युक्रेन की शांत
रात
लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
हमारी लिटरेचर
की टीचर रईसा इवानोव्ना बीमार हो गईं. उनकी जगह पे हमारी क्लास में आईं एलिज़ाबेता
निकोलायेव्ना. वैसे तो एलिज़ाबेता निकोलायेव्ना हमें भूगोल और विज्ञान पढ़ाती हैं,
मगर आज कोई ख़ास बात थी, और हमारे डाइरेक्टर ने उनसे बीमार रईसा इवानोव्ना की क्लास
लेने के लिए कहा.
एलिज़ाबेता
निकोलायेव्ना आईं. हमने नमस्ते किया, और वो टीचर वाली मेज़ पे बैठ गईं. वो, मतलब,
बैठी, और मैंने और मीश्का ने अपना ‘युद्ध’ जारी रखा – आजकल समुद्री-युद्ध का फ़ैशन
है. एलिज़ाबेता निकोलायेव्ना के आने तक इस मैच में मेरे पॉइन्ट्स ज़्यादा थे: मैंने
मीश्का के डेस्ट्रॉयर को टक्कर मार दी थी और उसकी तीन पनडुब्बियों को बेकार कर
दिया था. अब मुझे सिर्फ ये पता करना था कि उसके बैटलशिप पर कहाँ से वार करूँ.
मैंने अपने दिमाग़ पर ज़ोर दिया और अपने
अगले मूव के बारे में मीश्का को बताने के लिए मुँह खोला ही था, कि तभी एलिज़ाबेता
निकोलायेव्ना ने रजिस्टर में देखा और कहा;
“कराब्लेव!”
मीश्का फ़ौरन
फ़ुसफ़ुसाया:
“डाइरेक्ट अटैक!”
मैं खड़ा हो
गया.
एलिज़ाबेता
निकोलायेव्ना ने कहा:
“ब्लैक बोर्ड के पास आओ!”
मीश्का फिर से
फ़ुसफ़ुसाया:
“अलबिदा, प्यारे कॉम्रेड!”
मैंने मातमी
चेहरा बनाया.
और मैं
ब्लैकबोर्ड के पास आया. एलिज़ाबेता निकोलायेव्ना ने कहा:
“डेनिस्का, सीधे खड़े रहो! और मुझे बताओ, कि
लिटरेचर में आजकल आप लोग क्या पढ़ रहे हो.”
“हम ‘पल्तावा’ पढ़ रहे हैं, एलिज़ाबेता
निकोलायेव्ना,” मैंने कहा.
“लेखक का नाम बताओ,” उसने कहा; ज़ाहिर था कि वो
परेशान हो रही थीं कि मुझे मालूम है या नहीं.
“पूश्किन, पूश्किन.” मैंने शांति से जवाब दिया.
“तो,” उन्होंने
कहा, “ग्रेट पूश्किन, अलेक्सान्द्र सेर्गेयेविच, लेखक हैं लाजवाब कविता ‘पल्तावा’
के. सही है. अच्छा, बताओ तो, क्या तुमने इस कविता की कुछ पंक्तियाँ याद की हैं?”
“बेशक,” मैंने कहा.
“कौन सी पंक्तियाँ याद कीं हैं?” एलिज़ाबेता
निकोलायेव्ना ने पूछा.
“शांत है युक्रेनी रात...”
“बहुत ख़ूब,” एलिज़ाबेता निकोलायेव्ना ने कहा और
वो ख़ुशी से झूम उठीं. – “शांत है युक्रेनी रात...” ये मेरी पसन्द की पंक्ति है!
सुनाओ, कराब्लेव.”
उनकी पसंद की
पंक्ति! ये बढ़िया बात हुई! ये तो मेरी भी पसन्द की पंक्ति है! मैंने उसे तभी याद
कर किया था, जब मैं छोटा था. तब से, जब भी मैं ये कविता सुनाता हूँ, बोल कर या मन
ही मन, मुझे हर बार ऐसा लगता है, कि हालाँकि मैं अभी उसे सुना रहा हूँ, मगर कोई
दूसरा उसे सुना रहा है, न कि मैं, और असली वाला मैं तो गरम, दिन भर में तप चुके
लकड़ी के बरामदे में खड़ा हूँ, सिर्फ एक कमीज़ पहने नंगे पाँव, और क़रीब-क़रीब सो रहा
हूँ, और सिर इधर-उधर घुमाता हूँ, और लड़खड़ा रहा हूँ, मगर फिर भी ये आश्चर्यजनक
सुन्दरता देख रहा हूँ: उनींदा सा छोटा सा शहर अपने चांदी जैसे पोप्लर वृक्षों
समेत; छोटा सा सफ़ेद चर्च देख रहा हूँ, कि वो भी कैसे सो रहा है और घुंघराले बादल
के ऊपर मेरे सामने तैर रहा है, और ऊपर तारे हैं, वो टिड्डों के समान चहचहा रहे हैं
और सीटी बजा रहे हैं; और कहीं मेरे पैरों के पास एक मोटा, दूध में नहाया कुत्ता सो
रहा है और नींद में पंजे हिला रहा है, जो इस कविता में नहीं है. मगर मैं चाहता हूँ
कि वो भी होता, और पास ही बरामदे में हल्के बालों वाले मेरे दद्दू बैठे हैं और
गहरी-गहरी साँस ले रहे हैं, वो भी इस कविता में नहीं हैं, मैंने उन्हें कभी नहीं
देखा, वो युद्ध में शहीद हो गए, वो इस दुनिया में नहीं हैं, मगर मैं उनसे इत्ता
प्यार करता हूँ, कि मेरा दिल भर आता है...
“सुना, डेनिस, क्या कर रहा है!” एलिज़ाबेता
निकोलायेव्ना ने आवाज़ ऊँची की.
मैं आराम से
खड़ा होकर कविता सुनाने लगा:
...शांत युक्रेनी रात.
साफ़ है आसमान. चमचमाते सितारे.
उनींदेपन को अपने नहीं चाहती
खोना हवा. सरसराते हौले हौले
चांदी से पोप्लर के पत्ते.
चमकता है चाँद ख़ामोशी से ऊँचाई पे
ऊपर सफ़ेद चर्च के ...
“स्टॉप, स्टॉप, बस है!” एलिज़ाबेता निकोलायेव्ना
ने मुझे रोक दिया. “हाँ, महान है पूश्किन, विशाल! तो, कराब्लेव, अब मुझे ये बताओ
इस कविता से तुमने क्या समझा?”
आह, उन्होंने
मुझे क्यों रोक दिया! कविता तो और भी बची थी, और उन्होंने मुझे तभी रोक दिया जब
मैं पूरे फॉर्म में था. मैं अभी होश में नहीं आया था! इसलिए, मैंने ऐसा दिखाया, कि
मैं सवाल नहीं समझ पाया, और मैंने कहा:
“क्या? कौन? मैं?”
“हाँ, तुम. तो, क्या समझ में आया?”
“सब कुछ,” मैंने कहा. “मैं सब समझ गया. चाँद,
चर्च. पोप्लर्स. सब सो रहे हैं.”
“हुँ...” नाराज़गी से एलिज़ाबेता निकोलायेव्ना ने
शब्द को खींचते हुए कहा, “ये तू कुछ सतही तौर पे समझा है... गहराई से समझना चाहिए.
छोटे नहीं हो. आख़िर ये पूश्किन है...”
“तो फिर कैसे,” मैंने पूछा, “कैसे पूश्किन को
समझना चाहिए?” और, मैंने मासूम सा चेहरा बनाया.
“एक एक वाक्य से चलो,” उसने अप्रसन्नता से कहा.
“जब तू ऐसा है. “शांत युक्रेनी रात...” इससे क्या समझ में आया?”
“मैंने समझा कि शांत रात है.”
“नहीं,” एलिज़ाबेता निकोलायेव्ना ने कहा. “तू ये
समझ कि “शांत युक्रेनी रात” इन शब्दों में बड़ी बारीकी से बताया गया है कि युक्रेन
मुख्यभूमि में हवा की जो गतिविधि होती है, उससे हट के है, एक तरफ़ को है. तुम्हें
ये बात जानना और समझना चाहिए. कराब्लेव! पक्का? आगे सुना!”
“पारदर्शी आसमान,” मैंने कहा, “आसमान, मतलब,
पारदर्शक है. साफ़ है. पारदर्शक आसमान. ऐसा ही लिखा है. “आसमान पारदर्शी”.
“ऐह, कराब्लेव, कराब्लेव,” दुख से और कुछ निराशा
से एलिज़ाबेता निकोलायेव्ना ने कहा. “ये क्या तू, तोते की तरह, एक ही बात कह रहा
है: पारदर्शी आसमान, पारदर्शी आसमान”. गाए जा रहा है. मगर इन दो शब्दों में कितना
बड़ा मतलब छिपा है. जैसे, इन दो, बेमतलब से शब्दों में पूश्किन ने हमें बताया है कि
इस प्रदेश में अवक्षेपण की मात्रा बहुत कम है, जिसके कारण हम निरभ्र आकाश देख सकते
हैं. क्या अब तुम समझे कि पूश्किन की योग्यता कितनी ज़बर्दस्त है? चल, आगे.”
मगर न जाने
क्यों अब मेरा दिल ही नहीं कर रहा था पढ़ने को. हर चीज़ उकताने लगी. और इसलिए मैं
जल्दी-जल्दी बुदबुदाया:
.... चमचमाते सितारे.
उनींदेपन को अपने नहीं चाहती
खोना हवा..
“मगर क्यों?” एलिज़ाबेता मानो जोश में आ गई.
“क्या क्यो?” मैंने कहा.
“क्यों नहीं चाहती?” उन्होंने दुहराया.
“क्या नहीं
चाहती?”
“उनींदेपन को खोना.”
“कौन?”
“हवा.”
“कौन सी?”
“क्या कौनसी – युक्रेनी! तुमने ख़ुद ही तो अभी बताया
था: ‘उनींदेपन को अपने नहीं चाहती खोना हवा..’
तो वो क्यों नहीं
चाहती?”
“नहीं चाहती, और बस,” मैंने अपने दिल से जवाब दिया.
“जागना नहीं चाहती! ऊँघना चाहती है, और बस!”
“ओह, नहीं,” एलिज़ाबेता निकोलायेव्ना को गुस्सा आ
गया और उसने मेरी नाक के सामने इधर से उधर अपनी तर्जनी घुमाई. ऐसा लग रहा था, मानो
वो कहना चाहती हो कि: “आपकी हवा के साथ ये नख़रे नहीं चलेंगे”. मगर नहीं, उसने दुहराया.
“यहाँ बात ये है कि पूश्किन इस तथ्य की ओर इशारा करते हैं कि युक्रेन के ऊपर सात सौ
चालीस मिलिमीटर्स दबाव का एक छोटा चक्रवात का केन्द्र स्थित है. और जैसा कि हम जानते
हैं, चक्रवात में हवा बाहरी किनारों से भीतर की ओर चलती है. इस चमत्कार ने ही कवि को
अमर पंक्तियाँ लिखने की प्रेरणा दी: ‘सरसराते हौले-हौले, म्-म्-म्...म्-म्-म्, किन्हीं
पोप्लर वृक्षों के पत्ते!’ समझा कराब्लेव? आत्मसात् कर लिया! बैठ जा!”
मैं बैठ गया. क्लास
के बाद मीश्का ने अचानक मुझसे मुँह फेर लिया, वो लाल हो गया, और बोला:
“और मेरी पसन्दीदा कविता है – चीड़ के बारे में: जंगली
उत्तर में खड़ा अकेला, नंगी चोटी पर चीड़... जानता है?”
“बेशक जानता हूँ,” मैंने कहा. “कयों नहीं जानूँगा?”
मैंने वैज्ञानिकों
जैसा चेहरा बनाया.
“जंगली उत्तर में” – इन शब्दों में लेरमोंतोव हमें
सूचित करते हैं, कि चीड़ का पेड़, चाहे कुछ भी कहो, ठण्ड का मुक़ाबला करने वाला पेड़ है.
और शब्द रचना “ नंगी चोटी पर खड़ा है”, ये भी बताती है कि चीड़ एक सुपर-मज़बूत जड़ वाला
पेड़ है...”
मीश्का ने घबराकर
मेरी तरफ़ देखा. और मैंने उसकी तरफ़. और फिर हम दोनों ने ठहाका लगाया. बड़ी देर तक ठहाके
लगाते रहे, पागलों जैसे. पूरा इंटरवल.
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