मज़दूर तोड़ते पत्थर
लेखक: विक्टर
द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति
रामदास
इस बार गर्मियों के शुरू होते ही हम तीनों
को, मीश्का को, कोस्तिक को और मुझे, वाटर-स्टेशन ‘दिनामो’ की लत लग गई और हम
क़रीब-क़रीब हर रोज़ वहाँ जाने लगे. पहले हमें तैरना नहीं आता था, मगर बाद में
धीरे-धीरे सबने कहीं-कहीं जाकर तैरना सीख लिया: किसी ने – गाँव में, किसी ने –
पायनीयर कैम्प्स में, और मैं, मिसाल के तौर पे, दो महीने हमारे स्विमिंग पूल
‘मॉस्को’ जाता रहा. जब हम सब तैरना सीख गए तो हमें फ़ौरन समझ में आ गया कि तैरने का
उतना मज़ा कहीं नहीं आयेगा, जितना वाटर-स्टेशन में. ग्यारंटी.
ओह, कितना अच्छा लगता है एक साफ़-सुबह को
वाटर-स्टेशन के नम और गर्माहट भरे रास्तों पर लेटना, पूरी नाक से नदी से आ रही ताज़ा
और उत्तेजित करने वाली ख़ुशबू सूंघना! ये देखना कि कैसे ऊँचे-ऊँचे मस्तूलों और
पतली-पतली छड़ों पर रंगबिरंगे रेशमी झण्डे हवा में फ़ड़फ़ड़ा रहे हैं और तुम्हारे ठीक
नीचे, लकड़ी की दरारों में पानी हिलोरें ले रहा है और थपकियाँ दे रहा है; अच्छा
लगता है इस तरह हाथों को फ़ैलाये लेटना, और चुपचाप पड़े रहना, और धूप तापना, और कुहनी
के नीचे से देखना, कि कैसे वाटर-स्टॆशन से दूर, बहाव से कुछ ऊपर, पत्थर तोड़ने वाले
मज़दूर पुल की मरम्मत कर रहे हैं और गुलाबी पत्थर पे हथौड़ों से वार कर रहे हैं, और
आवाज़ उनके मारने के कुछ देर बाद तुम तक पहुँच रही है, इतनी महीन और नज़ाकत भरी,
जैसे कोई काँच के हथौड़ों से चाँदी का ज़ाइलोफ़ोन बजा रहा हो. और, ख़ास तौर से अच्छा तब लगता है, जब धूप में
पर्याप्त तपने के बाद, पानी में छलाँग लगाना, और जी भर के तैरना, और मीटर के निशान
वाले प्लेटफॉर्म से कूदना, जी भर के डाइव लगाना, इतना कि थक के चूर हो जाओ. फिर,
जब थक जाओ, तो अपने दोस्तों के पास जाना अच्छा लगता है, गरम-गरम बोर्ड्स के ऊपर चल
कर जाना, पेट को भीतर खींच कर और सीने को बाहर निकाले, पैर फ़ैलाते हुए, हाथ के
मसल्स फुलाते हुए, और पैरों के पंजे भीतर की ओर मोड़े, क्योंकि ये बहुत ख़ूबसूरत
लगता है, और वाटर-स्टॆशन पर सब इसी तरह चलते हैं, किसी और तरह से चल ही नही सकते.
ये कोई गन्दी रेत और कागज़ के टुकड़ों वाला काम चलाऊ ‘बीच’ नहीं है, यहाँ कोई घास
वाला किनारा नहीं है – जहाँ तुम जो चाहो, जैसा चाहो, कर सकते हो, - बल्कि ये,
वाटर-स्टॆशन है, यहाँ बड़ी अच्छी व्यवस्था है, सफ़ाई है, फुर्ती है, स्पोर्ट्स है,
हर चीज़ चकाचक है, और इसलिए सब लोग यहाँ चैम्पियन्स की तरह चलते हैं, “एक्सेलेंट”
ग्रेड जैसे, फ़ैशनेबल तरीके से चलते हैं – कभी कभी तो जितना अच्छा तैरते हैं, उससे
भी ज़्यादा बढ़िया चलते हैं.
और इसलिए हम तीनों – मीश्का, कोस्तिक और
मैं – हम कोई भी दिन नहीं छोड़ते थे, पूरी गर्मियाँ यहाँ तैरने के लिए आते रहे, और
धूप सेंकते-सेंकते हमारा रंग शैतानों जैसा हो गया, हम ख़ूब अच्छी तरह तैरना सीख गए,
और हमारे मसल्स भी ख़ूब बन गए, बाइसेप्स और ट्राइसेप्स भी, और हम अपने वाटर-स्टेशन
के सभी ओनों-कोनों पर घूमते. हम जान गए थे कि मेडिकल-पॉइन्ट कहाँ है, गेम्स कहाँ
हैं वगैरह, वगैरह, और आख़िरकार जैसे यहाँ की हर चीज़ हमें अपनी और साधारण लगने लगी.
हमें आदत हो गई.
एक बार हम हमेशा की तरह लकड़ी के बोर्ड्स
पर लेटे थे और धूप सेंक रहे थे, अचानक कोस्तिक ने बे-बात के पूछा:
“डेनिस्का! क्या तू सबसे ऊँचे टॉवर से पानी में
छलांग मार सकता है?”
मैंने टॉवर की ओर नज़र डाली और देखा कि वो
कोई बहुत ज़्यादा ऊँचा नहीं है, कोई डरने वाली बात नहीं है, दूसरी मंज़िल से ज़्यादा
ऊँचा नहीं है, उसमें कुछ भी ख़ास नहीं है.
इसलिए मैंने फ़ौरन कोस्तिक को जवाब दिया:
“बेशक, मार सकता हूँ! क्या बकवास है.”
मीश्का ने फ़ौरन कहा:
“फेंकू!”
मैंने कहा:
“बेवकूफ़ है तू, मीश्का, पक्का बेवकूफ़!”
कोस्तिक ने कहा:
“वो क़रीब दस मीटर्स है!”
“तो, तो क्या?” मैंने कहा.
“फेंकू!” कोस्तिक ने मेरी बात काट दी.
मीश्का उसीकी साइड ले रहा था:
“फेंकू, सही में, फेंकू!” और
आगे बोला, “फेंकू–कीं-कूँ!!!”
मैंने कहा:
”तुम दोनों ही बेवकूफ़ हो! पक्के बेवकूफ़!”
मैं फ़ौरन खड़ा हो गया, पैरों को चौड़ा किया,
हाथों के मसल्स फुलाने लगा और टॉवर की ओर चल पड़ा. जब मैं चल रहा था, तो पूरे समय
पंजों को अन्दर की ओर मोड़ रहा था.
पीछे से कोस्तिक चिल्लाया:
“फें-कू-कीं-को-के!”
मगर मैंने उसे कोई जवाब नहीं दिया. मैं
टॉवर पे चढ़ रहा था.
जबसे हमने वाटर-स्टेशन जाना शुरू किया था,
मैं रोज़ देखता था कि इस टॉवर से बड़े अंकल लोग पानी में छलांग लगाते थे. मैं देखता
था कि जब वो बटरफ़्लाय स्टाइल में कूदते थे, तो कितनी ख़ूबसूरती से अपनी पीठ को
झुकाते, ये भी देखता था कि कैसे वे अपने सिर को डेढ़ बार घुमाते, या कमर को इधर-उधर
घुमाते, या हवा में दुहरे हो जाते और पानी में हौले-हौले, एकदम सही-सही गिरते, ज़रा भी पानी उछाले बिना, और जब बाहर निकलते, तो
लकड़ी के बोर्ड तक आते, हाथों के मसल्स फुलाए और सीना बाहर निकाले...
ये बेहद ख़ूबसूरत और आसान था, और मुझे पूरी
ज़िन्दगी यक़ीन था कि मैं भी इन अंकल लोगों से बुरा नहीं कूदता, मगर इस समय, जब मैं
चढ़ रहा था, तो मैंने फ़ैसला किया कि हवा में कोई भी कलाबाज़ी नहीं दिखाऊँगा, सिर्फ
सीधे सीधे कूदूँगा, अटेन्शन में खड़े सैनिक की तरह, - ये सबसे आसान है! शुरू में
मैं, बस, सादगी से, बिना किसी दिखावे के कूदूँगा, और बाद में, अगली बार ख़ास तौर से
मीश्का के लिए, ऐसी ऐसी कलाबाज़ियाँ दिखाऊँगा कि उसका मुँह खुला रह जाएगा. बेहतर है
कि वो और कोस्तिक चुप रहें बजाय इसके कि मेरे पीछे चिल्लाएँ ‘फेंकू-की-को-का!!!’.”
जब मैं ये सब सोच रहा था, मेरा मूड बहुत
अच्छा था, और मैं फ़ौरन भाग कर छोटी-छोटी सीढ़ियाँ चढ़ गया, और मैंने ध्यान ही नहीं
दिया कि कितनी जल्दी मैं सबसे ऊँचे ‘डेक’ पर पहुँच गया हूँ, स्टेशन से दस मीटर्स
की ऊँचाई पर.
यहाँ आकर अचानक मैंने देखा कि ये डेक बहुत
छोटा है, और उसके सामने, और किनारों पे, और चारों तरफ़ दूर तक कोई फ़ैला हुआ, खूब
बड़ा और ख़ूबसूरत शहर है, वो किसी हल्के कोहरे में लिपटा है, और यहाँ, डेक पर, हवा
शोर मचा रही है, पूरी भयंकरता से तूफ़ान की तरह शोर मचा रही है, देखते देखते
तुम्हें इस डेक से उड़ा देगी. मज़दूरों के पत्थर तोड़ने की आवाज़ बिल्कुल भी सुनाई
नहीं दे रही है, हवा ने उनके काँच के हथौड़ों को गूँगा बना दिया है. और जब मैंने
नीचे नज़र दौड़ाई तो मुझे अपना वाटर-स्टॆशन दिखाई दिया, वो नीला-नीला था, मगर इतना
छोटा सा था, जैसे सिगरेट का पैकेट हो, मैंने सोचा कि अगर मैं कूदता हूँ, तो
मुश्किल से ही उसमें गिरूँगा, चूक जाने की संभावना बहुत ज़्यादा है, ऊपर से ये हवा
जो बोफ़ोर्ट स्केल पर ज़रूर 6 पॉइंट्स होगी, देखते-देखते मुझे किसी कोने में उड़ा ले
जाएगी, या तो नदी में, या हो सकता है कि मैं रेस्टॉरेंट में धम् से किसी के सिर पे
गिरूँ, हंगामा हो जाएगा! या, हो सकता है कि मैं सीधा किचन में जा गिरूँ, सूप वाली
कड़ाही में! ये भी कम मज़ेदार नहीं होगा. इन ख़यालों से मेरे घुटनों में कुछ खुजली
होने लगी, और मेरा दिल फिर से पुल की मरम्मत कर रहे मज़दूरों के हथौड़ों की आवाज़
सुनने के लिए, कोस्तिक और मीश्का को अपने साथ देखने के लिए बेचैन होने लगा, आख़िर
वो मेरे दोस्त जो हैं...
और मैं धीरे-धीरे कुछ क़दम पीछे हटा,
हैण्डल्स पकड़ लिए और नीचे उतरने लगा, और जब मैं नीचे उतर रहा था, तो मेरा मूड फिर
से अच्छा हो गया और दिल में इत्ता हल्का-हल्का महसूस हो रहा था, जैसे कंधों से
पहाड़ उतर गया हो. जब मैंने मीश्का और कोस्तिक को देखा, तो बहुत ख़ुश हो गया, मैं
उनकी ओर भागा, मगर जब उनके पास पहुँचा तो जैसे ज़मीन में गड़ गया!...ये बेवकूफ़ गला
फाड़ कर ठहाके लगा रहे थे और ऊँगली से मेरी तरफ़ इशारा कर रहे थे! ऐसा लग रहा था कि
हँसते-हँसते उनके पेट फट जाएँगे.
वो चीख़ रहे थे:
“ये कूदा!”
“हा-हा-हा!”
“इसने छलाँग लगाई!”
“हो-हो-हो!”
“बटरफ्लाय स्टाइल में!”
“हे-हे-हे!”
“सैनिक जैसे!”
“ही-ही-ही!”
“बहादुर!”
“शाबाश!”
“शेख़ीमार!”
मैं उनके पास बैठा और बोला;
“तुम लोग सिर्फ बेवकूफ़ हो, और कुछ नहीं! कहीं
तुम लोग ये तो नहीं सोच रहे हो, कि मैं डर गया?”
अब तो वो जैसे चीत्कार करने लगे:
“नहीं! हा-हा-हा!”
“नहीं सोचते! हो-हो-हो!”
“तू डरा थोड़े ही था!”
“तू, बस, थोड़ा घबरा गया!”
“अब हम तेरे बारे में अख़बार में लिखेंगे!”
“कि तुझे मेडल
दिया जाए!”
“ख़ूबसूरती
से सीढ़ियाँ उतरने के लिए!”
मैं गुस्से से उबलने लगा! कैसे बेशरम हैं,
ये पतली डंडी जैसा कोस्तिक और ख़ासतौर से मीश्का, भद्दी आवाज़ वाला! शायद वे सचमुच
में समझ रहे हैं कि मैं डर गया! कैसी बेवकूफ़ी है! आसमानी बादशाह के उल्लू!
मगर मैंने उन्हें गालियाँ नहीं दीं, न ही
उनका अपमान किया, जैसे उन्होंने मेरा किया था. क्योंकि मुझे तो मालूम था कि इतने
छोटे टॉवर से कूदना मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं है! इसलिए मैंने बड़ी शांति और शराफ़त
से कहा:
“थूकता हूँ, तुम पर!”
और मैं तीर की तरह टॉवर की तरफ़ लपका, और
पाँच ही सेकण्ड में ऊपर तक चढ़ गया! इस
समय सूरज बादल के पीछे छुप गया था. यहाँ ठण्ड थी और उदासी थी, हवा चिंघाड़ रही थी,
और टॉवर कुछ चरमरा रहा था और हिल रहा था. मगर मैं रुका नहीं, मैं बिल्कुल किनारे
की तरफ़ गया, हाथ अटेन्शन की मुद्रा में रखे, आँखें सिकोड़ीं, छलाँग लगाने से पहले घुटने
थोड़े-से मोड़े, और...अचानक, एकदम अप्रत्याशित रूप से मुझे मम्मा की याद आई. और पापा
की भी. और दादी की. मुझे याद आया कि आज सुबह, जब मैं ‘डिनामो’ आ रहा था, मैंने
उन्हें बाय-बाय नहीं कहा था और ये कि, हो सकता है, मैं गिरकर मर जाऊँ, और मैंने
सोचा, कि उनके लिए ये कितना बड़ा दुर्भाग्य होगा. दुख का पहाड़ टूट पड़ेगा. उनकी
ज़िन्दगी में कोई भी नहीं होगा जिसे वे प्यार कर सकें. मैंने कल्पना की, कि कैसे
मम्मा मेरी फोटो की ओर देखा करेगी और रोती रहेगी, क्योंकि मैं उसका इकलौता बच्चा
जो हूँ और पापा का भी. उनके लिए तो ज़िन्दगी में हमेशा मातम ही रहेगा, और वो कभी
किसी के घर नहीं जाएँगे, फिल्म देखने भी नहीं जाएँगे – ये भी कोई ज़िन्दगी है? और,
जब वो बूढ़े हो जाएँगे, तो उनका ख़याल कौन रखेगा? मुझे भी उनके बगैर अच्छा नहीं
लगेगा, मैं भी तो उनसे प्यार करता हूँ! हालाँकि मुझे तो बुरा नहीं लगेगा, क्योंकि
मैं तो ज़िन्दा ही नहीं होऊँगा, मैं तो मर चुका होऊँगा, और नीले आसमान को फिर कभी न
देख सकूँगा, पुल पर मज़दूर कितनी नज़ाकत से पत्थर तोड़ते हैं, ये भी नहीं सुन
पाऊँगा!...
ये सब इन बेवकूफों की वजह से – डंडी
कोस्तिक और मक्खी मीश्का की वजह से!
मैं बेहद परेशान हो गया और गुस्से से
उबलने लगा, कि इन बेवकूफ़ों के कारण इतने लोग दुख उठाएँगे, और मैंने सोचा कि इससे
बेहतर है कि मैं जाकर उन्हें एक-एक झापड़ जमा दूँ, और ये जितनी जल्दी करूँ उतना ही
अच्छा होगा.
और मैं फिर से नीचे उतर गया.
जब कोस्तिक ने मुझे देखा, तो वो चौपायों
जैसा खड़ा हो गया और उसने अपना सिर फर्श में गड़ा लिया. और इस तरह, सिर के बल वो
गोल-गोल घूमा, जैसे कोई भौंरा चक्कर लगाता है. और मीश्का तो पूरा नीला हो गया और
वह फुफुफुफु कर रहा था, उसे हँसी का दौरा पड़ा था.
उनके पास एक छोटा सा ग्रुप बैठा था, लड़के
और लड़कियाँ. वो भी हँस रहे थे. ज़ाहिर है, कि कोस्तिक और मीश्का ने उन्हें सारी बात
बता दी थी. वो बहुत ख़ुशी से हँस रहे थे, ये अनजान लोग, और मेरे दोस्त उनके साथ
मिलकर मुझ पर हँस रहे थे, वे सब एक होकर मुझ पर हँस रहे थे...
तब मैंने महसूस किया, कि जो अब तक हुआ –
वो पागलपन था! मैं समझ नहीं पाया था कि इसका मतलब क्या है! मगर अब, शायद, समझ गया.
और मैं मुड़कर वापस टॉवर पे चढ गया. तीसरी बार! वो लोग पीछे से मुझे हूट कर रहे थे,
चिढ़ा रहे थे. मगर मैं ऊपर तक चढ़ गया और बिल्कुल किनारे पे आया. मेरे घुटने काँप
रहे थे. मगर मैंने हाथों से उन्हें थामा और दबाया, और हौले से अपने आप से कहने
लगा, और जब मैं कह रहा था, तो सुन रहा था, कि मेरी आवाज़ कैसे काँप रही है और दाँत
किटकिटा रहे हैं.
मैं बुदबुदाया:
“रोतले!...पोतले!! मोतले!...कूद अभ्भी! चल! वर्ना
मैं तुझसे बात नहीं करूँगा! तुझसे हाथ भी नहीं मिलाऊँगा! चल1 कूद भी! तूतले!
कतूतले! वतूतले!”
और जब मैंने अपने आप को वतूतले कहा, तो
मैं अपमान को सह नहीं पाया और मैंने क़दम आगे बढ़ा दिया. मेरा पेट और दिल जैसे लुढ़क
कर गले तक आ गए. और मैं, जब उड़ रहा था, तो कुछ भी नहीं सोच पाया, मैं सिर्फ इतना
जानता था कि मैंने छलांग लगा दी है. मैं कूद गया! मैं कूद गया! आख़िर कूद ही गया!!!
और, जब मैं बाहर निकला, तो मीश्का और
कोस्तिक ने हाथ बढ़ाए और मुझे बोर्ड पर खींचा. हम पास पास लेट गए, मीश्का और
कोस्तिक ख़ामोश थे.
मगर मैं लेटा था और सुन रहा था कि कैसे
मज़दूर गुलाबी पत्थर को हथौड़ों से तोड़ रहे हैं. आवाज़ यहाँ तक पहुँच रही थी हल्के
से, नज़ाकत से, शरमाते हुए, जैसे कोई काँच के हथौड़े से चाँदी का ज़ाइलोफ़ोन बजा रहा
हो.
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