दाढ़ी
लेखक - बरीस
झित्कोव
अनुवाद – आ.
चारुमति रामदास
एक बूढ़ा रात को समुन्दर पर जमी हुई कड़ी
बर्फ पर जा रहा था. वह किनारे के बिल्कुल पास पहुँच भी गया था,
कि अचानक बर्फ़ की सतह टूट गई, और बूढ़ा पानी
में गिर पड़ा. किनारे के पास खड़ा था एक स्टीमर और स्टीमर से एक लोहे की जंज़ीर पानी
में लंगर की ओर जा रही थी.
बूढ़ा जंज़ीर तक पहुँचा और
उसे पकड़कर ऊपर चढ़ने लगा. थोड़ा सा चढ़ा, थक गया और
चिल्लाने लगा :
“बचाओ!”
स्टीमर पर सवार नाविक ने
सुना, देखा, - लंगर वाली जंज़ीर
से कोई चिपका है और चिल्ला रहा है.
नाविक ने ज़्यादा नहीं सोचा,
उसने एक रस्सी ली, उसका सिरा दाँतों में दबाया
और जंज़ीर से नीचे फिसला ताकि बूढ़े को बचा सके.
“ले”,
नाविक बोला, “दद्दू, रस्सी
को अपने चारों ओर लपेट ले, मैं तुझे ऊपर खींच लूँगा.
मगर बूढ़ा बोला:
“मुझे नहीं खींच सकते.
मेरी दाढ़ी लोहे से चिपक कर जम गई है.”
नाविक ने चाकू निकाला.
“दद्दू,
दाढ़ी काट दे,” वह बोला.
“नहीं,”
बूढ़ा बोला, “दाढ़ी के बगैर मैं कैसे रहूँगा?”
“तुम बसन्त आने तक तो दाढ़ी
से टंगे नहीं रहोगे,” नाविक ने कहा, उसने चाकू से दाढ़ी पकड़ी, बूढ़े को रस्सी से लपेटा और
उसे ऊपर खींच लिया.
फिर नाविक उसे गर्म कैबिन
में लाया और बोला:
“कपड़े उतारो,
दद्दू, और बिस्तर में सो जाओ, मैं तुम्हारे लिए चाय बनाता हूँ.”
“कहाँ की चाय,”
दद्दू बोला, “अगर मैं बिना दाढ़ी का रह गया!”
और वह रोने लगा.
“अजीब हो तुम,
दद्दू,” नाविक बोला, “थोड़ी
सी देर हो जाती, तो तुम बस पानी में गिर ही जाते, और दाढ़ी का अफ़सोस क्यों कर रहे हो, वो तो फिर से आ
ही जायेगी.”
बूढ़े ने गीले कपड़े उतारे
और गर्म बिस्तर में लेट गया.
सुबह वह नाविक से बोला:
“तू सच कह रहा है : दाढ़ी
तो फिर से आ ही जाएगी, मगर तेरे बिना तो मैं मर ही
जाता.”
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