तीस साल बाद
लेखक : मिखाइल ज़ोशेन्का
अनुवाद : आ.
चारुमति रामदास
जब मैं छोटा था, तो मेरे मम्मी-पापा
मुझसे बेहद प्यार करते थे. वो मुझे कई सारी गिफ्ट्स दिया करते.
मगर जब मैं बीमार हो जाता, तो मम्मी-पापा मुझे सचमुच में मुझ पर गिफ्ट्स
की जैसे बारिश करते थे.
और मैं, न जाने क्यों अक्सर बीमार हो जाता था. ख़ासकर टॉन्सिल्स या
गलसुओं से. मगर मेरी बहन ल्योल्या करीब-करीब कभी भी बीमार नहीं पड़ती थी.
उसे जलन होती थी, कि
मैं क्यों अक्सर बीमार हो जाता हूँ.
वह कहती :
“ज़रा सब्र कर, मीन्का, मैं भी किसी न किसी तरह
बीमार पड़ जाऊँगी, तब मम्मी-पापा मेरे लिए भी सब कुछ
खरीदेंगे.”
मगर, शायद
बदनसीबी से, ल्योल्या बीमार नहीं पड़ी. सिर्फ एक बार
फ़ायरप्लेस के पास कुर्सी रखकर, उस पर चढ़ते हुए वह गिर गई और
उसके माथे में चोट आई. वह रोती रही, कराहती रही, मगर उम्मीद के ख़िलाफ़, गिफ्ट्स के बदले उसे मम्मी के
चाँटे पड़े, क्योंकि वह फ़ायरप्लेस के पास कुर्सी रखकर ऊपर से
मम्मी की घड़ी लेना चाह रही थी, और हमें मम्मी की घड़ी को हाथ
लगाने की इजाज़त नहीं थी.
एक बार हमारे
मम्मी-पापा थियेटर गए, और मैं और ल्योल्या घर में रह गए. मैं और
ल्योल्या छोटी टेबल-बिलियार्ड पर खेलने लगे.
खेलते-खेलते
ल्योल्या ने हाँफ़ते हुए कहा:
“मीन्का,
मैंने अभी-अभी अनजाने में बिलियार्ड की छोटी-सी गेंद निगल ली. मैंने उसे मुँह में
रखा था, और वह गले से फिसलकर अंदर लुढ़क गई. हमारी बिलियार्ड
की गेंद हालाँकि बिल्कुल छोटी-सी थी, मगर ग़ज़ब की भारी थी,
धातु की थी. मैं डर गया कि ल्योल्या ने ऐसी भारी गेंद निगल ली है.
मैं रोने लगा, क्योंकि
मुझे लगा कि उसके पेट में विस्फोट हो जाएगा.
मगर ल्योल्या ने
कहा;
“इससे विस्फ़ोट
नहीं होता. मगर ज़िंदगी भर के लिए बीमारी हो सकती है. ये कोई तुम्हारे टॉन्सिल्स और
गलसुए थोड़े ही हैं, जो तीन दिनों में ठीक हो जाते हैं.
ल्योल्या दीवान
पर लेट गई और कराहने लगी.
जल्दी ही हमारे
मम्मी-पापा आए और मैंने जो कुछ भी हुआ था, सब बताया.
मम्मी-पापा इतने
घबरा गए कि उनके चेहरों का रंग उड़ गया. वे दीवान के पास आए, जिस
पर ल्योल्या लेटी थी और उसे चूमने लगे और रोने लगे.
आँसुओं के बीच मम्मी
ने ल्योल्या से पूछा कि क्या उसे पेट में कुछ महसूस हो रहा है. ल्योल्या ने
कहा: “मुझे महसूस हो रहा है कि मेरे पेट
में गोला घूम रहा है. इससे मुझे गुदगुदी हो रही है और कोको और संतरे खाने का मन हो
रहा है.”
पापा ने कोट पहना
और बोले :
“बहुत संभाल कर
ल्योल्या के कपड़े उतारो और उसे बिस्तर में सुलाओ. इस बीच डॉक्टर को बुलाकर लाता
हूँ.”
मम्मी ल्योल्या
के कपड़े उतारने लगी, मगर जब उसने उसकी ड्रेस और एप्रन उतारी तो
एप्रन की जेब से अचानक बिलियार्ड की गेंद बाहर गिरी और लुढ़कती हुई पलंग के नीचे
चली गई.
पापा ने, जो
अभी तक गए नहीं थे, बुरी तरह नाक-भौंह चढ़ा लिए. वो बिलियार्ड
की मेज़ के पास गए और बची हुई गेंदें गिनने लगे. वो पंद्रह थीं, और सोलहवीं पलंग के नीचे पड़ी थी.
पापा ने कहा :
“ल्योल्या ने
हमें धोखा दिया है. उसके पेट में कोई गेंद-वेंद नहीं है, सारी
गेंदें यहीं हैं.”
मम्मी बोली :
“ये लड़की अजीब है, पागल
भी है. किसी और तरह से तो मैं उसके बर्ताव को समझा ही नहीं सकती.”
पापा ने हमें कभी
भी मारा नहीं था,
मगर अब उन्होंने ल्योल्या की चोटी पकड़ कर खींचते हुए कहा :
“बताओ, कि
इसका क्या मतलब है?”
ल्योल्या रिरियाई
और उसे कोई जवाब नहीं सूझा.
पापा ने कहा :
“ये हमारा मज़ाक
उड़ाना चाहती थी. मगर हमारे साथ मज़ाक करना बुरी बात है! साल भर तक इसे मुझसे कुछ न मिलेगा.
और पूरे साल ये पुराने जूतों में और पुरानी नीली ड्रेस में ही घूमेगी, जो
इसे बिल्कुल पसन्द नहीं है!”
और मम्मी-पापा
धड़ाम से दरवाज़ा बन्द करके कमरे से निकल गए.
मैं ल्योल्या की
ओर देखते हुए अपनी हँसी नहीं रोक पाया. मैंने उससे कहा :
“ल्योल्या, हमारे
मम्मी-पापा से गिफ्ट्स पाने के लिए, इस तरह झूठ बोलने के
बदले, अच्छा होता, कि तू गलसुए होने का
इंतज़ार कर लेती.”
और, सोचिए,
तीस साल बीत गए!
बिलियार्ड की
गेंद वाली इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना को हुए तीस साल बीत गए.
इतने सालों में
मैंने कभी भी इस घटना को याद नहीं किया.
मगर कुछ दिन पहले, जब
मैं ये कहानियाँ लिखने लगा, तो मुझे सब कुछ याद आ गया. मैं
इस बारे में सोचने लगा. और मुझे ऐसा लगा, कि ल्योल्या ने
मम्मी-पापा को सिर्फ गिफ़्ट्स पाने के लिए धोखा नहीं दिया था, उसके पास तो वैसे भी काफ़ी गिफ़्ट्स थे. उसने किसी और इरादे से उन्हें धोखा
दिया था.
और जब मेरे दिमाग़
में ये ख़याल आया तो मैं रेल में बैठकर सिम्फेरोपोल चल पड़ा, जहाँ
ल्योल्या रहती थी. सोचिए, ल्योल्या बड़ी हो गई थी, और कुछ बूढ़ी भी. उसके तीन बच्चे थे और पति – मेडिकल डॉक्टर.
तो, मैंने
सिम्फेरोपोल आकर ल्योल्या से पूछा :
“ल्योल्या, बिलियार्ड
वाली नन्ही गेंद का किस्सा याद है? तूने ऐसा क्यों किया?”
और ल्योल्या, जिसके
तीन बच्चे हैं लाल हो गई और बोली :
“जब तू छोटा था, तब
तू बेहद प्यारा था, बिल्कुल गुड़िया जैसा. और तुझे सब प्यार
करते थे. मगर मैं तब तक बड़ी हो गई थी, और बेडौल हो गई थी.
इसीलिए मैंने तब झूठ बोला था, कि मैंने बिलियार्ड की गेंद
निगल ली है, - मैं चाहती थी, कि तेरी
तरह सब लोग मुझे भी प्यार करें, हमदर्दी दिखाए, कम से कम बीमार होने पर ही सही.”
मैंने उससे कहा :
“ल्योल्या, मैं
इसीलिए सिम्फेरोपोल आया हूँ.”
और मैंने उसे
कसकर अपनी बाँहों में लिया और चूमा. और उसे एक हज़ार रूबल्स दिए.
वह ख़ुशी के मारे
रो पड़ी,
क्योंकि वह मेरी भावनाओं को समझ गई थी, और
उसने मेरे प्यार की कद्र की. तब मैंने उसके तीनों बच्चों को सौ-सौ रूबल्स खिलौनों
के लिए दिए. और उसके पति – डॉक्टर को – अपनी पोर्टसिगार दी, जिस
पर सुनहरे अक्षरों से लिखा था : “सुखी रहो”.
फिर मैंने उसके
बच्चों को तीस-तीस रूबल्स और दिए – सिनेमा देखने और चॉकलेट खरीदने के लिए, और
उनसे कहा :
“बेवकूफ़ नन्हे
उल्लूओं! ये मैंने तुम्हें इसलिए दिया है, कि तुम इस घड़ी को अच्छी तरह
याद रखो, और इसलिए कि तुम्हें ये पता चले कि आगे तुम्हें
कैसा बर्ताव करना है.”
दूसरे दिन मैं
सिम्फेरोपोल से निकल गया और रास्ते में सोचता रहा कि लोगों से प्यार करना चाहिए और
उन पर दया करनी चाहिए, कम से कम उन्हें, जो
अच्छे हैं. और कभी-कभी उन्हें कुछ गिफ्ट्स भी देने चाहिए. तब गिफ्ट देने वाले के
और उसे लेने वाले के दिल को अच्छा लगता है. और, जो लोगों को
कभी कुछ नहीं देते, बल्कि इसके बदले उनके लिए अप्रिय
परिस्थिति उत्पन्न करते हैं, - उनके दिल हमेशा उदास रहते हैं
और उनमें नफ़रत भर जाती है. ऐसे लोग भीतर ही भीतर घुलते हैं, सूख
जाते हैं और दिमाग़ी बीमारी से परेशान रहते हैं. उनकी याददाश्त कमज़ोर हो जाती है,
और बुद्धि कुन्द हो जाती ह. वो समय से पहले ही मर जाते हैं. जबकि
भले लोग, इसके विपरीत, लम्बी उम्र जीते
हैं और उनकी सेहत भी बढ़िया रहती है.
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