व्हाइट
फ़िन्चेज़*
लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
हमारी बिल्डिंग
के पास एक इश्तेहार लगा, इत्ता सुन्दर और चटकदार, कि उसे देखे बिना वहाँ से गुज़र
ही नहीं सकते. उसमें अलग अलग तरह के पंछियों के चित्र बने थे और लिखा था: ‘गाने
वाले पंछियों की नुमाइश’. मैंने फ़ौरन तय कर लिया कि ज़रूर जाकर देखूँगा कि ये कौन सी
नई चीज़ है.
और, सण्डे को
क़रीब दो बजे, मैं तैयार हुआ, मैंने गरम कपड़े पहने और मीशा को फ़ोन किया, जिससे उसे
भी साथ ले चलूँ. मगर मीश्का भुनभुनाया कि उसे मैथ्स में ‘2’ नंबर मिले हैं – ये है
पहली बात; और उसके पास जासूसों के बारे में नई किताब आई है – ये है दूसरी बात.
तब मैंने अकेले
जाने का फ़ैसला किया. मम्मा ने ख़ुशी ख़ुशी मुझे जाने दिया, क्योंकि मैं उसके सफ़ाई के
काम को डिस्टर्ब कर रहा था, और मैं चल पड़ा. गाने वाले पंछी दिखाए जा रहे थे पीपल्स
एक्ज़िबिशन में, और मैं आराम से वहाँ मेट्रो से पहुँच गया. काऊंटर के पास क़रीब-क़रीब
कोई नहीं था, मैंने खिड़की में बीस कोपेक का सिक्का बढ़ाया, मगर कैशियर ने मुझे टिकट
के साथ दस कोपेक भी लौटाए, इसलिए कि मैं स्कूल का स्टूडेंट हूँ. ये मुझे बहुत
अच्छा लगा. ये तो ऐसा हुआ कि मुझे दस कोपेक इसलिए दिए जा रहे हैं, कि मैं तीसरी
क्लास में पढ़ता हूँ, दस कोपेक और टिकट! मुझे ऐसे कन्सेशन के बारे में पता नहीं था!
अब, ऐसे नियमों की बदौलत मुझे अलग-अलग तरह की एक्ज़िबिशन्स और ‘शो’ज़ में जाना
पड़ेगा! इस तरह से मैं कैमेरे के लिए पैसे जमा कर सकता हूँ! मतलब, यदि कैमेरा 40
रूबल्स का है, तो, वेरी सिम्पल, मुझे चार सौ एक्ज़िबिशन्स में जाना होगा, और काम
ख़तम! बिल्कुल ठीक. मेरे पास अपना कैमेरा होगा! ये सोचकर मुझे बहुत ख़ुशी हुई, और
मैं बड़े अच्छे मूड में पंछियों की तरफ़ गया. चारों ओर कई तरह के छोटे-छोटे घर थे,
कुछ टॉवर्स जैसे, कुछ महलों जैसे, कुछ किसी के भी जैसे नहीं थे. ये सब एक्ज़िबिशन
की पेविलियन्स थीं.
कुछ मम्मियाँ
और पापा लोग अपने बच्चों को त्रोयका में घुमा रहे थे, क्योंकि इस समय यहाँ
विन्टर-फ़ेस्टिवल चल रहा था और घोड़ों तथा रेन्डियर्स पर घूमना संभव था. दुख कि बात
ये थी कि इस घुड़सवारी के लिए लाइन बेहद लम्बी थी, और हालाँकि मैं उसमें कुछ देर
खड़ा रहा, मगर मुझे फ़ौरन समझ में आ गया कि अगर ये ऐसा ही रहा तो मेरा नम्बर, शायद,
क़रीब डेढ़ हफ़्टे बाद आएगा, और मुझे तो गाने वाले पंछियों को देखना था. इसलिए मैं
घोड़ों और रेन्डियर्स को धता बता कर आगे चल पड़ा. ‘इलेक्ट्रोनिक’ वाली पेविलियन के
पास आते आते मैं थक गया. तब मैंने पास ही से जाती हुई एक लड़की से पूछा:
“क्या गाने वाले पंछियों की पेविलियन अभी काफ़ी
दूर है?”
उसने हाथ से
दिखाते हुए कहा;
“देख, ये पास में ‘सुअर-पालन’ की पेविलियन देख
रहा है? वहीं तेरे पंछी हैं. जल्दी जा.”
मैं
‘सुअर-पालन’ वाली पेविलियन में गया. जैसे ही मैंने दरवाज़ा खोला, मैं समझ गया कि
यहाँ आना बेकार नहीं गया. मेरे आस-पास, दीवारों पे, चारों तरफ़, क़रीब-क़रीब छत तक,
एक के पीछे एक, क्यूबिकल्स के समान छोटॆ-छोटे पिंजरे रखे थे. हर पिंजरे में एक-एक
पंछी था. वे सब एक साथ गा रहे थे. कोरस में. मगर हर पंछी का अपना-अपना गाना था.
कोई ‘चिरिक-चिरिक’, कोई ‘फ़्यू-फ़्यू’, कोई ‘चेकि-श्येक’, और कोई ‘पी-पी-पी’. सब
मिलाकर हमारी क्लास जैसा लग रहा था, सुबह, रईसा इवानोव्ना के आने तक, तब हम भी
अपना अपना राग अलापते हैं. और फिर, ये पंछी इत्ते ख़ूबसूरत थी कि मैं सोच भी नहीं
सकता था. मैंने कभी पास से ऐसे पंछियों को नहीं देखा था. पास से मैंने सिर्फ
चिड़ियों को देखा था. बेशक, चिड़िया भी बहुत ख़ूबसूरत और
प्यारी होती हैं, इसपे बहस नहीं हो सकती, मगर यहाँ तो आश्चर्यजनक पंछी थे, जिन्हें
कभी देखा ही नहीं था. मिसाल के तौर पे, ये है बुल्फ़िन्च. अकडू, खाया- पिया,
गोल-मटोल, न किसी से कुछ लेना, न देना, ढलते हुए लाल सूरज की रोशनी में तैरते हुए
साबुन के बुलबुले जैसा. यहीं टेढ़ी चोंच वाले क्रॉसबिल्स थे, फूले गालों वाले
टिटमाऊस थे, और वार्ब्लर पंछी - देखने में
इतने ताज़ा तरीन और इतने फूले-फूले कि लगता था, इन्हें ज़िन्दा ही खा जाओगे... बेशक,
ये मैं मज़ाक में कह रहा हूँ... ठनठनाती आवाज़ वाली पिलक चिड़िया थी, मज़बूत और
हरी-हरी, दलदल जैसी, और थे काले रॉबिन पंछी. एक पूरा कॉरीडोर कबूतरों से भरा था.
हालाँकि वो गाने वाले पंछी नहीं हैं, मगर उन्हें इन सबके साथ जानबूझकर रखा गया था.
क्योंकि यदि कबूतर जैकोबियन है, तो वो भी ख़ूबसूरती में अन्य पंछियों के मुक़ाबले
में कम नहीं है. वो एस्ट्रा जैसा होता है और अलग-अलग रंगों का होता है: सफ़ेद,
हल्का गुलाबी-जामुनी, और भूरा. वण्डरफुल! और काली पूँछ वाले ‘मॉन्क्स’! भयानक
आँखों वाले ड्रैगन्स! और डाक ले जाने वाले जो ‘वोल्गा’ की स्पीड से उड़ते हैं! ग़ज़ब!
न गाने वाले,
मगर आश्चर्यचकित करने वाले पंछियों के बीच दो किस्म के तोते थे. एक था सफ़ेद, बड़ा
उसे, कॉकटू कहते हैं. उसकी नाक डिब्बा खोलने वाले ओपनर जैसी होती है, और खोपड़ी से
हरी प्याज़ का गुच्छा निकल रहा होता है. दूसरा था क्यूबा का अमाज़ोन. क्यूबा का!
हरा! उसके सीने पे लाल टाई थी, जैसे पायनियर्स बच्चे लगाते हैं. वो पूरे समय मेरी
ओर देख रहा था, और मैं भी उसे देखकर मुस्कुरा रहा था, जिससे कि उसे पता चले कि मैं
उसका दोस्त हूँ. मगर इस लाजवाब पैविलियन में यही सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं था.
बात ये थी कि वहाँ एक छोटा सा कोना था, और धीरे धीरे, एक पिंजरे से दूसरे पिंजरे
की ओर जाते हुए मैं वहाँ भी पहुँचा, बिल्कुल न जानते हुए, कि यहीं तो है, यहीं तो
रखा गया है सबसे क़ीमती ख़ज़ाना.
यहाँ लोगों के
झुण्ड के झुण्ड खड़े थे. लोग यहाँ से हट ही नहीं रहे थे और ज़रा भी शोर नहीं कर रहे
थे, बल्कि चिपक-चिपक कर लाइनों में खड़े थे. मैं भी हौले से इन झुण्डों में स्क्रू
की तरह गोल-गोल घूमते हुए घुस गया और धीरे-धीरे सबसे आगे वाली लाइन में आकर खड़ा हो
गया. ये फिन्च पंछी थे. छोटे-छोटे, बर्फ के सफ़ेद गोलों जैसे, बेरों जैसी चमकदार
चोंच वाले, आधी उँगली के साइज़ के. ये कहाँ से आए थे? शायद, वो आसमान से गिरे थे.
शायद बारिश जैसे गिरे थे, और फिर ज़िन्दा हो गए, बर्फ़ीले टीलों से बाहर आ गए और
हमारे कम्पाऊण्ड में, गलियों में, खिड़कियों के सामने उड़ने लगे, घूमने लगे और अंत
में ‘सुअरपालन’ वाली इस पेविलियन में घुस गए, और अब थक गए हैं और अपने अपने घर में
बैठ गए हैं, आराम फ़रमा रहे हैं. लोगों के झुण्ड उनके सामने खड़े हैं, चुपचाप, बिना
हिले-डुले, और उनसे बेहद प्यार करते हैं. हाँ, हाँ. सब उनसे प्यार करते हैं. एकमत
से.
तभी सुनहरे दाँत वाली एक आण्टी अचानक बोल पड़ी:
“आह, कितने छोटे....दुबले-पतले... इन्हें
कहाँ...”
सबने बड़ी
संजीदगी से उसकी ओर देखा, एक दद्दू ने टेढ़ा मुँह करके ज़हरीले अंदाज़ में कहा:
“बेशक, मुर्गी – वो भी इनसे मोटी...”
सबने फिर से
आण्टी के सुनहरे दाँत की ओर देखा, वो लाल हो गई और चली गई. और हम सब, जो वहाँ खड़े
थे, समझ गए कि आण्टी की कोई गिनती ही नहीं थी, क्योंकि वो हमारे ग्रुप की नहीं थी.
हम उसी तरह से चुपचाप काफ़ी देर तक खड़े रहे, पंछियों को देखने से मन ही नहीं भर रहा
था. वो, ज़ाहिर है, किसी सातवें आसमान से आए थे, जादुई दुनिया से, जिसके बारे में
एण्डरसन ने लिखा है. इत्ते छोटे, इत्ते कमज़ोर और इत्ते नाज़ुक थे ये पंछी, मगर,
शायद इसी में इनकी शक्ति थी, इन छोटे-छोटे, कमज़ोर पंछियों की, कि हम उनके सामने
स्तब्ध खड़े थे, जैसे ज़मीन में गड़ गए हों – क्या बच्चे और क्या बूढ़े. शायद हम यहाँ
से कभी नहीं हटते, मगर तभी रेडिओ पे किसी की आवाज़ सुनाई दी:
“अटेन्शन, प्लीज़. अभी पेविलियन नं. 2 में गाने
वाली कनेरीज़ की प्रतियोगिता होगी, ठीक दस मिनट बाद! कृपया पेविलियन नं. 2 में
आइए!”
और दद्दू,
जिसने आण्टी को चिढ़ाया था, मानो हड़बड़ाकर बोला:
“जाना चाहिए...सिम्योनोवों के पंछियों का गाना
सुनेंगे. उशाकोवों के पंछियों का भी.” उसने मेरा कंधा छुआ: “चल, बच्चे...”
और वो ख़ुद आगे
बढ़ा, मैंने देखा कि उसका जूता पीछे से फ़ट रहा है, और उसमें से पुआल का गुच्छा बाहर
निकल रहा है.
पेविलियन नं. 2
में एक छोटा सा हॉल था, स्टेज था और कुर्सियाँ थीं. स्टेज पर, एक किनारे, अनाऊन्सर
के लिए स्टेण्ड था, और बीच में – एक मेज़ थी, जिसके पीछे पंछियों के गाने की
प्रतियोगिता के जज बैठे थे. मुझे बहुत अचरज हुआ, मगर आण्टी को सताने वाला दद्दू इस
मेज़ के बीचों बीच बैठ गया. लगता है कि वो वहाँ प्रमुख था; मुझे नहीं मालूम, मगर जो
लोग वहाँ बैठे थे, उन सबने हाथ मिलाकर उसका अभिवादन किया और वैसे भी वो उसका आदर
कर रहे थे. जब सब शांत हो गए, तो इस दद्दू ने कहा:
“तो, सिम्योनोव, चल, शुरू कर...”
कहीं से एक
ऊँचे अंकल निकल कर आए. उनके सीने पर बारह मेडल्स लटक रहे थे, मैंने गिन लिए. उनके
हाथों में एक चपटी सूटकेस थी. उसने उसे खोला. सूटकेस में ख़ूब सारे छोटे-छोटे
पिंजरे थे, और उनमें कनेरी पंछी थे. उसने एक पिंजरा बाहर निकाला, उसमें पीला-पीला
‘लिमोन’ फ़ुदक रहा था. सिम्योनोव ने इस पिंजरे को अनाऊन्सर वाली डेस्क पर रखा. और
लिमोन्चिक ने ऐसी पोज़ बनाई मानो वो वाक़ई में कुछ प्रस्तुत करने जा रहा हो, मगर
चूँकि अभी उसके प्रोग्राम में पाँच मिनट बाकी हैं, इसलिए तब तक वो फ़ुदक रहा है. सब
लोग एकदम ख़ामोश थे और इंतज़ार कर रहे थे कि लिमोन्चिक कब गाएगा. मगर उसका तो गाने
का इरादा ही नहीं था. वो बस फुदक रहा था और अपने पंख फ़ड़फ़ड़ा रहा था. किसी ने पीछे
से फुसफुसाकर कहा:
“अगर दस मिनट में इसने गाना शुरू नहीं किया, तो
उसे प्रतियोगिता से बाहर कर देंगे. ऐसा है सिम्योनोव.”
मगर लिमोन्चिक
तो बस, यहाँ वहाँ फ़ुदके जा रहा था, फिर जैसे उसने फ़ैसला कर लिया, अपनी चोंच खोली,
मगर, जैसे हम सबको चिढ़ा रहा था, उसने गाना शुरू नहीं किया और फिर से फुदकने लगा.
मैं तो इंतज़ार करते-करते ‘बोर’ हो गया, और मैं वहाँ से जाने ही वाला था, मगर
प्रमुख दद्दू ने अचानक कहा, और वैसे ही व्यंग्य से:
“तो, सिम्योनोव, क्या ये कभी गाएगा? या शरमा रहा
है? हो सकता है, कि आज उसका मूड न हो?”
सब धीरे से हँस
दिए, बेचारे सिम्योनोव को देखने से दया आ रही थी. वो अपने लिमोन्चिक की तरफ़ झुका
और अचानक चुपके से ‘सी...” करके सीटी बजाने लगा:
“सीसीसीसी....सीसीसीसी.....सीसीसीसी....”
लिमिन्चिक ने
उसे ध्यान से सुना, अपनी चमकदार आँखों से उसकी ओर देखा, ज़ाहिर है, वो उसे पहचान
गया था, फिर अपनी चोंच खोली, मगर फिर इरादा बदल दिया और दुबारा ऐसे फ़ुदकने लगा,
जैसे कुछ हुआ ही न हो. दद्दू ने फ़ौरन कहा – उसे शायद मज़ाक करना अच्छा लगता था:
“इसकी आवाज़ ख़राब है...”
दद्दू के
शब्दों को सुनकर सिम्योनोव रोने-रोने को हो गया. उसने एक तीली निकाली और उसे माचिस
की डिब्बी पे घिसने लगा. मगर लिमोन्चिक ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई. उसने तीली
की तरफ़ देखा भी नहीं. तब दद्दू ने हाथ से इशारा किया, कि सिम्योनोव तीली घिसना
बन्द करे, और ख़ुद लिमोन्चिक की ओर झुका, और अचानक मुश्किल से सुनाई दिया... वो
चीं-चीं करके चहचहाया! हाँ! वो चहचहाने लगा, और लिमोन्चिक को जैसे इसी का इंतज़ार
था, वो चौंक गया, सीधा हो गया, तन गया, सिकुड़ गया और गाने लगा!
वो बड़ी देर तक
गाता रहा, बिना रुके, सीटी बजाते-बजाते, और खींच कर एक लाइन में गा रहा था, जैसे
उस कविता में है : “ हज़ारों तरह से खींचा, खूब बरसा”, और जब गा रहा था तो और ज़्यादा
सिकुड़ गया, जैसे पिघल रहा हो, और इस दौरान, जब वो गा रहा था, मैं भी उसके साथ गा
रहा था, सिर्फ अपने आप में, भीतर से. मैं लिमोन्चिक के साथ गा रहा था, और देख रहा
था सिम्योनोव का चेहरा कैसे ख़ुशी से दमक रहा है, और लाल हो रहा है, और दद्दू के
चेहरे पर थे गर्व के और व्यंग्य के भाव. उसने दिखा दिया कि वो अकेला ही पंछी को
गाने के लिए मजबूर कर सकता है. और जब अंत में लिमोन्चिक ने गाना बन्द किया और सबने
तालियाँ बजाईं, तो दद्दू कुर्सी की पीठ से टिक गए और लापरवाही से बोले:
“गोल्ड मेडल! हटा, सिम्योनोव! इंटरवल.”
सिम्योनोव ने
लिमोन्चिक को डेस्क से हटा कर सूटकेस में छुपा लिया. साफ़ दिखाई दे रहा था, कि उसके
हाथ थरथरा रहे हैं. चारों ओर बैठे हुए लोग उठ गए, शोर मचाने लगे और सिगरेट पीने के
लिए चल दिए.
इस पल मैं सोच
रहा था कि अपने लोगों को ये सब बताना कितना अच्छा रहेगा, और मैं, ज़्यादा सोचे
बगैर, मेट्रो की ओर भागा, और जब घर पहुँचा, तो पापा और मम्मा मेरा इंतज़ार ही कर
रहे थे. पापा ने कहा:
“बता. अच्छा लगा?”
मैंने कहा:
“बेहद!”
मम्मा घबरा गई:
“ये तेरी आवाज़ कैसी निकल रही है? तुझे क्या हुआ
है? तू सीसी क्यों कर रहा है?”
मैंने कहा;
“क्योंकि मैं गा रहा था! मेरी आवाज़ बैठ गई और
मैं सिसियाने लगा.”
पापा चहके:
“तूने कहाँ गाया था, कज़्लोव्स्की?”
मैंने कहा:
“मैंने कॉम्पिटीशन में गाया था!”
“बता, सारी बात बता!” मम्मा ने कहा.
मैंने कहा:
“मैं कनेरी के साथ गा रहा था!”
पापा फ़ौरन
हँसते-हँसते लोट पोट हो गए.
“मैं कल्पना कर सकता हूँ,” उन्होंने कहा, “कितना
बढ़िया रहा होगा! क्या तुझे ‘वन्स-मोर’ मिला था?”
“हँसो मत, पापा,” मैंने सिसियाते हुए कहा, “मैं
अपने आप में गा रहा था. अपने भीतर.”
“आ! तब दूसरी बात है,” पापा कुछ शांत हुए, “तब
थैन्क्स गॉड!”
ममा ने मेरे माथे
पे हाथ रखा:
“कैसा महसूस कर रहा है?”
“वंडरफुल,” मैंने और ज़्यादा भर्राते हुए कहा और अचानक
आगे कहा:
“और लिमोन्चिक
को गोल्ड-मेडल मिला...”
“ये तो अनाप-शनाप बक रहा है,” मम्मा ने रुआँसे होकर
कहा.
“उसका दिमाग़ अनुभवों से भर गया है,” पापा ने समझाया,
“उसे गरम दूध दे, मिनरल वाटर के साथ. ये भर्राहट मुझे परेशान कर रही है...”
...रात को मैं बड़ी
देर तक सो न सका, मैं इस असाधारण दिन को याद करता रहा: आश्चर्यजनक चीज़ों से भरी ‘सुअरपालन’
वाली पैविलियन, और दद्दू, और आण्टी, और सिम्योनोव, और लिमोन्चिक, और सबसे ख़ास –
मेरी आँखों के सामने छोटे-छोटे और हल्के बर्फ के गोले, सफ़ेद फिन्च उड़ रहे थे, वे मेरे
दिल से चिपक गए थे, ये बेर जैसी चोंच वाले... और मैं पड़े-पड़े अंधेरे में देख रहा था,
और जान गया था कि अब मैं उन्हें कभी नहीं भूलूँगा.
नहीं भूल सकूँगा.
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* फ़िन्च – एक
प्रकार का गाने वाला छोटा पक्षी. ये सफ़ेद, गुलाबी, सुनहरे आदि रंग़ों में पाया जाता
है
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