पहाड़ों पर
लेखक : बरीस झित्कोव
अनुवाद : आ. चारुमति रामदास
तीन भाई पहाड़
के रास्ते पर जा रहे थे. वे नीचे की ओर जा रहे थे. शाम हो गई थी, और दूर से उन्हें अपने घर की खिड़की में रोशनी दिखाई दे
रही थी.
अचानक बादल घिर आए, अँधेरा हो गया, बिजली कड़कने लगी, और मूसलाधार बारिश होने लगी. बारिश इतनी तेज़ थी कि
देखते ही देखते रास्ते पर पानी यूँ बहने लगा
मानो कोई नदी हो. बड़े भाई ने कहा :
“यहीं रुको, यहाँ चट्टान है, वह हमें बारिश से
थोड़ा-बहुत बचाएगी”.
तीनों चट्टान के नीचे बैठ गए और इंतज़ार करने लगे.
सबसे छोटे, अहमद को, बैठ-बैठकर उकताहट होने लगी; उसने कहा :
“मैं तो जा रहा हूँ. डरना क्यों है? घर नज़दीक ही है. मैं यहाँ आप लोगों के साथ भीगना नहीं
चाहता. खाना खाऊँगा और सूखे बिस्तर में सो जाऊँगा.”
“मत जाओ – गिर जाओगे,” बड़े भाई ने कहा.
“मैं डरपोक नहीं हूँ,” अहमद ने कहा और चट्टान के नीचे से निकल गया.
वह बहादुरी से रास्ते पर कदम बढ़ाता जा रहा था – पानी की उसे कोई फ़िक्र नहीं
थी.
मगर पानी पत्थरों को उलट-पुलट करते हुए उन्हें अपने साथ नीचे बहा ले जा रहा
था. पत्थर अहमद के पीछे-पीछे भाग रहे थे और भागते हुए अहमद के पैरों पर मार कर रहे
थे. अहमद भागने लगा
वह अपने घर की रोशनी देखना चाहता था, मगर बारिश इतनी तेज़ थी कि सामने की कोई चीज़ नज़र नहीं आ
रही थी.
‘क्या वापस लौट
जाऊँ?’ अहमद ने सोचा. मगर शरम आ रही थी : बड़ा शेखी मार रहा था – अब उसके भाई हँसी
उड़ाएँगे.
तभी बिजली चमकी, और ऐसी ज़ोर की कड़कड़ाहट हुई, जैसे सारे पहाड़ टूट कर गिर रहे हों. जब बिजली चमकी, तो अहमद समझ ही
नहीं पाया कि वह कहाँ है.
‘ओय, शायद मैं भटक गया,’ अहमद ने सोचा और
वह डर गया.
उसके पैर पत्थरों की मार से ज़ख़्मी हो गए थे, और वह धीरे-धीरे चलने लगा.
वह बेहद सावधानी से चल रहा था और गिरने से डर रहा था. अचानक फिर से बिजली
कड़की, और अहमद ने देखा कि वह ठीक चट्टान के सिरे पर है और सामने अँधेरी खाई है.
डर के मारे अहमद ज़मीन पर बैठ गया.
‘आह,’ अहमद ने सोचा, ‘अगर मैं एक कदम
और बढ़ाता, तो नीचे गिर कर मर जाता’.
अब तो उसे वापस जाने में भी डर लगने लगा. क्या पता वहाँ भी कोई चट्टान का
किनारा और खाई हो.
वह गीली ज़मीन पर बैठा था, उसके ऊपर ठण्डी बारिश गिर रही थी.
अहमद सिर्फ एक ही बात सोच रहा था :
“ये तो अच्छा हुआ कि मैंने एक और कदम नहीं बढ़ाया, वर्ना तो मैं ख़त्म ही हो गया होता.”
और जब सुबह हुई और आँधी-तूफ़ान गुज़र गया, तो भाइयों ने अहमद को ढूँढ़ लिया. वह खाई के किनारे पर
बैठा था और ठण्ड के मारे बिल्कुल जम गया था.
भाइयों ने उससे कुछ भी नहीं कहा, बल्कि उसे उठाकर घर ले आए.
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