घड़ी
लेखक: एलेना दल्गाप्यात
अनुवाद : आ. चारुमति रामदास
शाम का समय था. खिड़कियों में रोशनी थी, कारों की रोशनियाँ भाग रही थीं. काँच जड़ी दुकान के
पोर्च के सामने एक दयनीय व्यक्ति खड़ा था : गंदा, दाढ़ी बढ़ी हुई, धूप से रंग कालेपन तक पहुँचा हुआ, नंगे बदन पर कोट
लेपेटे हुए.
“बच्चे,” उसने पोर्च की एक सीढ़ी चढ़ चुके साश्का को रोका, और कोट की भीतरी
जेब से उभरे हुए काँच के भीतर गोल, सफ़ेद डायल वाली, गुस्से से टिक-टिक करती घड़ी निकाली.
“चलती है,” उसने कहा.
“सुन रहा हूँ,” साश्का बोला.
“पैसे लेकर तुम्हें भेंट दे सकता हूँ.”
“ऐसा कैसे?”
“कितने पैसे हैं तुम्हारे पास?”
“डबल रोटी और शकर के लिए हैं.”
“ज़्यादा नहीं हैं, उस आदमी ने कुछ् सोचकर कहा. और फिर अचानक फैसला करके
टिक-टिक करती घड़ी साश्का की ओर बढ़ा दी. “ठीक है, कोई बात नहीं, ले लो!”
“मगर मुझे...” साश्का ने कहना चाहा.
“परेशानी क्या है, अपने पैसे मुझे दे दो.”
उसने घड़ी साश्का के हाथों में थमा दी, और परेशान साश्का ने बड़ी उत्तेजना से टिक-टिक करती घड़ी
का पैकेट, एक हाथ में थामे, सीने से लगा लिया और दूसरे, खाली हाथ से, जेब में से पैसे निकाले.
पैसे पकड़कर आदमी पल भर में सड़क पर दौड़ने लगा और कोने पर जाकर ओझल हो गया, और साश्का रह गया
इस बदरंग, शोर मचाती घड़ी के साथ. उसने परेशान होकर पैकेट में हाथ डाला और उस भारी, बुदबुदाते पैकेट
को लिए सीढ़ी से फुटपाथ पर उतरा और घर की ओर रेंग गया.
जब साशा ने प्रवेश कक्ष में घुसकर अपने पीछे दरवाज़ा धड़ाम् से बन्द किया, मम्मी टेलिविजन
देख रही थी.
“ख़रीद लाए?” मम्मा कमरे से चिल्लाई, और तभी टी.वी. पर पिस्तौल चलने की आवाज़ सुनाई दी.
“हाँ,” साश्का ने जवाब दिया.
“किचन में रख दो, मेज़ पर.”
साश्का किचन में मेज़ के पीछे बैठ गया, मेज़ पर घड़ी रख दी, पैकेट कुर्सी की पीठ पर लटका दिया. घड़ी टिक-टिक कर रही
थी. सेकण्ड वाली सुई भाग रही थी.
“ऐड आ रही है,” मम्मा किचन में आई.
साश्का ने घड़ी पकड़ कर मेज़ के नीचे घुटनों पर छिपा ली.
“क्या है तुम्हारे पास?” मम्मा ने पूछा.
“कुछ भी नहीं.”
“और ब्रेड कहाँ है?”
ख़ामोशी.
“दिखाओ.”
उसने साश्का के हाथ से घड़ी ले ली.
“ये भयानक चीज़ कहाँ से आई?”
“खरीदी है.”
“कहाँ?”
“दुकान के पास एक नमूने ने बेची.”
“पैसे कहाँ से आए?”
“ब्रेड के लिए थे तो सही मेरे पास.”
“ये बात है? और अब मैं इसका करूँ क्या? क्या इसे ब्रेड के बदले खाऊँ?”
“ये टाइम बताएगी.”
“हमारे पास क्या घड़ी नहीं है? या फिर ये कोई दूसरी तरह का टाइम बताएगी?, जो हमारे टाइम से
बेहतर होगा? जाकर वापस दे आ उसी नमूने को, हाँ, और पैसे वापस लेना मत भूलना, क्योंकि बगैर
पैसे के तुम्हें कोई ब्रेड नहीं देगा, और मैंने तुम्हें ब्रेड के लिए भेजा था.”
“मम्मा, वह तो वहाँ नहीं है, फ़ौरन भाग गया!”
“अच्छा किया!...ठीक है, ठीक है, बिसूरो मत, प्लीज़, बिसूरने की ज़रूरत नहीं है. हमारे किचन में सचमुच घड़ी
नहीं है. रहने दो यहीं पर. मगर, यहाँ नहीं.”
उसने पंजों के बल खड़े होकर अलमारी के ऊपर घड़ी रख दी, जहाँ रंगीन
बोतलें और फ्लॉवर पॉट रखा था.
“यह ठीक है. इसे ऊपर से देखने दो. देखो तो, कैसे गुस्से से टिक-टिक कर रही है. ओह, रोओ मत, चलो फिल्म देखते
हैं, फिर खाना खाएँगे, हमारे पास आधी ब्रेड पड़ी है, डिनर के लिए काफ़ी
है. ठीक है. चलो, चलते हैं.”
“मैं यहीं बैठूँगा.”
“दूँगी एक, चलो, वहाँ अच्छी फिल्म आ रही है, जासूसों के बारे में है.”
मम्मा फिल्म देख रही थी, साश्का किचन में बैठा था, घड़ी ऊपर से टिक-टिक कर रही थी.
साश्का कुर्सी पर चढ़ा, उसने हाथ बढ़ाया. घड़ी उतारते हुए उसने फ्लॉवर पॉट को
धक्का मारा, वह फर्श पर गिर पड़ा और साश्का डर के मारे कुर्सी पर जम गया. मगर मम्मा ने
सुना नहीं, क्योंकि इस समय टी.वी. पर सीधे हवा में पुल से नीचे गिरती हुई कार प्रकट
हुई.
साश्का कुछ देर फ्लॉवर पॉट के टुकड़ों के ऊपर खड़ा रहा, फिर कुर्सी से
नीचे उतरा.
उसने धीरे से कमरे में झाँका और यह देखकर कि मम्मा कारों की भागम-भाग को बड़े
चाव से देख रही है (ब्रेक चीख रहे थे, गोलियाँ दनादन बरस रही थीं, लोग चिल्ला रहे थे), वापस किचन में लौट आया.
उसने डस्ट-बिन में फ्लॉवर पॉट के टुकड़े इकट्ठा किए. मेज़ के पीछे बैठा, घड़ी हाथ में ली, उसे उलट-पलट कर
देखा और पीछे की ओर उसने टाइम वाली चाभी और काँटे घुमाने वाली चाभी देखी. उसने
फ़ौरन उन्हें घुमा कर देखा; मगर एक और भी चाभी थी वहाँ, न जाने वह किसलिए थी.
साश्का ने घड़ी की सुइयों वाली दिशा में उसे घुमाना चाहा, मगर वह चाभी
उल्टी दिशा में ही घूमी.
घड़ी के साथ तो कुछ नहीं हुआ, मगर साशा के सामने घनी होती गई हवा से अचानक एक आदमी
निकला. देखने में तो आम आदमी जैसा ही था. पुरानी स्ट्रैप्स वाली ज़ीन्स, नंगे पैरों में
मुड़ी-तुड़ी सैण्डिल्स, चौखाने वाली रंग उड़ी कमीज़ पहने. चेहरा बदरंग, लम्बा खिंचा हुआ, गंजेपन के कारण
माथा बड़ा लग रहा था. बाएँ हाथ की पहली उँगली पर पट्टी बंधी हुई थी.
साश्का चिल्लाया नहीं, उसने हाथ भी नहीं हिलाए, वह चुपचाप उस किचन में टपक पड़े आदमी की ओर देखने लगा.
वह आदमी मेज़ के नीचे से बाहर स्टूल खींच कर साश्का से तिरछे होकर बैठ गया.
“क्या चाहते हैं?” उसने बिल्कुल आम, दुकानदारों जैसे उकताई आवाज़ में कहा.
“मतलब?” साश्का फुसफुसाया.
“शायद, आपने मुझे बुलाया.”
“कैसे?”
“आपकी है यह घड़ी?”
“हाँ.”
“आपने इस चाभी को घुमाया था?”
“हाँ.”
“हुक्म कीजिए.”
“क्या?”
“अगर किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है, तो मैं चला. फिर मिलेंगे.” वह उठा.
“रुको,” साशा ने उसे रोका. “आईस्क्रीम...दीजिए. और काली ब्रेड
का एक लोफ़ और शक्कर एक किलो.”
“नहीं, आदरणीय महोदय,”
उस आदमी ने कहा, “यह सब मैं नहीं कर सकता.”
“फिर क्या कर सकते हो?”
“मैं आपका भूतकाल सुधार सकता हूँ. अगर आपको अपने भूतकाल की कोई बात पसंद
नहीं हो, तो उसे हटा सकता हूँ.”
“अच्छा? तो देखो, मैंने यह फ्लॉवरपॉट तोड़ दिया है, क्या यह बात
निकाल सकते हो?”
उस आदमी ने आँखें बन्द कर लीं और होठों से कुछ बुदबुदाता रहा, मानो कोई कविता
याद कर रहा हो. उस आदमी का घनापन ख़त्म हो गया और वह पारदर्शी, भारहीन हो गया. साश्का
ने अचानक अपना हाथ उठाया और उसका हाथ आसानी से पारदर्शी आदमी के आर-पार हो गया, जो कि फ़ौरन वहाँ
से गायब हो गया था.
साश्का उछल पड़ा. किचन में वह अकेला ही था. टी.वी. से आदमी की आवाज़ आ रही थी : फ्लॉवरपॉट शेल्फ पर पहले की तरह खड़ा था.
साश्का डस्टबिन की तरफ़ लपका. उसमें फ्लॉवरपॉट का एक भी टुकड़ा नहीं था. साश्का ने
घड़ी को पकड़ लिया और बैठ गया. वह उसे कान के पास लाया. वह ज़ोर-ज़ोर से टिक-टिक कर
रही थी. उसने घड़ी के पुराने, दरारे पड़े पेन्ट को खुरचा. और – घड़ी की सुइयों की
विपरीत दिशा में चाभी घुमा दी.
जैसे ही उसने चाभी घुमाई, मम्मा अन्दर आ गई.
“एड.”
वह गैस पर रखी ठण्डी चाय की केटली की ओर गई. ग्लास में पानी डाला. उसके पीछे
घनी हो गई हवा में प्रकट हुआ गंजा आदमी फटी-पुरानी सैण्डिल पहने.
मम्मा सिर पीछे की ओर किए पानी पी रही थी, आदमी स्टूल पर बैठ गया. साश्का घड़ी पकड़े बैठा था.
“क्या हुक्म है?” उस आदमी ने कहा, और मम्मा मुड़ गई.
अचानक एक अनजान आदमी को देखकर उसने अपने पीछे, गैस के पास वाले स्टैण्ड पर ग्लास रख दिया, और हथेली से गीले
होंठ पोंछने लगी.
आदमी उठा और बोला :
“नमस्ते.”
“नमस्ते,” आश्चर्यचकित मम्मा ने कहा.
“ये मेरे पास आए हैं,” साश्का ने कहा, “हम...यहाँ कुछ डिस्कस कर रहे हैं.”
“जब मैं भीतर आई तब मैंने आपको नहीं देखा.”
“मुझे अक्सर अनदेखा करते हैं,” उदासी से उस आदमी ने जवाब दिया.
“ये...बगल वाली बिल्डिंग से है.”
“बड़ी ख़ुशी हुई,” मम्मा ने उस पर से बिना आँखे हटाए कहा.
“मुझे भी बहुत-बहुत ख़ुशी हुई,” आदमी बोला.
“तो, मैं आप लोगों को डिस्टर्ब नहीं करूँगी,”
मम्मा ने एकटक बेटे की ओर देखा. “जब फ्री हो जाओ तो
मेरे पास आ जाना,”
“अच्छा.”
एक बार और उन पर नज़र डालकर मम्मा चली गई. उसने टी.वी. की आवाज़ कम कर दी, जिससे बिल्कुल
ख़ामोशी छा गई.
“तो...” आदमी मेज़ के पीछे बैठ गया.
“बात यह है कि,” साशा ने फुसफुसाहट से कहा, “पिछले साल मेरे पैर में चोट आई थी, जिसकी वजह से मैं
दूसरे बच्चों के साथ स्कीईंग पर नहीं जा सका. वे सब चले गए : पेत्का भी, सिर्योझा भी, तान्का भी. चूँकि
मैं वहाँ नहीं था, इसलिए तान्का ने पेत्का से दोस्ती कर ली, जबकि पहले उसकी
मुझसे दोस्ती थी. मैं इस बात को छोड़ दूँगा, बेशक, मगर क्या ऐसा हो सकता है कि मेरा पैर न टूटा हो और मैं
उनके साथ स्कीईंग पर गया हूँ?”
आदमी ने आँखें मूँद लीं और होठों से कुछ बुदबुदाया, फिर आँखे खोलकर
बोला :
“अगर भूतकाल से तुम्हारी चोट निकाल दी जाए तो वर्तमान में काफ़ी कुछ बदल
जाएगा. किसी भी हाल में तान्का तो बिल्कुल रहेगी ही नहीं.”
“ऐसा कैसे?”
“आप दूसरे घर में रहने लगेंगे, दूसरे स्कूल में पढ़ रहे होंगे, आपकी मम्मा ने
दूसरे आदमी से शादी कर ली होगी.”
“ऐसा कैसे?”
“ऐसा कैसे, ऐसा कैसे...ऐसा इस तरह होगा. आप स्कीईंग के लिए जाएँगे, आपकी मम्मा अपनी
सहेली के यहाँ जाएगी, वहाँ उसकी एक आदमी से मुलाकात होगी, जल्दी ही वह उससे
शादी कर लेगी, और आप उसके पास रहने के लिए चले जाएँगे...उसका फ्लैट,” आदमी ने उनके
बिल्कुल फ़टेहाल किचन को ध्यान से देखा, “आपके फ्लैट से बेहतर होगा. वह आपको कार चलाना भी सिखाएगा.”
“क्या उसके पास कार है? मगर कौन सी?”
BMW
“देखिए, अगर चाहते हैं तो. मगर आपके भूतकाल का यह परिवर्तन
आख़िरी होगा.”
“क्यों?”
“क्योंकि फिर आपके पास यह घड़ी न रहेगी.”
“और क्या मैं इस समय की हर चीज़ को याद रख सकूँगा?”
“ओह, नहीं.”
साश्का ने घड़ी ले ली, वह उसके हाथ में और भी ज़ोर से टिक-टिक करने लगी. उसने
उस बेचारे आदमी की ओर देखा.
“ठीक है.”
“क्या ‘ठीक है’?”
“होने दो. दूसरी तरह से ही होने दो.”
“देखो,” अचरज से उस आदमी ने कहा और साश्का की पीठ के पीछे वाली
काली खिड़की की ओर उसने इशारा किया. साश्का फ़ौरन मुड़ा, मगर उसे कोई भी ख़ास बात नहीं दिखाई दी, वह फिर से उस
आदमी की ओर मुड़ा, मगर वह तो अब किचन में था ही नहीं.
कार बड़ी शानदार थी – BMW. स्टीयरिंग पर एक आदमी, मम्मा उसकी बगल में बैठी थी, और साश्का पिछली
सीट पर पसर कर बैठा था. कार तैरती हुई चल रही थी.
काँच जड़ी दुकान के सामने से गुज़र रहे थे. प्रवेश द्वार के पास पोर्च में
आईस्क्रीम बेच रहे थे.
“आईस्क्रीम,” साश्का ने कहा.
“चाहिए?” उस आदमी ने पूछा और गाड़ी रोक दी.
साश्का ने दरवाज़ा खोला.
“आपके लिए लाऊँ?”
“चॉकलेट,” मम्मा बोली.
“चॉकलेट,” आदमी ने कहा, वह मम्मा की ओर देखकर मुस्कुराया और साश्का से बोला, “पैसे लो.”
“मेरे पास अभी हैं.”
और साश्का आराम से, धीरे-धीरे कार से उतरा, धड़ाम् से दरवाज़ा बन्द करके दुकान की ओर बढ़ा. जब उसने
सीढ़ी पर पैर रखा तो छाया में से अचानक एक दयनीय व्यक्ति प्रकट हुआ : गंदा, दाढ़ी बढ़ी हुई, धूप के कारण
कालेपन तक पहुँचा हुआ रंग, नंगे बदन पर कोट लपेटे हुए.
“बच्चे,” उसने साश्का को रोका और कोट की भीतरी जेब से उभरे हुए
काँच के भीतर गोल, सफ़ेद डायल वाली, गुस्से से टिक-टिक करती घड़ी निकाली.
“चलती है,” उसने कहा.
“तो, फिर?” साश्का ने पूछा.
“पैसे लेकर तुम्हें भेंट दे सकता हूँ.”
“ओह, मैं तो मुफ़्त में भी ऐसी घड़ी नहीं लूँगा,” साशा ने कहा और आईस्क्रीम की दुकान की ओर बढ़ा.
घड़ी वाला आदमी छाया में चला गया.
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