बड़े लोग भाग कर बाहर आ गए – पापा, मम्मा और दादी. सब लोग फ़ौरन झुककर मेरे गिरे हुए सिक्के ढूँढ़ने लगे.
जब एक को छोड़कर बाकी सारे सिक्के मिल गए, तो दादी ने कहा :
“देखा, मैंने ठीक किया न, जो ल्योल्का को एक भी सिक्का नहीं दिया! देखो कैसी जलकुक्कड़ है ये : सोचती है, कि अगर मुझे नहीं, तो उसे भी नहीं मिलना चाहिए! ये चुडैल है कहाँ इस वक्त?”
डाँट से बचने के लिए ल्योल्या एक पेड़ पर चढ़ गई थी और, वहाँ बैठे-बैठे मुझे और दादी को ज़ुबान चिढ़ा रही थी.
पड़ोस के बच्चे पाव्लिक ने ल्योल्या को पेड़ से उतारने के लिए उस पर गुलेल चलाना चाहा. मगर दादी ने उसे ऐसा करने की इजाज़त नहीं दी, क्योंकि ल्योल्या नीचे गिर सकती थी और उसका पैर टूट सकता था. दादी को ऐसा ख़तरनाक काम नहीं करना था और वह बच्चे से उसकी गुलेल भी छीनने लगी. तब बच्चे को सभी पर गुस्सा आ गया और दादी पर भी और उसने दूर से उस पर गुलेल चला दी.
दादी, “आह-आह” करते हुए बोली :
“आपको ये सब कैसा लग रहा है? इस चुडैल की वजह से मुझ पर गुलेल चलाई गई. नहीं, मैं अब दुबारा तुम्हारे यहाँ नहीं आऊँगी, जिससे इस तरह के नाटक न हों. बेहतर है, कि आप मेरे पास मेरे अच्छे बच्चे मीन्का को लाएँ. और हर बार ल्योल्का को चिढ़ाने के लिए मैं उसे गिफ्ट्स देती रहूँगी.”
पापा ने कहा :
“अच्छी बात है. मैं ऐसा ही करूँगा. मगर मम्मा आप ना बेकार ही मीन्का की तारीफ़ कर रही हैं! बेशक, ल्योल्या ने अच्छा बर्ताव नहीं किया. मगर मीन्का भी दुनिया भर के सबसे अच्छे बच्चों में से नहीं है. दुनिया में अच्छा बच्चा वो ही होगा, जो ये देखकर, कि बहन के पास कुछ नहीं है, उसे भी कुछ सिक्के देता. इससे वह अपनी बहन को गुस्सा नहीं दिलाता और ना ही उसे जलन होती.
अपने पेड़ पर बैठी हुई ल्योल्या ने कहा :
“और दुनिया की सबसे अच्छी दादी वो होती है, जो सभी बच्चों को कुछ न कुछ देती है, न कि सिर्फ मीन्का को, जो अपनी बेवकूफ़ी या चालाकी की वजह से चुपचाप रहता है और इसीलिए उसे पेस्ट्रियाँ और गिफ्ट्स मिलते हैं.
दादी का और ज़्यादा बाग में रुकने का मन नहीं हुआ.
और सारे बड़े लोग चाय पीने के लिए बाल्कनी में चले गए.
तब मैंने ल्योल्या से कहा :
“ल्योल्या, पेड़ से नीचे आ जा! मैं तुझे दो सिक्के दूँगा.”
ल्योल्या पेड़ से नीचे आई, और मैंने उसे दो सिक्के दिए. और अच्छे मूड में बाल्कनी में गया और बड़ों से बोला :
“वैसे, दादी ने ठीक कहा था. मैं दुनिया का सबसे अच्छा लड़का हूँ – मैंने अभी ल्योल्या को दो सिक्के दिए हैं.”
दादी जोश में चीख़ी. और मम्मा भी चीखी. मगर पापा, नाक-भौंह चढ़ाकर बोले :
“नहीं, दुनिया का सबसे अच्छा बच्चा वो होता है, जो कोई अच्छा काम करता है, और फिर शेखी नहीं मारता.”
तब मैं भाग कर बाग में गया, अपनी बहन को ढूँढ़ा और उसे एक और सिक्का दिया. इस बारे में मैंने बड़ों को कुछ भी नहीं बताया.
इस तरह ल्योल्का के पास तीन सिक्के हो गए, और चौथा सिक्का उसे घास में मिल गया, जहाँ उसने मेरे हाथ पर मारा था.
इन चार सिक्कों से ल्योल्का ने आईस्क्रीम खरीदी. और दो घण्टे उसे खाती रही, जी भर के खाया, मगर फिर भी थोड़ी सी आईस्क्रीम बच ही गई.
शाम को उसके पेट में दर्द होने लगा, और ल्योल्का पूरे हफ़्ते बिस्तर में पड़ी रही.
बच्चों, तब से काफ़ी साल बीत गए.
मगर मुझे आज तक पापा के शब्द याद हैं.
नहीं, शायद, मैं बहुत अच्छा नहीं बन पाया. ये बहुत मुश्किल है. मगर बच्चों मैं हमेशा कोशिश करता रहा.
ये भी अच्छी बात है.
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सोमवार, 18 फ़रवरी 2019

How the Pigeon saved the Kazak




कबूतर ने कैसे कज़ाक की रक्षा की
रूसी लोककथा
अनुवाद : आ. चारुमति रामदास

लम्बी-चौड़ी विस्तीर्ण स्तेपी में कज़ाक का सामना तुर्की फ़ौज की टुकड़ी से हुआ. आत्मसमर्पण करना कज़ाक को अपमानजनक लगा, और उसने मुकाबला करने का फ़ैसला किया. अपने भले घोड़े को चाबुक मारा, टीले पर चढ़ गया, दुश्मनों का इंतज़ार करने लगा. तुर्क टीले के पास आए, उसे चारों ओर से घेर लिया और चिल्लाए :
“देख रहे हो, हम कितने सारे हैं, और तू अकेला है! अपने हथियार डाल दे और हमारे सामने आत्मसमर्पण कर दे!
कज़ाक ने जवाब दिया :
“चाहे मैं अकेला हूँ, और तुम बहुत सारे हो, मगर कज़ाक कभी दुश्मन के सामने आत्मसमर्पण नहीं करता. जब तक ज़िंदा हूँ, तुम से लड़ता रहूँगा.
तुर्कों को गुस्सा आ गया, वे कज़ाक पर टूट पड़े. वह सुबह से आधी रात तक उन्हें काटता रहा, टीले के चारों ओर मृतकों का पहाड़ लगा दिया. कज़ाक की तलवार कुंद हो गई. देखा कज़ाक ने, कि उसका अंत निकट है. मगर तभी अँधेरा हो गया. तुर्क पीछे हट गए – उन्हें डर था, कि कहीं अँधेरे में अपनों ही को न काट दें. उन्होंने फ़ैसला किया कि सुबह तक तो कज़ाक उनसे बचकर कहीं जाएगा नहीं.
कज़ाक आराम करने लगा, उसने घोड़े की ज़ीन खोल दी और उसे खुला छोड़ दिया – अपने आप घर जाने दो. और ख़ुद टीले की चोटी पर मुर्दा होने का बहाना बनाते हुए पसर गया.
उसे पता था कि तुर्कों को मुर्दे अच्छे नहीं लगते, उन्हें वह हाथों से या हथियारों तक से छूते नहीं हैं – डरते हैं कि कहीं नापाक न हो जाएँ.
सुबह तुर्क उठे और टीले की ओर लपके. देखते क्या हैं, कि कज़ाक पड़ा है और उसके सिर के पास भूरा कबूतर बैठा है, और चिड़िया चहचहा रही है. तुर्कों को बड़ा अचरज हुआ : कज़ाक के हाथ, पैर, सीना – कुछ भी कटा हुआ नहीं है, मगर वह पड़ा है, हिल-डुल नहीं रहा है, सिर्फ हवा उसकी मूँछे हिला देती थी. तुर्क सोचने लगे – कहीं ये कज़ाक हमें धोखा तो नहीं दे रहा है, मुर्दा होने का दिखावा तो नहीं कर रहा है. उन्होंने म्यानों से तलवारें निकालीं, कज़ाक को चीरने की तैयारी की. मगर डर भी रहे थे, कि अगर कहीं वो सचमुच में मुर्दा हो तो? उन्होंने पंछियों से पूछने का फ़ैसला किया – वे धोखा नहीं देंगे, सच बोलेंगे. तुर्कों ने चिड़िया से पूछा :
“ऐ, नन्हे पंछी, तू बता, वो ज़िन्दा है या नहीं? चिड़िया एक पैर पे फुदकी और चहचहाई “ज़िन्दा है, ज़िन्दा है! ज़िन्दा है, ज़िन्दा है!”
मगर एक तुर्क यूँ ही कबूतर की तरफ़ मुड़ा और पूछने लगा : “और, तू क्या कहता है?”
कबूतर ने पंख समेट लिए और गुटर गूँ करते हुए बोला : “मर गया...मर गया...”
तुर्क सोच में पड़ गए, समझ नहीं पा रहे थे कि उन्हें क्या करना चाहिए – किसकी बात सुनें, चिड़िया की या कबूतर की. और कज़ाक तो पड़ा है कोई हलचल नहीं, सिर्फ हवा में मूँछें थरथरा रही हैं.
तुर्क टीले पर बैठ गए, पैर मोड़ लिए, बैठकर सोचने लगे. शाम तक बैठे रहे, फिर उठे और कहने लगे :
“चूँकि कज़ाक बेसुध पड़ा है, हिल-डुल नहीं रहा है, मतलब – वो मर गया है. और ये चिड़िया, नामाकूल पंछी है, हमें धोखा देने चली थी.”
घोड़ों पर बैठे और चले गए. कज़ाक कुछ देर और लेटा रहा, फिर उठा और अपने घर चल दिया.
तब से ख़ामोश दोन के इलाके में चिड़िया को बातूनी कहने लगे. बूढ़े और जवान कज़ाक उसे अपने घरों की छतों से भगा देते हैं. मगर कबूतर को, जिसने कज़ाक को मौत के मुँह से बचाया था, अपने आँगनों में आने देते हैं और उसके पिल्लों की हिफ़ाज़त करते हैं.

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रविवार, 17 फ़रवरी 2019

How did they get back the Sun




जानवरों और पंछियों ने सूरज को कैसे ढूँढ़ा
एक एस्किमो कहानी
अनुवाद : आ. चारुमति रामदास


तो ऐसा हुआ था. एक बार दुष्ट आत्माओं ने, जिन्हें तुंगाक कहते हैं (ये दुष्ट आत्माएँ अजीब-अजीब रूप धारण करती हैं, और लोगों के लिए हर तरह की मुसीबतें लाती हैं) टुन्ड्रा के निवासियों से सूरज को छीन लिया. अब जानवर और पंछी हमेशा अँधेरे में ही रहने को मजबूर थे, मुश्किल से अपने लिए खाने की तलाश करते. आख़िरकार उन्होंने एक बड़ी सभा बुलाने का फैसला किया. हर तरह के जानवरों और पंछियों के प्रतिनिधि सभा में आए. बूढ़ा कौआ, जिसे सब बहुत अकलमन्द समझते थे, बोला :
“पंखों वाले और बालों वाले भाइयों! हम कब तक अँधेरे में रहेंगे? मैंने अपने बुज़ुर्गों से सुना है कि हमारी धरती से कुछ ही दूर, ज़मीन के नीचे एक गहरी खाई में तुंगाक रहते हैं, जिन्होंने हमारी रोशनी छीन ली है. उन तुंगाकों के पास सफ़ेद पत्थर के एक बर्तन में एक बड़ा चमकता हुआ गोला है. इस गोले को ही वे लोग सूरज कहते हैं. अगर तुंगाकों से उस गोले को छीन लिया जाए, तो धरती प्रकाश से जगमगा उठेगी. तो, मैं बूढ़ा कौआ, तुम्हें सलाह देता हूँ : इस सूरज को लाने के लिए हममें से सबसे बड़े और सबसे ताकतवर को – भूरे भालू को भेजा जाए...”
“भालू, भालू!” जानवर और पंछी चिल्लाए. वहीं पास में बूढ़ा, बहरा उल्लू स्लेज दुरुस्त कर रहा था, उसने पास बैठी नन्ही बर्फीली चिड़िया से पूछा:
“ये जानवर और पंछी किस बारे में बहस कर रहे हैं?”
बर्फीली चिड़िया ने जवाब दिया :
“भालू को भेजना चाहते हैं सूरज को लाने के लिए, वो सबसे ताकतवर जो है.”
“उनकी कोशिशें बेकार हैं,” उल्लू बोला. “रास्ते में भालू को खूब खाने-पीने की चीज़ें मिलेंगी और वह सब भूल जाएगा. हमारे पास सूरज आएगा ही नहीं.”   
उल्लू की बात सुनकर जानवर और पंछी उससे सहमत हो गए.
बूढ़े कौए ने नया सुझाव दिया:
“भेड़िए को भेजेंगे, आख़िर भालू के बाद वो ही हम सबसे ज़्यादा ताकतवर और तेज़ है.”
“भेड़िया, भेड़िया!” जानवर और पंछी चिल्लाए.
“वे किस बात पर बहस कर रहे हैं?” उल्लू ने फिर पूछा.
“सूरज को लाने के लिए भेड़िए को भेजने का फ़ैसला किया है,” नन्ही चेड़िया ने कहा.
“बेकार ही मेहनत कर रहे हैं,” उल्लू बोला. “भेड़िया हिरन को देखेगा, उसे मार डालेगा और सूरज के बारे में भूल जाएगा.”
उल्लू की बात सुनकर जानवर और पंछी उससे सहमत हो गए.
अब नन्हे चूहे ने कहा:
“इस ख़रगोश को भेजा जाए, वह सबसे बढ़िया छलांग लगाता है और चलते चलते ही सूरज को लपक सकता है.”
जानवर और पंछी चिल्लाए:
“ख़रगोश, ख़रगोश, ख़रगोश!”
बहरे उल्लू ने तीसरी बार नन्ही चिड़िया से पूछा:
“वे किस बात पर बहस कर रहे हैं?”
नन्ही चिड़िया बिल्कुल उसके कान में चिल्लाई :
“सूरज के लिए ख़रगोश को भेजने का फ़ैसला किया है, क्योंकि वह सबसे बढ़िया छलांग लगाता है और चलते-चलते ही सूरज को लपक सकता है.”
“ये शायद, सूरज को ढूँढ़ लाएगा. वह सचमुच में बढ़िया छलांग लगाता है और लालची भी नहीं है. कोई भी चीज़ उसे रास्ते में नहीं रोक सकती,” उल्लू ने कहा.
इस तरह ख़रगोश को सूरज को छीनकर लाने के लिए चुना गया, और वह, बिना ज़्यादा सोचे, अपनी राह पर रवाना भी हो गया.
चलता रहा, चलता रहा और आख़िर में उसे दूर, अपने सामने एक चमकदार धब्बा दिखाई दिया. ख़रगोश धब्बे के करीब आने लगा और देखता क्या है, कि ज़मीन के नीचे से एक संकरी दरार से चमकदार किरणें फूट रही हैं. ख़रगोश ने दरार में झाँक कर देखा : सफ़ेद पत्थर के एक बड़े बर्तन में आग का गोला रखा है और उसकी चमकदार किरणें ज़मीन के नीचे, तहख़ाने को प्रकाशित कर रही हैं, और तहख़ाने के दूसरे कोने में हिरनों की नरम खालों पर तुंगाक लेटे हैं. ख़रगोश तहख़ाने में उतरा, उसने पत्थर के बर्तन से आग के गोले को उठाया और उसे साथ लिए दरार से बाहर कूद गया.
तुंगाक सचेत हो गए, ख़रगोश के पीछे भागे. ख़रगोश अपनी पूरी ताकत से भाग रहा था, मगर तुंगाक उसके बिल्कुल नज़दीक आ गए. तब ख़रगोश ने अपने पंजे से गोले पर प्रहार किया, उसके दो टुकड़े हो गए. एक हिस्सा, छोटा था, दूसरा – बड़ा. ख़रगोश ने पूरी ताकत से छोटे हिस्से पर प्रहार किया – वह आसमान में उड़ गया और चाँद बन गया. बड़े हिस्से को ख़रगोश ने उठाया, उस पर और भी ज़ोर से प्रहार किया – वह आसमान की ओर उठने लगा और सूरज बन गया. धरती पर अचानक उजाला हो गया!
तुंगाक, इस रोशनी से अंधे होकर तहख़ाने में छिप गए और तब से कभी ज़मीन पर आए ही नहीं. और जानवर और पंछी, हर बसन्त में ख़रगोश के सम्मान में सूरज का उत्सव मनाने लगे और ख़ुशी से चिल्लाए :
“हमारा ख़रगोश – ज़िन्दाबाद, सूरज को लाने वाला – ज़िन्दाबाद!”
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गुरुवार, 7 फ़रवरी 2019

Beard



दाढ़ी

लेखक - बरीस झित्कोव
अनुवाद – आ. चारुमति रामदास


एक बूढ़ा रात को समुन्दर पर जमी हुई कड़ी बर्फ पर जा रहा था. वह किनारे के बिल्कुल पास पहुँच भी गया था, कि अचानक बर्फ़ की सतह टूट गई, और बूढ़ा पानी में गिर पड़ा. किनारे के पास खड़ा था एक स्टीमर और स्टीमर से एक लोहे की जंज़ीर पानी में लंगर की ओर जा रही थी.
बूढ़ा जंज़ीर तक पहुँचा और उसे पकड़कर ऊपर चढ़ने लगा. थोड़ा सा चढ़ा, थक गया और चिल्लाने लगा :
“बचाओ!”

स्टीमर पर सवार नाविक ने सुना, देखा, - लंगर वाली जंज़ीर से कोई चिपका है और चिल्ला रहा है.

नाविक ने ज़्यादा नहीं सोचा, उसने एक रस्सी ली, उसका सिरा दाँतों में दबाया और जंज़ीर से नीचे फिसला ताकि बूढ़े को बचा सके.

“ले”, नाविक बोला, “दद्दू, रस्सी को अपने चारों ओर लपेट ले, मैं तुझे ऊपर खींच लूँगा.

मगर बूढ़ा बोला:

“मुझे नहीं खींच सकते. मेरी दाढ़ी लोहे से चिपक कर जम गई है.”

नाविक ने चाकू निकाला.

“दद्दू, दाढ़ी काट दे,” वह बोला.

“नहीं,” बूढ़ा बोला, “दाढ़ी के बगैर मैं कैसे रहूँगा?”

“तुम बसन्त आने तक तो दाढ़ी से टंगे नहीं रहोगे,” नाविक ने कहा, उसने चाकू से दाढ़ी पकड़ी, बूढ़े को रस्सी से लपेटा और उसे ऊपर खींच लिया.

फिर नाविक उसे गर्म कैबिन में लाया और बोला:

“कपड़े उतारो, दद्दू, और बिस्तर में सो जाओ, मैं तुम्हारे लिए चाय बनाता हूँ.”

“कहाँ की चाय,” दद्दू बोला, “अगर मैं बिना दाढ़ी का रह गया!” और वह रोने लगा.

“अजीब हो तुम, दद्दू,” नाविक बोला, “थोड़ी सी देर हो जाती, तो तुम बस पानी में गिर ही जाते, और दाढ़ी का अफ़सोस क्यों कर रहे हो, वो तो फिर से आ ही जायेगी.”

बूढ़े ने गीले कपड़े उतारे और गर्म बिस्तर में लेट गया.

सुबह वह नाविक से बोला:

“तू सच कह रहा है : दाढ़ी तो फिर से आ ही जाएगी, मगर तेरे बिना तो मैं मर ही जाता.”

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