शुक्रवार, 18 मार्च 2016

Chiki Brik


चिकी-ब्रीक

लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
            अनुवाद: आ. चारुमति रामदास 
                                    
      
हाल ही की बात है, मैं बस जैसे मर ही गया था. हँसते-हँसते. और सब इस मीशा की वजह से.

एक बार पापा ने कहा:
”कल, डेनिस्का, हम घास चरने जाएँगे. कल मम्मा की भी छुट्टी है और मेरी भी. अपने साथ किसे ले जाएँगे?”
 “ज़ाहिर है, किसे – मीश्का को.”
मम्मा ने पूछा:
 “क्या उसे जाने देंगे?”
 “अगर हमारे साथ जा रहा है, तो जाने देंगे. उसमें क्या है?” मैंने कहा. “चलो, मैं उसे इन्वाइट करके आता हूँ.”

और मैं मीश्का के यहाँ भागा. जब उनके घर में घुसा तो कहा, “नमस्ते!” उसकी मम्मा ने मुझे जवाब नहीं दिया, बल्कि उसके पापा से कहा:
 “देखो, कैसा अच्छा बच्चा है, नहीं तो हमारा...”

मैंने उन्हें सारी बात समझाई, कि हम मीश्का को कल शहर से बाहर, गाँव में, घूमने के लिए इन्वाइट कर रहे हैं, और उन्होंने फ़ौरन इजाज़त दे दी, और अगली सुबह हम निकल पड़े.
बहुत मज़ा आ रहा था इलेक्ट्रिक ट्रेन में जाने में, बहुत ज़्यादा!

पहली बात, बेंचों के हत्थे चमक रहे थे. दूसरी बात, अलार्म चेन्स – लाल-लाल, बिल्कुल आँखों के सामने लटक रही हैं. और चाहे कितनी ही बार क्यों न जाओ, हमेशा उस चेन को खींचने का या कम से कम हाथ से सहलाने का मन करता है. और सबसे ख़ास बात – खिड़की से बाहर देख सकते हो, वहाँ एक ख़ास छोटी सी सीढ़ी थी. अगर कोई बहुत छोटा है, तो इस सीढ़ी पे खड़े होकर सिर बाहर निकाल सकता है. मैंने और मीश्का ने फ़ौरन एक खिड़की पे कब्ज़ा कर लिया, दोनों एक ही खिड़की से बाहर देख रहे थे, बहुत बढ़िया लग रहा था ये देखना कि चारों ओर एकदम नई घास बिखरी है और फ़ेन्सिंग्स पर रंग बिरंगी चादरें टंगी हैं, ख़ूबसूरत, जैसे जहाज़ों पर फ़हराते हुए झण्डे.

मगर पापा और मम्मा हमें चैन से देखने नहीं दे रहे थे. वे हर मिनट पीछे से पतलून पकड़ कर हमें पीछे खींचते और चिल्लाते:
 “बाहर सिर मत निकालो, कह रहे हैं तुमसे! वर्ना बाहर लुढ़क जाओगे!”
मगर हम बाहर झाँकते ही रहे. तब पापा ने चालाकी से काम लिया. उन्होंने सोच लिया था कि चाहे जो हो जाए, हमें खिड़की से हटा ही देंगे. इसलिए उन्होंने मज़ाकिया चेहरा बनाया और जानबूझ कर सर्कस वालों जैसी आवाज़ में कहा:
 “ऐ, बच्चा लोग! अपनी-अपनी जगह पे बैठ जाओ! ‘शो’ शुरू होने जा रहा है!”
मैं और मीश्का फ़ौरन खिड़की से दूर उछले और बगल में ही बेंच पे बैठ गए, क्योंकि मेरे पापा       मशहूर मसख़रे हैं, और हम समझ गए कि अब कोई मज़ेदार चीज़ होगी. कम्पार्टमेंट के सारे पेसेंजर्स ने भी अपने सिर घुमाए और वो पापा की तरफ़ देखने लगे. और वो, जैसे कुछ हुआ ही न हो, अपनी बात कहते रहे:
 “सम्माननीय दर्शकों! अब आपके सामने प्रोग्राम पेश करेगा काले जादू का, नींद में चलने का, और सम्मोहन का मास्टर, जिसे आज तक कोई हरा नहीं सका!!! पूरी दुनिया में जाने-माने जादूगर ऑस्ट्रेलिया और मलाखोव्का के चहेते, तलवारें, खाने के बन्द डिब्बे और जलते हुए इलेक्ट्रिक बल्ब्स निगलने वाले, प्रोफेसर एडवर्ड कन्द्रात्येविच किओ-सिओ! ऑर्केस्ट्रा – म्यूज़िक! त्रा-बी-बो-बूम-ल्या-ल्या! त्रा-बी-बो-बूम-ल्या-ल्या!”
सबकी नज़रें पापा पे जम गईं, और वो मेरे और मीश्का के सामने खड़े होकर बोले:
 “मौत की रिस्क वाला आइटम! ज़िन्दा तर्जनी को पब्लिक के सामने उखाड़ना! कमज़ोर दिल वालों से निवेदन है कि बेहोश होकर फर्श पे न गिर जाएँ, बल्कि हॉल से बाहर चले जाएँ. अटेन्शन, प्लीज़!”

 अब पापा ने अपने हाथ इस तरह से रखे कि मुझे और मीश्का को लगा, जैसे वो अपने दाएँ हाथ से बाईं तर्जनी को पकड़ रहे हैं. फिर पापा पूरे तन गए, लाल हो गए, उन्होंने चेहरा भयंकर बना लिया, मानो वो दर्द से मर रहे हैं, और फिर अचानक वो गुस्से में आ गए, अपनी हिम्मत बटोरी और...अपनी ऊँगली उखाड़ दी! हाँ, सही में!... हमने ख़ुद देखा...ख़ून नहीं था. मगर ऊँगली भी नहीं थी! वहाँ एकदम चिकनी जगह थी. ग्यारंटी से कहता हूँ!
पापा ने कहा:
 “वॉयला!”

मुझे ये भी नहीं मालूम कि इसका मतलब क्या होता है. मगर फिर भी मैंने तालियाँ बजाईं, और मीश्का ने कहा ‘वन्स मोर’.
तब पापा ने दोनों हाथ झटके, कॉलर के पीछे ले गए, और बोले:
 “आले-ओप्! चिकी-ब्रिक!”
और ऊँगली वापस लगा दी! हाँ-हाँ! न जाने कहाँ से पुरानी जगह पे नई ऊँगली आ गई! बिल्कुल वैसी ही, पहली वाली से ज़रा भी फ़रक नहीं, स्याही का धब्बा भी, वो भी वैसा ही था! मैं तो, बेशक समझ गया कि ये कोई जादू है और मैं हर हाल में पापा से जान लूँगा, कि इसे कैसे किया जाता है, मगर मीश्का तो बिल्कुल भी नहीं समझ पाया. उसने कहा:
 “ऐसा कैसे हो गया?”
पापा सिर्फ मुस्कुरा दिए:
 “जब बड़े हो जाओगे, तो काफ़ी कुछ जान जाओगे!”
तब मीश्का ने दयनीयता से कहा:
”प्लीज़, एक बार और दुहराइए! चिकी-ब्रिक!”

पापा ने सब कुछ फिर से दुहराया, ऊँगली उखाड़ी और वापस बिठा दी, और फिर से सॉलिड सरप्राइज़. इसके बाद पापा ने झुककर अभिवादन किया, और हम समझे कि ‘शो’ ख़तम हो गया, मगर, पता चला कि ऐसा कुछ भी नहीं था. पापा ने कहा:
”काफ़ी सारी फ़रमाइशों को देखते हुए, ‘शो’ जारी रहता है! अब आप देखेंग़े फ़कीर की कुहनी पर घिसटता हुआ सिक्का! माएस्ट्रो, त्रिबो-बि-बुम-ल्या-ल्या!”
और पापा ने सिक्का निकाला, उसे अपनी कुहनी पे रखा और इस सिक्के को सरकाते हुए अपने कोट में गिराने की कोशिश करने लगे. मगर वो कहीं भी नहीं सरका, बल्कि पूरे समय गिरता ही रहा, तब मैं पापा के ऊपर ख़ूब हँसने लगा. मैंने कहा:
”ऐख़, ऐख! ये फ़कीर है! सिर्फ मुसीबत, न कि फ़कीर!”
सब लोग ठहाका लगाने लगे, पापा ख़ूब लाल हो गए और चिल्लाए:
 “ऐ, तू, सिक्के! फ़ौरन घिसट! वर्ना मैं तुझे उस अंकल को दे दूँगा आइस्क्रीम ख़रीदने के लिए! तू भी क्या याद रखेगा!”   
और सिक्का मानो पापा से डर गया और फ़ौरन कुहनी पर घिसटने लगा. और ग़ायब हो गया.
 “क्या, डेनिस्का, हार गया?” पापा ने कहा. “कौन चिल्ला रहा था कि मैं मुसीबत-फ़कीर हूँ? और अब देखिए: तमाशा-मूकाभिनय! खोए हुए सिक्के का बेहतरीन बच्चे मीश्का की नाक से निकलना! चिकी-ब्रिक!”
और पापा ने मीश्का की नाक से सिक्का खींच कर बाहर निकाला. ओह, दोस्तों, मैं नहीं जानता था कि मेरे पापा इत्ते सुपर हैं! मीश्का तो गर्व से दमक रहा था. वो अचरज से चमक रहा था और उसने फिर से ज़ोर से चिल्लाकर पापा से कहा;
 “प्लीज़, एक बार और चिकी-ब्रिक दुहराइए!”

पापा ने फिर से सब कुछ दुहराया, और इसके बाद मम्मा ने कहा:
 “इंटरवल! अब हम रेस्टारेंट में जाएँगे.”
और उसने हमें एक-एक सॉसेज वाला सैण्डविच दिया. मैं और मीशा इन सैण्डविचेस पे झपट पड़े, हम खा रहे थे, पैर हिला रहे थे, और इधर-उधर देख रहे थे. अचानक मीश्का बिना बात के बोल पड़ा:
 “मुझे मालूम है कि आपकी हैट किसके जैसी है.”
मम्मा ने पूछा:
 “अच्छा, बता – किसके जैसी है?”
 “कास्मोनॉट के हेल्मेट जैसी.”
पापा ने कहा:
 “करेक्ट. वाह, मीश्का, बिल्कुल सही निरीक्षण किया! और सच में, ये हैट कास्मोनॉट के हेल्मेट जैसी ही है. कुछ नहीं कर सकते, फ़ैशन कोशिश करती है कि मॉडर्न ज़माने से पिछड़ न जाए. अच्छा, मीश्का, इधर आ!”
और पापा ने हैट लेकर मीश्का के सिर पे रख दी.
 “बिल्कुल पोपोविच!” मम्मा ने कहा.

मीश्का वाक़ई में किसी छोटे कास्मोनॉट जैसा था. वो इतनी शान से बैठा था, और इतना मज़ेदार दिख रहा था, कि वहाँ से गुज़रने वाले सब लोग उसकी तरफ़ देखते और मुस्कुराने लगते.

और पापा भी मुस्कुरा रहे थे, और मम्मा भी, और मैं भी मुस्कुरा रहा था कि मीश्का इतना प्यारा है.
फिर हमारे लिए एक-एक आइस्क्रीम ख़रीदी गई, और हम उसे खाने लगे और चाटने लगे, मगर मीश्का ने मुझसे पहले ख़तम कर ली और फिर से खिड़की की तरफ़ गया. उसने चौखट पकड़ ली, छोटी वाली सीढ़ी पर चढ़ा और बाहर की ओर झुका.

हमारी इलेक्ट्रिक ट्रेन तेज़ और एक समान गति से भागी जा रही थी, खिड़की से बाहर नज़ारे मानो उड़ रहे थे, और ऐसा लग रहा था कि मीश्का को कास्मोनॉट वाली हेल्मेट पहन कर खिड़की से बाहर सिर निकालने में मज़ा आ रहा था, वो इतना ख़ुश था कि उसे दुनिया में किसी और चीज़ की ज़रूरत नहीं थी. मैं उसकी बगल में खड़ा होना चाह रहा था, मगर तभी मम्मा ने मुझे कुहनी मारी और आँखों से पापा की तरफ़ इशारा किया.

पापा हौले से उठे और पंजों के बल चलते हुए कम्पार्टमेण्ट के दूसरे हिस्से में गए, वहाँ भी खिड़की खुली थी, और उसमें से कोई भी नहीं देख रहा था. पापा बड़े रहस्यमय लग रहे थे, चारों ओर सब लोग शांत हो गए और पापा की तरफ़ ध्यान देने लगे. वो दबे पाँव इस दूसरी वाली खिड़की के पास आए, सिर बाहर निकाला और सामने देखने लगे, ट्रेन की दिशा में, उसी तरफ़, जिधर मीश्का देख रहा था. फिर पापा ने धीरे-धीरे अपना दाहिना हाथ बाहर निकाला, सावधानी से मीश्का की ओर बढ़ाया और अचानक बिजली की तेज़ी से उसके सिर से मम्मा की हैट खींच ली! पापा फ़ौरन खिड़की से दूर उछले और हैट को पीठ के पीछे छुपा लिया, वहीं उसे बेल्ट से लटका दिया. मैंने बड़ी अच्छी तरह ये सब देखा. मगर मीश्का ने तो नहीं देखा! उसने सिर पकड़ लिया, वहाँ मम्मा की हैट न पाकर डर गया, खिड़की से पीछे उछला और डरते हुए मम्मा के सामने खड़ा हो गया. मम्मा चहकी:
 “क्या बात है? क्या हुआ, मीश्का? मेरी नई हैट कहाँ है? कहीं हवा में तो नहीं उड़ गई? मैंने तुझसे कहा था: बाहर सिर न निकाल. मेरा दिल मुझसे कह रहा था, कि मैं बिना हैट के रह जाऊँगी! अब मैं क्या करूँ?”

मम्मा ने दोनों हाथों में अपना चेहरा छुपा लिया और कंधे हिलाने लगी, जैसे वो ज़ोर ज़ोर से रो रही हो. बेचारे मीश्का की ओर देखकर बड़ी दया आ रही थी, वो धीमी आवाज़ में बुदबुदा रहा था:
 “रोइए नहीं...प्लीज़. मैं आपको नई हैट ख़रीद दूँगा...मेरे पास पैसे हैं...सैंतालीस कोपेक. मैंने डाक टिकटों के लिए इकट्ठा किए थे...”
उसके होंठ थरथरा रहे थे, और पापा, बेशक, ये बर्दाश्त न कर सके. उन्होंने फ़ौरन अपना चेहरा मज़ाकिया बना लिया और सर्कस वालों जैसी आवाज़ में चिल्लाए:
 “नागरिकों, अटेन्शन प्लीज़! रोइए नहीं और शांत हो जाइए! आप ख़ुशनसीब हैं कि महान जादूगर एडवर्ड कन्द्रात्येविच किओ-सिओ को जानते हैं! अभी एक शानदार ट्रिक दिखाई जाएगी: “हैट की वापसी, जो नीली एक्स्प्रेस से बाहर गिर गई थी”. होशियार! अटेन्शन! चिकी-ब्रिक!”

और पापा के हाथों में मम्मा की हैट दिखाई दी. मैं भी नहीं देख पाया था, कि कितनी चालाकी से पापा ने उसे पीठ के पीछे से निकाला था. सब लोग ‘आह-आह!’ करने लगे. मीश्का का चेहरा ख़ुशी से चमकने लगा. अचरज के मारे उसकी आँख़ें माथे तक चढ़ गईं. वो इतना उत्तेजित था, कि बस उड़ने ही वाला था. वो जल्दी से पापा के पास गया, उनसे हैट ली, भागकर वापस आया और पूरी ताक़त से उसे सचमुच में खिड़की से बाहर फेंक दिया.
फिर वो मुड़ा और मेरे पापा से बोला;
 “प्लीज़, एक बार और दुहराइए...चिकी-ब्रिक!”

तभी तो ये हुआ कि हँसी के मारे मैं बस मर ही नहीं गया.


****

गुरुवार, 17 मार्च 2016

Doorbeen

दूरबीन

लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास



मैं कमीज़ को घुटनों तक खींच कर खिड़की की सिल पे बैठा था, क्योंकि मेरी पतलून मम्मा के हाथ में थी.

 “नहीं,” मम्मा ने कहा और सुई धागा एक ओर सरका दिया. “मैं इस बच्चे की हरकतें और ज़्यादा बरदाश्त नहीं कर सकती!”
 “हाँ,” पापा ने कहा और अख़बार रख दिया. “ उस पर जैसे शैतान सवार हो जाते हैं, वो फ़ेन्सिंग्स पे चढ़ जाता है, पेड़ों पे कूदता है और छतों पे भागता है. इसका दिल भी नहीं भरता!”
पापा कुछ देर चुप रहे, गुस्से से मेरी ओर देखा और आख़िर में फ़ैसला सुनाया:
”आख़िरकार मैंने एक तरीका ढूँढ़ निकाला है, जो एक ही बार में हमेशा के लिए हमें मुसीबत से छुटकारा दिला देगा.”
 “मैं जानबूझ कर नहीं करता,” मैंने कहा. “क्या मैं जानबूझ कर करता हूँ, हाँ? वो अपने आप हो जाता है.”
 “बेशक, वो अपने आप ही होता है,” मम्मा ने व्यंग्य से कहा. “तेरी पतलूनें इतने अजीब स्वभाव की हैं कि वो दिन-दिन भर, जानबूझ के हर कील से टकराती हैं, उससे उलझ जाती हैं और फिर फट जाती हैं, ख़ास तौर से इसलिए कि तेरी मम्मा को गुस्सा दिलाएँ. ऐसी शैतान हैं पतलूनें! वो अपने आप! वो अपने आप!”

मम्मा ‘वो अपने आप’ सुबह तक भी चिल्लाती रहती, क्योंकि उसकी नसें तन गई थीं, ये बिना चश्मे के भी साफ़ दिखाई दे रहा था. इसलिए मैंने पापा से पूछा:
 “तो, तुमने क्या सोचा है?”
पापा ने चेहरे पर गंभीरता लाते हुए मम्मा से कहा:
 “तुम्हें अपनी सभी योग्यताओं का उपयोग करके एक उपकरण का आविष्कार करना होगा, जो तुम्हें अपने बेटे पर नज़र रखने में मदद करे. जब वो तुम्हारे सामने न हो, तब भी. मेरे पास तो आज ज़रा भी टाइम नहीं हैं, आज ‘स्पार्ताक’ – ‘टोर्पीडो’ के बीच मैच है, और तुम, तुम मेज़ के पास बैठो, और बिना समय खोए, फ़ौरन एक दूरबीन बनाओ. तुम ये बहुत अच्छी तरह से कर सकती हो, मुझे मालूम है, कि इस लिहाज़ से तुम एक बेहद क़ाबिल इन्सान हो.”

पापा उठे, उन्होंने अपनी मेज़ की दराज़ से कुछ सामान निकाल कर मम्मा के सामने रख दिया – टूटे कोने वाला एक छोटा सा आईना, काफ़ी बड़ा मैग्नेट और अलग-अलग तरह की कुछ कीलें, एक बटन और कुछ और.
 “ये रहा ज़रूरी सामान,” उन्होंने कहा, “जुट जाओ, बहादुरों और जिज्ञासुओं!”

मम्मा उन्हें दरवाज़े तक छोड़ने गई, फिर वापस लौटी और मुझे भी घूमने के लिए कम्पाऊण्ड में जाने दिया. शाम को जब हम सब डिनर के लिए मेज़ पे बैठे, तो मम्मा की ऊँगलियाँ गोंद से सनी थीं, और मेज़ पर एक प्यारी सी नीली, मोटी ट्यूब पड़ी थी. मम्मा ने उसे उसे उठाया, दूर से मुझे दिखाया और बोली:
 “तो, डेनिस, ध्यान से देख!”
 “ये क्या है?” मैंने पूछा.
 “ये दूरबीन है! मेरा आविष्कार!” मम्मा ने जवाब दिया.
मैंने पूछा:
 “क्या आस-पास की चीज़ें देखने के लिए?”
वो मुस्कुराई:
 “कोई आसपास की चीज़ें नहीं! तुम पर नज़र रखने के लिए.”
मैंने पूछा:
 “वो कैसे?”
 “बिल्कुल आसान है!” मम्मा ने कहा. “मैंने इस दूरबीन का आविष्कार करके इसे पेरेन्ट्स के लिए बनाया है, नाविकों के टेलिस्कोप की तरह, मगर उससे कहीं ज़्यादा बेहतर.”
पापा ने कहा:
 “तुम, प्लीज़, सीधी-सादी भाषा में समझाओ कि ये क्या चीज़ है, किस सिद्धांत पर बनाई गई है, किन समस्याओं को हल करती है, और...वगैरह. प्लीज़!”

मम्मा मेज़ के पास खड़ी हो गई, जैसा ब्लैक बोर्ड के पास टीचर खड़ी रहती है, और फिर उसने भाषण देने के अंदाज़ में कहना शुरू किया:
 “ डेनिस, अब, जब मैं घर से बाहर जाया करूँगी, तो हमेशा तुझे देखती रहूँगी. चाहे मैं घर से पाँच से आठ किलोमीटर्स की दूरी पर क्यों न रहूँ, मगर जैसे ही मुझे महसूस होगा, कि बड़ी देर से तुझे देखा नहीं है और मैं देखना चाहूँगी कि तू अभी क्या गुल खिला रहा है, तो मैं फ़ौरन – चिक्! हमारे घर की दिशा में अपनी ट्यूब घुमाऊँगी – और रेडी! – तुझे देख लूँगी.”
 “एक्सेलेंट! श्नीत्सेल-तुत्सेर इफ़ेक्ट!”
मैं थोड़ा चौंक गया. मैंने कभी नहीं सोचा था कि मम्मा ऐसी चीज़ का आविष्कार कर सकती है. देखने में तो इत्ती दुबली-पतली, मगर देखो तो! श्नीत्सेल-तुत्सेर इफ़ेक्ट!
मैंने पूछा:
 “मगर मम्मा, तुम जानोगी कैसे कि हमारा घर कहाँ है?”
उसने फ़ौरन जवाब दिया:
 “मेरी ट्यूब में मैग्नेटिक-कम्पास लगा है. वो हमेशा हमारे घर की दिशा में है.”
 “बाब्किन-न्यान्स्की रिएक्शन,” पापा ने कहा.
 “बिल्कुल सही,” मम्मा ने आगे कहा. “इस तरह, डॆनिस, अगर तू फ़ेन्सिंग पर या कहीं और चढ़ता है, तो मुझे फ़ौरन दिखाई देगा.”
मैंने कहा:
 “वहाँ, अन्दर, क्या है? कोई स्क्रीन है क्या?”
उसने जवाब दिया:
 “बेशक. आईने की याद है? वो तेरी तस्वीर को सीधे मेरे दिमाग़ के अन्दर परावर्तित करता है. मैं फ़ौरन देख लेती हूँ कि क्या तू गुलेल चला रहा है या सिर्फ गेंद घुमा रहा है, बगैर किसी मतलब के.”
 “क्रान्त्स- निचिखान्त्स का साधारण नियम. इसमें कोई ख़ास बात नहीं है,” पापा बुदबुदाए और उन्होंने अचानक जोश में आकर पूछा: “एक्सक्यूज़ मी, एक्सक्यूज़ मी, प्लीज़, मैं तुम्हारी बात काट रहा हूँ. क्या एक छोटा सा सवाल पूछ सकता हूँ?”
 “हाँ, पूछो,” मम्मा ने कहा.
 “क्या तुम्हारी दूरबीन बिजली पे चलती है या सेमीकण्डक्टर्स पे?”
 “बिजली पे,” मम्मा ने कहा.
 “ओह, तब मैं तुम्हें आगाह करता हूँ,” पापा ने कहा, “तुम शॉर्ट सर्किट से सावधान रहना. वर्ना, अगर कहीं शॉर्ट सर्किट हो गया तो तुम्हारे दिमाग़ में विस्फ़ोट हो जाएगा.”
 “नहीं होगा,” मम्मा ने कहा. “और फ्यूज़ किसलिए है?”
 “ओह, तब दूसरी बात है,” पापा ने कहा. “मगर फिर भी तुम होशियार रहना, वर्ना, तुम्हें मालूम है, कि मैं परेशान होता रहूँगा.”
मैंने कहा:
 “क्या तुम ऐसी चीज़ मेरे लिए भी बना सकती हो? जिससे कि मैं भी तुम पर नज़र रख सकूँ?”
 “वो किसलिए?” मम्मा फिर मुस्कुराई. “मैं कोई फ़ेन्सिंग पे थोड़े ही चढ़ती हूँ!”
 “ये अभी तक पता नहीं चला है,” मैंने कहा, “हो सकता है, कि फ़ेन्सिंग पे तुम, शायद नहीं चढ़ोगी, मगर, हो सकता है कि तुम कारों के बीच फँस गई हो? या उनके सामने बकरी की तरह उछल रही हो?”
 “या सफ़ाई वालों से झगड़ा कर रही हो? या मिलिशिया से बहस कर रही हो?” पापा ने मेरा समर्थन करते हुए कहा और गहरी साँस ली: “ हाँ, अफ़सोस, हमारे पास ऐसी मशीन नहीं है, ताकि हम तुम पर नज़र रख सकें...”
मगर मम्मा ने हमें ज़ुबान चिढ़ाई:
 “सिर्फ एक ही अदद मशीन का आविष्कार और निर्माण किया गया है, क्या लगा रखा है?” वो मेरी ओर मुड़ी: “तो, अब तुम जान लो, अब मैं तुम्हें हमेशा अपने कन्ट्रोल में रखूँगी!”

मैंने सोचा कि ऐसे आविष्कार से तो ज़िन्दगी बेहद बेमज़ा हो जाएगी. मगर मैंने कुछ नहीं कहा, बल्कि सिर हिला दिया और फिर सोने चला गया. मगर जब उठा और रोज़मर्रा की ज़िन्दगी जीने लगा, तो मैं समझ गया कि अब मेरे बेहद काले दिन आ गए हैं. मम्मा के आविष्कार के कारण मेरी ज़िन्दगी बेहद दर्दभरी हो गई. जैसे, मिसाल के तौर पे, सोचो कि कोस्तिक पिछले कुछ दिनों से बेहद बदमाशी कर रहा है और उसकी गर्दन पकड़ के झापड़ जमाने का टाइम आ गया है, मगर तुम कुछ कर नहीं पाते, क्योंकि ऐसा लगता है कि मम्मा की दूरबीन तुम्हारी पीठ की ओर ही फ़िक्स की गई है. ऐसे हालात में कोस्तिक को झापड़ लगाना नामुमकिन है. मैं ये नहीं कह रहा हूँ, कि मैंने ‘चिस्तिये प्रूदी’ तालाब पे जाना एकदम बन्द कर दिया, जिससे वहाँ अपने लिए पूरी जेबें भर-भरके मेंढ़क पकड़ सकूँ. और मेरी पहले वाली सुखी, ख़ुशनुमा ज़िन्दगी अब मेरे लिए ख़त्म हो गई है. मेरे दिन इतने दुख में बीत रहे थे, कि मैं किसी मोमबती की तरह पिघल रहा था, मुझे कोई रास्ता नहीं सूझता था. इस सब का अंत शायद बड़ा दर्दनाक होता, मगर अचानक, एक बार जब मम्मा चली गई, और मैं अपनी फुटबॉल की पुरानी जाली ढूँढ़ रहा था, तो दराज़ में, जहाँ मैं सब अटर-फ़टर रखता हूँ, मुझे अचानक दिखाई दी...मम्मा की दूरबीन! हाँ, वो रद्दी सामान के बीच पड़ी थी, जैसे कोई अनाथ हो, ऊपर का कवर उखड़ा हुआ, एकदम भद्दी. उसे देखने से साफ़ पता चल रहा था कि मम्मा ने कई दिनों से उसका इस्तेमाल नहीं किया है, उसके बारे में अब वो सोचती भी नहीं है. मैंने उसे उठा लिया और उसका कवर नोच लिया, ये देखने के लिए कि उसके भीतर क्या है, वो कैसे बनाई गई है, मगर, क़सम से, वो खाली थी, उसके भीतर कुछ भी नहीं था. एकदम ख़ाली, गेंद की तरह गोल गोल घुमा लो!

अब मैं समझ गया कि इन लोगों ने मुझे धोखा दिया है और मम्मा ने कोई आविष्कार-वाविष्कार नहीं किया है, बल्कि वो मुझे अपनी नकली दूरबीन से डरा रही थी, और मैं, किसी बेवकूफ़ की तरह, उस पर भरोसा कर रहा था और डर रहा था, और बेहद अच्छे बच्चे की तरह बर्ताव कर रहा था. इस सबसे मैं पूरी दुनिया पे, और मम्मा पे, और पापा पे और इन सब हरकतों पे इतना गुस्सा हो गया, कि मैं पागल की तरह कम्पाऊण्ड में भागा और वहाँ कोस्तिक, अन्द्र्यूशा और अल्योन्का के साथ अर्जेन्ट लड़ाई शुरू कर दी. हालाँकि उन तीनों ने मिलकर मेरी फन्टास्टिक धुलाई कर दी, मगर मेरा मूड एकदम एक्सेलेंट हो गया, और लड़ाई के बाद हम चारों गोदाम में घुस गए, और छत पर चढ़ गए, और फिर पेड़ों पर चढ़ गए, फिर नीचे सेलार में, सीधे बॉयलर-रूम में घुस गए, कोयले के ढेर पे, और थक के चूर होने तक उछलते-कूदते रहे. इस दौरान मुझे लग रहा था, जैसे मेरे दिल से कोई बोझ हट गया है. अच्छा लग रहा था, रूह को आज़ादी महसूस हो रही थी, हल्का लग रहा था और इतनी ख़ुशी हो रही थी, जैसी पहली मई को होती है.


*****

बुधवार, 16 मार्च 2016

White Finches

व्हाइट फ़िन्चेज़*

लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास


हमारी बिल्डिंग के पास एक इश्तेहार लगा, इत्ता सुन्दर और चटकदार, कि उसे देखे बिना वहाँ से गुज़र ही नहीं सकते. उसमें अलग अलग तरह के पंछियों के चित्र बने थे और लिखा था: ‘गाने वाले पंछियों की नुमाइश’. मैंने फ़ौरन तय कर लिया कि ज़रूर जाकर देखूँगा कि ये कौन सी नई चीज़ है.
और, सण्डे को क़रीब दो बजे, मैं तैयार हुआ, मैंने गरम कपड़े पहने और मीशा को फ़ोन किया, जिससे उसे भी साथ ले चलूँ. मगर मीश्का भुनभुनाया कि उसे मैथ्स में ‘2’ नंबर मिले हैं – ये है पहली बात; और उसके पास जासूसों के बारे में नई किताब आई है – ये है दूसरी बात.

तब मैंने अकेले जाने का फ़ैसला किया. मम्मा ने ख़ुशी ख़ुशी मुझे जाने दिया, क्योंकि मैं उसके सफ़ाई के काम को डिस्टर्ब कर रहा था, और मैं चल पड़ा. गाने वाले पंछी दिखाए जा रहे थे पीपल्स एक्ज़िबिशन में, और मैं आराम से वहाँ मेट्रो से पहुँच गया. काऊंटर के पास क़रीब-क़रीब कोई नहीं था, मैंने खिड़की में बीस कोपेक का सिक्का बढ़ाया, मगर कैशियर ने मुझे टिकट के साथ दस कोपेक भी लौटाए, इसलिए कि मैं स्कूल का स्टूडेंट हूँ. ये मुझे बहुत अच्छा लगा. ये तो ऐसा हुआ कि मुझे दस कोपेक इसलिए दिए जा रहे हैं, कि मैं तीसरी क्लास में पढ़ता हूँ, दस कोपेक और टिकट! मुझे ऐसे कन्सेशन के बारे में पता नहीं था! अब, ऐसे नियमों की बदौलत मुझे अलग-अलग तरह की एक्ज़िबिशन्स और ‘शो’ज़ में जाना पड़ेगा! इस तरह से मैं कैमेरे के लिए पैसे जमा कर सकता हूँ! मतलब, यदि कैमेरा 40 रूबल्स का है, तो, वेरी सिम्पल, मुझे चार सौ एक्ज़िबिशन्स में जाना होगा, और काम ख़तम! बिल्कुल ठीक. मेरे पास अपना कैमेरा होगा! ये सोचकर मुझे बहुत ख़ुशी हुई, और मैं बड़े अच्छे मूड में पंछियों की तरफ़ गया. चारों ओर कई तरह के छोटे-छोटे घर थे, कुछ टॉवर्स जैसे, कुछ महलों जैसे, कुछ किसी के भी जैसे नहीं थे. ये सब एक्ज़िबिशन की पेविलियन्स थीं.

कुछ मम्मियाँ और पापा लोग अपने बच्चों को त्रोयका में घुमा रहे थे, क्योंकि इस समय यहाँ विन्टर-फ़ेस्टिवल चल रहा था और घोड़ों तथा रेन्डियर्स पर घूमना संभव था. दुख कि बात ये थी कि इस घुड़सवारी के लिए लाइन बेहद लम्बी थी, और हालाँकि मैं उसमें कुछ देर खड़ा रहा, मगर मुझे फ़ौरन समझ में आ गया कि अगर ये ऐसा ही रहा तो मेरा नम्बर, शायद, क़रीब डेढ़ हफ़्टे बाद आएगा, और मुझे तो गाने वाले पंछियों को देखना था. इसलिए मैं घोड़ों और रेन्डियर्स को धता बता कर आगे चल पड़ा. ‘इलेक्ट्रोनिक’ वाली पेविलियन के पास आते आते मैं थक गया. तब मैंने पास ही से जाती हुई एक लड़की से पूछा:
 “क्या गाने वाले पंछियों की पेविलियन अभी काफ़ी दूर है?”
उसने हाथ से दिखाते हुए कहा;
 “देख, ये पास में ‘सुअर-पालन’ की पेविलियन देख रहा है? वहीं तेरे पंछी हैं. जल्दी जा.”

मैं ‘सुअर-पालन’ वाली पेविलियन में गया. जैसे ही मैंने दरवाज़ा खोला, मैं समझ गया कि यहाँ आना बेकार नहीं गया. मेरे आस-पास, दीवारों पे, चारों तरफ़, क़रीब-क़रीब छत तक, एक के पीछे एक, क्यूबिकल्स के समान छोटॆ-छोटे पिंजरे रखे थे. हर पिंजरे में एक-एक पंछी था. वे सब एक साथ गा रहे थे. कोरस में. मगर हर पंछी का अपना-अपना गाना था. कोई ‘चिरिक-चिरिक’, कोई ‘फ़्यू-फ़्यू’, कोई ‘चेकि-श्येक’, और कोई ‘पी-पी-पी’. सब मिलाकर हमारी क्लास जैसा लग रहा था, सुबह, रईसा इवानोव्ना के आने तक, तब हम भी अपना अपना राग अलापते हैं. और फिर, ये पंछी इत्ते ख़ूबसूरत थी कि मैं सोच भी नहीं सकता था. मैंने कभी पास से ऐसे पंछियों को नहीं देखा था. पास से मैंने सिर्फ चिड़ियों को देखा था.  बेशक, चिड़िया भी बहुत ख़ूबसूरत और प्यारी होती हैं, इसपे बहस नहीं हो सकती, मगर यहाँ तो आश्चर्यजनक पंछी थे, जिन्हें कभी देखा ही नहीं था. मिसाल के तौर पे, ये है बुल्फ़िन्च. अकडू, खाया- पिया, गोल-मटोल, न किसी से कुछ लेना, न देना, ढलते हुए लाल सूरज की रोशनी में तैरते हुए साबुन के बुलबुले जैसा. यहीं टेढ़ी चोंच वाले क्रॉसबिल्स थे, फूले गालों वाले टिटमाऊस थे, और वार्ब्लर पंछी -  देखने में इतने ताज़ा तरीन और इतने फूले-फूले कि लगता था, इन्हें ज़िन्दा ही खा जाओगे... बेशक, ये मैं मज़ाक में कह रहा हूँ... ठनठनाती आवाज़ वाली पिलक चिड़िया थी, मज़बूत और हरी-हरी, दलदल जैसी, और थे काले रॉबिन पंछी. एक पूरा कॉरीडोर कबूतरों से भरा था. हालाँकि वो गाने वाले पंछी नहीं हैं, मगर उन्हें इन सबके साथ जानबूझकर रखा गया था. क्योंकि यदि कबूतर जैकोबियन है, तो वो भी ख़ूबसूरती में अन्य पंछियों के मुक़ाबले में कम नहीं है. वो एस्ट्रा जैसा होता है और अलग-अलग रंगों का होता है: सफ़ेद, हल्का गुलाबी-जामुनी, और भूरा. वण्डरफुल! और काली पूँछ वाले ‘मॉन्क्स’! भयानक आँखों वाले ड्रैगन्स! और डाक ले जाने वाले जो ‘वोल्गा’ की स्पीड से उड़ते हैं! ग़ज़ब!

न गाने वाले, मगर आश्चर्यचकित करने वाले पंछियों के बीच दो किस्म के तोते थे. एक था सफ़ेद, बड़ा उसे, कॉकटू कहते हैं. उसकी नाक डिब्बा खोलने वाले ओपनर जैसी होती है, और खोपड़ी से हरी प्याज़ का गुच्छा निकल रहा होता है. दूसरा था क्यूबा का अमाज़ोन. क्यूबा का! हरा! उसके सीने पे लाल टाई थी, जैसे पायनियर्स बच्चे लगाते हैं. वो पूरे समय मेरी ओर देख रहा था, और मैं भी उसे देखकर मुस्कुरा रहा था, जिससे कि उसे पता चले कि मैं उसका दोस्त हूँ. मगर इस लाजवाब पैविलियन में यही सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं था. बात ये थी कि वहाँ एक छोटा सा कोना था, और धीरे धीरे, एक पिंजरे से दूसरे पिंजरे की ओर जाते हुए मैं वहाँ भी पहुँचा, बिल्कुल न जानते हुए, कि यहीं तो है, यहीं तो रखा गया है सबसे क़ीमती ख़ज़ाना. 

यहाँ लोगों के झुण्ड के झुण्ड खड़े थे. लोग यहाँ से हट ही नहीं रहे थे और ज़रा भी शोर नहीं कर रहे थे, बल्कि चिपक-चिपक कर लाइनों में खड़े थे. मैं भी हौले से इन झुण्डों में स्क्रू की तरह गोल-गोल घूमते हुए घुस गया और धीरे-धीरे सबसे आगे वाली लाइन में आकर खड़ा हो गया. ये फिन्च पंछी थे. छोटे-छोटे, बर्फ के सफ़ेद गोलों जैसे, बेरों जैसी चमकदार चोंच वाले, आधी उँगली के साइज़ के. ये कहाँ से आए थे? शायद, वो आसमान से गिरे थे. शायद बारिश जैसे गिरे थे, और फिर ज़िन्दा हो गए, बर्फ़ीले टीलों से बाहर आ गए और हमारे कम्पाऊण्ड में, गलियों में, खिड़कियों के सामने उड़ने लगे, घूमने लगे और अंत में ‘सुअरपालन’ वाली इस पेविलियन में घुस गए, और अब थक गए हैं और अपने अपने घर में बैठ गए हैं, आराम फ़रमा रहे हैं. लोगों के झुण्ड उनके सामने खड़े हैं, चुपचाप, बिना हिले-डुले, और उनसे बेहद प्यार करते हैं. हाँ, हाँ. सब उनसे प्यार करते हैं. एकमत से. 

तभी सुनहरे दाँत वाली एक आण्टी अचानक बोल पड़ी:
 “आह, कितने छोटे....दुबले-पतले... इन्हें कहाँ...”
सबने बड़ी संजीदगी से उसकी ओर देखा, एक दद्दू ने टेढ़ा मुँह करके ज़हरीले अंदाज़ में कहा:
 “बेशक, मुर्गी – वो भी इनसे मोटी...”
सबने फिर से आण्टी के सुनहरे दाँत की ओर देखा, वो लाल हो गई और चली गई. और हम सब, जो वहाँ खड़े थे, समझ गए कि आण्टी की कोई गिनती ही नहीं थी, क्योंकि वो हमारे ग्रुप की नहीं थी. हम उसी तरह से चुपचाप काफ़ी देर तक खड़े रहे, पंछियों को देखने से मन ही नहीं भर रहा था. वो, ज़ाहिर है, किसी सातवें आसमान से आए थे, जादुई दुनिया से, जिसके बारे में एण्डरसन ने लिखा है. इत्ते छोटे, इत्ते कमज़ोर और इत्ते नाज़ुक थे ये पंछी, मगर, शायद इसी में इनकी शक्ति थी, इन छोटे-छोटे, कमज़ोर पंछियों की, कि हम उनके सामने स्तब्ध खड़े थे, जैसे ज़मीन में गड़ गए हों – क्या बच्चे और क्या बूढ़े. शायद हम यहाँ से कभी नहीं हटते, मगर तभी रेडिओ पे किसी की आवाज़ सुनाई दी:
 “अटेन्शन, प्लीज़. अभी पेविलियन नं. 2 में गाने वाली कनेरीज़ की प्रतियोगिता होगी, ठीक दस मिनट बाद! कृपया पेविलियन नं. 2 में आइए!”
और दद्दू, जिसने आण्टी को चिढ़ाया था, मानो हड़बड़ाकर बोला:
 “जाना चाहिए...सिम्योनोवों के पंछियों का गाना सुनेंगे. उशाकोवों के पंछियों का भी.” उसने मेरा कंधा छुआ: “चल, बच्चे...”
और वो ख़ुद आगे बढ़ा, मैंने देखा कि उसका जूता पीछे से फ़ट रहा है, और उसमें से पुआल का गुच्छा बाहर निकल रहा है.

पेविलियन नं. 2 में एक छोटा सा हॉल था, स्टेज था और कुर्सियाँ थीं. स्टेज पर, एक किनारे, अनाऊन्सर के लिए स्टेण्ड था, और बीच में – एक मेज़ थी, जिसके पीछे पंछियों के गाने की प्रतियोगिता के जज बैठे थे. मुझे बहुत अचरज हुआ, मगर आण्टी को सताने वाला दद्दू इस मेज़ के बीचों बीच बैठ गया. लगता है कि वो वहाँ प्रमुख था; मुझे नहीं मालूम, मगर जो लोग वहाँ बैठे थे, उन सबने हाथ मिलाकर उसका अभिवादन किया और वैसे भी वो उसका आदर कर रहे थे. जब सब शांत हो गए, तो इस दद्दू ने कहा:
 “तो, सिम्योनोव, चल, शुरू कर...”

कहीं से एक ऊँचे अंकल निकल कर आए. उनके सीने पर बारह मेडल्स लटक रहे थे, मैंने गिन लिए. उनके हाथों में एक चपटी सूटकेस थी. उसने उसे खोला. सूटकेस में ख़ूब सारे छोटे-छोटे पिंजरे थे, और उनमें कनेरी पंछी थे. उसने एक पिंजरा बाहर निकाला, उसमें पीला-पीला ‘लिमोन’ फ़ुदक रहा था. सिम्योनोव ने इस पिंजरे को अनाऊन्सर वाली डेस्क पर रखा. और लिमोन्चिक ने ऐसी पोज़ बनाई मानो वो वाक़ई में कुछ प्रस्तुत करने जा रहा हो, मगर चूँकि अभी उसके प्रोग्राम में पाँच मिनट बाकी हैं, इसलिए तब तक वो फ़ुदक रहा है. सब लोग एकदम ख़ामोश थे और इंतज़ार कर रहे थे कि लिमोन्चिक कब गाएगा. मगर उसका तो गाने का इरादा ही नहीं था. वो बस फुदक रहा था और अपने पंख फ़ड़फ़ड़ा रहा था. किसी ने पीछे से फुसफुसाकर कहा:
 “अगर दस मिनट में इसने गाना शुरू नहीं किया, तो उसे प्रतियोगिता से बाहर कर देंगे. ऐसा है सिम्योनोव.”

मगर लिमोन्चिक तो बस, यहाँ वहाँ फ़ुदके जा रहा था, फिर जैसे उसने फ़ैसला कर लिया, अपनी चोंच खोली, मगर, जैसे हम सबको चिढ़ा रहा था, उसने गाना शुरू नहीं किया और फिर से फुदकने लगा. मैं तो इंतज़ार करते-करते ‘बोर’ हो गया, और मैं वहाँ से जाने ही वाला था, मगर प्रमुख दद्दू ने अचानक कहा, और वैसे ही व्यंग्य से:  
 “तो, सिम्योनोव, क्या ये कभी गाएगा? या शरमा रहा है? हो सकता है, कि आज उसका मूड न हो?”
सब धीरे से हँस दिए, बेचारे सिम्योनोव को देखने से दया आ रही थी. वो अपने लिमोन्चिक की तरफ़ झुका और अचानक चुपके से ‘सी...” करके सीटी बजाने लगा:
 “सीसीसीसी....सीसीसीसी.....सीसीसीसी....”

लिमिन्चिक ने उसे ध्यान से सुना, अपनी चमकदार आँखों से उसकी ओर देखा, ज़ाहिर है, वो उसे पहचान गया था, फिर अपनी चोंच खोली, मगर फिर इरादा बदल दिया और दुबारा ऐसे फ़ुदकने लगा, जैसे कुछ हुआ ही न हो. दद्दू ने फ़ौरन कहा – उसे शायद मज़ाक करना अच्छा लगता था:
 “इसकी आवाज़ ख़राब है...”
दद्दू के शब्दों को सुनकर सिम्योनोव रोने-रोने को हो गया. उसने एक तीली निकाली और उसे माचिस की डिब्बी पे घिसने लगा. मगर लिमोन्चिक ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई. उसने तीली की तरफ़ देखा भी नहीं. तब दद्दू ने हाथ से इशारा किया, कि सिम्योनोव तीली घिसना बन्द करे, और ख़ुद लिमोन्चिक की ओर झुका, और अचानक मुश्किल से सुनाई दिया... वो चीं-चीं करके चहचहाया! हाँ! वो चहचहाने लगा, और लिमोन्चिक को जैसे इसी का इंतज़ार था, वो चौंक गया, सीधा हो गया, तन गया, सिकुड़ गया और गाने लगा!
वो बड़ी देर तक गाता रहा, बिना रुके, सीटी बजाते-बजाते, और खींच कर एक लाइन में गा रहा था, जैसे उस कविता में है : “ हज़ारों तरह से खींचा, खूब बरसा”, और जब गा रहा था तो और ज़्यादा सिकुड़ गया, जैसे पिघल रहा हो, और इस दौरान, जब वो गा रहा था, मैं भी उसके साथ गा रहा था, सिर्फ अपने आप में, भीतर से. मैं लिमोन्चिक के साथ गा रहा था, और देख रहा था सिम्योनोव का चेहरा कैसे ख़ुशी से दमक रहा है, और लाल हो रहा है, और दद्दू के चेहरे पर थे गर्व के और व्यंग्य के भाव. उसने दिखा दिया कि वो अकेला ही पंछी को गाने के लिए मजबूर कर सकता है. और जब अंत में लिमोन्चिक ने गाना बन्द किया और सबने तालियाँ बजाईं, तो दद्दू कुर्सी की पीठ से टिक गए और लापरवाही से बोले:
 “गोल्ड मेडल! हटा, सिम्योनोव! इंटरवल.”

सिम्योनोव ने लिमोन्चिक को डेस्क से हटा कर सूटकेस में छुपा लिया. साफ़ दिखाई दे रहा था, कि उसके हाथ थरथरा रहे हैं. चारों ओर बैठे हुए लोग उठ गए, शोर मचाने लगे और सिगरेट पीने के लिए चल दिए.

इस पल मैं सोच रहा था कि अपने लोगों को ये सब बताना कितना अच्छा रहेगा, और मैं, ज़्यादा सोचे बगैर, मेट्रो की ओर भागा, और जब घर पहुँचा, तो पापा और मम्मा मेरा इंतज़ार ही कर रहे थे. पापा ने कहा:
 “बता. अच्छा लगा?”
मैंने कहा:
 “बेहद!”
मम्मा घबरा गई:
 “ये तेरी आवाज़ कैसी निकल रही है? तुझे क्या हुआ है? तू सीसी क्यों कर रहा है?”
मैंने कहा;
 “क्योंकि मैं गा रहा था! मेरी आवाज़ बैठ गई और मैं सिसियाने लगा.”
पापा चहके:
 “तूने कहाँ गाया था, कज़्लोव्स्की?”
मैंने कहा:
 “मैंने कॉम्पिटीशन में गाया था!”
 “बता, सारी बात बता!” मम्मा ने कहा.
मैंने कहा:
 “मैं कनेरी के साथ गा रहा था!”
पापा फ़ौरन हँसते-हँसते लोट पोट हो गए.
 “मैं कल्पना कर सकता हूँ,” उन्होंने कहा, “कितना बढ़िया रहा होगा! क्या तुझे ‘वन्स-मोर’ मिला था?”
 “हँसो मत, पापा,” मैंने सिसियाते हुए कहा, “मैं अपने आप में गा रहा था. अपने भीतर.”
 “आ! तब दूसरी बात है,” पापा कुछ शांत हुए, “तब थैन्क्स गॉड!”
ममा ने मेरे माथे पे हाथ रखा:
 “कैसा महसूस कर रहा है?”
 “वंडरफुल,” मैंने और ज़्यादा भर्राते हुए कहा और अचानक आगे कहा:
  “और लिमोन्चिक को गोल्ड-मेडल मिला...”
 “ये तो अनाप-शनाप बक रहा है,” मम्मा ने रुआँसे होकर कहा.
 “उसका दिमाग़ अनुभवों से भर गया है,” पापा ने समझाया, “उसे गरम दूध दे, मिनरल वाटर के साथ. ये भर्राहट मुझे परेशान कर रही है...”

...रात को मैं बड़ी देर तक सो न सका, मैं इस असाधारण दिन को याद करता रहा: आश्चर्यजनक चीज़ों से भरी ‘सुअरपालन’ वाली पैविलियन, और दद्दू, और आण्टी, और सिम्योनोव, और लिमोन्चिक, और सबसे ख़ास – मेरी आँखों के सामने छोटे-छोटे और हल्के बर्फ के गोले, सफ़ेद फिन्च उड़ रहे थे, वे मेरे दिल से चिपक गए थे, ये बेर जैसी चोंच वाले... और मैं पड़े-पड़े अंधेरे में देख रहा था, और जान गया था कि अब मैं उन्हें कभी नहीं भूलूँगा.
नहीं भूल सकूँगा.

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* फ़िन्च – एक प्रकार का गाने वाला छोटा पक्षी. ये सफ़ेद, गुलाबी, सुनहरे आदि रंग़ों में पाया जाता है

रविवार, 13 मार्च 2016

Jab Main Uncle Misha ke Ghar Gaya


जब मैं अंकल मीशा के घर गया


लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास



एक बार ऐसा हुआ कि हफ़्ते भर में मुझे लगातार कई दिनों की छुट्टियाँ आ गई, और पूरे हफ़्ते मेरे पास करने के लिए कुछ भी नहीं था. हमारे स्कूल के टीचर्स जैसे एक साथ बीमार हो गए. किसी को एपेन्डिसाइटिस, किसी को फ्लू, किसी को टॉन्सिल्स. पढ़ाने वाला कोई था ही नहीं.
तभी मीशा अंकल आए. जब उन्होंने सुना कि मैं पूरे हफ़्ते आराम कर सकता हूँ, तो सीधे छत तक उछल गए, और फिर मम्मा के पास बैठकर उससे भेदभरी आवाज़ में बोले:
 “मेरे पास एक आइडिया है!”
मम्मा ने फ़ौरन मुझे अपने पास खींचा.
 “बोलो,” उसने कुछ नाराज़ सुर में कहा.
यही तो बात है – आदमी अपनी बात पूरी कर ही नहीं पाता, और मम्मा को अच्छा नहीं लगता. मुसीबत! हमेशा ऐसा ही होता है! बिल्कुल पनिशमेन्ट! मगर मैं ख़ामोश रहा, और अंकल मीशा ने कहा:
 “आज मैं वापस जा रहा हूँ. मैं डेनिस्का को अपने साथ ले जाऊँ? घूम आएगा! लेनिनग्राद देख लेगा, ख़ूबसूरत शहर, क्रांति का उद्गम स्थल, नेवा नदी पर ऐतिहासिक जहाज़ अव्रोरा खड़ा है, बिल्कुल ज़िन्दा जहाज़ जैसा, पता है कितना दिलचस्प है!”
मम्मा ने भँवें चढ़ाईं और बोली:
 “और वापस कैसे आएगा?”
 “मैं उसे रिसीव कर लूँगा,” पापा ने कहा. “तो! कहो ‘हाँ’ और इनाम में हम तुम्हें ‘किस’ करेंगे.”
और वो लपके मम्मा को ‘किस’ करने के लिए. उसने हाथ झटके और बोली: ”बदमाश कहीं के!” फिर आगे कहा: “मेरा क्या, जाइए,” और गहरी साँस ली.

मैं अंकल मीशा के साथ निकल पड़ा. लेनिनग्राद के रास्ते के बारे में मैं कुछ नहीं बता सकता, क्योंकि ट्रेन चली थी रात को ग्यारह पचास पे, और मैं फ़ौरन सो गया, मुर्दे की तरह. कम्पार्टमेंट में सिर्फ सुबह ही नज़र दौड़ाई, और मुझे सब कुछ बहुत अच्छा लगा. टॉयलेट, और कॉरीडोर, और ऊपर वाली बर्थ पे जाने के लिए छोटी सी सीढ़ी. अंकल मीशा ने कहा:
 “तो? अब अपने चचेरे भाई दीम्का से मिलेगा. आख़िर उससे तेरी मुलाक़ात हो जाएगी!”

हम रेल्वे स्टेशन से बाहर आए और ट्रॉलीबस में बैठे, और चले भी नहीं थे कि पता चला कि हमें उतरना है.
हम भागकर दूसरी मंज़िल पर चढ़े और दरवाज़ा खोला, वहाँ कोई लड़का बैठा था और गरम-गरम समोसे खा रहा था. वो सरका और मुझसे बोला:
 “चल, मेरा साथ दे!”
मैं उसके पास बैठ गया और जल्दी ही उससे दोस्ती कर ली.
”तू स्कूल क्यों नहीं गया?” अंकल मीशा ने पूछा.
 “आज पापा आ रहे हैं!” दीम्का ने जवाब दिया और मुस्कुराया. वो और ज़्यादा प्यारा लगने लगा. “अकेले नहीं, बल्कि भाई के साथ. तो, कैसे? मिलना है ना!”
अंकल मीशा खिलखिलाए और अपने कारख़ाने चले गए. दीम्का दरवाज़े तक उनके साथ गया, और हम, कुछ और समोसे खाकर, फ़ौरन लेनिनग्राद देखने निकल पड़े. दीम्का को वो मुँह ज़ुबानी याद था, और सबसे पहले हम नेवा की तरफ़ भागे – कितनी चौड़ी है. हम किनारे पे दौड़ते रहे, कोई भी रास्ता पार नहीं किया, और अचानक देखा – जहाज़ खड़ा है, और उस पर पूरा काम हो रहा है. हर चीज़ ‘नेवी’ जैसी – नाविक, फ्लैग्स, और जहाज़ पे लिखा था: “अव्रोरा”. दीम्का ने कहा:
 “देख, कैसा जहाज़ है.”
मैंने कहा;
”अव्रोरा”.
दीम्का ने कहा:
“क्या जहाज़ है...इसने अक्टूबर क्रांति में हिस्सा लिया था!”
 मेरी साँस रुकने लगी, कि मैं अपनी आँखों से ‘अव्रोरा’ देख रहा हूँ. मैंने इस जहाज़ के सम्मान में अपनी कैप उतार दी.
फिर दीम्का और आगे की तरफ़ दौड़ा, और मैं – उसके पीछे. लेनिनग्राद को जानना दिलचस्प है. हम बसों में बैठे, और कहीं उतरे, और फिर से बसों में बैठे. हमने पूश्किन का स्मारक देखा एक छोटे से गोल स्क्वेयर पे. पूश्किन छोटा था, वैसा नहीं, जैसा हमारे मॉस्को में है - पूश्किन स्क्वेयर पे. नहीं, इससे क्या मुक़ाबला! यहाँ वो हमारे वाले पूश्किन से ज़्यादा जवान था, मानो दसवीं क्लास का स्टूडेंट हो. वो छोटा था, मगर बेहद ख़ूबसूरत और बेहद प्यारा था. मगर तभी दीम्का ने कहा:
 “मुझे भूख लगी है,” और वो किसी दरवाज़े के अन्दर चला गया.
मैं – उसके पीछे. देखो, इसे अभी से भूख लग गई! अभी अभी तो मन भर समोसे खाए हैं और अभी से! इसे भूख लग गई! क्या छोकरा है! ऐसे लड़के के साथ तुम सुरक्षित रहोगे.
और, हम एक बड़े हॉल में घुसे, जिसमें मेज़ें लगी हुई थीं. ये एक कैफ़े था. हमने ‘पाइज़’ खाईं – ऐसी ट्यूब जैसी जिनमें माँस भरा होता है, पैनकेक्स जैसी. ओह, कितनी स्वादिष्ट थीं! इसके बाद एक-एक और ली, फिर तीसरी भी ली. इसके बाद, जब खा चुके, तो दीम्का ने शान से पूछा:
“हमें कितना देना है?”
उसने पैसे दिए, मैं भौंचक्का सा उसकी ओर देख रहा था. वह मुस्कुराया:
 “क्या देख रहा है? ये पापा ने मुझे पैसे दिए थे, ख़ास तौर से इसलिए कि तुझे खिलाऊँ. आख़िर तू हमारा मेहमान है, सही है ना?”  
और जब हम घर जा रहे थे, तो दीम्का ने कहा:
 “अब कुछ खा लेंगे, और फिर एर्मिताझ.”
मैंने कहा:
 “फिर खा लेंगे? तेरे क्या दो पेट हैं? और फिर, मैं एर्मिताझ पहले ही जा चुका हूँ. मॉस्को में. मैंने वहाँ सर्दियों में टीलों से स्केटिंग की थी. जब दूसरी क्लास में था, तभी!”
दीमा का मुँह लाल हो गया:
 “ये तू क्या कह रहा है, तुझे पता नहीं है कि तुम्हारा मॉस्को का एर्मिताझ – ये सिर्फ चिल्ड्रेन्स पार्क है, मगर हमारे लेनिनग्राद में एर्मिताझ - चित्रों की गैलरी है! म्यूज़ियम, समझा?”
और जब हम स्क्वेयर पे स्थित ख़ूबसूरत घर की ओर आये और मैंने देखा कि छत को विशालकाय पुतलों ने थाम रखा है, तो मैं अचानक समझ गया कि बेहद थक गया हूँ, और मैंने दीम्का से कहा:
 “ऐसा करें, कि चित्रों की गैलरी कल देखते हैं?आँ? वर्ना, मैं तो बहुत थक गया हूँ. बड़ी देर से चल रहे हैं.”
दीम्का ने मेरा हाथ पकड़ा और पूछा:
 “क्या ट्राम तक चल सकते हो?”
मैंने सिर हिलाया, और हम जल्दी ही ट्राम-स्टॉप पे पहुँच गए और चल पड़े. पता चला कि ट्राम में काफ़ी देर तक सफ़र करना पड़ा.
शाम को मेरी आँखें अपने आप बन्द हो रही थीं. गाल्या आण्टी ने कॉट बिछा दी और मैं फ़ौरन सो गया.
सुबह दीम्का मेरा पैर पकड़ कर कॉट से खींचने लगा:
 “उठ जा, स्लीपिंग जैक!”
मैंने पूछा:
”क्या सुबह हो गई?”
दीम्का ने कहा:
 “सुबह, सुबह! जल्दी से उठ, एर्मिताझ भागना है!”

जब हम सब ब्रेकफ़ास्ट कर रहे थे, तो दीम्का बार-बार दुहरा रहा था: “चल, जल्दी!”
गाल्या आण्टी ने कहा:
 “दीमा, डेनिस्का के पीछे न पड़, उसके गले में निवाला अटक रहा है. और वैसे भी, थोड़ा इंतज़ार तो कर सकता है.”
और उसने किसी मक़सद से उसकी ओर देखा. दीम्का ने कहा:
 “इंतज़ार किस बात का? जितनी जल्दी हो सके भागना चाहिए!”
अंकल मीशा और गाल्या आण्टी मुस्कुराने लगे. इसी समय घण्टी बजी.
दीम्का ने मुँह बनाया, जैसे अचानक उसके सारे दाँत दर्द करने लगे हों.
उसने कहा:
 “हो गया. नहीं निकल पाए.”
गाल्या आण्टी दरवाज़ा खोलने गई, और हमने छोटी लड़कियों की आवाज़ें, हँसी और गाल्या आण्टी की आवाज़ सुनीं:
 “दीमच्का! तेरे टीचर्स आ गए.”
  “दीम्का, तू क्या पढ़ाई में पिछड़ गया है?”
तभी कमरे में दो लड़कियाँ आईं. एक लाल थी, उसकी भौंहे लाल थीं और पलकें भी लाल; और दूसरी कुछ अजीब थी. उसकी आँखें खूब लम्बी थीं, बिल्कुल कनपटियों तक पहुँच रही थीं. मैंने कहा:
 “दीम्का, इस साँवली की आँखें कित्ती बड़ी-बड़ी हैं!”
 “आ!, दीम्का ने कहा. “ये ईर्का रोदिना है. मिलों!”
लड़कियों ने दीम्का को जल्दी से ‘लेसन’ समझा दिया और हम सब मिलकर एर्मिताझ गए.

मुझे एर्मिताझ में बहुत अच्छा लगा. वहाँ इतने ख़ूबसूरत हॉल्स हैं और सीढ़ियाँ हैं! जैसे कि राजाओं और राजकुमारियों वाली किताबों में होता है. चारों ओर तस्वीरें लटक रही हैं. मैं हॉल्स में घूमते-घूमते थक गया, अचानक मेरी नज़र एक तस्वीर पर पड़ी और मैं उसके पास गया. उसमें दो आदमी दिखाए गए थे, बूढ़े ही थे, एक गंजा, दूसरा दाढ़ी वाला. एक के हाथ में किताब थी, और दूसरे के हाथ में चाभी. उनके चेहरे बड़े ग़ज़ब के थे, उदास, थके हुए मगर फिर भी कोई शक्ति थी उनमें. तस्वीर कुछ असाधारण रंग में बनाई गई थी, मैंने ऐसा रंग पहले कभी नहीं देखा था.

मैं खड़ा होकर इस तस्वीर को देखने लगा, और दीम्का और लड़कियाँ भी देख रहे थे. हम सब खड़े थे और देख रहे थे. फिर मैं उसके और नज़दीक गया. वहाँ रखी प्लेट पर लिखा था: “एल् ग्रेको”.
मैं उछल पड़ा! एल् ग्रेको! मैंने उसके बारे में पढ़ा था, ये क्रीट द्वीप का था. उसका असली नाम था दोमेनिको तियोतोकोपूली. ये बहुत बढ़िया कलाकार था! मैंने कहा:
”कितनी अच्छी तस्वीर है!”
 “अब तू समझा,” दीम्का ने कहा. “कि एर्मिताझ क्या होता है! ये कोई टीले से स्केटिंग करने की जगह नहीं है!”
और, ईर्का रोदिना ने कहा:
”इस तस्वीर के रंग ऐसे हैं, जैसे हीरे-जवाहरात हों...”
मुझे अचरज भी हुआ. बच्ची है, और वो भी समझती है! फिर हम उस हॉल में आए, जहाँ इजिप्ट के फूलदान रखे हैं. इन फूलदानों पर सब लोग एक साइड से दिखाए गए थे, और उनकी आँखें लम्बी-लम्बी थीं. कनपटियों तक. मैंने कहा;
 “देख, दीम्का, ईर्का रोदिना की आँखें वैसी ही हैं, जैसी फूलदान पे हैं.”
दीम्का मुस्कुराया:
 “हमारी ईर्का – आँखों वाला फूलदान है!”
मैं और दीम्का और भी बहुत सारी जगहों पर गए. हम रूसी म्यूज़ियम में गए, और पूश्किन के फ्लैट में गए. इसाकोव्स्की चर्च के गुम्बद पे गए और त्सार्स्कोए-सेलो भी गए वहाँ अंकल मीशा हमें ले गए.

जब मैं मॉस्को वापस लौटा तो मम्मा ने पूछा:
 “तो, ट्रेवलर, तुझे लेनिनग्राद कैसा लगा?”
मैंने कहा:
 “मम्मा! वहाँ खड़ा है जहाज़ ‘अव्रोरा!’ सचमुच का, पता है, वही वाला! और एर्मिताझ में कलाकार एल् ग्रेको की तस्वीर है. और तू और भी पूछेगी! वहाँ मैं एक लड़की से भी मिला. उसका नाम है ईरा रोदिना. उसकी आँख़ें बिल्कुल वैसी ही हैं, जैसी इजिप्शियन फूलदान पे थीं, सही में! मैं उसे ख़त लिखूँगा.”
पापा ने पूछा:
 “तूने इस बेक्की थेचेर का पता लिया?”
मैंने कहा:
 “ओय, भूल गया...”
पापा ने मेरी नाक पर टक-टक  किया:
 “ऐह, तू, बुद्धू!”
मैंने कहा:
 “कोई बात नहीं, पापा! मैं दीम्का को लिखूँगा, और वो मुझे उसका पता देगा. मैं उसे ज़रूर ख़त लिखूँगा!”

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