मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

Karasik

करासिक
लेखक : निकोलाय नोसोव
अनु.: आ. चारुमति रामदास

मम्मा ने कुछ ही दिन पहले वितालिक को एक्वेरियम गिफ्ट में दिया, उसमें एक छोटी-सी मछली थी. बहुत प्यारी थी वो मछली, बहुत सुन्दर! करासिक (सिल्वर फिश) - - ये ही था उसका नाम. वितालिक बहुत ख़ुश था, कि उसके पास करासिक है. शुरू में तो वह मछली में बहुत दिलचस्पी लेता था...उसे खिलाता, अक्वेरियम का पानी बदलता, मगर फिर उसे उसकी आदत हो गई और वह कभी-कभी उसे समय पर खिलाना भी भूल जाता.
वितालिक के पास मूर्ज़िक नाम का एक छोटा-सा बिल्ली का पिल्ला भी था. वो भूरा, रोएँदार था, और उसकी आँखें बड़ी-बड़ी, हरी-हरी थीं. मूर्ज़िक को मछली की ओर देखना बहुत अच्छा लगता था. वह घंटों तक एक्वेरियम के पास बैठा रहता, और करासिक से अपनी नज़र नहीं हटाता.
 “तू मूर्ज़िक पर नज़र रख,” मम्मा ने वितालिक से कहा. “कहीं वो तेरी करासिक को खा न जाए.”
 “नहीं खाएगा,” वितालिक ने जवाब दिया. “मैं उस पर नज़र रखूँगा.”
एक बार, जब मम्मा घर पे नहीं थी, तो वितालिक के पास उसका दोस्त सिर्योझा आया. उसने एक्वेरियम में मछली को देखा और बोला:
 “चल, अदला-बदली करते हैं. तू मुझे करासिक दे दे, और मैं, अगर तू चाहे, तो तुझे अपनी व्हिसल दूँगा.”
 “मुझे व्हिसल की क्या ज़रूरत है?” वितालिक ने कहा. “मेरे हिसाब से तो मछली व्हिसल से कहीं बेहतर है.”
 “बेहतर कैसे है? व्हिसल तो बजा सकते हो. और मछली का क्या? क्या मछली सीटी बजा सकती है?”
 “मछली क्यों सीटी बजाने लगी?” वितालिक ने जवाब दिया. “मछली सीटी नहीं बजा सकती, मगर वो तैरती है. क्या व्हिसल तैर सकती है?”
 “लो, कर लो बात!” सिर्योझा हँसने लगा. “कहीं व्हिसल को तैरते हुए देखा है! फिर मछली को बिल्ली खा सकती है, तो तेरे पास ना तो व्हिसल होगी और ना ही मछली. मगर बिल्ली व्हिसल नहीं खा सकती - - वो लोहे की जो होती है.”
 “मम्मा मुझे बदलने की इजाज़त नहीं देगी. वो कहती है कि अगर मुझे किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो वह ख़ुद ख़रीद कर देगी,” वितालिक ने कहा.
 “ऐसी व्हिसल वो कहाँ खरीदेगी?” सिर्योझा ने जवाब दिया. “ऐसी व्हिसलें बिकती नहीं हैं. ये सचमुच की पुलिस की व्हिसल है. मैं, जैसे ही कम्पाऊण्ड में जाता हूँ, तो ऐसी व्हिसल बजाता हूँ, ऐसी व्हिसल बजाता हूँ, कि सब सोचने लगते हैं कि पुलिस वाला आया है.”
सिर्योझा ने जेब से व्हिसल निकाली और बजाने लगा.
“अच्छा, दिखा,” वितालिक ने कहा.
उसने व्हिसल ली और उसमें फूँक मारी. व्हिसल ज़ोर से, कम-ज़्यादा होते हुए बजी. वितालिक को व्हिसल की आवाज़ बड़ी अच्छी लगी. उसका दिल व्हिसल लेने को करने लगा, मगर वह फ़ौरन फ़ैसला नहीं कर पाया और बोला:
“और तेरे घर में मछली रहेगी कहाँ? तेरे पास तो एक्वेरियम भी नहीं है.”
 “मगर मैं उसे जैम के खाली डिब्बे में रखूँगा. हमारे पास बड़ा-सारा डिब्बा है.”
 “अच्छा, ठीक है,” वितालिक राज़ी हो गया.
बच्चे एक्वेरियम में मछली पकड़ने लगे, मगर करासिक बड़ी तेज़ी से तैर रही थी और हाथों में नहीं आ रही थी. उन्होंने चारों ओर पानी छपछप कर दिया, और सिर्योझा की आस्तीनें तो कोहनियों तक गीली हो गईं. आख़िरकार करासिक उनकी पकड़ में आ ही गई.    
 “पकड़ लिया!” वह चिल्लाया. “जल्दी से कोई पानी से भरा बाउल दे! मैं मछली को उसमें रखूँगा.”
वितालिक ने जल्दी से बाउल में पानी डाला. सिर्योझा ने करासिक को बाउल में डाल दिया. बच्चे सिर्योझा के घर गए - - मछली को डिब्बे में डालने के लिए. डिब्बा बहुत बड़ा नहीं था, और करासिक को उसमें उतनी जगह नहीं मिल रही थी, जितनी एक्वेरियम में मिलती थी. बच्चे काफ़ी देर तक देखते रहे कि करासिक डिब्बे में कैसे तैरती है. सिर्योझा ख़ुश था, मगर वितालिक को दुख हो रहा था, कि अब उसके पास मछली नहीं होगी, मगर ख़ास बात ये थी कि वह मम्मा के सामने कैसे स्वीकार करेगा कि उसने व्हिसल के बदले मछली सिर्योझा को दे दी.
 “कोई बात नहीं, हो सकता है कि मम्मा का इस बात पर फ़ौरन ध्यान ही न जाए कि मछली ग़ायब है,” वितालिक ने सोचा और अपने घर चल पड़ा.
जब वह वापस लौटा तो मम्मा घर आ चुकी थी.
 “तेरी मछली कहाँ है?” उसने पूछा.
 वितालिक परेशान हो गया और समझ ही नहीं पाया कि क्या जवाब दे.
 “हो सकता है कि मूर्ज़िक ने उसे खा लिया हो?” मम्मा ने पूछा.
 “मालूम नहीं,” वितालिक बुदबुदाया.
 “देखा,” मम्मा ने कहा, “उसने ऐसा समय चुना जब घर में कोई नहीं था, और एक्वेरियम से मछली निकाल ली! कहाँ है, वो डाकू? चल, अभ्भी उसे ढूँढ़कर मेरे पास ला!”
“मूर्ज़िक! मूर्ज़िक!” वितालिक पुकारने लगा, मगर पिल्ला कहीं भी नहीं था.
 “शायद, वेंटीलेटर से भाग गया,” मम्मा ने कहा. “कम्पाऊण्ड में जाकर उसे पुकार.”
वितालिक ने कोट पहना और कम्पाऊण्ड में गया.
 “ये कैसी बुरी बात हो गई!” वह सोच रहा था. “अब मेरी वजह से मूर्ज़िक को सज़ा मिलेगी.”
वह वापस घर लौटकर कहना चाहता था कि मूर्ज़िक कम्पाऊण्ड में नहीं है, मगर तभी मूर्ज़िक ‘वेंट’ से बाहर उछला, जो घर के नीचे था, और तेज़ी से दरवाज़े की ओर भागा.
“मूर्ज़िन्का, घर मत जा,” वितालिक ने कहा. “मम्मा से तुझे मार पड़ेगी.”
मूर्ज़िक गुरगुराने लगा, वितालिक के पैर से अपनी पीठ रगड़ने लगा, फिर उसने बन्द दरवाज़े की ओर देखा और म्याँऊ-म्याँऊ करने लगा.
 “समझता नहीं है, बेवकूफ़,” वितालिक ने कहा. “तुझसे इन्सान की ज़ुबान में कह रहे हैं, कि घर जाना मना है.”
मगर मूर्ज़िक, ज़ाहिर है, कुछ भी नहीं समझा. वह वितालिक से लाड़ लड़ाता रहा, अपना बदन उससे रगड़ता रहा और हौले से उसे अपने सिर से धक्का देता रहा, मानो दरवाज़ा खोलने की जल्दी मचा रहा हो. वितालिक उसे दरवाज़े से दूर धकेलने लगा, मगर मूर्ज़िक हटना ही नहीं चाहता था. तब वितालिक दरवाज़े के पीछे मूर्ज़िक से छुप गया.
 “म्याँऊ!” मूर्ज़िक दरवाज़े के नीचे से चिल्लाया.
वितालिक फ़ौरन वापस चला गया:
 “धीरे! चिल्ला रहा है! मम्मा सुन लेगी, तब पता चलेगा!”
उसने मूर्ज़िक को पकड़ लिया और उसे वापस घर के नीचे बने उसी ‘वेन्ट’ में घुसाने लगा, जहाँ से मूर्ज़िक अभी-अभी बाहर निकला था. मूर्ज़िक अपने चारों पंजों से प्रतिकार कर रहा था, वह ‘वेन्ट’ में वापस नहीं जाना चाहता था.          
 “अन्दर जा, बेवकूफ़!” वितालिक उसे मनाने लगा. “वहाँ थोड़ी देर बैठा रह.”
आख़िर में उसने उसे पूरी तरह ‘वेन्ट’ में घुसा दिया. बस मूर्ज़िक की पूँछ बाहर झाँक रही थी. कुछ देर तक मूर्ज़िक गुस्से में अपनी पूँछ घुमाता रहा, फिर पूँछ भी वेन्ट में छुप गई. वितालिक ख़ुश हो गया. उसने सोचा कि बिल्ली का पिल्ला अब नीचे ‘सेलार’ में ही रह जाएगा, मगर तभी मूर्ज़िक ने फिर से छेद में से अपना सिर बाहर निकाला.
 “ओह, कब तू अन्दर जाएगा, ठस दिमाग़!” वितालिक ने फुफकारते हुए कहा और हाथों से छेद बन्द कर दिया. “तुझसे कह रहे हैं कि घर में जाना मना है.”
 “म्याँऊ!” मूर्ज़िक चिल्लाया.
 “ठेंगे से ‘म्याँऊ’! वितालिक ने उसे चिढ़ाया. “ओह, अब तेरा क्या करूँ?”
वह चारों ओर नज़र घुमाकर कोई ऐसी चीज़ ढूँढ़ने लगा जिससे छेद बन्द किया जा सके. बगल में ही एक ईंट पड़ी थी. वितालिक ने उसे उठाया और छेद को ईंट से बन्द कर दिया.
 “अब नहीं निकल सकेगा तू बाहर,” उसने कहा. “वहीं, सेलार में बैठ, और कल मम्मा मछली के बारे में भूल जाएगी, तब मैं तुझे छोड़ दूँगा.”
वितालिक घर लौटा और बोला कि मूर्ज़िक कम्पाऊँड में नहीं है.
 “कोई बात नहीं,” मम्मा ने कहा, “लौट आएगा. मगर मैं इसके लिए उसे माफ़ नहीं करूँगी.”
खाना खाते समय वितालिक उदास था और वह कुछ भी खाना नहीं चाहता था.
 ‘मैं यहाँ खाना खा रहा हूँ,’ उसने सोचा, ‘और बेचारा मूर्ज़िक सेलार में बैठा है.’
जब मम्मा मेज़ से उठ गई, तो उसने चुपचाप जेब में एक कटलेट ठूँस लिया और कम्पाऊँड में भागा. वहाँ उसने ईंट हटाई, जिससे छेद बन्द किया था, और हौले से पुकारा:
 “मूर्ज़िक! मूर्ज़िक!”
मगर मूर्ज़िक ने जवाब ही नहीं दिया. वितालिक ने छेद में झाँका. सेलार में अँधेरा था और कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था.
 “मूर्ज़िक! मूर्ज़िन्का!” वितालिक पुकार रहा था. “मैं तेरे लिए कटलेट लाया हूँ!” मूर्ज़िक बाहर नहीं निकला.
 “नहीं चाहिए - - ठीक है, बैठा रह, ठस दिमाग़!” वितालिक ने कहा और घर लौट आया.
मूर्ज़िक के बिना उसे घर में सूना-सूना लग रहा था. दिल पर मानो बोझ महसूस हो रहा था, क्योंकि उसने मम्मा को धोखा दिया था. मम्मा ने देखा कि वह दुखी है, और कहा:
 “दुखी मत हो! मैं तुझे दूसरी मछली ला दूँगी.”
 “कोई ज़रूरत नहीं है,” वितालिक ने जवाब दिया.
वह मम्मा के सामने सब कुछ क़ुबूल कर लेना चाहता था, मगर हिम्मत नहीं हुई, और उसने कुछ भी नहीं कहा. तभी खिड़की के पीछे सरसराहट सुनाई दी और आवाज़ आई:
 “म्याँऊ!”
वितालिक ने खिड़की की ओर देखा और बाहर की ओर सिल पर मूर्ज़िक को देखा. ज़ाहिर है कि वह किसी और छेद से सेलार से बाहर निकल आया था.
 “आ--! आ ही गया वापस, डाकू कहीं का!” मम्मा ने कहा. “यहाँ आ, आ जा!”
मूर्ज़िक खुले हुए वेन्टीलेटर से कूद कर कमरे में आ गया. मम्मा उसे पकड़ना चाहती थी, मगर, ज़ाहिर था कि उसने भाँप लिया था, कि उसे सज़ा मिलने वाली है, और वह मेज़ के नीचे भाग गया.
”ओह, तू, चालाक!” मम्मा ने कहा. “समझ रहा है कि गुनहगार है. चल, पकड़ उसे.”
वितालिक मेज़ के नीचे रेंग गया, मूर्ज़िक ने उसे देखा और दीवान के नीचे दुबक गया. वितालिक ख़ुश था कि मूर्ज़िक उससे छूट गया है. वह दीवान के नीचे रेंग गया, मूर्ज़िक दीवान के नीचे से उछल कर भागा. वितालिक उसके पीछे-पीछे पूरे कमरे में भागने लगा.
 “तूने ये क्या शोर मचा रखा है? क्या तू इस तरह से उसे पकड़ सकेगा?”
अब मूर्ज़िक खिड़की की सिल पर कूदा, जहाँ एक्वेरियम रखा था, और वापस  वेन्टीलेटर पर कूदना चाहता था, मगर उसकी पकड़ छूट गई और वह धम् से एक्वेरियम में गिरा! पानी चारों तरफ उछला. मूर्ज़िक एक्वेरियम से बाहर उछला और अपना बदन झटकने लगा. अब मम्मा ने उसे गर्दन से पकड़ लिया:
 “ठहर, अभी तुझे सबक सिखाती हूँ!”
 “मम्मा, प्यारी मम्मा, मूर्ज़िक को मत मारो!” वितालिक रोने लगा.
 “दया दिखाने की कोई ज़रूरत नहीं है,” मम्मा ने कहा, “उसने तो मछली पर दया नहीं दिखाई.”
 “मम्मा, उसका कोई क़ुसूर नहीं है!”
 “ऐसे कैसे ‘क़ुसूर नहीं है’? तो फिर करासिक को कौन खा गया?”
 “उसने नहीं खाया.”
 “तो फिर किसने खाया?”
 वो, मैं...”
 “तूने खा लिया?” मम्मा को बड़ा ताज्जुब हुआ.
 “नहीं, मैंने खाया नहीं. मैंने उसे व्हिसल से बदल लिया.”
 “कौन सी व्हिसल से?”
 “इस वाली से.”
वितालिक ने जेब से व्हिसल निकालकर मम्मा को दिखाई.
 “तुझे शरम नहीं आती?” मम्मा ने कहा.
 “मैंने अनजाने में ही...सिर्योझा ने कहा, ‘चल, बदलते हैं’, और मैंने बदल ली.”
 “मैं उस बारे में नहीं कह रही हूँ! मैं ये कह रही हूँ कि तूने सच क्यों नहीं बताया? मैंने तो मूर्ज़िक को ही दोषी समझ लिया. क्या ऐसे अपनी गलती दूसरों पर धकेलना अच्छी बात है?”
 “मैं डर गया था कि तुम मुझे मारोगी.”
 “सिर्फ डरपोक लोग सच कहने से डरते हैं! अगर मैं मूर्ज़िक को सज़ा देती तो क्या वो अच्छी बात होती?”
 “मैं आगे से ऐसा नहीं करूँग़ा.”
 “देख, इस बात का ध्यान रहे! सिर्फ इसलिए तुझे माफ़ कर रही हूँ कि तूने अपना गुनाह क़ुबूल तो किया,” मम्मा ने कहा.
वितालिक ने मूर्ज़िक को उठाया और उसे सुखाने के लिए बैटरी के पास लाया. उसने उसे बेंच पर रखा और ख़ुद उसकी बगल में बैठ गया. मूर्ज़िक के गीले रोँए चारों ओर सीधे खड़े थे, जैसे साही के काँटे हों, और इसके कारण मूर्ज़िक इतना दुबला दिखाई दे रहा था, मानो पूरे एक हफ़्ते से उसने कुछ नहीं खाया हो. वितालिक ने जेब से कटलेट निकाला और मूर्ज़िक के सामने रखा. मूर्ज़िक ने कटलेट खा लिया, फिर वि वितालिक के घुटनों पर बैठ गया, उसने अपने आप को गेंद की तरह गोल-गोल कर लिया और अपना म्याँऊ-म्याँऊ का गाना शुरू कर दिया.

*****

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

The Boys

लड़के
लेखक: अंतोन चेखव
अनु.: आ. चारुमति रामदास

“ वोलोद्या आ गया!” आँगन में कोई चिल्लाया.
 “वोलोदिच्का आ गए!” डाईनिंग हॉल में भाग कर आते हुए नतालिया चीखने लगी, “आह, या ख़ुदा!”
कई घण्टों से अपने वोलोद्या का इंतज़ार कर रहा कोरोल्येव परिवार खिड़कियों की ओर लपका. प्रवेश-द्वार के पास चौड़ी नीची त्रोयका- स्लेज खड़ी थी, और तीनों सफ़ेद घोड़ों से घना कोहरा निकल रहा था. स्लेज खाली थी, क्योंकि वोलोद्या पोर्च में आ गया था और अपनी लाल, ठण्ड के मारे अकड़ी हुई उँगलियों से अपना लम्बे कानों वाला शिरस्त्राण निकाल रहा था. उसके स्कूली-ओवर कोट, कैप, कलोश (जूतों के ऊपर पहनने के रबड़ के जूते), और कनपटियों के बालों पर बर्फ़ की पतली तह जमी थी, और सिर से पैर तक उसके पूरे बदन से बर्फ की ऐसी प्यारी ख़ुशबू आ रही थी; उसकी ओर देखने भर से ठण्ड से जम जाने और ‘बुर्र-र् र्!’ कहने को जी चाहता था. मम्मा और आण्टी उसे अपनी बाँहों में भरने और चूमने के लिए लपकीं, नतालिया उसके पैरों पर गिर पड़ी और खींच कर उसके ऊनी जूते उतारने लगी, बहनें चीखने लगीं, दरवाज़े चरमराने लगे, भड़भड़ाने लगे, और वोलोद्या के पापा, सिर्फ जैकेट पहने और हाथों में कैंची लिए प्रवेश-कक्ष में भागते हुए आए और भयभीत होकर चिल्लाने लगे:
 “और हम तो कल से तुम्हारी राह देख रहे हैं! सफ़र तो अच्छा रहा? ख़ैरियत से? ऐ ख़ुदा, उसे पापा के गले तो मिलने दो! क्या मैं उसका बाप नहीं हूँ?”
 “भौ! भौ!” अपनी पूँछ दीवारों और फर्नीचर से टकराते हुए गहरी आवाज़ में विशाल काला कुत्ता, मीलॉर्ड, गरजा.
हर चीज़ एक प्रसन्नता भरी चीख में गड्ड-मड्ड हो गई, जो क़रीब दो मिनट तक जारी रही. जब ख़ुशी का पहला दौर गुज़र गया, तो कोरोल्येवों ने गौर किया कि वोलोद्या के अलावा प्रवेश-कक्ष में एक छोटा लड़का और भी है, जो मफ़लरों में, शॉलों में, और शिरस्त्राण में, और बर्फ की पतली सतह में लिपटा हुआ है; वह एक कोने में, लोमड़ी की खाल वाले बड़े ओवर कोट से पड़ती छाया में निश्चल खड़ा था.
 “वोलोदिच्का, और ये कौन है?” मम्मा ने फुसफुसाते हुए पूछा.
 “आह!” वोलोद्या को जैसे अचानक याद आया, “ये, आपसे परिचय कराने में गर्व का अनुभव कर रहा हूँ, मेरा कॉम्रेड चेचेवीत्सिन है, दूसरी क्लास में पढ़ता है...मैं उसे अपने साथ कुछ दिन रहने के लिए ले आया.”
 “बड़ी ख़ुशी हुई, स्वागत है आपका!” पापा ने प्रसन्नता से कहा. “ माफ़ कीजिए, मैं घर की ही ड्रेस में हूँ, बिना फ्रॉक-कोट के...आईये! नतालिया, चेरेपीत्सिन महाशय को कपड़े उतारने में मदद कर! या ख़ुदा, और इस कुत्ते को यहाँ से भगाओ! ये एक सज़ा है!”
कुछ देर बाद, इस शोर-शरावे वाले स्वागत से भौंचक्के, और अभी तक ठण्ड के कारण गुलाबी-गुलाबी, वोलोद्या और उसका दोस्त चेचेवीत्सिन मेज़ पर बैठकर चाय पी रहे थे. सर्दियों का सूरज, बर्फ से और खिड़कियों पर बने डिज़ाईनों से होते हुए समोवार पर थरथरा रहा था और अपनी साफ़-सुथरी किरणें हाथ धोने वाले प्याले में डुबो रहा था. कमरे में गर्माहट थी, और लड़कों को महसूस हो रहा था ठण्ड से जम चुके उनके शरीरों में, बिना एक दूसरे से हार माने, ठण्डक और गर्माहट गुदगुदी मचा रहे हैं.
 “तो, जल्दी ही क्रिसमस है!” काली-लाल तम्बाकू से सिगरेट बनाते हुए पापा ने मानो गाते हुए कहा, “और, क्या गर्मियाँ हुए बहुत दिन बीत गए, जब तुझे बिदा करते समय मम्मा रो रही थी? और देख, तू आ भी गया... समय, भाई, जल्दी बीत जाता है! ‘आह’ भी नहीं कर पाओगे, कि बुढ़ापा आ जाएगा,  चिबिसोव महाशय, खाईये, प्लीज़, शरमाईये नहीं! हमारे यहाँ सब कुछ सीधा-सादा है.”
वोलोद्या की तीनों बहनें, कात्या, सोन्या और माशा – सबसे बड़ी थी ग्यारह साल की – मेज़ पर बैठी थीं, और नये मेहमान से नज़र नहीं हटा रही थीं. चेचेवीत्सिन की उम्र और उसका क़द वोलोद्या जैसा ही था, मगर वो उतना सफ़ेद और भरा-भरा नहीं था, बल्कि साँवला और दुबला-पतला था, चेहरे पर लाल-लाल चकत्ते थे. उसके बाल ब्रश जैसे थे, आँखें छोटी-छोटी, होंठ मोटे-मोटे, संक्षेप में, वह बेहद बदसूरत था, और अगर उसने स्कूली-जैकेट न पहना होता तो शक्ल देखकर कोई भी उसे रसोईये का बेटा समझ लेता. वह बड़ा गंभीर था, पूरे समय चुप रहा, और एक भी बार नहीं मुस्कुराया. लड़कियाँ उसे देखकर यह सोचने लगीं कि शायद वो बहुत होशियार और वैज्ञानिक किस्म का व्यक्ति है. पूरे समय वह किसी चीज़ के बारे में सोच रहा था और अपने ख़यालों में इतना खो गया था कि जब उससे किसी बारे में पूछा जाता, तो वो थरथरा जाता, सिर को झटका देता और सवाल दुहराने की प्रार्थना करता.
लड़कियों ने इस बात पर भी गौर किया कि वोलोद्या भी, जो हमेशा ख़ुश रहता था और बातूनी था, इस बार बहुत कम बोल रहा था, ज़रा भी मुस्कुरा नहीं रहा था और जैसे कि उसे घर आकर ख़ुशी नहीं हो रही थी. जब तक वे चाय पीते रहे, वह अपनी बहनों से बस एक बार मुख़ातिब हुआ, और वो भी किन्हीं अजीब शब्दों के साथ. उसने समोवार की ओर ऊँगली से इशारा करते हुए कहा:
 “कैलिफोर्निया में चाय के बदले ‘जिन’ पीते हैं.”
वह भी किन्हीं ख़यालों में खोया हुआ था, और जिस तरह वह अपने दोस्त चेचेवीत्सिन पर कभी-कभी नज़र डाल लेता, उससे यह प्रकट हो रहा था कि दोनों लड़के एक ही बात के बारे में सोच रहे हैं.
चाय के बाद सब बच्चों के कमरे में गए. पापा और लड़कियाँ मेज़ पर बैठकर अपना काम करने लगे, जो लड़कों के आने से बीच ही में रुक गया था. वे क्रिसमस ट्री को सजाने के लिए रंगबिरंगे कागज़ से फूल और झालर बना रहे थे. ये बड़ा दिलचस्प और शोर-गुल वाला काम था. हर नए फूल का स्वागत लड़कियाँ उत्तेजना भरी किलकारियों से कर रही थीं, कभी-कभी तो ख़ौफ़नाक चीखें भी निकल रही थीं, मानो ये फूल आसमान से गिरा हो; पापा भी उत्तेजित थे, और कभी-कभी वे इस बात पर गुस्सा होकर कैंची मेज़ पर फेंक देते कि उसकी धार तेज़ नहीं है. मम्मा भाग कर बच्चों के कमरे में आई और उसने चिंतित स्वर में पूछा:
 “मेरी कैंची किसने ली है? इवान निकोलाईच, क्या तुमने फिर से मेरी कैंची ले ली?”      
 “माई गॉड! कैंची तक नहीं देते!” रोनी आवाज़ में इवान निकोलाईच ने जवाब दिया और, कुर्सी की पीठ से टिककर, एक अपमानित आदमी की तरह बैठ गए, मगर एक मिनट बाद फिर से चहकने लगे.
 इससे पहले जब भी वोलोद्या घर आता, तो वो भी क्रिसमस ट्री की तैयारियों में लग जाता या फिर भाग कर कम्पाऊण्ड में जाता, यह देखने के लिए कि गाड़ीवान ने और गडरिए ने कैसा बर्फ का पहाड़ बनाया है, मगर अब उसने और चेचेवीत्सिन ने रंगबिरंगे कागज़ की ओर कोई ध्यान नहीं दिया और एक भी बार अस्तबल में नहीं गए, बल्कि खिड़की के पास बैठकर फुसफुसाहट से किसी बारे में बातें करते रहे; फिर  उन दोनों ने एटलस खोला और कोई नक्शा देखने लगे.
“पहले पेर्म,” हौले से चेचेवीत्सिन ने कहा... “उसके बाद त्यूमेन...फिर तोम्स्क...फिर...फिर...फिर कमचात्का...यहाँ से स्थानीय निवासी नौकाओं में बेरिंग-जलडमरूमध्य से ले जाते हैं...बस, आ जाता है अमेरिका...यहाँ काफ़ी सारे रोएँदार जानवर पाए जाते हैं.”
 “और कैलिफोर्निया?” वोलोद्या ने पूछा.
 “कैलिफोर्निया नीचे है...बस, हम अमेरिका पहुँच भर जाएँ, और कैलिफोर्निया बस, पहाड़ों के उस पार. खाने पीने का इंतज़ाम शिकार करके और लूट-पाट करके हो जाएगा.”
चेचेवीत्सिन पूरे दिन लड़कियों से दूर-दूर रहा और कनखियों से उनकी ओर देख लेता. शाम की चाय के बाद ऐसा हुआ कि उसे क़रीब पाँच मिनट लड़कियों के साथ अकेला छोड़ दिया गया. चुप रहना बड़ा अटपटा लगता. वह गंभीरता से खाँसा, दाहिनी हथेली बाएँ हाथ पर फेरी, उदासी से कात्या की ओर देखा और पूछा:
 “क्या आपने ‘माइन-रीड’ को पढ़ा है?”
 “नहीं, नहीं पढ़ा...सुनिए, क्या आपको स्केटिंग करना आता है?”
अपने ख़यालों में डूबे हुए चेचेवीत्सिन ने इस सवाल का जवाब नहीं दिया, बस, कस के गाल फुला लिए और ऐसी साँस निकाली जैसे उसे बहुत गर्मी हो रही हो. उसने फिर से आँखें उठाकर कात्या की ओर देखा और कहा:
 “जब जंगली भैंसों का झुण्ड विशाल मैदानों से होकर भागता है, तो ज़मीन थरथराने लगती है, और उस समय जंगली घोड़े दुलत्ती झाड़ते हुए हिनहिनाने लगते हैं.”
चेचेवीत्सिन उदासी से मुस्कुराया और आगे बोला:
 “और रेड-इंडियन्स भी रेलगाड़ियों पर हमला कर देते हैं. मगर सबसे ख़तरनाक होते हैं मच्छर और दीमक.”
 “वो क्या होता है?”
 “ ये चींटियों जैसे होते हैं, बस, उनके पंख होते हैं. खूब तेज़ काटते हैं. मालूम है, मैं कौन हूँ?”
 “चेचेवीत्सिन महाशय.”
 “नहीं. मैं हूँ मोन्तिगोमो, बाज़ का पंजा, अपराजितों का सरदार.”
माशा ने, जो सबसे छोटी थी, उसकी ओर देखा, फिर खिड़की की ओर देखा जिसके बाहर शाम उतर आई थी, और सोच में डूबकर कहा:
 “ और हमारे यहाँ कल चेचेवित्सा (चेचेवित्सा शब्द का मतलब है - मसूर की दाल) बनाई थी.”
चेचेवीत्सिन की ज़रा भी समझ में न आने वाली बातें, और यह भी कि वह लगातार वोलोद्या के साथ फुसफुसाता रहता था, और यह भी कि वोलोद्या खेल नहीं रहा था, बल्कि किसी चीज़ के बारे में सोचता रहता था – यह सब रहस्यमय, और अजीब था. और दोनों बड़ी लड़कियाँ, कात्या और सोन्या, लड़कों पर पैनी नज़र रखने लगीं. शाम को, जब लड़के सोने के लिए चले गए, तो वे दबे पाँव दरवाज़े तक आईं और छुप कर उनकी बातें सुनने लगीं. ओह, कैसी बातें पता चली उन्हें! लड़के, कहीं अमेरिका भागने की तैयारी कर रहे थे, सोना ढूँढ़ने के लिए; उनके सफ़र की पूरी तैयारी हो चुकी थी : पिस्तौल, दो चाकू, सूखे टोस्ट, आग जलाने के लिए मैग्निफायिंग ग्लास, कम्पास और चार रूबल्स.  उन्हें यह पता चला कि लड़कों को कई हज़ार मील पैदल चलना पड़ेगा, और रास्ते में शेरों से और जंगली इन्सानों से लड़ना पड़ेगा, फिर सोना और हाथी-दाँत खोजना पड़ेगा, दुश्मनों को ख़त्म करना पड़ेगा, समुद्री डाकुओं की टोली में शामिल होना पड़ेगा, ‘जिन’ पीनी पड़ेगी और अंत में सुन्दर लड़कियों से शादी करनी होगी और अपने बगान बनाने पड़ेंगे. वोलोद्या और चेचेवीत्सिन बातें कर रहे थे और जोश में आकर एक दूसरे की बात काट रहे थे. बातें करते हुए चेचेवीत्सिन अपने आप को - ‘मोन्तिगोमो, बाज़ का पंजा’ और वोलोद्या को - ‘मेरा बदरंग मुँह वाला भाई’ कह रहा था.
 “तू ध्यान रखना, मम्मा को इस बारे में मत बताना,” जब वे सोने जा रही थीं तो कात्या ने सोन्या से कहा. “वोलोद्या हमारे लिए अमेरिका से सोना और हाथी-दाँत लाएगा, और अगर तूने मम्मा को बता दिया, तो उसे जाने नहीं देंगे.”
क्रिसमस के दो दिन पहले चेचेवीत्सिन पूरे दिन एशिया का नक्शा देखता रहा और कुछ-कुछ लिखता रहा, और वोलोद्या, बेजान-सा, सूजा-सूजा सा चेहरा लिए, जैसे उसे मधुमक्खियों ने काटा हो, उदासी से कमरों में घूमता रहा, उसने कुछ भी नहीं खाया. और एक बार तो बच्चों के कमरे में वह देव-प्रतिमा के सामने रुका भी, और सलीब बनकर बोला:
 “ओ गॉड, मुझ पापी को माफ़ कर! गॉड, मेरी ग़रीब, दुखियारी मम्मा की हिफ़ाज़त कर!”
शाम तक वह रो पड़ा. सोने के लिए जाते समय, उसने बड़ी देर तक मम्मा, पापा और बहनों का आलिंगन किया. कात्या और सोन्या समझ रही थीं कि बात क्या है, मगर छोटी माशा को, कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था, बिल्कुल कुछ भी नहीं, बस सिर्फ चेचेवीत्सिन की ओर देखकर वह कुछ सोचने लगी और एक आह लेकर बोली:
 “जब उपवास होता है, तो आया-माँ कहती है कि चना और मसूर खाना चाहिए.”
क्रिसमस के एक दिन पहले, सुबह-सुबह कात्या और सोन्या हौले से अपने अपने पलंग से उठीं और ये देखने के लिए चल दीं कि लड़के अमेरिका कैसे भागते हैं. दरवाज़े के पास छिप गईं.
 “तू नहीं जाएगा?” चेचेवीत्सिन गुस्से से पूछ रहा था. “बोल : नहीं जाएगा?”
 “ओह माई गॉड!” वोलोद्या धीमे से रो रहा था. “मैं कैसे जाऊँगा? मुझे मम्मा पर दया आ रही है.”
 “ मेरे बदरंग मुँह वाले भाई, मैं तुझसे विनती करता हूँ, हम जाएँगे! तूने तो वादा किया था कि जाएगा, ख़ुद ही मुझे फुसलाया, और जब जाने का समय आया, तो डर गया.”
 “मैं...मैं नहीं डरा, मगर मुझे...मुझे मम्मा का ख़याल आता है.”
 “तू बोल, चलेगा या नहीं?”
 “मैं चलूँगा, बस...बस, थोड़ा रुक जा. मुझे घर में थोड़े दिन बिताने की ख़्वाहिश है.”
 “तो फिर, मैं अकेला ही जाऊँगा!” चेचेवीत्सिन ने फैसला कर लिया. “तेरे बगैर भी काम चला लूँगा. और शेरों का शिकार करने चला था, लड़ना चाहता था! जब ऐसी बात है, तो मेरी कैप्स दे दे!”
वोलोद्या इतनी ज़ोर से रो पड़ा, कि बहनें भी अपने आप को न रोक पाईं और धीमे-धीमे रोने लगीं. ख़ामोशी छा गई.
 “तो, तू नहीं जाएगा?” चेचेवीत्सिन ने फिर से पूछा.
 “जा...जाऊँगा.”
 “तो कपड़े पहन ले!”
और चेचेवीत्सिन ने वोलोद्या को मनाने के लिए अमेरिका की तारीफ़ शुरू कर दी, वह शेर की तरह गरजा, इंजिन की तस्वीर बनाई, गालियाँ दीं, वोलोद्या को सारे के सारे हाथी-दाँत और सिंहों और शेरों की सारी खालें देने का वादा किया.
और, ब्रश जैसे बालों वाला, चेहरे पर लाल धब्बों वाला, दुबला-पतला साँवला लड़का लड़कियों को असाधारण, लाजवाब प्रतीत हुआ. ये ‘हीरो’ था, निर्णय लेने वाला, निडर आदमी, और वह इस तरह गरज रहा था कि दरवाज़े के पीछे से भी ऐसा लग रहा था कि ये वाक़ई में शेर या सिंह ही है.
जब लड़कियाँ वापस अपने कमरे में आईं और कपड़े पहन कर तैयार हो गईं तो कात्या ने आँखों में आँसू भरकर कहा:
 “आह, मुझे कितना डर लग रहा है!”
दो बजे तक, जब वे खाना खाने बैठे, तो सब कुछ ठीक-ठाक था, मगर खाने की मेज़ पर अचानक पता चला कि लड़के घर में नहीं हैं. उन्हें बुलाने के लिए नौकर को सर्वेन्ट्स क्वार्टर में भेजा गया, अस्तबल में भेजा गया, कारिंदे के घर भेजा गया – वे कहीं भी नहीं थे. गाँव में भी नौकर को भेजा – वे वहाँ भी नहीं मिले. बाद में चाय भी लड़कों के बगैर ही पी गई, मगर जब रात का खाना खाने बैठे, तब मम्मा बहुत परेशान थी, वो रो भी रही थी. और रात को दुबारा गाँव में गए, ढूँढते रहे, लालटेन लेकर नदी पर भी गए. माई गॉड, कैसी आफ़त मची थी!
दूसरे दिन पुलिस अफ़सर आया, डाईनिंग हॉल में बैठकर कोई कागज़ लिखते रहे. मम्मा रो रही थी. मगर, तभी प्रवेश-द्वार के पास चौड़ी नीची त्रोयका- स्लेज खड़ी थी, और तीनों सफ़ेद घोड़ों से घना कोहरा निकल रहा था.
 “ वोलोद्या आ गया!” आँगन में कोई चिल्लाया.
 “वोलोदिच्का आ गए!” डाईनिंग हॉल में भाग कर आते हुए नतालिया चीखने लगी.
और मीलॉर्ड गहरी आवाज़ में भौंका :“भौ! भौ!” पता चला कि लड़कों को शहर में रोक लिया गया था, ढाबे  के कम्पाऊण्ड में (वे वहाँ घूम रहे थे और पूछते जा रहे थे कि बारूद कहाँ मिलती है). वोलोद्या, जैसे ही प्रवेश-कक्ष में आया, उसने बिसूरना शुरू कर दिया और मम्मा की गर्दन से लिपट गया. लड़कियाँ, डर से काँपते हुए सोच रही थीं कि अब आगे क्या होगा, उन्होंने सुना कि पप्पा वोलोद्या और चेचेवीत्सिन को अपने साथ स्टडी-रूम में ले गए और वहाँ काफ़ी देर तक उनसे बात करते रहे, और मम्मा भी बात कर रही थी और रो रही थी.
 “क्या कोई ऐसा करता है?” पप्पा ने पूछा. “ख़ुदा न करे, अगर स्कूल में पता चल गया तो, तो तुम्हें निकाल देंगे. और आपको शरम आनी चाहिए, चेचेवीत्सिन महाशय! बहुत बुरी बात है! आपने उकसाने का काम किया है, और, उम्मीद करता हूँ कि आपके माता-पिता आपको सज़ा देंगे. क्या कोई ऐसा करता है? रात में आप लोग कहाँ रुके थे?”     
 “रेल्वे स्टेशन पर!” चेचेवीत्सिन ने बड़ी अकड़ से जवाब दिया.
इसके बाद वोलोद्या सो गया, और उसके माथे पर सिरके में भीगा हुआ तौलिया रखा गया. कहीं टेलिग्राम भेजा गया और दूसरे दिन एक महिला, चेचेवीत्सिन की मम्मा आईं, और अपने बेटे को ले गईं.
जब चेचेवीत्सिन जा रहा था, तो उसका चेहरा बड़ा गंभीर, अहंकारयुक्त था, और लड़कियों से बिदा लेते हुए उसने एक भी शब्द नहीं कहा; सिर्फ कात्या के हाथ से नोटबुक ली और यादगार के तौर पर लिखा:
 ‘‘मोन्तिगोमो बाज़ का पंजा’

                                          ****

शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

About Gena

गेना के बारे में
लेखक: निकोलाय नोसोव
अनु.: आ. चारुमति रामदास
आम तौर से देखा जाए तो, गेना एक अच्छा बच्चा था. ठीक-ठाक लड़का था. मतलब, दूसरे बच्चों से बुरा नहीं था. बिल्कुल तन्दुरुस्त, लाल-लाल, चेहरा गोल-गोल, नाक भी गोल-गोल, मतलब - पूरा सिर ही गोल-गोल था. मगर उसकी गर्दन छोटी थी. जैसे कि, गर्दन बिल्कुल थी ही नहीं. मतलब, बेशक, गर्दन थी तो सही, मगर वह सिर्फ गर्मियों में ही दिखाई देती थी, जब गेना खुली कॉलर वाली कमीज़ या स्पोर्ट्स-शर्ट में घूमता  था. और सर्दियों में, जब वह गरम जैकेट या ओवरकोट पहनता, गर्दन नहीं दिखाई देती थी, और ऐसा लगता था कि उसका गोल सिर सीधे कंधों पर लेटा है, जैसे प्लेट में कोई तरबूज़ रखा हो. मगर, बेशक, ये कोई ज़्यादा अफ़सोस की बात नहीं है, क्योंकि कई लड़कों की गर्दन, जब वे बिल्कुल छोटे होते हैं, एकदम छोटी होती है, मगर जब वे थोड़े बड़े हो जाते हैं तब वह लम्बी हो जाती है.
याने कि ये कोई बहुत बड़ी ख़ामी नहीं थी.
गेना की बहुत बड़ी ख़ामी ये थी कि उसे कभी कभी थोड़ा-सा झूठ बोलना अच्छा लगता था. मगर ऐसा नहीं था कि वह धड़ाधड़ झूठ बोलता था. नहीं, ऐसा वह नहीं करता था. ठीक ठीक कहें तो, ये नहीं कह सकते थे कि वह हमेशा सच ही बोलता है.
ख़ैर, ऐसा किसके साथ नहीं होता! कभी-कभी तो इच्छा न होते हुए भी झूठ बोल जाते हो, और तुम्हें ख़ुद को भी पता नहीं चलता कि ऐसा कैसे हो गया.
पढ़ाई में गेना ठीक-ठाक ही था. मतलब ये कि औरों से बुरा नहीं था. सच कहें तो, पढ़ाई में बस यूँ ही था. उसकी डायरी में ‘तीन’ होते, कभी कभी ‘दो’ भी आ जाते (ग्रेड पाँच में से दी जाती है; पाँच का मतलब है- अति उत्तम; चार – अच्छा; तीन का मतलब – संतोषजनक; दो का मतलब – फेल, एक तो बहुत ही बुरी ग्रेड है.). मगर, बेशक, ऐसा उन्हीं दिनों में होता था, जब मम्मा और पापा उसकी तरफ़ से थोड़े बेख़बर हो जाते और इस बात पर ध्यान न देते कि उसने होम-वर्क समय पर किया है या नहीं.
मगर, ख़ास बात, जैसा कि हम बता चुके हैं, ये थी कि वह कभी-कभी झूठ बोल देता था, मतलब, कभी-कभी इस तरह से झूठ बोल देता था कि उसे कुछ ख़याल ही नहीं रहता था. इसके लिए उसे एक बार कड़ी सज़ा भी मिली थी.
ये हुआ था सर्दियों में, जब उसके स्कूल में रद्दी-धातु इकट्ठा की जा रही थी. लड़कों ने सोचा कि सरकार की मदद की जाए, और कारख़ानों के लिए रद्दी-धातु इकट्ठा की जाए. उन्होंने, बल्कि, इस पर एक प्रतियोगिता भी आयोजित की, कि कौन सबसे ज़्यादा इकट्ठा करता है, और विजेताओं के नाम स्कूल के ‘बोर्ड ऑफ ऑनर’ पर लिखे जाने वाले थे.
गेना ने भी प्रतियोगिता में हिस्सा लेने का फ़ैसला किया. मगर पहले दिन, जब वह रद्दी-धातु इकट्ठा करने के लिए निकला, तो उसे कम्पाऊण्ड में अपना दोस्त गोशा मिल गया.
ये गोशा दुबला-पतला, छोटा सा लड़का था, गेना से क़रीब साल भर छोटा था. मगर गेना की उससे बड़ी दोस्ती थी, क्योंकि गोशा बहुत होशियार था और हमेशा कोई मज़ेदार बात सोचा करता था.
ऐसा ही इस बार भी हुआ. गेना को देखकर गोशा ने पूछा:
 “तू कहाँ भाग रहा है?”
 “रद्दी-धातु इकट्ठा करने जा रहा हूँ,” गेना ने कहा.
 “इससे अच्छा तो बर्फ के पहाड़ पर स्केटिंग करते हैं. बगल वाले कम्पाऊण्ड में लड़कों ने बढ़िया पहाड़ बनाया है.”
वे बगल वाले कम्पाऊण्ड में गए और लगे पहाड़ पर स्केटिंग करने. स्लेज तो उनके पास थी नहीं, इसलिए वे पैदल ही नीचे की ओर फिसलते. मगर ये ज़रा भी आरामदेह नहीं था, क्योंकि हर बार पहले तो खड़े-खड़े चढ़ना पड़ता, और फिर पेट के बल या पीठ के बल नीचे फिसलते. आख़िर में गोशा ने कहा:
 “इस तरह से स्केटिंग करने में कोई फ़ायदा नहीं है. नाक पे चोट लग सकती है. इससे तो अच्छा है कि तू घर जाकर स्लेज ले आ. तेरे पास तो स्लेज है ही.”
गेना घर गया, किचन में पहुँचा और स्लेज लेने लगा. मम्मा ने देखा और पूछा:
 “स्लेज क्यों चाहिए? तू तो रद्दी-धातु इकट्ठा करने गया था.”
 “मगर मैं स्लेज पर रद्दी-धातु लाऊँगा,” गेना ने समझाया, “वो भारी होती है ना. हाथों में ज़्यादा नहीं ला सकते हो, मगर स्लेज में आसान रहेगा.”
 “ओह,” मम्मा ने कहा. “ठीक है, जा.”
पूरे दिन गेना गोशा के साथ स्लेज पर स्केटिंग करता रहा और शाम को ही घर लौटा. उसके पूरे कोट पर बर्फ थी.
 “इतनी देर तू कहाँ रह गया था?” मम्मा ने पूछा.
 “रद्दी-धातु जमा कर रहा था.”
 “क्या उसके लिए बर्फ में लोटपोट होना पड़ा?”
 “अरे, वो तो वापस आते समय लड़कों के साथ बर्फ पर थोड़ा खेल लिया,” गेना ने स्पष्ट किया.
  “अच्छा है ये - - थोड़ा सा!” मम्मा ने सिर हिलाया.
“और क्या तूने काफ़ी सारी रद्दी-धातु इकट्ठा की?” पापा ने गेना से पूछा.
 “तैंतालीस किलोग्राम,” बिना सोचे-समझे गेना ने झूठ बोल दिया.
 “शाबाश!” पापा ने तारीफ़ की और हिसाब लगाने लगे कि ये कितने ‘पूद’ होगा. (पूद – रूस में वज़न का पुराना पैमाना; एक पूद – 16.3 किलोग्राम).
 “आजकल कौन पूद में गिनता है?” मम्मा ने कहा. “अब तो सब लोग किलोग्राम में ही गिनते हैं.”
 “मगर मुझे पूद में गिनना अच्छा लगता है,” पापा ने जवाब दिया, “मैं कभी पोर्ट पर कुली का काम करता था. कॉड-मछलियों के बैरल्स उठाने पड़ते थे. हर बैरल में छः-छः पूद. तो, तैंतालीस किलोग्राम हुए – क़रीब तीन पूद. तूने इतना वज़न खींचा कैसे?”
 “मैंने थोड़े ना उठाया, मैं स्लेज पर ले गया.” गेना ने जवाब दिया.
 “हाँ, स्लेज पर, बेशक, आसान है,” पापा ने सहमत होते हुए कहा. “और दूसरे लड़कों ने कितना जमा किया?”
 “मुझसे कम,” गेना ने जवाब दिया. “किसी ने पैंतीस किलोग्राम्स, किसीने तीस. सिर्फ एक लड़के ने पचास किलोग्राम्स जमा किया, और एक और लड़के ने बावन किलोग्राम्स.”
 “ऐख!” पापा को अचरज हुआ. “तुझसे नौ किलोग्राम ज़्यादा.”
 “कोई बात नहीं,” गेना ने कहा. “कल मैं भी पहला नंबर लाऊँगा.”
 “ठीक है, मगर तू इस पर ज़्यादा मेहनत मत कर,” मम्मा ने कहा.
 “ज़्यादा – क्यों! जैसे सब करते हैं, वैसे ही मैं भी करूँगा.”
रात को गेना ने भरपेट खाना खाया. उसकी ओर देखकर पापा और मम्मा ख़ुश हो रहे थे. उन्हें, न जाने क्यों, हमेशा ऐसा लगता था कि गेना बहुत कम खाता है और इस वजह से वह दुबला हो सकता है और बीमार पड़ सकता है. यह देखकर कि वह कितने चाव से कोटु का पॉरिज खा रहा है, पापा ने उसके सिर को सहलाया और कहा:
 “पसीना आने तक काम करोगे, तो ऐसे ही ख़ूब खाओगे! है ना, बेटा?”
 “बेशक, पापा,” गेना सहमत था.
पूरी शाम मम्मा और पापा इस बारे में बात करते रहे, कि कितना अच्छा है, जो आजकल बच्चों को शारीरिक श्रम करना सिखाया जाता है. पापा ने कहा:
 “ जो बचपन से मेहनत करना सीखता है, वह बड़ा होकर अच्छा आदमी बनता है और वह कभी भी दूसरों की गर्दन पर नहीं बैठता.”
 “और मैं दूसरों की गर्दन पर नहीं बैठूँगा,” गेना ने कहा. “मैं अपनी ही गर्दन पर बैठूँगा.”
 “क्या बात है, क्या बात है!” पापा हँस पड़े. “तू तो हमारा अच्छा बच्चा है.”
आख़िरकार गेना सो गया, और पापा ने मम्मा से कहा:
 “जानती हो, हमारे बेटे की जो बात मुझे सबसे ज़्यादा अच्छी लगती है, वो ये है कि वह बहुत ईमानदार है. वह झूठ भी बोल सकता था, कह सकता था कि उसीने सबसे ज़्यादा रद्दी-धातु जमा की है, मगर उसने साफ़-साफ़ मान लिया कि दो लड़कों ने उससे ज़्यादा जमा की है.”
 “हाँ, हमारा बेटा ईमानदार है,” मम्मा ने कहा.
 “मेरे ख़याल में, बच्चों को ईमानदारी सिखाना, सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है,” पापा कहते रहे. “ईमानदार आदमी झूठ नहीं बोलेगा, धोखा नहीं देगा, अपने दोस्त को नीचा नहीं दिखाएगा, ग़ैरों की चीज़ नहीं लेगा और दिल लगाकर मेहनत करेगा, जब दूसरे लोग काम कर रहे हों तब हाथ पे हाथ रखकर बैठा नहीं रहेगा, क्योंकि उसका मतलब है पैरासाईट बनना, दूसरे की मेहनत पर ऐश करना.                 
दूसरे दिन गेना स्कूल पहुँचा, और टीचर ने पूछा कि कल वह रद्दी-धातु इकट्ठा करने क्यों नहीं आया. बिना पलक झपकाए गेना ने जवाब दिया कि मम्मा ने उसे इजाज़त नहीं दी, क्योंकि उसकी छोटी बहन को निमोनिया हो गया था, और उसे बहन के लिए सेब लेकर अस्पताल जाना था, शायद बिना सेब के वह अच्छी नहीं हो सकती. उसके दिमाग़ में अस्पताल के बारे में, बहन के बारे में – जो उसकी थी ही नहीं, और ऊपर से सेब के बारे में झूठ बोलने का ख़याल आया कैसे – ये किसी को नहीं मालूम.
स्कूल से घर वापस आकर पहले उसने खाना खाया, फिर स्लेज ली, मम्मा से कहा कि रद्दी-धातु इकट्ठा करने जा रहा है, और ख़ुद फिर से बर्फ के पहाड़ पर स्केटिंग करने चला गया. शाम को घर लौटने पर, वह फिर से बातें बनाने लगा कि किस लड़के ने कितनी रद्दी-धातु इकट्ठा की, कौन पहले नम्बर पर रहा, किसका फिसड्डी नम्बर आया, कौन सबसे बढ़िया रहा, कौन बढ़िया और कौन सिर्फ ठीक-ठाक रहा.
अब तो ये हर रोज़ होने लगा. गेना ने होम-वर्क करना तो बिल्कुल बन्द कर दिया. उसके पास समय ही नहीं था. डायरी में उसके ‘दो’ नम्बर आने लगे. मम्मा को गुस्सा आ गया और वह बोली:
 “ये सब उस रद्दी-धातु के कारण हो रहा है! क्या बच्चों से इतनी मेहनत करवानी चाहिए? बच्चे के पास पढ़ाई करने के लिए समय ही नहीं है! स्कूल जाकर टीचर से बात करनी पड़ेगी. वे लोग क्या सोचते हैं? दो में से एक ही बात हो सकती है : या तो पढ़ाई करने दो या फिर रद्दी-धातु इकट्ठा करने दो! वर्ना तो कुछ भी हासिल नहीं होगा.
मगर उसके पास बिल्कुल समय नहीं था, और वह स्कूल जा ही नहीं पाई. पापा से गेना के बुरे ग्रेड्स के बारे में बताने से वह डर रही थी, क्योंकि जब पापा को पता चलता है कि बेटा अच्छी तरह से पढ़ाई नहीं कर रहा है तो वे बहुत परेशान हो जाते हैं. बगैर किसी संदेह के, वो हर रोज़ बड़ी दिलचस्पी से गेना के शारिरिक श्रम की प्रगति के बारे में पूछते और अपनी नोट-बुक में लिख भी लेते कि उस दिन गेना ने कितनी रद्दी-धातु इकट्ठा की. गेना हर तरह की गप्पें मारता – इस तरह, कि वो सच लगें. उसने यह भी ठोंक दिया कि टीचर अन्तोनिना इवानोव्ना ने पूरी क्लास में उसे एक आदर्श बालक बताया और उसका नाम ‘बोर्ड ऑफ ऑनर’ पर लिख दिया.
आख़िरकार वो दिन आया, जब गेना को दुनिया में जो सबसे ख़राब हो सकती है, वह ग्रेड मिली, याने कि ‘एक’ नम्बर मिला, और वह भी ‘रूसी भाषा’ जैसे महत्वपूर्ण विषय में. उसने, बेशक, मम्मा को कुछ भी नहीं बताया, बल्कि सिर्फ स्लेज लेकर ‘रद्दी-धातु’ इकट्ठा करने के लिए निकल पड़ा, मगर असल में तो वह हमेशा की तरह स्केटिंग करने गया था.
जब वह चला गया तो मम्मा को याद आया कि उसने गेना की ग्रेड्स ‘चेक’ ही नहीं की हैं. उसने बैग से डायरी निकाली और देखा कि उसे तो सिर्फ ‘एक’ नम्बर मिला है.
 “ऐहे!” उसने नाराज़गी से कहा, “ ये तो बिल्कुल दादागिरी है! ये स्कूल वाले सोचते क्या हैं! बच्चा ‘एक’ नम्बर लाता है, और उनके दिमाग में बस रद्दी-धातु ही भरी है!”
अपना सब काम छोड़कर, वह लपक कर स्कूल पहुँची. सौभाग्य से अन्तोनिना इवानोव्ना अभी तक गई नहीं थी.
गेना की मम्मा को देखकर उसने कहा:
 “अच्छा हुआ कि आप आ गईं. मैंने आपको इसलिए बुलाया था कि गेना की प्रगति के बारे में बात कर सकूँ.”
 “आपने कहाँ मुझे बुलाया?” गेना की मम्मा चौंक गई. “मुझे किसीने नहीं बुलाया. मैं तो ख़ुद ही आई हूँ.”  
 “क्या आपको मेरी चिट्ठी नहीं मिली?” टीचर ने पूछा.
 “नहीं.”
 “अजीब बात है!” अन्तोनिना इवानोव्ना ने कहा. “मैंने तो गेना को परसों ही आपको चिट्ठी देने को कहा था.”
 “हो सकता है, आपसे भूल हो गई हो? आपने, शायद, किसी और से कहा हो, न कि गेना से.”
 “नहीं. मैं ऐसे कैसे गलती कर सकती हूँ?”
 “तो फिर गेना ने मुझे क्यों नहीं दी?”
 “ये तो उसीसे पूछना पड़ेगा,” अन्तोनिना इवानोव्ना ने कहा. “और अब मैं यह जानना चाहती हूँ कि गेना ठीक से पढ़ाई क्यों नहीं कर रहा है. मुझे समझ में नहीं आता, कि वह होम-वर्क क्यों नहीं करता है.”
 “इसमें समझ में ना आनेवाली क्या बात है?” गेना की मम्मा हँस पड़ी. “आप लोग ख़ुद ही तो बच्चों को रद्दी-धातु इकट्ठा करने के लिए मजबूर करते हो, और फिर ख़ुद ही हैरान होते हो, कि बच्चे होम-वर्क क्यों नहीं करते हैं.”
 “यहाँ रद्दी-धातु कहाँ से आ गई?” टीचर हैरान रह गई.
 “कैसे – कहाँ से? अगर उन्हें रद्दी-धातु इकट्ठा करना पड़े, तो वे होम-वर्क कब करेंगे? आप को ख़ुद ही सोचना चाहिए.”
 “मैं आपको ठीक से समझ नहीं पा रही हूँ. हम बच्चों पर इस काम का बोझ नहीं डालते हैं. धातु इकट्ठा करने का काम वे साल भर में सिर्फ एक या दो बार करते हैं. यह उनकी पढ़ाई को नुक्सान नहीं पहुँचा सकता.”
 “हा-हा-हा! साल भर में एक या दो बार,” गेना की मम्मा हँसने लगी. “नहीं, वे तो हर रोज़ इकट्ठा करते हैं. गेना ने तो क़रीब एक टन इकट्ठा कर ली है.”
 “आपसे किसने कहा?”
 “गेना ने.”
 “आह, ऐसी बात है! अगर जानना चाहती हैं, तो सुनिए कि आपके गेना ने एक टन तो क्या, एक किलोग्राम, एक ग्राम, यहाँ तक कि एक मिलिग्राम धातु तक इकट्ठा नहीं की है!’” उत्तेजना से टीचर ने कहा.
 “ये आप कैसे कह सकती हैं!” गेना की मम्मा भड़क गई. “वो ईमानदार बच्चा है, वह धोखा नहीं देगा. आपने ख़ुद ही तो उसे क्लास में आदर्श-बालक बताया और ‘बोर्ड ऑफ ऑनर’ पे उसका नाम लिखा था.
 “’बोर्ड ऑफ ऑनर’ पे?!” अन्तोनिना इवानोव्ना चीख़ी. “मैं गेना का नाम ‘बोर्डऑफ ऑनर’ पे कैसे लगा सकती थी, जब उसने रद्दी-धातु इकट्ठा करने के काम में एक भी दिन हिस्सा नहीं लिया?! पहली बार उसने कहा, कि उसकी बहन को निमोनिया हो गया है...क्या आपकी बेटी को निमोनिया हो गया था?”
 “कौन सी बेटी? मेरी तो कोई बेटी ही नहीं है!”
 “देखा! और गेना ने कहा था – छोटी बहन को निमोनिया हुआ है और मम्मा ने अस्पताल भेजा था उसे सेब देने के लिए.”
 “ओह, ज़रा सोचिए!” मम्मा ने कहा. “न जाने किस सेब की बात सोच बैठा. मतलब, वह पूरे समय मुझे धोखा देता रहा! शायद, और आज भी वो रद्दी-धातु इकट्ठा करने नहीं गया है?”
 “आज कौन रद्दी-धातु इकट्ठा कर रहा है!” टीचर ने जवाब दिया. “आज गुरुवार है, और ये रद्दी-धातु इकट्ठा करने का काम होता है शनिवार को. शनिवार को हम जानबूझकर बच्चों को जल्दी छोड़ते हैं.”
परेशानी के मारे गेना की मम्मा टीचर से बिदा लेना भी भूल गई और फ़ौरन घर भागी. वह नहीं जानती थी कि क्या सोचे, क्या करे. दुख के कारण उसका सिर भी दर्द करने लगा. जब गेना के पापा काम से वापस लौटे, तो मम्मा ने उन्हें फ़ौरन पूरी बात बता दी. ऐसी ख़बर सुनकर पापा बेहद परेशान हो गए और गुस्सा हो गए.
मम्मा उन्हें शांत करने लगी, मगर वह शांत होना ही नहीं चाहते थे, बस बिफ़रे हुए शेर की तरह कमरे में इधर से उधर घूमते रहे.
 “ज़रा सोचिए,” हाथों से अपना सिर पकड़ कर वो बोले. “मतलब, वो सिर्फ स्केटिंग करता रहा, और हमसे कहता रहा कि रद्दी-धातु इकट्ठा करने जा रहा है. इतना झूठ! हमने अच्छी शिक्षा दी हमारे बेटे को! क्या कहने!”
 “मगर हमने उसे धोखा देना तो नहीं ना सिखाया!” मम्मा ने कहा.
 “बस, इसी की कमी थी!” पापा ने जवाब दिया. “आने दो उसे वापस, मैं उसे दिखाऊँगा!”
मगर गेना बड़ी देर तक नहीं लौटा. उस दिन वह अपने दोस्त गोशा के साथ दूर, कल्चरल-पार्क, गया था, और वहाँ वे नदी के किनारे पर स्केटिंग करते रहे थे. ये बेहद मनोरंजक था, और उनका दिल ही नहीं भर रहा था.
जब गेना घर लौटा तो काफ़ी देर हो गई थी. वह सिर से पैर तक बर्फ में लिपटा था और थकान के मारे घोड़े की तरह हाँफ़ रहा था. उसके गोल-गोल चेहरे से जैसे आग निकल रही थी, हैट आँखों पर फिसल आई थी, और किसी को देखने के लिए भी उसे सिर को पीछे की ओर झटका देना पड़ रहा था.
मम्मा और पापा उसकी ओर भागे और उसे कोट उतारने में मदद करने लगे, और जब कोट उतार दिया, तो गेना के शरीर से ऊपर तक भाप निकल रही थी.
 “बेच्चारा! देखो तो कितनी मेहनत करके आया है!” पापा ने कहा. “उसकी पूरी कमीज़ गीली हो गई है!”
 “हाँ,” गेना ने कहा. “आज मैंने एक सौ पचास किलोग्राम्स लोहा इकट्ठा किया.”
 “कितना, कितना?”
 “एक सौ पचास.”
 “वाह, हीरो!” पिता ने हाथ नचाते हुए कहा. “गिनना पड़ेगा कि तेरी कुल कितनी रद्दी-धातु जमा हुई है.”
पापा ने अपनी नोट-बुक निकाली और गिनने लगे:
 “पहले दिन तूने तैंतालीस किलोग्राम्स जमा की, अगले दिन और पचास - - सब मिलाकर हुए तेरानवें, तीसरे दिन चौंसठ - - तो हुए, एक सौ सत्तावन, फिर और उनहत्तर - - ये हो गए - - ये हो गए...”
 “दो सौ छब्बीस,” गेना ने जोड़ा.
 “सही है!” पापा ने कहा. “आगे गिनते हैं...”
वो इस तरह से गिनते रहे, गिनते रहे, और उनका टोटल हुआ पूरा एक टन, और थोड़ा और.
 “देख,” उन्होंने आश्चर्य से कहा. “पूरा एक टन लोहा इकट्ठा कर लिया तूने! ऐसे ही होना चाहिए! तो, अब तू कौन हुआ?”
 “शायद, बहुत बढ़िया या फिर सर्वश्रेष्ठ, ठीक से मालूम नहीं,” गेना ने जवाब दिया.
 “मालूम नहीं? मगर मुझे मालूम है!” अचानक पापा चिल्लाए और उन्होंने मेज़ पर मुक्का मारा. “तू बेईमान है! बदमाश है! निठल्ला है तू, वो ही है तू! पैरासाईट!”
 “कैसा पै-पैरासाईट?” डर के मारे गेना की घिग्घी बन्ध गई.
 “मालूम नहीं है कि पैरासाईट कैसे होते हैं?”
 “न-न-न-नहीं मालूम.”
 “ये, वो होते हैं जो ख़ुद कुछ काम नहीं करते, मगर कुछ ऐसी तरकीब निकालते हैं कि दूसरे उनके लिए काम करें.”
 “मैं तकीब...तरकीब...नहीं निकालता,” गेना मिनमिनाया.
 “तरकीब नहीं निकालता?” पापा भयानक आवाज़ में चिल्लाए. “और कौन हर रोज़ स्लेज पर स्केटिंग करता है, और घर में झूठ बोलता है कि रद्दी-धातु इकट्ठा करता हूँ? टीचर की चिट्ठी कहाँ है? क़बूल कर, निकम्मे!”
 “कैसे चि-चि-चिट्ठी?”
 “जैसे कि मालूम ही नहीं है! चिट्ठी जो तुझे अन्तोनिना इवानोव्ना ने दी थी.”
 “मेरे पास नहीं है.”
 “तो फिर कहाँ गई?”
 “मैंने उसे कचरे के पाईप में फेंक दिया.”
 “आह, कचरे के पाईप में!” पिता गरजे और उन्होंने मेज़ पर इतनी ज़ोर से मुक्का मारा कि प्लेटें झनझना उठीं. “तुझे इसलिए चिट्ठी दी थी कि तू उसे कचरे के पाईप में फेंक दे?”
 “ओह, शांत हो जाओ, प्लीज़,” मम्मा मनाने लगी. “बच्चे को कितना डरा रहे हो!”
 “मैं इसे डरा रहा हूँ! कैसे! वह जिसे चाहे उसे डरा सकता है. ज़रा सोचो - - इतना झूठ! एक टन लोहा इकट्ठा किया! ‘बोर्ड ऑफ ऑनर’ पे उसका नाम लिखा गया! ये शर्म की बात है. मैं लोगों को क्या मुँह दिखाऊँगा!”
“चिल्लाने की क्या ज़रूरत है? उसे सज़ा देनी चाहिए, मगर चिल्लाना शिक्षा के सिद्धांतों के ख़िलाफ़ है. बच्चे की भूख मिट सकती है,” मम्मा ने कहा.
 “मेरा ख़याल है कि इसकी कोई भूख-वूख नहीं मिटने वाली,” पापा ने कहा, “मगर उसे सज़ा मिलनी चाहिए, यह मुझे भी मालूम है.”
पापा बड़ी देर तक गेना को शर्मिन्दा करते रहे. गेना ने उनसे माफ़ी मांगी, क़सम खाई कि अब वह किसी हालत में स्लेज पर स्केटिंग नहीं करेगा और हमेशा रद्दी-धातु इकट्ठा करेगा. मगर पापा उसे माफ़ करने के लिए तैयार ही नहीं थे. बात इस तरह ख़तम हुई कि गेना को कड़ी सज़ा मिली. सज़ा कैसे दी गई, ये बताने से कोई फ़ायदा नहीं है. हर कोई जानता है कि कौन-कौन सी सज़ाएँ होती हैं. मतलब, उसे सज़ा दी गई, और बस.
और इस साल गेना ने वाक़ई में स्लेज पर स्केटिंग नहीं की, क्योंकि जल्दी ही सर्दियाँ ख़त्म हो गईं और बर्फ पिघल गई. और रद्दी-लोहा इकट्ठा करने भी उसे जाना नहीं पड़ा, क्योंकि शिक्षा-सत्र ख़तम हो रहा था और अच्छे नम्बरों से अगली क्लास में जाने के लिए बच्चों को जम के पढ़ाई करनी थी. उनके स्कूल में इसके बाद किसी ने भी रद्दी-लोहा इकट्ठा नहीं किया.

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