रविवार, 22 सितंबर 2013

Oopar-neeche....

ऊपर-नीचे, आड़े-तिरछे!

लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनु. : आ. चारुमति रामदास

उस साल गर्मियों में, जब मैं अभी स्कूल नहीं जाता था, हमारे कम्पाउण्ड में मरम्मत का काम चल रहा था. चारों ओर ईंटें और लकड़ी के फ़ट्टे पड़े हुए थे और कम्पाउण्ड के बीचोंबीच रेत का एक बड़ा ढेर लगा था. और इस ढेर पर हम ‘मॉस्को के निकट फ़ासिस्टों की हार’ नामक खेल खेलते थे, या किले बनाते या यूँ ही कुछ-कुछ खेलते.

हमें बहुत अच्छा लगता था, और हमने मज़दूरों से दोस्ती भी कर ली थी, हम मरम्मत के काम में उनकी मदद भी करते थे : एक बार मैं प्लम्बर-अंकल ग्रीशा के लिए उबले हुए पानी की केतली लाया, और दूसरी बार अल्योन्का ने इलेक्ट्रिशियन्स को बताया कि हमारा चोर-दरवाज़ा कहाँ है. हम और भी बहुत सारी मदद करते थे, बस अब इस समय मुझे हर चीज़ याद नहीं है.
और फिर पता ही नहीं चला कि मरम्मत का काम कब पूरा हो चला, एक के बाद एक मज़दूर जाने लगे, अंकल ग्रीशा ने हाथ पकड़कर हमसे बिदा ली, उसने मुझे लोहे का एक भारी टुकड़ा गिफ्ट में दिया और वो भी चला गया.     

और अंकल ग्रीशा की जगह कम्पाउण्ड में आईं तीन लड़कियाँ. उन सबने बड़े बढ़िया कपड़े पहने थे : आदमियों जैसी लम्बी-लम्बी पतलूनें पहनी थीं, जिन पर अलग-अलग तरह के रंग लगे थे और वे एकदम कड़क थीं. जब ये लड़कियाँ चलतीं से तो उनकी पतलूनें ऐसी गरजतीं जैसे छत पर पड़ी लोहे की चादर गरजती है. इन लड़कियों ने सिर पे अख़बारों की टोपियाँ पहनी थीं. ये लड़कियाँ पेंटर थीं और उन्हें कहते थे ब्रिगेड. वे बड़ी ख़ुशमिजाज़ और फुर्तीली थीं, उन्हें हँसना अच्छा लगता था और वे हमेशा ‘वादी के फूल, वादी के फूल’ गाती रहती थीं. मगर मुझे ये गाना अच्छा नहीं लगता. और अल्योन्का को भी. और मीश्का को भी ये पसन्द नहीं है. मगर हम सबको ये देखना अच्छा लगता था कि ये पेंटर-लड़कियाँ कैसे काम करती हैं और कैसे उनका हर काम एकदम सही और साफ़-सुथरा होता है. हमें पूरी ब्रिगेड के नाम मालूम थे. उनके नाम थे सान्का, राएच्का और नेल्ली.
और एक दिन जब हम उनके पास पहुँचे तो सान्या आंटी ने कहा, “बच्चों, भाग कर जाओ, और कहीं से पता करो कि कितने बजे हैं.”
मैं भाग कर गया, पता कर के आया और कहा, “बारह बजने में पाँच मिनट हैं, सान्या आंटी...”
उसने कहा, “शाबाश, बच्चों! मैं – डाइनिंग हॉल चली!” - और वह कम्पाउण्ड से चली गई.
उसके पीछे-पीछे राएच्का आंटी और नेल्ली आंटी भी लंच करने चली गईं.
और रंग वाली छोटी बैरल वहीं छोड़ गईं. और रबर का होज़-पाइप भी.
हम फ़ौरन नज़दीक गए और बिल्डिंग के उस हिस्से को देखने लगे जहाँ पर उन्होंने अभी-अभी रंग लगाया था. बहुत बढ़िया था : एक-सा और भूरा, थोड़ी सी लाली लिए. मीश्का ने देखा, देखा और फिर कहने लगा, “
 “मज़ेदार है, और अगर मैं पम्प मारूँ, तो क्या रंग निकलेगा?”
अल्योन्का ने कहा, “शर्त लगाते हैं, नहीं निकलेगा!”
तब मैंने कहा, “और हम शर्त लगाते हैं कि निकलेगा!”
अब मीश्का ने कहा, “बहस करने की ज़रूरत नहीं है. मैं अभ्भी कोशिश करता हूँ. पकड़, डेनिस्का, ये होज़-पाइप, और मैं पम्प मारता हूँ.”
और वो लगा पम्प मारने. एक बार – दो बार - तीन बार मारा, और अचानक पाइप में से रंग बाहर भागने लगा! वो फुसफुसा रहा था, साँप की तरह, क्योंकि पाइप के सिरे पर सुराखों वाली टोपी थी, जैसे पौधों को पानी देने वाले फुहारे में होती है. सिर्फ यहाँ सुराख़ बहुत ही छोटे-छोटे थे, और रंग इस तरह निकल रहा था, जैसे हेयर कटिंग सेलून में यूडीकोलोन निकल रहा हो, बस वो थोड़ा सा दिखाई दे रहा था.
मीश्का ख़ुश हो गया और चीख़ा, “पेंट कर जल्दी! जल्दी से कुछ पेंट कर!”
मैंने फ़ौरन पाइप को साफ़ दीवार की ओर घुमा दिया. रंग की फुहार निकलने लगी, और वहाँ फ़ौरन हल्का-भूरा दाग बन गया – मकड़ी जैसा. 
 “हुर्रे!” अल्योन्का चिल्लाई. “चल गया! चल गया! – दौड़ने लगा!” और उसने अपना पैर रंग के नीचे रख दिया.
 मैंने फ़ौरन घुटने से उँगलियों तक उसका पैर रंग दिया. फ़ौरन, हमारी ही आँखों के सामने, पैर से खरोंचों के निशान और नील गायब हो गए! उल्टे, अल्योन्का का पैर इतना चिकना, भूरा-भूरा, चमकदार हो गया, जैसा नया, चमचमाता गेंदों वाले खेल का डंडा.
मीश्का चिल्लाया, “बढ़िया हो रहा है! दूसरा पैर भी रख, जल्दी!”
और अल्योन्का ने ज़िन्दादिली से दूसरा पैर भी रख दिया, और मैंने पल भर में उसे ऊपर से नीचे तक दो बार रंग दिया.  
तब मीश्का ने कहा, “भले इन्सानों, कितना ख़ूबसूरत है! पैर तो ऐसे हो रहे हैं जैसे सचमुच के रेड-इंडियन के हों! रंग दे उसे, जल्दी!”
 “पूरी? पूरी की पूरी रंग दूँ? सिर से पैर तक?”
और अल्योन्का भी जोश में चीख़ी, “चलो, भले इन्सानों! रंग दो सिर से पैर तक! मैं सचमुच की रेड-इंडियन बन जाऊँगी.”
तब मीश्का पम्प पर पिल पड़ा और पूरी ताक़त और जोश से चलाने लगा, और मैं अल्योन्का पर रंग की बौछार करने लगा. मैंने बड़ी ख़ूबसूरती से उसे रंग डाला : उसकी पीठ, और उसके पैर, और हाथ, और कंधे, और पेट, और उसके शॉर्ट्स भी. और वो पूरी भूरी हो गई, सिर्फ बाल सफ़ेद-सफ़ेद  रह गए थे.
 मैंने पूछा, “मीश्का, क्या ख़याल है, बाल भी रंग दूँ?”
मीश्का ने जवाब दिया, “बेशक! रंग, ज---ल्दी! फ़ौरन रंग डाल!”
और अल्योन्का भी जल्दी मचाने लगी, “चल-चल! बाल भी रंग दे! और कान भी!”
मैंने जल्दी-जल्दी उसका रंग पूरा किया और कहा, “जा, अल्योन्का, सूरज में सुखा ले! ऐख़, अब और क्या रंगा जाए?”
और मीश्का बोला, “वो, देख रहा है, हमारे कपड़े सूख रहे हैं? रंग उन्हें भी फ़ौ--रन!”
मगर ये काम मैंने फ़ौरन पूरा कर लिया! दो तौलिए और मीश्का की कमीज़ मैंने सिर्फ एक ही मिनट में ऐसे रंग दी कि देखने में भी बहुत प्यारा लग रहा था!
और मीश्का पर तो मानो भूत चढ़ गया, वह इस तरह से पम्प मारने लगा जैसे कारख़ाने का मज़दूर हो. और सिर्फ चिल्लाए ही जा रहा था, “ चल, रंग! जल्दी से! ये नया दरवाज़ा है, देख, हमारा फ्रंट-डोअर, चल, चल, जल्दी से रंग दे!”
और मैं दरवाज़े पर आया. ऊपर से नीचे! नीचे से ऊपर! ऊपर से नीचे, आड़े-तिरछे!
मगर तभी अचानक दरवाज़ा खुला, और उसमें से हमारा केयर-टेकर अलेक्सेइ अकीमिच सफ़ेद सूट में निकला.
वह तो बस बुत बन गया. और मैं भी. हम दोनों पर मानो किसी ने जादू कर दिया हो. ख़ास बात ये थी कि मैं उस पर रंग डाले जा रहा था और डर के मारे होज़-पाइप दूर हटाने की बात भी समझ नहीं सका, बस उसे घुमाए जा रहा था: ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर. और उसकी आँखें चौड़ी हो गईं, मगर उसके भी दिमाग में नहीं आया कि कम से कम एक कदम ही दाएँ या बाएँ हट जाए...
और मीश्का है कि पम्प मारे जा रहा है और अपना ही राग अलापे जा रहा है, “रंग, और जल्दी! चल, रंग दे!”
और अल्योका बाज़ू से नाचते हुए बाहर आई:
 “मैं रेड-इंडियन! मैं रेड-इंडियन!”
भयानक!
.... हाँ, जम के ली गई थी हमारी ख़बर. मीश्का पूरे दो हफ़्ते तक कपड़े धोता रहा. और अल्योन्का को न जाने कितनी बार टरपेंटाइन से घिस-घिस के नहलाया गया...
अलेक्सेइ अकीमिच को नया सूट ख़रीद कर दिया गया. और मम्मा तो मुझे बिल्कुल कम्पाउण्ड में जाने ही नहीं देना चाहती थी, मगर मैं किसी तरह निकल ही गया. सान्या आंटी, राएच्का आंटी और नेल्ली आंटी ने मुझसे कहा, “ बड़ा हो जा, डेनिस, जल्दी से बड़ा हो जा, हम तुझे अपनी ब्रिगेड में ले लेंगे. पेंटर    
बनेगा!”
और तब से मैं जल्दी-जल्दी बड़ा होने की कोशिश कर रहा हूँ.

...  .  

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