रविवार, 15 सितंबर 2013

Just one drop...

एक बूंद घोड़े को मार डालती है

लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनु. : आ. चारुमति रामदास

जब पापा बीमार पड़े तो डॉक्टर आए और बोले:
 “डरने की कोई बात नहीं है, सिर्फ़ थोड़ा ज़ुकाम है. मगर मैं आपको सलाह दूँगा की सिगरेट पीना छोड़ दीजिए, आपके सीने में हल्की सी घरघराहट है.”
और जब वो चले गए तो मम्मा ने कहा:
 “ इन नासपीटी सिगरेटों की वजह से अपनी तबियत को इस हद तक ख़राब करना – कितनी बेवकूफ़ी की बात है! अभी तो तुम इतने जवान हो, और अभी से सीने में घरघराहट और साँय-साँय होने लगी.”
 “ओह,” पापा ने कहा, “तुम तो बहुत बढ़ा-चढ़ा कर कह रही हो! ऐसी कोई ख़ास घरघराहट नहीं है, साँय-साँय तो बिल्कुल भी नहीं है. बस एक मामूली सी घरघराहट है. इसकी कोई गिनती नहीं है.”
 “नहीं – गिनती है!” वो चहकी, तुम्हें मामूली घरघराहट की नहीं, बल्कि और ज़्यादा चरमराहट, झनझनाहट, और किटकिटाहट की ज़रूरत है, मैं तुम्हें अच्छी तरह जानती हूँ...”
 “जो भी हो, मगर मुझे आरी की आवाज़ की ज़रूरत नहीं है,” पापा ने उसकी बात काटी.
 “मैं तुम पर आरी नहीं चला रही हूँ,” मम्मा का चेहरा लाल हो गया, “मगर तुम समझ लो कि ये वाक़ई में ख़तरनाक है. तुम्हें तो मालूम है कि सिगरेट के ज़हर की एक बूंद तन्दुरुस्त घोड़े को भी मार डालती है!”
तो ये बात है! मैंने पापा की ओर देखा. वो हट्टे-कट्टे हैं, इसमें कोई शक नहीं, मगर घोड़े के मुक़ाबले में कम ही हैं. वो बस मुझसे या फिर मम्मा से बड़े हैं, मगर, चाहे कितना ही घुमा फिरा कर क्यों न कहो, घोड़े से कम ही हैं और सबसे मरियल गाय से भी कम ही हैं. गाय तो हमारे दीवान पर आ ही नहीं सकती थी, मगर पापा आराम से उसमें समा जाते हैं. मैं बहुत डर गया. मैं किसी हालत में नहीं चाहता था कि उन्हें ऐसे ज़हर की बूँद मार डाले. नहीं चाहता था मैं ये, कभी नहीं और किसी कीमत पर नहीं. इन विचारों के कारण मैं बड़ी देर तक सो न सका, इतनी देर, कि पता ही नहीं चला कि आख़िर कब आँख लग गई.     
शनिवार को पापा अच्छे हो गए, और हमारे घर मेहमान आए. अंकल यूरा आए, कात्या आण्टी के साथ, बोरिस मिखाइलोविच और तमारा आण्टी आए. सब आए और बडी शराफ़त से पेश आए, और तमारा आण्टी तो जैसे ही आई, बस, गिरगिर-गिरगिर घूमती ही रही, खुड़बुड़ाहट करती रही, और वह पापा की बगल में चाय पीने बैठ गई. मेज़ पर वह पापा की ओर ध्यान देती रही, उनकी फ़िकर करती रही, पूछती रही कि वे आराम से तो बैठे हैं, खिड़की से हवा तो नहीं ना आ रही है, और आख़िरकार उसने पापा की इतनी ज़्यादा फ़िकर कर डाली और उनका इतना ज़्यादा ध्यान रख डाला कि उनकी चाय में तीन चम्मच शक्कर डाल दी. पापा ने शक्कर मिलाई, चाय चखी और त्यौरियाँ चढ़ा लीं.
 “मैंने पहले ही इस गिलास में एक बार शक्कर डाली थी,” मम्मा ने कहा, और उसकी आँखें हरी-हरी हो गईं, गूज़बेरी जैसी.       
 मगर तमारा आण्टी ठहाका मारकर हँस पड़ी. वह इस तरह ठहाके लगा रही थी जैसे मेज़ के नीचे कोई उसके पंजों पे गुदगुदी कर रहा हो. और पापा ने वो बेहद मीठी चाय एक कोने में सरका दी. फिर तमारा आण्टी ने अपने पर्स से एक पतला-सा सिगरेट-केस निकाला और पापा को प्रेज़ेंट किया.
 “लो, ये बरबाद हुई चाय के बदले तुम्हें दे रही हूँ,” उसने कहा. “हर बार, सिगरेट पीते समय, तुम इस वाक़ये को याद करोगे और इसके क़ुसूरवार को भी.”
इस बात के लिए मैं तो उस पर ख़ूब गुस्सा हो गया. वो पापा को सिगरेट की याद क्यों दिला रही है, जबकि बीमारी के दौरान उनकी आदत क़रीब-क़रीब छूट चुकी है? जबकि सिगरेट के ज़हर की बस एक ही  बूंद घोड़े की जान ले लेती है, और ये है कि याद दिला रही है. मैंने कहा :
 “ आप बेवकूफ़ हो, तमारा आण्टी! ये क्या लगा रखा है! फ़ौरन मेरे घर से निकल जाइए. आपके मोटे –मोटे पैर इस घर में न नज़र आएँ.”आप
ये मैंने अपने आप से ही कहा, ख़यालों में, इसलिए कोई भी कुछ भी समझ नहीं सका.
पापा ने सिगरेट-केस हाथ में लिया और उसे घुमाकर देखने लगे.
 “थैंक्यू, तमारा सेर्गेयेव्ना,” पापा ने कहा, “आपने मेरे दिल को छू लिया. मगर इसमें तो मेरी एक भी सिगरेट नहीं आएगी, सिगरेट-केस इतना छोटा हि, और मैं ‘कज़्बेक’ पीता हूँ. ऊपर से...”
अब पापा ने मेरी ओर देखा.
 “अच्छा, तो डेनिस,” उन्होंने कहा, “रात के वक़्त चाय की तीसरी प्याली पीने के बदले तू मेरी राइटिंग टेबल के पास जा, वहाँ ‘कज़्बेक’ का पैकेट ले और इन सिगरेट्स को इस तरह से छोटा कर दे कि वे इस सिगरेट-केस में आ जाएँ. कैंची बीच वाली दराज़ में है!”
मैं टेबल के पास आया, सिगरेट का पैकेट और कैंची ढूँढ़ी , सिगरेट-केस की नाप ली और सब कुछ वैसा ही किया जैसा उन्होंने कहा था. फिर मैंने भरा हुआ सिगरेट-केस लाकर पापा को दे दिया. पापा ने सिगरेट-केस खोला, मेरी कारीगरी को देखा, फिर मुझे देखा और ज़ोर से हँसने लगे:
 “मुलाहिज़ा फ़रमाइए, देखिये, मेरे होशियार बेटे ने क्या किया है!”
अब सारे मेहमान एक दूसरे से सिगरेट-केस ले लेकर देखने लगे और कानों को बहरा कर देने वाले ठहाके लगाने लगे. तमारा आण्टी तो ख़ास तौर से खूब ज़ोर से ठहाके लगा रही थी. जब उसकी हँसी रुकी तो उसने अपना हाथ मोड़ा और उँगलियों की हड्डियों से मेरे सिर पर ठकठक करने लगी.
 “ये तुमने सोचा कैसे, नीचे वाला माउथ-पीस साबुत रख कर ऊपर की क़रीब-क़रीब पूरी तंबाकू काट कर फेंक दी? कश तो तंबाकू का लगाते हैं ना, और तूने उसी को काट कर फेंक दिया! तेरे दिमाग़ में क्या भरा है – मिट्टी या भूसा?”
 “तेरे ही दिमाग में भूसा भरा है, तमारीश्चे सातमनवाली!”
बेशक, ये मैंने ख़यालों में ही, अपने आप से कहा. वर्ना मम्मा डाँट लगाती. वैसे भी वो मेरी ओर एकटक बड़ी गहरी नज़र से देख रही थी.
 “अच्छा, इधर आ,” मम्मा ने मेरी ठोढ़ी पकड़ते हुए कहा, “मेरी आँखों में देख!”
मैं मम्मा की आँखों में देखने लगा और मुझे महसूस हो रहा था कि मेरे गाल लाल-लाल, बिल्कुल झण्डे जैसे लाल हो गए हैं.
 “ये तूने जानबूझकर किया है?” मम्मा ने पूछा.
मैं उसे धोखा नहीं दे सका.
 “हाँ,” मैंने कहा, “ये मैंने जानबूझकर किया है.”
 “तब कमरे से निकल जा,” पापा ने कहा, “वर्ना मेरे हाथों में खुजली हो रही है.”
ज़ाहिर है कि पापा कुछ भी समझ नहीं पाए. मगर मैंने उन्हें समझाने की कोशिश नहीं की और कमरे से बाहर निकल गया.
क्या कोई मज़ाक की बात है – तंबाकू के ज़हर की एक बूंद घोड़े को मार डालती है!

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