जब
मैं अंकल मीशा के घर गया
लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
एक बार ऐसा हुआ
कि हफ़्ते भर में मुझे लगातार कई दिनों की छुट्टियाँ आ गई, और पूरे हफ़्ते मेरे पास
करने के लिए कुछ भी नहीं था. हमारे स्कूल के टीचर्स जैसे एक साथ बीमार हो गए. किसी
को एपेन्डिसाइटिस, किसी को फ्लू, किसी को टॉन्सिल्स. पढ़ाने वाला कोई था ही नहीं.
तभी मीशा अंकल
आए. जब उन्होंने सुना कि मैं पूरे हफ़्ते आराम कर सकता हूँ, तो सीधे
छत तक उछल गए, और फिर मम्मा के पास बैठकर उससे भेदभरी आवाज़ में बोले:
“मेरे पास एक आइडिया है!”
मम्मा ने फ़ौरन मुझे अपने पास खींचा.
“बोलो,”
उसने कुछ नाराज़ सुर में कहा.
यही तो बात है – आदमी अपनी बात पूरी कर ही
नहीं पाता, और मम्मा को अच्छा नहीं लगता. मुसीबत! हमेशा ऐसा ही होता है! बिल्कुल
पनिशमेन्ट! मगर मैं ख़ामोश रहा, और अंकल मीशा ने कहा:
“आज मैं वापस जा रहा हूँ. मैं डेनिस्का को अपने
साथ ले जाऊँ? घूम आएगा! लेनिनग्राद देख लेगा, ख़ूबसूरत शहर, क्रांति का उद्गम स्थल,
नेवा नदी पर ऐतिहासिक जहाज़ अव्रोरा खड़ा है, बिल्कुल ज़िन्दा जहाज़ जैसा, पता है
कितना दिलचस्प है!”
मम्मा ने भँवें चढ़ाईं और बोली:
“और वापस कैसे आएगा?”
“मैं उसे रिसीव कर लूँगा,” पापा ने कहा. “तो!
कहो ‘हाँ’ और इनाम में हम तुम्हें ‘किस’ करेंगे.”
और वो लपके मम्मा को ‘किस’ करने के लिए.
उसने हाथ झटके और बोली: ”बदमाश कहीं के!” फिर आगे कहा: “मेरा क्या, जाइए,” और गहरी
साँस ली.
मैं अंकल मीशा के साथ निकल पड़ा.
लेनिनग्राद के रास्ते के बारे में मैं कुछ नहीं बता सकता, क्योंकि ट्रेन चली थी
रात को ग्यारह पचास पे, और मैं फ़ौरन सो गया, मुर्दे की तरह. कम्पार्टमेंट में
सिर्फ सुबह ही नज़र दौड़ाई, और मुझे सब कुछ बहुत अच्छा लगा. टॉयलेट, और कॉरीडोर, और
ऊपर वाली बर्थ पे जाने के लिए छोटी सी सीढ़ी. अंकल मीशा ने कहा:
“तो? अब अपने चचेरे भाई दीम्का से मिलेगा. आख़िर
उससे तेरी मुलाक़ात हो जाएगी!”
हम रेल्वे स्टेशन से बाहर आए और ट्रॉलीबस
में बैठे, और चले भी नहीं थे कि पता चला कि हमें उतरना है.
हम भागकर दूसरी मंज़िल पर चढ़े और दरवाज़ा
खोला, वहाँ कोई लड़का बैठा था और गरम-गरम समोसे खा रहा था. वो सरका और मुझसे बोला:
“चल, मेरा साथ दे!”
मैं उसके पास बैठ गया और जल्दी ही उससे
दोस्ती कर ली.
”तू स्कूल क्यों नहीं गया?” अंकल मीशा ने
पूछा.
“आज पापा आ रहे हैं!” दीम्का ने जवाब दिया और
मुस्कुराया. वो और ज़्यादा प्यारा लगने लगा. “अकेले नहीं, बल्कि भाई के साथ. तो,
कैसे? मिलना है ना!”
अंकल मीशा खिलखिलाए और अपने कारख़ाने चले
गए. दीम्का दरवाज़े तक उनके साथ गया, और हम, कुछ और समोसे खाकर, फ़ौरन लेनिनग्राद
देखने निकल पड़े. दीम्का को वो मुँह ज़ुबानी याद था, और सबसे पहले हम नेवा की तरफ़
भागे – कितनी चौड़ी है. हम किनारे पे दौड़ते रहे, कोई भी रास्ता पार नहीं किया, और
अचानक देखा – जहाज़ खड़ा है, और उस पर पूरा काम हो रहा है. हर चीज़ ‘नेवी’ जैसी –
नाविक, फ्लैग्स, और जहाज़ पे लिखा था: “अव्रोरा”. दीम्का ने कहा:
“देख, कैसा जहाज़ है.”
मैंने कहा;
”अव्रोरा”.
दीम्का ने कहा:
“क्या जहाज़ है...इसने अक्टूबर क्रांति में
हिस्सा लिया था!”
मेरी साँस रुकने लगी, कि मैं अपनी आँखों से
‘अव्रोरा’ देख रहा हूँ. मैंने इस जहाज़ के सम्मान में अपनी कैप उतार दी.
फिर दीम्का और आगे की तरफ़ दौड़ा, और मैं –
उसके पीछे. लेनिनग्राद को जानना दिलचस्प है. हम बसों में बैठे, और कहीं उतरे, और
फिर से बसों में बैठे. हमने पूश्किन का स्मारक देखा एक छोटे से गोल स्क्वेयर पे.
पूश्किन छोटा था, वैसा नहीं, जैसा हमारे मॉस्को में है - पूश्किन स्क्वेयर पे.
नहीं, इससे क्या मुक़ाबला! यहाँ वो हमारे वाले पूश्किन से ज़्यादा जवान था, मानो
दसवीं क्लास का स्टूडेंट हो. वो छोटा था, मगर बेहद ख़ूबसूरत और बेहद प्यारा था. मगर
तभी दीम्का ने कहा:
“मुझे भूख लगी है,” और वो किसी दरवाज़े के अन्दर
चला गया.
मैं – उसके पीछे. देखो, इसे अभी से भूख लग
गई! अभी अभी तो मन भर समोसे खाए हैं और अभी से! इसे भूख लग गई! क्या छोकरा है! ऐसे
लड़के के साथ तुम सुरक्षित रहोगे.
और, हम एक बड़े हॉल में घुसे, जिसमें मेज़ें
लगी हुई थीं. ये एक कैफ़े था. हमने ‘पाइज़’ खाईं – ऐसी ट्यूब जैसी जिनमें माँस भरा
होता है, पैनकेक्स जैसी. ओह, कितनी स्वादिष्ट थीं! इसके बाद एक-एक और ली, फिर
तीसरी भी ली. इसके बाद, जब खा चुके, तो दीम्का ने शान से पूछा:
“हमें कितना देना है?”
उसने पैसे दिए, मैं भौंचक्का सा उसकी ओर
देख रहा था. वह मुस्कुराया:
“क्या देख रहा है? ये पापा ने मुझे पैसे दिए थे,
ख़ास तौर से इसलिए कि तुझे खिलाऊँ. आख़िर तू हमारा मेहमान है, सही है ना?”
और जब हम घर जा रहे थे, तो दीम्का ने कहा:
“अब कुछ खा लेंगे, और फिर एर्मिताझ.”
मैंने कहा:
“फिर खा लेंगे? तेरे क्या दो पेट हैं? और फिर,
मैं एर्मिताझ पहले ही जा चुका हूँ. मॉस्को में. मैंने वहाँ सर्दियों में टीलों से
स्केटिंग की थी. जब दूसरी क्लास में था, तभी!”
दीमा का मुँह लाल हो गया:
“ये तू क्या कह रहा है, तुझे पता नहीं है कि
तुम्हारा मॉस्को का एर्मिताझ – ये सिर्फ चिल्ड्रेन्स पार्क है, मगर हमारे
लेनिनग्राद में एर्मिताझ - चित्रों की गैलरी है! म्यूज़ियम, समझा?”
और जब हम स्क्वेयर पे स्थित ख़ूबसूरत घर की
ओर आये और मैंने देखा कि छत को विशालकाय पुतलों ने थाम रखा है, तो मैं अचानक समझ
गया कि बेहद थक गया हूँ, और मैंने दीम्का से कहा:
“ऐसा करें, कि चित्रों की गैलरी कल देखते
हैं?आँ? वर्ना, मैं तो बहुत थक गया हूँ. बड़ी देर से चल रहे हैं.”
दीम्का ने मेरा हाथ पकड़ा और पूछा:
“क्या ट्राम तक चल सकते हो?”
मैंने सिर हिलाया, और हम जल्दी ही
ट्राम-स्टॉप पे पहुँच गए और चल पड़े. पता चला कि ट्राम में काफ़ी देर तक सफ़र करना
पड़ा.
शाम को मेरी आँखें अपने आप बन्द हो रही
थीं. गाल्या आण्टी ने कॉट बिछा दी और मैं फ़ौरन सो गया.
सुबह दीम्का मेरा पैर पकड़ कर कॉट से
खींचने लगा:
“उठ जा, स्लीपिंग जैक!”
मैंने पूछा:
”क्या सुबह हो गई?”
दीम्का ने कहा:
“सुबह, सुबह! जल्दी से उठ, एर्मिताझ भागना है!”
जब हम सब ब्रेकफ़ास्ट कर रहे थे, तो दीम्का
बार-बार दुहरा रहा था: “चल, जल्दी!”
गाल्या आण्टी ने कहा:
“दीमा, डेनिस्का के पीछे न पड़, उसके गले में
निवाला अटक रहा है. और वैसे भी, थोड़ा इंतज़ार तो कर सकता है.”
और उसने किसी मक़सद से उसकी ओर देखा.
दीम्का ने कहा:
“इंतज़ार किस बात का? जितनी जल्दी हो सके भागना
चाहिए!”
अंकल मीशा और गाल्या आण्टी मुस्कुराने
लगे. इसी समय घण्टी बजी.
दीम्का ने मुँह बनाया, जैसे अचानक उसके
सारे दाँत दर्द करने लगे हों.
उसने कहा:
“हो गया. नहीं निकल पाए.”
गाल्या आण्टी दरवाज़ा खोलने गई, और हमने
छोटी लड़कियों की आवाज़ें, हँसी और गाल्या आण्टी की आवाज़ सुनीं:
“दीमच्का! तेरे टीचर्स आ गए.”
“दीम्का, तू क्या पढ़ाई में पिछड़ गया है?”
तभी कमरे में दो लड़कियाँ आईं. एक लाल थी,
उसकी भौंहे लाल थीं और पलकें भी लाल; और दूसरी कुछ अजीब थी. उसकी आँखें खूब लम्बी
थीं, बिल्कुल कनपटियों तक पहुँच रही थीं. मैंने कहा:
“दीम्का, इस साँवली की आँखें कित्ती बड़ी-बड़ी
हैं!”
“आ!, दीम्का ने कहा. “ये ईर्का रोदिना है.
मिलों!”
लड़कियों ने दीम्का को जल्दी से ‘लेसन’
समझा दिया और हम सब मिलकर एर्मिताझ गए.
मुझे एर्मिताझ में बहुत अच्छा लगा. वहाँ
इतने ख़ूबसूरत हॉल्स हैं और सीढ़ियाँ हैं! जैसे कि राजाओं और राजकुमारियों वाली
किताबों में होता है. चारों ओर तस्वीरें लटक रही हैं. मैं हॉल्स में घूमते-घूमते
थक गया, अचानक मेरी नज़र एक तस्वीर पर पड़ी और मैं उसके पास गया. उसमें दो आदमी
दिखाए गए थे, बूढ़े ही थे, एक गंजा, दूसरा दाढ़ी वाला. एक के हाथ में किताब थी, और
दूसरे के हाथ में चाभी. उनके चेहरे बड़े ग़ज़ब के थे, उदास, थके हुए मगर फिर भी कोई
शक्ति थी उनमें. तस्वीर कुछ असाधारण रंग में बनाई गई थी, मैंने ऐसा रंग पहले कभी
नहीं देखा था.
मैं खड़ा होकर इस तस्वीर को देखने लगा, और
दीम्का और लड़कियाँ भी देख रहे थे. हम सब खड़े थे और देख रहे थे. फिर मैं उसके और
नज़दीक गया. वहाँ रखी प्लेट पर लिखा था: “एल् ग्रेको”.
मैं उछल पड़ा! एल् ग्रेको! मैंने उसके बारे
में पढ़ा था, ये क्रीट द्वीप का था. उसका असली नाम था दोमेनिको तियोतोकोपूली. ये
बहुत बढ़िया कलाकार था! मैंने कहा:
”कितनी अच्छी तस्वीर है!”
“अब तू समझा,” दीम्का ने कहा. “कि एर्मिताझ क्या
होता है! ये कोई टीले से स्केटिंग करने की जगह नहीं है!”
और, ईर्का रोदिना ने कहा:
”इस तस्वीर के रंग ऐसे हैं, जैसे
हीरे-जवाहरात हों...”
मुझे अचरज भी हुआ. बच्ची है, और वो भी
समझती है! फिर हम उस हॉल में आए, जहाँ इजिप्ट के फूलदान रखे हैं. इन फूलदानों पर
सब लोग एक साइड से दिखाए गए थे, और उनकी आँखें लम्बी-लम्बी थीं. कनपटियों तक.
मैंने कहा;
“देख, दीम्का, ईर्का रोदिना की आँखें वैसी ही
हैं, जैसी फूलदान पे हैं.”
दीम्का मुस्कुराया:
“हमारी ईर्का – आँखों वाला फूलदान है!”
मैं और दीम्का और भी बहुत सारी जगहों पर
गए. हम रूसी म्यूज़ियम में गए, और पूश्किन के फ्लैट में गए. इसाकोव्स्की चर्च के
गुम्बद पे गए और त्सार्स्कोए-सेलो भी गए वहाँ अंकल मीशा हमें ले गए.
जब मैं मॉस्को वापस लौटा तो मम्मा ने
पूछा:
“तो, ट्रेवलर, तुझे लेनिनग्राद कैसा लगा?”
मैंने कहा:
“मम्मा! वहाँ खड़ा है जहाज़ ‘अव्रोरा!’ सचमुच का,
पता है, वही वाला! और एर्मिताझ में कलाकार एल् ग्रेको की तस्वीर है. और तू और भी
पूछेगी! वहाँ मैं एक लड़की से भी मिला. उसका नाम है ईरा रोदिना. उसकी आँख़ें बिल्कुल
वैसी ही हैं, जैसी इजिप्शियन फूलदान पे थीं, सही में! मैं उसे ख़त लिखूँगा.”
पापा ने पूछा:
“तूने इस बेक्की थेचेर का पता लिया?”
मैंने कहा:
“ओय, भूल गया...”
पापा ने मेरी नाक पर टक-टक किया:
“ऐह, तू, बुद्धू!”
मैंने कहा:
“कोई बात नहीं, पापा! मैं दीम्का को लिखूँगा, और
वो मुझे उसका पता देगा. मैं उसे ज़रूर ख़त लिखूँगा!”
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