सोमवार, 30 सितंबर 2013

Neela Chaakoo


नीला चाकू
लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनु.: आ. चारुमति रामदास

बात यूँ हुई.
हमारी क्लास चल रही थी – सृजनात्मक कार्य की. रईसा इवानोव्ना ने कहा कि हममें से हर कोई अपनी मर्जी से एक-एक टेबल-कैलेंडर बनाएगा. मैंने एक गत्ते का टुकड़ा डिब्बा लिया, उस पर हरा कागज़ चिपकाया, बीच में एक झिरी काटी, उसमें माचिस की डिब्बी फिट की, और डिब्बी पर सफ़ेद कागज़ों की गड्डी रख दी, उन्हें ठीक से एडजस्ट किया, चिपकाया, एक से साइज़ का बनाया और पहले पन्ने पर लिखा: “पहली मई की शुभकामनाएँ!”
बड़ा ख़ूबसूरत कैलेंडर बना – छोटे बच्चों के लिए. अगर, मान लो, किसीके पास गुडिया हैं, तो इन गुड़ियों के लिए. मतलब, खिलौने वाला कैलेंडर. और रईसा इवानोव्ना ने मुझे ‘5’ अंक दिए.
वह बोलीं:
 “ मुझे अच्छा लगा.”
और मैं अपनी जगह पर आकर बैठ गया. इसी समय लेव्का बूरिन भी अपना कैलेंडर देने के लिए उठा, मगर रईसा इवानोव्ना ने उसके कैलेंडर को देखकर कहा:
 “अच्छा नहीं है.”
और उन्होंने लेव्का को ‘3’ अंक दिए.

जब शॉर्ट-इन्टर्वल हुआ तो लेव्का अपनी जगह पर ही बैठा रहा, उसके चेहरे पर अप्रसन्नता थी. और मैं, इत्तेफ़ाक से, इस समय धब्बा सुखा रहा था, और, जब मैंने देखा कि लेव्का इतना उदास है, तो सीधे हाथ में ब्लॉटिंग-पैड लिए लेव्का के पास चला गया. मैं उसे हँसाना चाहता था, क्योंकि वो मेरा दोस्त है और उसने एक बार मुझे छेद वाला सिक्का दिया था. और उसने वादा किया है कि वो मुझे इस्तेमाल किया हुआ शिकारी-कारतूस का केस भी लाकर देगा, ताकि मैं उससे एटॉमिक टेलिस्कोप बना सकूँ.
मैं लेव्का के पास गया और बोला:
 “ऐख, तू, रोतला!”
और मैंने भेंगी आँखों से उसकी ओर देखा.
मगर लेव्का ने बिना किसी वजह के मेरे सिर पर पेंसिल-बॉक्स दे मारा. तभी मैं समझा कि आँखों के सामने तारे कैसे कौंधने लगते हैं. मुझे लेव्का पर बेहद गुस्सा आया और मैं पूरी ताक़त से उसके कंधे पर ब्लॉटिंग-पैड से वार करने लगा. मगर , ज़ाहिर है, उसे कुछ महसूस ही नहीं हुआ, बल्कि उसने अपना बैग उठाया और घर चला गया. मगर लेव्का ने मुझे इतनी ज़ोर से मारा था कि मेरी आँखों से आँसू बहने लगे – आँसू सीधे टप-टप ब्लॉटिंग-पैड पर गिरने लगे और उस पर बदरंग धब्बों की तरह फ़ैलते रहे...
और तब मैंने तय कर लिया कि लेव्का को मार डालूँगा. स्कूल के बाद मैं पूरे दिन घर पे बैठा रहा और हथियार तैयार करता रहा. मैंने पापा की लिखने की मेज़ से उनका कागज़ काटने वाला नीला, प्लास्टिक का चाकू लिया और दिन भर उसे स्लैब पर तेज़ करता रहा. मैं उसे लगातार, बड़े धीरज से करता रहा. वह बड़े धीरे-धीरे तेज़ हो रहा था, मगर मैं उसे तेज़ करता रहा और सोच रहा था, कि कैसे मैं कल क्लास में आऊँगा और मेरा भरोसेमन्द चाकू लेव्का की आँखों के सामने चमकेगा, मैं उसे लेव्का के सिर के ऊपर ले जाऊँगा, और लेव्का घुटनों पर गिरकर मुझसे ज़िन्दगी की भीख माँगेगा, और मैं कहूँगा:
 “माफ़ी माँग!”
और वो कहेगा:
 “माफ़ कर दे!”
और मैं गरजते हुए ठहाका लगाऊँगा:
”हा-हा-हा-हा!”
और ये भयानक हँसी काफ़ी देर तक गूँजती रहेगी. और लड़कियाँ डर के मारे डेस्कों के नीचे छुप जाएँगी.
जब मैं  सोने के लिए लेटा, तो बस, इधर से उधर करवटें ही लेता रहा, गहरी-गहरी साँसें लेता रहा, क्योंकि मुझे लेव्का पर दया आ रही थी – अच्छा इन्सान है वो, मगर जब उसने पेन्सिल-बॉक्स से मेरे सिर पर हमला किया था, तो अब - जैसा किया था वैसा भुगते. नीला चाकू मेरे तकिए के नीचे पड़ा था, और मैं उसकी मूठ दबाए क़रीब-क़रीब कराह रहा था, इसलिए मम्मा ने पूछा:
 “ तू ये कराह क्यों रहा है?”
मैंने कहा:
 “कुछ नहीं.”
मम्मा ने कहा:
 “क्या पेट दुख रहा है?”
मगर मैंने उसे कोई जवाब नहीं दिया, सिर्फ मैं दीवार की ओर मुँह करके लेट गया और इस तरह सांस लेने लगा, जैसे मैं बड़ी देर से सो रहा हूँ.
सुबह मैं कुछ भी न खा सका. बस, ब्रेड-बटर, आलू और सॉसेज के साथ दो कप चाय पी गया. फिर स्कूल चला गया.
नीला चाकू मैंने बैग में सबसे ऊपर ही रखा, जिससे कि निकालने में आसानी हो.
क्लास में जाने से पहले मैं बड़ी देर तक दरवाज़े के पास खड़ा रहा और भीतर न जा सका - दिल इतनी ज़ोर से धड़क रहा था! मगर फिर भी अपने आप पर काबू पाते हुए मैंने दरवाज़े को धक्का दिया और अन्दर गया. क्लास में सब कुछ हमेशा की तरह ही था, और लेव्का वालेरिक के साथ खिड़की के पास खड़ा था. जैसे ही मैंने उसे देखा मैं अपनी बैग खोलने लगा, जिससे कि चाकू निकाल सकूँ. मगर इसी समय लेव्का भागकर मेरे पास आया... मैंने सोचा कि वह फिर मुझे मारेगा पेन्सिल-बॉक्स से या किसी और चीज़ से, और मैं और भी ज़्यादा तेज़ी से अपनी बैग खोलने लगा, मगर लेव्का अचानक रुक गया और वहीं खड़े-खड़े पैर पटकने लगा, फिर अचानक मेरी ओर झुका...नीचे-नीचे और बोला:
 “ले!”
और उसने मेरी ओर सुनहरी इस्तेमाल की हुई कारतूस बढ़ा दी. और उसकी आँखें ऐसी हो गईं, जैसे वो कुछ और भी कहना चाह रहा हो, मगर शर्मा रहा हो. मैं भी तो नहीं चाहता था कि वह कुछ और कहे, मैं तो बस पूरी तरह भूल गया कि मैं उसे मार डालना चाहता था, जैसे कि मैं ऐसा कभी भी नहीं चाहता था, बल्कि मुझे आश्चर्य भी हुआ.
 मैंने कहा:
 “बढ़िया है कारतूस.”
 मैंने कारतूस ले लिया और अपनी जगह पे चला गया.

   ....

शनिवार, 28 सितंबर 2013

Aisa kaheen dekha hai....

“ ऐसा कहीं देखा है, ऐसा कहीं सुना है...”

लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनु. : आ. चारुमति रामदास

शॉर्ट इंटरवल में हमारी ऑक्टोबर-लीडर ल्यूस्या भागकर मेरे पास आई और बोली:
 “डेनिस्का, क्या तू कॉन्सर्ट में हिस्सा लेगा? हमने दो छोटे बच्चों को तैयार करने का फ़ैसला किया है, ताकि वे व्यंग्यकार बनें. तैयार है?”
मैंने कहा:
 “मैं सब करना चाहता हूँ! बस, तू इतना समझा दे कि ये व्यंग्यकार मतलब क्या होता है.”
ल्यूस्या ने समझाया:
 “देख, हमारे यहाँ कई सारी ख़ामियाँ हैं...मतलब, मिसाल के तौर पर, ऐसे बच्चे जिन्हें बस ‘दो’ नम्बर मिलते हैं, या कुछ बच्चे आलसी होते हैं - उनकी बुराई करनी है. समझ गया? उनके बारे में कविता पढ़नी है, जिससे सब हँसने लगें, इसका उन पर गहरा असर पड़ता है, वे होश में आ जाते हैं.”
मैंने कहा:
 “वे कोई शराबी थोड़े ही ना हैं, जो उन्हें होश में लाया जाए, वे बस, आलसी हैं”
 “अरे, ऐसा कहते हैं: ‘होश में लाना’ – हँसने लगी ल्यूस्या. “असल में ये बच्चे सोचने लगेंगे, उन्हें अटपटा लगने लगेगा, और वे सुधर जाएँगे. अब समझ में आया? तो, अब, ज़्यादा नख़रे न दिखा : अगर चाहता है – तो हाँ कर दे ; नहीं चाहता – मना कर दे!”
मैंने कहा:
  “ठीक है, चलेगा!”
तब ल्यूस्या ने पूछा:
 “क्या तेरा कोई पार्टनर है?”
 “नहीं.”
ल्यूस्या को बड़ा अचरज हुआ:
 “तू बिना दोस्त के कैसे रहता है?”
 “दोस्त तो मेरा है, मीश्का. मगर पार्टनर नहीं है.”
ल्यूस्या फिर से मुस्कुराई:
 “ये तो एक ही बात है. और क्या वो म्युज़िकल है, तेरा ये मीश्का?”
 “नहीं, साधारण है.”
 “गाना गा सकता है?”
 “बहुत धीमे-धीमे. मगर मैं उसे ज़ोर से गाना सिखाऊँगा, तू परेशान न हो.”
अब ल्यूस्या खुश हो गई.
 “क्लास ख़त्म होने के बाद उसे छोटे हॉल में ले आ, वहाँ प्रैक्टिस होगी!”
और मैं पूरी रफ़्तार से मीश्का को ढूँढ़ने के लिए भागा. वो कैंटीन में खड़ा था और सॉसेज खा रहा था.
 “मीश्का, व्यंग्यकार बनना चाहता है?”
मगर उसने कहा:
 “रुक जा, खाने दे.”
मैं खड़ा होकर देखने लगा कि वो कैसे खाता है. ख़ुद तो इतना छोटा है, और सॉसेज उसकी गर्दन से भी मोटा है. उसने इस सॉसेज को हाथों में पकड़ रखा था और पूरा, बिना काटे, उसे खा रहा था, और जब वह उसे कुतरता तो उसकी पपड़ी चटख़ रही थी और टूट रही थी, और वहाँ से गर्म, ख़ुशबूदार रस उड़ता.
अब तो मुझसे भी रहा न गया और मैंने कात्या आण्टी से कहा:
 “मुझे भी सॉसेज दीजिए, प्लीज़, जल्दी से!”
और कात्या आण्टी ने फ़ौरन मेरी ओर बाउल बढ़ा दिया. मैं बहुत जल्दी-जल्दी खा रहा था, जिससे कि मीश्का मुझसे पहले अपना सॉसेज ख़त्म न कर ले : मुझे अकेले तो वह इतना मज़ेदार नहीं लगता. तो, मैंने भी अपना सॉसेज हाथों में पकड़ा और मैं भी बिना साफ़ किए उसे कुतरने लगा, और उसमें से भी  गर्म-गर्म, ख़ुशबूदार रस निकल रहा था. हम दोनों इस तरह से अपना-अपना भाप निकलता हुआ सॉसेज खा रहे थे, हाथ जला रहे थे, एक दूसरे की ओर देखे जा रहे थे और मुस्कुरा रहे थे.
फिर मैंने उसे बताया कि हम व्यंग्यकार बनेंगे, और वो राज़ी हो गया ; हम बड़ी मुश्किल से क्लासेस ख़त्म होने तक बैठे, फिर छोटे हॉल में प्रैक्टिस के लिए भागे.
वहाँ हमारी लीडर ल्यूस्या पहले से ही बैठी हुई थी, और उसके साथ एक लड़का था, शायद चौथी क्लास का होगा, बेहद बदसूरत, छोटे-छोटे कान और बड़ी-बड़ी आँखों वाला.
ल्यूस्या ने कहा:
 “ये रहे वो दोनों! इससे मिलो, ये है हमारे स्कूल का कवि अन्द्रेइ शेस्ताकोव.”
हमने कहा:
 “ बहुत अच्छे!”
और हम दूसरी ओर देखने लगे जिससे कि वह शान न बघारे.
मगर उस कवि ने ल्यूस्या से कहा:
 “ये क्या गाने वाले बच्चे हैं?”
 “हाँ.”
 उसने कहा:
 “क्या इनसे अच्छे और कोई नहीं मिले?”
ल्यूस्या ने कहा:
” ये बिल्कुल वैसे ही हैं जैसी हमें ज़रूरत है!”
अब वहाँ आए हमारे म्यूज़िक-टीचर बोरिस सेर्गेयेविच. वह सीधे पियानो की ओर गए:
”तो, चलो, शुरू करते हैं! कविता कहाँ है?”
अन्द्रूश्का ने जेब से कोई कागज़ निकाला और कहा:
”ये रही. मैंने मुखड़ा और मात्राएँ ली हैं मार्शाक की कविता ‘किस्सा गधे का, दादा का और पोते का : ऐसा कहीं देखा है, ऐसा कहीं सुना है...’ से.”
बोरिस सेर्गेयेविच ने सिर हिलाया:
 “पढ़ के सुना!”
अन्द्र्यूश्का पढ़ने लगा:

वास्या के पापा मैथ्स में हैं पक्के,
पापा पढ़ें पूरे साल वास्या के बदले.
ऐसा कहीं देखा है, ऐसा कहीं सुना है,
पापा करें सवाल और वास्या हो ‘पास’?!
मैं और मीश्का अपने आप को रोक न सके और खिलखिलाने लगे. बेशक, बच्चे अक्सर अपने मम्मी-पापा से सवाल हल करने को कहते हैं, और फिर उसे इस तरह टीचर को दिखाते हैं, जैसे वे ख़ुद ही इतने होशियार हैं. मगर यदि उन्हें ब्लैक-बोर्ड पर यही करने के लिए बुलाया जाता है, तो टाँय-टाँय फिस्! – ‘दो’ नम्बर मिलते हैं! ये बात सबको मालूम है. शाबाश अन्द्र्यूश्का, अच्छा पकड़ लिया!
अन्द्र्यूश्का आगे पढ़ता है:

चॉक से बने हैं फर्श पे चौख़ाने
मानेच्का और तानेच्का कूदती हैं वहाँ.
ऐसा कहीं देखा है, ऐसा कहीं सुना है,
‘क्लासों’ में खेलें और क्लास में न जाएँ?!  
फिर से बढ़िया! हमें बहुत अच्छा लगा! ये अन्द्र्यूशा तो वाक़ई में असली जीनियस है, पूश्किन की तरह!
बोरिस सेर्गेयेविच ने कहा:
 “ठीक है, बुरा नहीं है! और म्यूज़िक होगा एकदम सिम्पल, कुछ इस तरह का,” और उन्होंने अन्द्र्यूशा की कविता ली, और हौले-हौले पियानो बजाते हुए, उसे गाकर सुना दिया.
बहुत ही आसान था, हम तालियाँ भी बजाने लगे.
अब बोरिस सेर्गेयेविच ने कहा:
 “गा कौन रहा है?”
और ल्यूस्या ने मेरी और मीशा की ओर इशारा किया.
 “ये रहे! “
 “हुम् ,” बोरिस सेर्गेयेविच ने कहा, “मीश्का अच्छा गाता है...मगर देनिस्का कोई ज़्यादा अच्छा नहीं गाता.”
मैंने कहा, “मगर ज़ोर से गाता हूँ.”
और हमने म्यूज़िक के साथ कविता गानी शुरू कर दी और उसे दुहराते रहे, शायद पचास या फिर हज़ार बार दुहराई होगी, और मैं खूब ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा था, सब मुझे शांत कर रहे थे और कुछ-कुछ कह रहे थे:
 “तू घबरा मत! तू थोड़ा धीमी आवाज़ में गा! शांति से! इतनी ज़ोर से गाने की ज़रूरत नहीं है!”
अन्द्र्यूश्का बहुत ज़्यादा परेशान हो रहा था. वो मुझे बहुत परेशान कर रहा था. मगर मैं सिर्फ ज़ोर से ही गाए जा रहा था, मैं धीमी आवाज़ में गाना नहीं चाहता था, क्योंकि असली गाना तो तब होता है जब ज़ोर से गाया जाता है!
...और एक दिन, जब मैं स्कूल पहुँचा, मैंने क्लोक-रूम में नोटिस देखा:
अटेन्शन!
आज बड़े इन्टरवल में
छोटे हॉल में होगा
छोटा सा प्रोग्राम
”पायनियर-व्यंग्यकार’ का!
पेश करेगी - बच्चों की जोड़ी!
सामयिक-समस्या पर!
सब लोग आईये!

मेरे दिल की धड़कन रुक गई. मैं क्लास में भागा. वहाँ मीश्का बैठा था और खिड़की से बाहर देख रहा था.
मैंने कहा:
 “तो, आज हमें गाना है!”
मगर मीश्का अचानक बड़बड़ाया:
 “मेरा दिल नहीं चाह रहा है गाने को...”
मैं तो जैसे गूँगा हो गया. क्या – दिल नहीं चाहता? ये क्या बात हुई? हमने तो प्रैक्टिस की थी? ल्यूस्या और बोरिस सेर्गेयेविच क्या कहेंगे? अन्द्र्यूश्का? और सारे बच्चे, उन्होंने तो नोटिस पढ़ लिया है और वे सब एक साथ भाग कर पहुँच जाएँगे? मैंने कहा:
 “तू, क्या पागल हो गया है? लोगों को बेवकूफ़ बनाएँगे?”
 मगर मीश्का ने बड़ी दयनीयता से कहा:
 “शायद, मेरे पेट में दर्द हो रहा है.”
मैंने कहा:
 “ये डर के मारे है. मेरा पेट भी दुख रहा है, मगर मैं तो इनकार नहीं कर रहा हूँ!”
मगर मीश्का खोया-खोया ही रहा. बड़े इन्टरवल में सारे बच्चे छोटे हॉल की ओर लपके, मगर मैं और मीश्का बड़ी मुश्किल से घिसटते हुए चल रहे थे, क्योंकि मेरी भी गाने की इच्छा ख़तम हो गई थी. मगर तभी ल्यूस्या भागकर हमारे पास आई, उसने कस कर हमारे हाथ पकड़ लिए और खींचते हुए हमें अपने साथ ले चली, मगर मेरे पैर इतने नर्म हो गए थे जैसे किसी गुड़िया के होते हैं, और वे लड़खड़ाने लगे. मुझ पर ये, शायद, मीश्का का असर हो गया था.
हॉल में पियानो के लिए एक जगह बनाई गई थी, और चारों तरफ़ सभी कक्षाओं के बच्चों की, आयाओं की, और टीचर्स की भीड़ जमा थी.
मैं और मीश्का पियानो के पास खड़े हो गए.
बोरिस सेर्गेयेविच पहले ही अपनी जगह पर बैठ चुके थे, और ल्यूस्या ने अनाउन्सर जैसी आवाज़ में घोषणा की:
  “सामयिक विषयों पर “पायनियर-व्यंग्यकार” का प्रोग्राम शुरू करते हैं. स्क्रिप्ट लिखी है अन्द्रेइ शेस्ताकोव ने, और इसे पेश कर रहे हैं जाने-माने व्यंग्यकार मीशा और डेनिस! आइए!”
मैं और मीश्का थोड़ा आगे निकल कर खड़े हो गए. मीशा दीवार की तरह सफ़ेद हो गया था. मगर मैं, ठीक ही था, बस, मेरे गले में ख़राश हो रही थी और वह सूख गया था.
बोरिस सेर्गेयेविच ने बजाना शुरू किया. शुरूआत मीश्का को करनी थी, क्योंकि पहली दो पंक्तियाँ वो ही गाता था, और बाद की दो पंक्तियाँ मुझे गानी होती थीं. तो, बोरिस सेर्गेयेविच  बजा रहे हैं, और मीश्का ने बायाँ हाथ एक ओर को निकाला, जैसा कि उसे ल्यूस्या ने सिखाया था, और अब उसे गाना था, मगर देर हो गई, और जब वो बस गाने ही वाला था, तो इतने में मेरी बारी आ गई, पियानो पर चल रहे म्यूज़िक के अनुसार ऐसा हुआ था. मगर मैंने नहीं गाया, क्योंकि मीशा ने देर कर दी थी. कैसे गाता!
तब मीश्का ने अपना हाथ वापस नीचे कर लिया. और बोरिस सेर्गेयेविच ने फिर से ज़ोर-ज़ोर से और साफ़-साफ़ बजाना शुरू किया.
उन्होंने पियानो की कुंजियों पर तीन बार मारा, जैसा कि उन्हें करना था, और चौथी बार में मीश्का ने फिर से बायाँ हाथ बाहर निकाला और आख़िरकार गाने लगा:
    
वास्या के पापा मैथ्स में हैं पक्के,
पापा पढ़ें पूरे साल वास्या के बदले.

मैंने फ़ौरन पकड़ लिया और चिल्लाने लगा:
ऐसा कहीं देखा है, ऐसा कहीं सुना है,
पापा करें सवाल और वास्या हो ‘पास’?!

हॉल में मौजूद सब लोग हँसने लगे, और मुझे इससे कुछ राहत मिली. और बोरिस सेर्गेयेविच आगे बजाने लगे. उन्होंने फिर से तीन बार कुंजियों पर ज़ोर-ज़ोर से मारा, और चौथी बार में मीशा ने सफ़ाई से बायाँ हाथ एक ओर को निकाला और न जाने क्यों फिर से शुरू से गाने लगा:
वास्या के पापा मैथ्स में हैं पक्के,
पापा पढ़ें पूरे साल वास्या के बदले.

मैं फ़ौरन समझ गया कि उससे गलती हो गई है! मगर जब बात ये थी तो मैंने भी तय कर लिया कि मैं इसी को आख़ीर तक गाऊँगा, फिर बाद की बाद में देखी जाएगी. मैं लपका और गाने लगा: 

ऐसा कहीं देखा है, ऐसा कहीं सुना है,
पापा करें सवाल और वास्या हो ‘पास’?!

ख़ुदा का शुक्र है कि हॉल में ख़ामोशी थी – ज़ाहिर था, कि सब मीशा की गलती को समझ गए हैं, और सोच रहे थे कि “कोई बात नहीं, होता है; चलो, अब आगे गाने दो.”
और इस बीच म्यूज़िक तो आगे-आगे भागा जा रहा था. मगर मीश्का के चेहरे का रंग कुछ हरा-सा हो गया.
और जब म्यूज़िक उस जगह पर पहुँचा, उसने अपना बायाँ हाथ झटका, और घिस गई रेकॉर्ड की तरह तीसरी बार गाने लगा:
वास्या के पापा मैथ्स में हैं पक्के,
पापा पढ़ें पूरे साल वास्या के बदले.

मेरा दिल तो कर रहा था कि उसके सिर पर कोई ज़ोरदार चीज़ दे मारूँ, और मैं भयानक तैश से गरजा:

ऐसा कहीं देखा है, ऐसा कहीं सुना है,
पापा करें सवाल और वास्या हो ‘पास’?!

“मीश्का, देख, तूने तो पूरी गड़बड़ कर दी है! तू ये तीसरी बार भी वही-वही क्या गाए जा रहा है? चल, आगे, लड़कियों के बारे में गा!
मगर मीश्का ने धृष्ठता से कहा:
 “तुझे कुछ बताने की ज़रूरत नहीं है!” और उसने बड़े अदब से बोरिस सेर्गेयेविच से कहा: “प्लीज़, बोरिस सेर्गेयेविच, आगे बजाइए!”
बोरिस सेर्गेयेविच ने बजाना शुरू किया, और मीश्का में अचानक हिम्मत आ गई, उसने फिर से अपना बायाँ हाथ बाहर निकाला और चौथी बार पर ऐसे गाने लगा, जैसे कुछ हुआ ही न हो:

वास्या के पापा मैथ्स में हैं पक्के,
पापा पढ़ें पूरे साल वास्या के बदले....

अब तो पूरे हॉल में ज़ोर-ज़ोर से ठहाके लगने लगे, और मैंने भीड़ में देखा कि अन्द्र्यूश्का का चेहरा कितना दुखी हो रहा था, और ये भी देखा कि ल्यूस्या, पूरी तरह लाल और बिफ़री हुई, भीड़ में से हमारी ओर आ रही है. और मीश्का का मुँह खुला ही रह गया है, जैसे वह खुद पर ही अचरज कर रहा है. इस बीच मैंने, समझदारी से काम लेते हुए चिल्लाकर पूरा किया:

ऐसा कहीं देखा है, ऐसा कहीं सुना है,
पापा करें सवाल और वास्या हो ‘पास’?!

अब तो जैसे कोई भयानक बात हो गई. सब इस तरह ठहाके लगा रहे थे, जैसे उन पर दौरा पड़ा हो, और मीश्का का रंग हरे से बैंगनी हो गया. हमारी ल्यूस्या ने उसका हाथ पकड़ कर उसे अपनी ओर खींच लिया. वह चिल्लाई:
 “डेनिस्का, तू अकेले ही गा! हमें नीचा ना दिखा!...म्यूज़िक! और!...”
और मैं खड़ा हूँ पियानो के पास और मैंने फ़ैसला कर लिया है कि मैं उसे नीचा नहीं दिखाऊँगा. मुझे महसूस हुआ कि मेरे लिए ये कोई बड़ी बात नहीं है, और, जब म्यूज़िक उस जगह तक आया, तो न जाने क्यों मैंने भी अचानक अपना बायाँ हाथ बाहर को निकाला और एकदम बेसोचेसमझे चिंघाड़ने लगा:

वास्या के पापा मैथ्स में हैं पक्के,
पापा पढ़ें पूरे साल वास्या के बदले....
मुझे तो अच्छी तरह याद भी नहीं है कि आगे क्या हुआ, कुछ-कुछ ज़लज़ले की तरह हो रहा था. और मैं सोच रहा था कि अभ्भी मैं ज़मीन में समा जाऊँगा, और चारों ओर सब लोग हँसी के मारे एक दूसरे पर गिरे जा रहे थे – आयाएँ, और टीचर्स, और सब, सब, सब...
मुझे तो अचरज भी होता है कि मैं इस नासपीटे गाने की वजह से मर कैसे नहीं गया.
शायद मर ही जाता, अगर उसी समय घंटी न बजी होती...
अब मैं कभी भी व्यंग्यकार नहीं बनूँगा!

....

सोमवार, 23 सितंबर 2013

Masha aur Choohe

माशा और चूहे

लेखक: अलेक्सेइ टॉल्स्टॉय
अनु.: आ. चारुमति रामदास


 “सो जा, माशा,” आया कह रही है, “नींद में आँखें न खोल, वर्ना आँखों पे बिल्ली कूद पड़ेगी.”
 “कौन सी बिल्ली?”
 “काली, नुकीले पंजों वाली.”
माशा ने फ़ौरन आँखें भींच लीं. और आया सन्दूक पर चढ़ गई, थोडी सी कराही, थोड़ी-सी करवट लीं और नाक से उनींदे गीत गाने लगी. माशा ने सोचा कि आया नाक से लैम्प में तेल डाल रही है. थोड़ी देर  सोचा और उसकी आँख लग गई.
तब खिड़की से बाहर टिमटिमाते सितारों के घने-घने झुंड़ बिखर गए, छत के पीछे से चांद निकल कर चिमनी के पाइप पर बैठ गया.
 “नमस्ते, सितारों,” माशा ने कहा.
सितारे गोल-गोल घूमते रहे, घूमते रहे, घूमते रहे. माशा देखती है – उनकी तो पूंछें हैं और छोटे-छोटे पंजे हैं. ये सितारे नहीं हैं, बल्कि सफ़ेद चूहे हैं जो चाँद के चारों ओर भाग रहे हैं.

अचानक चाँद के नीचे पाइप से धुँआ निकलने लगा, फिर एक कान बाहर आया, इसके बाद पूरा सिर – काला, मूँछों वाला. चूहों में भगदड़ मच गई और एक साथ वे सब छुप गए. सिर पाइप से बाहर रेंगा और कमरे में काली बिल्ली हौले से कूदी.
पूँछ घसीटती हुई, बड़े-बड़े कदमों से अन्दर आई, पलंग के नज़दीक, और नज़दीक; रोओं से चिनगारियाँ फूट रही थीं.
 “आँखें नहीं खोलनी चाहिए,” माशा सोचती है.
मगर बिल्ली उछल कर उसके सीने पर आ गई, बैठी, पंजे टिका दिए, गर्दन बाहर निकाली, देखती रही.

माशा की आँखें ख़ुद-ब-ख़ुद खुलने लगीं.
 “आ--या,” वो फुसफुसाती है, “आ—या-“
 “आया को तो मैंने खा लिया,” बिल्ली कहती है, “और मैंने सन्दूक भी खा लिया.”
माशा थोड़ी-थोड़ी आँखें खोलती है, बिल्ली ने कान भी बन्द कर दिए. और वह कैसे तो छींकी.

माशा चीखी, और सारे सितारे-चूहे वापस लौट आए, न जाने कहाँ-कहाँ से; उन्होंने बिल्ली को घेर लिया.

बिल्ली माशा की आँखों पर कूदना चाहती है – चूहे उसके मुँह में, बिल्ली चूहे खा जाती है, उन्हें मसल देती है, और ख़ुद चाँद पाइप से फिसल कर तैरते हुए पलंग की ओर आता है, चाँद के ऊपर है आया का स्कार्फ़ और मोटी नाक.
 “प्यारी आया,” माशा रोती है, “ तुझे बिल्ली खा गई.” और उठकर बैठ गई.

वहाँ ना तो बिल्ली है, ना ही चूहे हैं; और चाँद दूर, बादलों के पीछे तैर रहा है. सन्दूक के ऊपर मोटी आया नाक से उनींदे गीत गा रही है.
 “बिल्ली ने आया को बाहर थूक दिया और सन्दूक को भी थूक दिया,” माशा ने सोचा और कहा:
 “धन्यवाद तुझे, ऐ चाँद, और तुम्हें भी, जगमगाते सितारों!”


...

रविवार, 22 सितंबर 2013

Oopar-neeche....

ऊपर-नीचे, आड़े-तिरछे!

लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनु. : आ. चारुमति रामदास

उस साल गर्मियों में, जब मैं अभी स्कूल नहीं जाता था, हमारे कम्पाउण्ड में मरम्मत का काम चल रहा था. चारों ओर ईंटें और लकड़ी के फ़ट्टे पड़े हुए थे और कम्पाउण्ड के बीचोंबीच रेत का एक बड़ा ढेर लगा था. और इस ढेर पर हम ‘मॉस्को के निकट फ़ासिस्टों की हार’ नामक खेल खेलते थे, या किले बनाते या यूँ ही कुछ-कुछ खेलते.

हमें बहुत अच्छा लगता था, और हमने मज़दूरों से दोस्ती भी कर ली थी, हम मरम्मत के काम में उनकी मदद भी करते थे : एक बार मैं प्लम्बर-अंकल ग्रीशा के लिए उबले हुए पानी की केतली लाया, और दूसरी बार अल्योन्का ने इलेक्ट्रिशियन्स को बताया कि हमारा चोर-दरवाज़ा कहाँ है. हम और भी बहुत सारी मदद करते थे, बस अब इस समय मुझे हर चीज़ याद नहीं है.
और फिर पता ही नहीं चला कि मरम्मत का काम कब पूरा हो चला, एक के बाद एक मज़दूर जाने लगे, अंकल ग्रीशा ने हाथ पकड़कर हमसे बिदा ली, उसने मुझे लोहे का एक भारी टुकड़ा गिफ्ट में दिया और वो भी चला गया.     

और अंकल ग्रीशा की जगह कम्पाउण्ड में आईं तीन लड़कियाँ. उन सबने बड़े बढ़िया कपड़े पहने थे : आदमियों जैसी लम्बी-लम्बी पतलूनें पहनी थीं, जिन पर अलग-अलग तरह के रंग लगे थे और वे एकदम कड़क थीं. जब ये लड़कियाँ चलतीं से तो उनकी पतलूनें ऐसी गरजतीं जैसे छत पर पड़ी लोहे की चादर गरजती है. इन लड़कियों ने सिर पे अख़बारों की टोपियाँ पहनी थीं. ये लड़कियाँ पेंटर थीं और उन्हें कहते थे ब्रिगेड. वे बड़ी ख़ुशमिजाज़ और फुर्तीली थीं, उन्हें हँसना अच्छा लगता था और वे हमेशा ‘वादी के फूल, वादी के फूल’ गाती रहती थीं. मगर मुझे ये गाना अच्छा नहीं लगता. और अल्योन्का को भी. और मीश्का को भी ये पसन्द नहीं है. मगर हम सबको ये देखना अच्छा लगता था कि ये पेंटर-लड़कियाँ कैसे काम करती हैं और कैसे उनका हर काम एकदम सही और साफ़-सुथरा होता है. हमें पूरी ब्रिगेड के नाम मालूम थे. उनके नाम थे सान्का, राएच्का और नेल्ली.
और एक दिन जब हम उनके पास पहुँचे तो सान्या आंटी ने कहा, “बच्चों, भाग कर जाओ, और कहीं से पता करो कि कितने बजे हैं.”
मैं भाग कर गया, पता कर के आया और कहा, “बारह बजने में पाँच मिनट हैं, सान्या आंटी...”
उसने कहा, “शाबाश, बच्चों! मैं – डाइनिंग हॉल चली!” - और वह कम्पाउण्ड से चली गई.
उसके पीछे-पीछे राएच्का आंटी और नेल्ली आंटी भी लंच करने चली गईं.
और रंग वाली छोटी बैरल वहीं छोड़ गईं. और रबर का होज़-पाइप भी.
हम फ़ौरन नज़दीक गए और बिल्डिंग के उस हिस्से को देखने लगे जहाँ पर उन्होंने अभी-अभी रंग लगाया था. बहुत बढ़िया था : एक-सा और भूरा, थोड़ी सी लाली लिए. मीश्का ने देखा, देखा और फिर कहने लगा, “
 “मज़ेदार है, और अगर मैं पम्प मारूँ, तो क्या रंग निकलेगा?”
अल्योन्का ने कहा, “शर्त लगाते हैं, नहीं निकलेगा!”
तब मैंने कहा, “और हम शर्त लगाते हैं कि निकलेगा!”
अब मीश्का ने कहा, “बहस करने की ज़रूरत नहीं है. मैं अभ्भी कोशिश करता हूँ. पकड़, डेनिस्का, ये होज़-पाइप, और मैं पम्प मारता हूँ.”
और वो लगा पम्प मारने. एक बार – दो बार - तीन बार मारा, और अचानक पाइप में से रंग बाहर भागने लगा! वो फुसफुसा रहा था, साँप की तरह, क्योंकि पाइप के सिरे पर सुराखों वाली टोपी थी, जैसे पौधों को पानी देने वाले फुहारे में होती है. सिर्फ यहाँ सुराख़ बहुत ही छोटे-छोटे थे, और रंग इस तरह निकल रहा था, जैसे हेयर कटिंग सेलून में यूडीकोलोन निकल रहा हो, बस वो थोड़ा सा दिखाई दे रहा था.
मीश्का ख़ुश हो गया और चीख़ा, “पेंट कर जल्दी! जल्दी से कुछ पेंट कर!”
मैंने फ़ौरन पाइप को साफ़ दीवार की ओर घुमा दिया. रंग की फुहार निकलने लगी, और वहाँ फ़ौरन हल्का-भूरा दाग बन गया – मकड़ी जैसा. 
 “हुर्रे!” अल्योन्का चिल्लाई. “चल गया! चल गया! – दौड़ने लगा!” और उसने अपना पैर रंग के नीचे रख दिया.
 मैंने फ़ौरन घुटने से उँगलियों तक उसका पैर रंग दिया. फ़ौरन, हमारी ही आँखों के सामने, पैर से खरोंचों के निशान और नील गायब हो गए! उल्टे, अल्योन्का का पैर इतना चिकना, भूरा-भूरा, चमकदार हो गया, जैसा नया, चमचमाता गेंदों वाले खेल का डंडा.
मीश्का चिल्लाया, “बढ़िया हो रहा है! दूसरा पैर भी रख, जल्दी!”
और अल्योन्का ने ज़िन्दादिली से दूसरा पैर भी रख दिया, और मैंने पल भर में उसे ऊपर से नीचे तक दो बार रंग दिया.  
तब मीश्का ने कहा, “भले इन्सानों, कितना ख़ूबसूरत है! पैर तो ऐसे हो रहे हैं जैसे सचमुच के रेड-इंडियन के हों! रंग दे उसे, जल्दी!”
 “पूरी? पूरी की पूरी रंग दूँ? सिर से पैर तक?”
और अल्योन्का भी जोश में चीख़ी, “चलो, भले इन्सानों! रंग दो सिर से पैर तक! मैं सचमुच की रेड-इंडियन बन जाऊँगी.”
तब मीश्का पम्प पर पिल पड़ा और पूरी ताक़त और जोश से चलाने लगा, और मैं अल्योन्का पर रंग की बौछार करने लगा. मैंने बड़ी ख़ूबसूरती से उसे रंग डाला : उसकी पीठ, और उसके पैर, और हाथ, और कंधे, और पेट, और उसके शॉर्ट्स भी. और वो पूरी भूरी हो गई, सिर्फ बाल सफ़ेद-सफ़ेद  रह गए थे.
 मैंने पूछा, “मीश्का, क्या ख़याल है, बाल भी रंग दूँ?”
मीश्का ने जवाब दिया, “बेशक! रंग, ज---ल्दी! फ़ौरन रंग डाल!”
और अल्योन्का भी जल्दी मचाने लगी, “चल-चल! बाल भी रंग दे! और कान भी!”
मैंने जल्दी-जल्दी उसका रंग पूरा किया और कहा, “जा, अल्योन्का, सूरज में सुखा ले! ऐख़, अब और क्या रंगा जाए?”
और मीश्का बोला, “वो, देख रहा है, हमारे कपड़े सूख रहे हैं? रंग उन्हें भी फ़ौ--रन!”
मगर ये काम मैंने फ़ौरन पूरा कर लिया! दो तौलिए और मीश्का की कमीज़ मैंने सिर्फ एक ही मिनट में ऐसे रंग दी कि देखने में भी बहुत प्यारा लग रहा था!
और मीश्का पर तो मानो भूत चढ़ गया, वह इस तरह से पम्प मारने लगा जैसे कारख़ाने का मज़दूर हो. और सिर्फ चिल्लाए ही जा रहा था, “ चल, रंग! जल्दी से! ये नया दरवाज़ा है, देख, हमारा फ्रंट-डोअर, चल, चल, जल्दी से रंग दे!”
और मैं दरवाज़े पर आया. ऊपर से नीचे! नीचे से ऊपर! ऊपर से नीचे, आड़े-तिरछे!
मगर तभी अचानक दरवाज़ा खुला, और उसमें से हमारा केयर-टेकर अलेक्सेइ अकीमिच सफ़ेद सूट में निकला.
वह तो बस बुत बन गया. और मैं भी. हम दोनों पर मानो किसी ने जादू कर दिया हो. ख़ास बात ये थी कि मैं उस पर रंग डाले जा रहा था और डर के मारे होज़-पाइप दूर हटाने की बात भी समझ नहीं सका, बस उसे घुमाए जा रहा था: ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर. और उसकी आँखें चौड़ी हो गईं, मगर उसके भी दिमाग में नहीं आया कि कम से कम एक कदम ही दाएँ या बाएँ हट जाए...
और मीश्का है कि पम्प मारे जा रहा है और अपना ही राग अलापे जा रहा है, “रंग, और जल्दी! चल, रंग दे!”
और अल्योका बाज़ू से नाचते हुए बाहर आई:
 “मैं रेड-इंडियन! मैं रेड-इंडियन!”
भयानक!
.... हाँ, जम के ली गई थी हमारी ख़बर. मीश्का पूरे दो हफ़्ते तक कपड़े धोता रहा. और अल्योन्का को न जाने कितनी बार टरपेंटाइन से घिस-घिस के नहलाया गया...
अलेक्सेइ अकीमिच को नया सूट ख़रीद कर दिया गया. और मम्मा तो मुझे बिल्कुल कम्पाउण्ड में जाने ही नहीं देना चाहती थी, मगर मैं किसी तरह निकल ही गया. सान्या आंटी, राएच्का आंटी और नेल्ली आंटी ने मुझसे कहा, “ बड़ा हो जा, डेनिस, जल्दी से बड़ा हो जा, हम तुझे अपनी ब्रिगेड में ले लेंगे. पेंटर    
बनेगा!”
और तब से मैं जल्दी-जल्दी बड़ा होने की कोशिश कर रहा हूँ.

...  .  

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

Uncle Pavel

           पावेल अंकल

लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनु.: आ. चारुमति रामदास

जब मारिया पेत्रोव्ना हमारे कमरे में भागती हुई आई, तो वह पहचानी नहीं जा रही थी. वह पूरी लाल हो रही थी, बिल्कुल मिस्टर टमाटर की तरह. वह तेज़-तेज़ साँस ले रही थी. उसे देखकर ऐसा लग रहा था, जैसे वह पूरी उबल रही हो, बर्तन में उबलते सूप की तरह. जैसे ही वह तीर की तरह हमारे घर में घुसी, फ़ौरन चीख़ी:
 “लो, हो गई छुट्टी!” और दीवान पर ढेर हो गई.
मैंने कहा, “नमस्ते, मारिया पेत्रोव्ना!”
उसने जवाब दिया, “हाँ, हाँ.”
 “क्या हुआ है?” मम्मा ने पूछा, “चेहरा कैसा तो हो रहा है!”
 “आप सोच सकती हैं? मरम्मत!” मारिया पेत्रोव्ना फूट पड़ी और मम्मा की ओर देखने लगी. वो बिल्कुल रोने-रोने को हो रही थी.
मम्मा मारिया पेत्रोव्ना की ओर देख रही थी, मारिया पेत्रोव्ना मम्मा की ओर, और मैं उन दोनों की ओर देख रहा था. आख़िर में मम्मा ने बड़ी सावधानी से पूछा, “मरम्मत....कहाँ?”
 “हमारे यहाँ! मारिया पेत्रोव्ना ने कहा. “पूरे घर की मरम्मत कर रहे हैं! आप समझ रही हैं, उनकी छतें टपक रही हैं, बस, वो उन्हीं की मरम्मत कर रहे हैं.”
 “बड़ी अच्छी बात है,” मम्मा ने कहा, “ये तो बहुत बढ़िया बात है!”
 “पूरे घर में बस, मचान ही मचान,” बदहवासी से मारिया पेत्रोव्ना बोली. पूरा घर मचानों से भरा है, और मेरी बाल्कनी भी मचानों से अटी पड़ी है. उसे बन्द कर दिया है! दरवाज़े को कीलें ठोंककर बन्द कर दिया! और ये कोई एक दिन की बात नहीं है, न ही दो दिनों की बात है, ये तीन महीने से कम की बात नहीं है. पूरी तरह पागल कर दिया है! भयानक!”
 “ भयानक किसलिए?” मम्मा ने कहा. “ज़ाहिर है कि ऐसा ही होना चाहिए!”
 “अच्छा?” मारिया पेत्रोव्ना फिर चीख़ी. “आपके हिसाब से ऐसा ही होना चाहिए? तो फिर, मुलाहिज़ा फ़रमाइए, मेरा मोप्स्या कहाँ घूमेगा? हाँ? मेरे मोप्स्या पूरे पाँच साल से बाल्कनी में टहलता है. उसे बाल्कनी में घूमने की आदत हो गई है!”
 “बर्दाश्त कर लेगा आपका मोप्स्या,” ज़िन्दादिली से मम्मा ने कहा, “यहाँ इन्सानों की ख़ातिर मरम्मत कर रहे हैं, उनकी छतें सूखी रहेंगी, क्या आपके कुत्ते की वजह से सदियों तक छतें गीली ही रहें?”
 “ये मेरा सिरदर्द नहीं है!” मारिया पेत्रोव्ना ने बात काटते हुए कहा. “रहें गीली, अगर हमारी हाउसिंग कमिटी ही ऐसी है...”
वो शांत ही नहीं हो रही थी और ज़्यादा-ज़्यादा उबल रही थी, ऐसा लग रहा था कि वो ख़ूब ज़्यादा उबल जाएगी, जिससे ढक्कन उछलने लगेगा, और बर्तन का सूप किनारों से बाहर उफ़न जाएगा.
 “कुत्ते की वजह से!” उसने दुहराया, “हाँ, मेरा मोप्स्या किसी भी इन्सान के मुक़ाबले में ज़्यादा होशियार और बढ़िया है! वो पिछले पंजों पर चल सकता है, वो तेज़ रफ़्तार से पोलिश डान्स कर सकता है, मैं उसे प्लेट में खिलाती हूँ. आप समझ रही हैं कि इसका क्या मतलब है?”
 “इन्सानों की भलाई दुनिया में हर चीज़ से ज़्यादा महत्वपूर्ण है!” मम्मा ने शांति से कहा.
मगर मारिया पेत्रोव्ना ने मम्मा पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया.
 “मैं उनको सीधा कर दूँगी,” उसने धमकी दे डाली, “मैं मॉससोवियत में शिकायत करूँगी!”
मम्मा ख़ामोश हो गई. वो, शायद, मारिया पेत्रोव्ना से झगड़ा करना नहीं चाहती थी, उसे मारिया पेत्रोव्ना की कर्कश आवाज़ से तकलीफ़ हो रही थी. मम्मा के जवाब का इंतज़ार किए बग़ैर ही मारिया पेत्रोव्ना थोड़ी शांत हो गई और अपने भारी-भरकम पर्स में कुछ ढूँढ़ने लगी.
 “क्या आपने ‘आर्तेक’ सूजी ख़रीद ली है?” उसने व्यस्तता के अन्दाज़ में पूछा.
  “नहीं,” मम्मा ने कहा.
 “बेकार में,” मारिया पेत्रोव्ना ने ताना दिया. “ ‘आर्तेक’ सूजी से बहुत फ़ायदेमन्द पॉरिज बनाते हैं. आपके डेनिस्का को, मिसाल के तौर पर, थोड़ा तन्दुरुस्त होना बुरा नहीं होगा. मैंने तो तीन-तीन पैकेट ख़रीद लिए!”
 “आपको इतने पैकेट्स किसलिए चाहिए,” मम्मा ने पूछा, “आपके घर में तो बच्चे ही नहीं हैं ना?”
मारिया पेत्रोव्ना ने अचरज से आँखें फाड़ीं. उसने मम्मा की ओर इस तरह देखा, जैसे मम्मा ने कोई भयानक बेवकूफ़ी भरी बात कह दी हो, क्योंकि वो कुछ समझ ही नहीं पा रही है, साधारण सी बात भी!
  “और मोप्स्या?” थरथराते हुए मारिया पेत्रोव्ना चीख़ी. “और मेरा मोप्स्या? उसके लिए तो ‘आर्तेक’ बहुत फ़ायदेमन्द है, ख़ासकर जब उसे खुजली हो जाती है. वह हर रोज़ लंच के समय दो प्लेटें खा जाता है, और फिर भी उसे कुछ और चाहिए होता है!”
 “वो इसलिए आपसे मांगता है,” मैंने कहा, “क्योंकि उसकी चर्बी बढ़ रही है.”
 “बड़े लोगों की बातों में नाक मत घुसेड़,” कटुता से मारिया पेत्रोव्ना ने कहा. “बस इसी बात की कमी थी! जा, जाकर सो जा!”
 “बिल्कुल नहीं,” मैंने कहा, “ ’सोने-वोने’ का अभी सव्वाल ही नहीं है. इतनी जल्दी तो कोई सो ही नहीं सकता!”
 “देखो,” मारिया पेत्रोव्ना ने कहा और अपना मोर्चा मम्मा की ओर मोड़ दिया, “देखिए! मुलाहिज़ा फ़रमाइए, कैसे होते हैं बच्चे! वो बहस भी करता है! उसे तो चुपचाप बात माननी चाहिए! जब कहा है, ‘सो जा’ – मतलब ‘सो जाना’ चाहिए. मैं तो जैसे ही अपने मोप्स्या से कहती हूँ :’सो जा!’ वो फ़ौरन कुर्सी के नीचे रेंग जाता है और एक ही सेकंड में खर् र् र्...ख र् र् र्... बस, सो जाता है! मगर बच्चा! वो, देख रही हैं ना, बहस भी करता है!”
मम्मा अचानक लाल-लाल हो गई : उसे, ज़ाहिर है, मारिया पेत्रोव्ना पर बड़ा गुस्सा आ रहा था, मगर वो मेहमान के साथ झगड़ा नहीं करना चाह्ती थी. मम्मा तो शराफ़त के मारे कोई भी बेवकूफ़ी बर्दाश्त कर सकती है, मगर मैं ऐसा नहीं कर सकता. मुझे मारिया पेत्रोव्ना पर बेहद गुस्सा आया, कि वो मेरा मुक़ाबला अपने मोप्स्या से कर रही है. मैं उससे कहना चाहता था, कि वो बेवकूफ़ औरत है, मगर मैंने अपने आप पर क़ाबू कर लिया, जिससे कि बात और न बढ़ जाए. मैंने अपना ओवरकोट उठाया, कैप ली और कम्पाउण्ड में भागा. वहाँ कोई भी नहीं था. सिर्फ हवा चल रही थी. तब मैं बॉयलर-रूम में भागा. वहाँ हमारा पावेल अंकल रहता है और काम करता है, वह बड़ा ख़ुशमिजाज़ है, उसके दांत एकदम सफ़ेद, और बाल घुंघराले हैं. मुझे वो अच्छा लगता है. मुझे अच्छा लगता है जब वो मेरी तरफ़ झुकता है, एकदम मेरे चेहरे तक, और मेरा छोटा सा हाथ अपने बड़े और गर्माहट भरे हाथ में लेता है, और मुस्कुराता है, और अपनी भारी आवाज़ में प्यार से कहता है:
 “नमस्ते, न्सान!”
....