शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

Circus Walon.....

सर्कस वालों, मैं भी कम नहीं हूँ

लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास


मैं अक्सर सर्कस जाता रहता हूँ. वहाँ मेरी ख़ूब पहचान हो गई है और दोस्त भी बन गए हैं. और, जब मैं चाहता हूँ, तो मुझे बिना टिकट के भी अन्दर जाने देते हैं. क्योंकि अब मैं भी सर्कस-आर्टिस्ट जैसा हो गया हूँ. एक लड़के के कारण. ये अभी हाल ही में हुआ था. मैं दुकान से घर जा रहा था – अब हम नए क्वार्टर में रहते हैं, जो सर्कस के पास ही है, वहीं कोने पे एक बड़ी दुकान भी है. तो, मैं कागज़ की बैग लिए दुकान से जा रहा हूँ, उसमें पड़े हैं डेढ़ किलो टमाटर और कार्डबोर्ड के ग्लास में तीन सौ ग्राम दही. अचानक देखता हूँ कि सामने से आ रही है दूस्या आण्टी, पुरानी बिल्डिंग से, वो बहुत भली है, उसने पिछले साल मुझे और मीश्का को क्लब के टिक़ट दिए थे. मैं बहुत ख़ुश हुआ, वो भी ख़ुश हो गई. उसने कहा:
”कहाँ से आ रहा है?”
मैंने कहा:
 “दुकान से. टमाटर ख़रीदे! नमस्ते, दूस्या आण्टी!”
वो हाथ नचाकर बोली:
”क्या तू ख़ुद दुकान में जाता है? अभी से? समय तो कैसे उड़ रहा है!”
उसे अचरज होता है. इन्सान नवें साल में है, और उसे अचरज हो रहा है.
मैंने कहा;
 “अच्छा, फिर मिलेंगे, दूस्या आण्टी.”

और मैं चल पड़ा. वो पीछे से चिल्लाई:
 “रुक जा! कहाँ जा रहा है? मैं तुझे अभ्भी सर्कस में छोड़ती हूँ, दिन वाले ‘शो’ में. क्या तू देखना चाहता है?”

ये भी कोई पूछने की बात है! अजीब है. मैंने कहा:
 “बेशक, चाहता हूँ! इस बारे में दो राय हो ही नहीं सकती!...”

उसने मेरा हाथ पकड़ा और हम चौड़ी-चौड़ी सीढ़ियों पर चढ़े. दूस्या आण्टी कंट्रोलर के पास गई और बोली:
 “लो, मारिया निकोलायेव्ना, अपने नौजवान को लाई हूँ, देखने दो. ठीक है?”
वो भी मुस्कुराई और मुझे अन्दर छोड़ दिया, मैं अन्दर गया, आण्टी दूस्या और मारिया निकोलायेव्ना पीछे-पीछे आ रही थीं. मैं कुछ अंधेरे में चल रहा था, और मुझे ये सर्कस की ख़ुशबू फिर से बहुत अच्छी लगी – ये एक ख़ास तरह की ख़ुशबू है, और जैसे ही मैंने उसे सूंघा, मेरे दिल में न जाने क्यों एक ही साथ ख़ुशी और बेचैनी के भाव आ गए. कहीं म्यूज़िक बज रहा था, मैं उस तरफ़ लपका, उसकी आवाज़ की दिशा में, और अचानक मुझे गेंद वाली लड़की की याद आ गई, जिसे मैंने यहाँ कुछ ही दिन पहले देखा था - गेंद वाली लड़की, उसकी चाँदी जैसी चमचमाती ड्रेस, और ‘केप’, और उसके लम्बे-लम्बे हाथ; वह कहीं दूर चली गई है, मेरे दिल में अजीब से भाव आए, पता नहीं, कैसे समझाऊँ...और, अब हम किनारे वाले दरवाज़े तक पहुँच गए, मुझे आगे धकेला जा रहा था, और मारिया निकोलायेव्ना फुसफुसाई:
 “बैठ जा! पहली लाईन में ख़ाली सीट है, बैठ जा...”

मैं फ़ौरन बैठ गया. मेरी बगल में एक लड़का बैठा था, मेरे जैसी ही कद-काठी का, वैसे ही स्कूल के यूनिफॉर्म में, नाक तोते जैसी, आँखें चमक रही थीं. उसने काफ़ी ग़ुस्से से मेरी तरफ़ देखा, कि एक तो मैं देर से आया हूँ और अब डिस्टर्ब कर रहा हूँ, वगैरह, वगैरह, मगर मैंने उसकी ओर ध्यान ही नहीं दिया. मैंने अपना पूरा ध्यान आर्टिस्ट पर लगा दिया, जो इस समय अपना प्रोग्राम पेश कर रहा था. वो अरेना के बीचों बीच खड़ा था, सिर पर बड़ी भारी कैप थी, और उसके हाथों में क़रीब आधा मीटर लम्बी सुई थी. सुई में धागे के बदले थी एक लम्बी और पतली रेशमी रिबन. इस आर्टिस्ट के पास खड़ी थीं दो लड़कियाँ और वो किसी को भी नहीं छू रही थीं. अचानक वो बिना बात के उनमें से एक लड़की के पास गया और – खच्! – अपनी लम्बी सुई से उसका पेट सी दिया आर-पार, सुई उसकी पीठ से बाहर निकली! मैंने सोचा कि अब लड़की ज़ोर से चिल्लाएगी, मगर नहीं, वो ख़ामोशी से खड़ी रही और मुस्कुराती रही. अब आर्टिस्ट बिल्कुल दूर हट गया – खच्च! – और दूसरी के भी आर-पार सुई घुसा दी! ये भी नहीं चिल्लाई, बल्कि सिर्फ अपनी पलकें झपकाती रही. तो वो दोनों इस तरह सिली-सिलाई खड़ी हैं, उनके बीच में है रिबन, और वो ऐसे मुस्कुरा रही हैं, जैसे कुछ हुआ ही न हो. अरे, मेरी प्यारियों, क्या बात है!
मैंने कहा:
 “वो चिल्लाती क्यों नहीं हैं? क्या बर्दाश्त कर रही हैं?”
बगल वाला लड़का बोला:
 “चिल्लाएँगी क्यों? उन्हें दर्द नहीं हो रहा है!”
मैंने कहा:
 “तेरे साथ होता तो कैसा होता! मैं सोच सकता हूँ कि तू कितनी ज़ोर से चिल्लाता...”
वो मुस्कुराने लगा, जैसे कि वह मुझसे कुछ बड़ा हो, फिर बोला:
 “पहले मैंने सोचा कि तू सर्कस वाला है. तुझे माशा आण्टी बिठा कर गई थी ना... मगर, लगता है कि तू सर्कसवाला नहीं है... हमारा नहीं है.”
मैंने कहा:
 “एक ही बात है कि मैं कौन हूँ – सर्कस वाला या बिना सर्कस वाला. मैं नागरिक हूँ, समझा? और सर्कस वाला – क्या अलग होता है?”
उसने मुस्कुराते हुए कहा:
 “नहीं, सर्कस वाले – ख़ास होते हैं...”
मुझे ग़ुस्सा आ गया:
 “उनके क्या तीन पैर होते हैं?”
 मगर वो बोला:
 “तीन होते हैं या नहीं होते, मगर फिर भी वे औरों से ज़्यादा फुर्तीले होते हैं – कोई मुक़ाबला ही नहीं! – और ज़्यादा ताक़तवर, और ज़्यादा हाज़िरजवाब होते हैं.”
मुझे एकदम गुस्सा आ गया और मैंने कहा:
 “चल, ज़्यादा गप न मार! यहाँ भी कोई कम नहीं है! तू, क्या, सर्कसवाला है?”
उसने आँख़ें झुका लीं:
 “नहीं, मैं मम्मा का बेटा हूँ...”
और होठों के कोनों से मुस्कुराने लगा, चालाकी से. मगर मैं इसे समझ नहीं पाया, ये मैं अब समझ रहा हूँ, कि वो चालाकी कर रहा था, मगर तब मैं ठहाका मार कर हँस पड़ा था, और उसने अपनी चंचल नज़रें मुझ पर गड़ा दीं:
 “तू प्रोग्राम तो देख!... घुड़सवार!...”

सही में, म्यूज़िक ज़ोर से और तेज़-तेज़ बजने लगा, और अरेना में उछलते हुए एक सफ़ेद घोड़ा आया, इतना मोटा और चौड़ा, जैसे कोई दीवान हो. घोड़े के ऊपर खड़ी थी एक आण्टी, और उसने भागते हुए घोड़े पर अलग-अलग तरह से कूदना शुरू कर दिया: कभी वो एक पैर पे कूदती, हाथ साइड में, कभी दोनों पैरों पर, जैसे रस्सी कूद रही हो. मैंने सोचा, कि इतने चौड़े घोड़े पर कूदना - बकवास है, ये ऐसा ही है, जैसे तुम लिखने की मेज़ पर कूद रहे हो; और ये, कि मैं भी ऐसा कर सकता हूँ. ये आण्टी बस कूदती रही, कूदती रही, और एक आदमी, काले कपड़ों में, बस चाबुक लहरा रहा था, जिससे घोड़ा कुछ फुर्ती से चले, वर्ना तो वो उनींदी मक्खी की तरह लड़खड़ा रहा था. वह उस पर चिल्ला रहा था और पूरे समय चाबुक हिला रहा था. मगर, घोड़ा था कि ध्यान ही नहीं दे रहा था. कैसी-तो उदासी...मगर आण्टी जी भर के कूद ली और परदे के पीछे भाग गई, मगर घोड़ा गोल गोल चक्कर लगाता रहा.

अब आया ‘पेन्सिल’. मेरी बगल में बैठे लड़के ने फिर से मुझ पर जल्दी से नज़र डाली, फिर आँखें फेर लीं और बड़ी उदासीनता से बोला:
 “क्या तुमने ये प्रोग्राम पहले कभी देखा है?”
 “नहीं, पहली बार देखूँगा,” मैंने कहा.
वह बोला:
 “तब मेरी सीट पे आ जा. यहाँ से तुझे ज़्यादा अच्छा नज़र आएगा. बैठ. मैं इसे पहले ही देख चुका हूँ.” वह हँसा. मैंने कहा:
 “तू कर क्या रहा है?”
 “ऐसे ही,” वह बोला, “कुछ नहीं. अब ‘पेन्सिल’ ऐसी-ऐसी कारनामे दिखाएगा, खूब मज़ेदार! चल, सीट बदल ले.”
जब वो इतना भला है, तो कोई बात नहीं. मैं उसकी सीट पे बैठ गया. और वो मेरी वाली सीट पे बैठ गया, वहाँ, सही में, ज़्यादा बुरा था, एक खंभा देखने में डिस्टर्ब कर रहा था. अब ‘पेन्सिल’ ने कारनामे शुरू कर दिए. वो चाबुक वाले अंकल से बोला:
 “अलेक्सान्द्र बोरिसोविच! क्या मैं इस घोड़े पे घूम सकता हूँ?”
और उसने कहा:
 “प्लीज़, ख़ुशी से!”
और ‘पेन्सिल’ इस घोड़े पे चढ़ने लगा. वह हर तरह से कोशिश कर रहा था, अपना छोटा सा पैर उसके ऊपर रखता, और बार बार फ़िसल जाता, और गिर पड़ता – घोड़ा बेहद मोटा था. तब वो बोला:
 “मुझे इस घोड़े पे बिठा दीजिए.”
फ़ौरन सहायक आया और झुका, ‘पेन्सिल’ उसकी पीठ पे चढ़ गया, और घोड़े पे बैठ गया, मगर उल्टा बैठ गया. वो घोड़े के सिर की तरफ़ पीठ करके बैठा था, और मुँह पूँछ की तरफ़ था. सब लोग हँसते-हँसते लोट पोट हुए जा रहे थे! चाबुक वाले अंकल ने उससे कहा:
 “ ‘पेन्सिल’! आप ग़लत बैठे हैं.”
 मगर ‘पेन्सिल’ ने जवाब दिया:
 “गलत कैसे? आपको कैसे मालूम कि मुझे किस तरफ़ जाना है?”
तब अंकल ने घोड़े के सिर को छुआ और कहा:
 “सिर तो यहाँ है!”
‘पेन्सिल’ ने घोड़े की पूँछ पकड़ ली और कहा:
 “मगर दाढ़ी तो यहाँ है!”
तभी उसकी कमर में रस्सी बांध दी गई, वो सर्कस के गुम्बद के ठीक नीचे लगे किसी पहिए से गुज़र रही थी, और उसका दूसरा सिरा चाबुक वाले अंकल के हाथ में था. वो चिल्लाया:
 “मास्टर, सरपट! हैलो!”
 ऑर्केस्ट्रा गरज उठा, और घोड़ा भागने लगा. ‘पेन्सिल’ उस पर ऐसे हिल रहा था, जैसे बागड़ पे बैठी हुई मुर्गी, और वह कभी एक ओर को फ़िसलता, तो कभी दूसरी ओर, और अचानक घोड़ा उसके नीचे से बाहर निकलने लगा, वो पूरी सर्कस में ज़ोर से चिल्लाया:
 “ओय, दोस्तों, घोड़ा ख़तम हो रहा है!”

और वो, सचमुच में उसके नीचे से निकल गया और टप्-टप् करते हुए परदे के पीछे चला गया, और ‘पेन्सिल’, शायद नीचे गिर कर मर जाता, मगर चाबुक वाले अंकल ने रस्सी खींची और ‘पेन्सिल’ हवा में टँग गया. हमारा हँसी के मारे दम घुटने लगा, और मैं पास वाले लड़के से कहने वाला था कि अब मेरा पेट फट जाएगा, मगर वो था ही नहीं. कहीं चला गया था. इस बीच ‘पेन्सिल’ हाथ ऐसे नचाने लगा, जैसे हवा में तैर रहा है, और फिर उसे छोड़ दिया गया, वो नीचे आने लगा, मगर जैसे ही उसने ज़मीन को छुआ, वो फिर से इधर उधर भागा और फिर से ऊपर उड़ने लगा. ऐसा लग रहा था कि वो लम्बे-लम्बे क़दम रखते हुए कभी ऊपर, कभी नीचे आ रहा है, सब लोग हँसते-हँसते बेज़ार हो रहे थे. वो इसी तरह से उड़ता ही रहा, और उसकी पतलून खिसकते खिसकते बची, मैंने सोचा कि अब तो इन  ठहाकों से मेरा दम घुटने ही वाला है, मगर तभी फिर से वह ज़मीन पे उतरा और अचानक मेरी तरफ़ देखकर ख़ुशी से आँख मारी. हाँ! उसने मुझे ही आँख़ मारी थी. मैंने भी उसे आँख़ मारी. और, ये क्या?! उसने अचानक फिर से मुझे आँख़ मारी, अपने हाथ मले और पूरी ताक़त से भागते हुए मेरे पास आया और दोनों हाथों से मुझे पकड़ लिया, चाबुक वाले अंकल ने फ़ौरन रस्सी खींच ली और मैं ‘पेन्सिल’ के साथ ऊपर उड़ गया! हम दोनों! उसने मेरा सिर बगल में दबाया और पेट से चिपकाए रखा, खूब कस के, क्योंकि हम काफ़ी ऊँचाई पर थे. नीचे लोग नहीं थे, बल्कि घनी सफ़ेद और काली पट्टियाँ नज़र आ रही थीं, क्योंकि हम तेज़ी से घूम रहे थे, और मेरे मुँह में भी गुदगुदी सी हो रही थी. जब हम ऑर्केस्ट्रा के ऊपर से उड़ रहे थे, तो मैं डर गया, कि झनझनाती तश्तरियों से टकरा जाऊँगा और मैं चिल्ला पड़ा:
 “मम्मा!”

फ़ौरन एक शोर उड़ता हुआ मुझ तक आया. ये सब लोग हँस रहे थे. मगर ‘पेन्सिल’ फ़ौरन मुझे चिढ़ाते हुए आँसू भरी आवाज़ से चीख़ा:
 “म्य-म्म्या!”

नीचे से भयानक शोर और गडगड़ाहट सुनाई दे रही थी, और हम कुछ देर इसी तरह उड़ते रहे, ऐसा लगा कि अब मुझे आदत हो रही है, मगर तभी मेरे हाथों का पैकेट फट गया, और मेरे टमाटर उड़ने लगे, वे बमों की तरह अलग-अलग दिशाओं में उड़ रहे थे – डेढ़ किलो टमाटर. शायद, वे लोगों के ऊपर गिरे, क्योंकि नीचे से ऐसा शोर उठा, कि बताना मुश्किल है. मैं सोच रहा था कि कहीं दही का गिलास भी न उड़ने लगे – तीन सौ ग्राम्स. तब तो मम्मा मेरी वो ख़बर लेगी कि ख़ुदा बचाए! और ‘पेन्सिल’ अचानक लट्टू की तरह गोल-गोल घूमने लगा, और मैं भी उसके साथ-साथ, और मुझे ये नहीं करना चाहिए था, क्योंकि मैं फिर से घबरा गया और उसे मारने और खरोंचने लगा, और ‘पेन्सिल’ ने शांति से मगर कड़ाई से कहा, मैंने सुना:
 “तोल्का, क्या कर रहा है?”
मैं गरजा:
 “मैं तोल्का नहीं हूँ! मैं डेनिस हूँ! मुझे छोड़िए!”
और मैं छूटने की कोशिश करने लगा, मगर उसने और कस के मुझे चिपटा लिया, क़रीब-क़रीब मेरा गला ही घोंट दिया, और हम बेहद धीरे उड़ने लगी, मैंने पूरी सर्कस देखी, और चाबुक वाले अंकल भी, वो हमारी तरफ़ देख रहे थे और मुस्कुरा रहे थे. इसी समय दही का गिलास बाहर उड़ ही गया. मुझे मालूम ही था. वो सीधे चाबुक वाले गंजे अंकल के सिर पे जा गिरा. वो चिल्लाकर कुछ बोले, और हम धीरे धीरे नीचे उतरने लगे...

जैसे ही हम नीचे उतरे और ‘पेन्सिल’ ने मुझे छोड़ा, मैं, ख़ुद भी न समझते हुए, पूरी ताक़त से भागा. मगर वहाँ नहीं; मुझे पता नहीं कि मैं किधर भाग रहा था, और मैं लड़खड़ा रहा था, क्योंकि मेरा सिर चकरा रहा था, आख़िरकार साइड वाले दरवाज़े में मैंने दूस्या आण्टी और मारिया निकोलायेव्ना को देख ही लिया, उनके चेहरे सफ़ॆद हो रहे थे, और मैं उनकी तरफ़ भागा, चारों ओर सब लोग पागलों की तरह तालियाँ बजा रहे थे.

दूस्या आण्टी ने कहा:
 “थैंक गॉड, सही सलामत है! चल, घर चलें!”
मैंने कहा:
 “और टमाटर?”
 “मैं खरीद दूँगी. चल.”

उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा, और हम तीनों आधे-अंधेरे कॉरीडोर में निकले. वहाँ हमने देखा कि दीवार पर लगे लैम्प के पास एक लड़का खड़ा है. ये वो ही लड़का था, जो मेरी बगल में बैठा था. मारिया निकोलायेव्ना ने कहा:
 “तोल्का, तू कहाँ था?”
लड़के ने जवाब नहीं दिया.
 मैंने कहा:
 “तू कहाँ चला गया था? जैसे ही मैं तेरी सीट पे बैठा तो जानते हो क्या-क्या हुआ!...’पेन्सिल’ ने मुझे झपट्टा मार कर उठा लिया और आसमान में ले गया.”
मारिया निकोलायेव्ना ने पूछा:
 “और, तू उसकी जगह पे क्यों बैठा?”
 “इसीने मुझसे कहा था,” मैंने जवाब दिया. “इसने कहा कि यहाँ से ज़्यादा अच्छा दिखाई देगा, और मैं बैठ गया. और वो ख़ुद कहीं चला गया!”
 “समझ गई,” मारिया निकोलायेव्ना ने कहा. “मैं ऑफ़िस में रिपोर्ट करूँगी. तोल्का, तुझे सर्कस से निकाल देंगे.”
लड़के ने कहा:
 “नहीं, माशा आण्टी.”
मगर वो फुसफुसाते हुए चिल्लाई:
 “तुझे शरम कैसे नहीं आई! तू सर्कस वाला बच्चा है, तूने प्रक्टिस की थी, और तूने अपनी जगह पर एक अनजान लड़के को बिठा दिया?! और, अगर वो गिर जाता? उसे तो तैयार नहीं किया गया है!”
मैंने कहा:
 “कोई बात नहीं. मैं तैयार हो गया हूँ...तुम, सर्कस वालों से बुरा नहीं हूँ! क्या मैं फूहड़पन से उड़ रहा था?”
लड़के ने कहा:
 “बढ़िया! और, वो टमाटरों वाला आइडिया भी अच्छा था, मुझे कभी ऐसा ख़याल ही नहीं आया. मगर सब कुछ खूब मज़ाहिया था.”
 “और ये आपका आर्टिस्ट भी,” दूस्या आण्टी ने कहा, “ख़ूब है! किसी को भी पकड़ लेता है!”
 “मिखाइल निकोलायेविच,” माशा आण्टी ने कहा, “पूरे फॉर्म में था, वो पहले ही हवा में उड़ रहा था, वो भी कोई लोहे का बना हुआ नहीं है, उसे पक्का मालूम था कि इस सीट पर, हमेशा की तरह, एक ख़ास लड़का बैठा होता है, सर्कस वाला, ये कानून है. और ये छुटका और वो – बिल्कुल एक जैसे हैं, और यूनिफॉर्म भी एक जैसी हैं, उसने ध्यान से नहीं देखा...”
 “देखना चाहिए!:         
दूस्या आण्टी ने कहा. “ऐसे झपट्टा मर कर उठा लिया बच्चे को, जैसे बाज़ चूहे को उठा लेता है.”
मैंने कहा:
 “चलो, जाएँगे?”
तोल्का ने कहा:
 “सुन, अगले सण्डे को आना दो बजे. मुझसे मिलने के लिए आना. मैं ऑफ़िस के पास तेरा इंतज़ार करूँग़ा.”
 “ठीक है,” मैंने कहा, “ठीक है...उसमें क्या है!...आऊँगा.”

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शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

Tarboozon Wali Gali

तरबूज़ों वाली गली


लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास


मैं कम्पाऊण्ड से फुटबॉल खेलकर लौटा. बेहद थका हुआ और न जाने किसके जैसा गन्दा हो रहा था. मैं ख़ुश था, क्योंकि हमने बिल्डिंग नं, 5 से 44:37 पॉइन्ट्स से मैच जीत लिया था. अच्छा हुआ कि बाथरूम में कोई नहीं था.  मैंने जल्दी से हाथ धोए, कमरे में भागा और मेज़ पे बैठ गया. मैंने कहा:
 “मम्मा, इस समय मैं बैल भी खा सकता हूँ.”
वो मुस्कुराई.
 “ज़िन्दा बैल?” उसने पूछा.
 “आहा,” मैंने कहा, “ज़िन्दा बैल, खुरों और नथुनों के साथ!”
मम्मा फ़ौरन गई और एक सेकण्ड में हाथों में एक प्लेट लेकर आई. प्लेट से वो S भाप निकल रही थी, और मैं फ़ौरन समझ गया कि उसमें अचार है. मम्मा ने प्लेट मेरे सामने रख दी.
 “खा ले!” मम्मा ने कहा.
मगर ये तो नूडल्स थे. दूध वाले. पूरा फ़ेन-फ़ेन. ये क़रीब-क़रीब वो ही चीज़ है, जैसे दलिए का पॉरिज. पॉरिज में ज़रूर गुठलियाँ-गुठलियाँ होती हैं, और नूडल्स में ज़रूर फ़ेन. जैसे ही मैं फ़ेन देखता हूँ, मैं बस, मर जाता हूँ, खाने की बात तो छोड़ ही दो. मैंने कहा:
 “मैं नूडल्स नहीं खाऊँगा!”
मम्मा ने कहा;
 “कोई बहस नहीं!”
”इसमें फ़ेन है!”
मम्मा ने कहा:
 “तू मुझे मार डालेगा! कहाँ है फ़ेन? तू किसके जैसा है? तू एकदम कोश्ची (रूसी लोककथाओं का एक बेहद दुबला-पतला, बूढ़ा पात्र-अनु.) जैसा है!”
मैंने कहा:
 “इससे अच्छा है, कि मुझे मार ही डालो!”
मगर मम्मा एकदम लाल हो गई और मेज़ पर हाथ मारते हुए बोली:
 “तू ही मुझे मारे डाल रहा है!”

तभी पापा अन्दर आए. उन्होंने हमारी तरफ़ देखा और पूछा:
 “किस बात पे झगड़ा हो रहा है? इतनी गरमागरम बहस किसलिए?”
मम्मा ने कहा:
 “फ़रमाइए! नहीं खाना चाहता. लड़का जल्दी ही ग्यारह साल का होने वाला है, और वो, छोटी बच्ची की तरह, नख़रे कर रहा है.”

मैं जल्दी ही नौ साल का होने वाला हूँ. मगर मम्मा हमेशा कहती है, कि मैं जल्दी ही ग्यारह का हो जाऊँगा. जब मैं आठ साल का था, तो वो कहती थी कि मैं जल्दी ही दस का हो जाऊँगा.”
पापा ने कहा:
 “क्यों नहीं खाना चाहता? क्या सूप जल गया है, या उसमें नमक ज़्यादा हो गया है?”
मैंने कहा:
 “ये नूडल्स हैं, और उसमें फ़ेन है...”
पापा ने सिर हिलाया:
 “आह, ये बात है! हिज़ हाईनेस वॉन बैरोन कूत्किन-पूत्किन को दूध वाली नूडल्स नहीं खानी हैं! शायद उन्हें बादाम का हलवा चाहिए, चाँदी की तश्तरी में!”
मैं हँसने लगा, क्योंकि जब पापा मज़ाक करते हैं, तो मुझे बहुत अच्छा लगता है.
 “वो क्या होता है – बादाम का हलवा?”
 “मालूम नहीं,” पापा ने कहा, “शायद कोई मीठी चीज़ होगी और उसमें से यूडीकलोन की ख़ुशबू आती होगी. ख़ास करके वॉन-बैरोन कूत्किन-पूत्किन के लिए बनाई जाती होगी!...चल, खा ले नूडल्स!”
 “मगर फ़ेन है!”
”तूने खूब खा लिया है, ब्रदर, बस, यही बात है!” पापा ने कहा और मम्मा की तरफ़ मुड़े. “उससे नूडल्स वापस ले लो,” उन्होंने कहा, “ मुझे तो बहुत गुस्सा आ रहा है! पॉरिज, उसे नहीं चाहिए, नूडल्स नहीं खा सकता!...नख़रे तो देखो! बर्दाश्त नहीं होता!...”

वो कुर्सी पे बैठ गए और मेरी तरफ़ देखने लगे.  उनका चेहरा ऐसा था, जैसे मैं उनके लिए कोई अजनबी हूँ. वो कुछ नहीं कह रहे थे, बस उसी तरह – अजनबी की तरह देखे जा रहे थे. मैंने फ़ौरन मुस्कुराना बन्द कर दिया – मैं समझ गया कि मज़ाक कब के ख़त्म हो गए हैं. पापा बड़ी देर तक ख़ामोश रहे, और हम सब भी ख़ामोश थे, फिर वे बोले, मगर न तो मुझसे न ही मम्मा से, बल्कि किसी ऐसे इन्सान से, जो उनका दोस्त हो:

 “नहीं, मैं शायद उस भयानक पतझड़ को कभी नहीं भूलूँग़ा,” पापा ने कहा, “कितना दुख, कितनी परेशानी थी तब मॉस्को में...युद्ध, फ़ासिस्ट शहर की ओर बढ़ चले आ रहे हैं. ठण्ड़, भूख, बड़े लोग भौंहे चढ़ाए घूम रहे हैं, हर घण्टे रेडिओ सुनते हैं...तो, सब साफ़ था, है ना? मैं तब ग्यारह-बारह साल का था, और, महत्वपूर्ण बात ये थी, कि मैं ख़ूब जल्दी-जल्दी बढ़ रहा था, ऊँचा-ऊँचा हो रहा था, और मुझे हर समय ख़ूब खाने का मन करता था. खाना मेरे लिए पर्याप्त ही नहीं होता था. मैं हमेशा मम्मी-पापा से ब्रेड मांगा करता, मगर उनके पास एक्स्ट्रा ब्रेड होती ही नहीं थी, वे अपनी ब्रेड भी मुझे दे देते, मगर मुझे ये भी बस नहीं लगती थी. मैं भूखा ही सो जाता, और सपने में भी ब्रेड ही देखा करता. क्या करता...सभी के साथ ऐसा ही था. ये इतिहास सबको मालूम है. इसके बारे में बार-बार लिखा गया है, बार बार पढ़ा गया है...

एक बार मैं एक छोटी सी गली में जा रहा था, जो हमारे घर के पास ही थी, और अचानक क्या देखता हूँ – एक बड़ा-भारी ट्रक खड़ा है, ऊपर तक तरबूज़ों से भरा हुआ. मुझे मालूम नहीं, कि वे मॉस्को तक पहुँचे कैसे. शायद तरबूज़ रास्ता भूल गए थे. शायद, उन्हें राशन-कार्ड पर बाँटने के लिए लाए थे. गाड़ी में ऊपर एक अंकल खड़ा था, ऐसा दुबला, दाढ़ी बढ़ी हुई, शायद बिना दाँतों वाला था, क्योंकि उसका मुँह अन्दर को खिंच रहा था. वो एक तरबूज़ उठाता और उसे अपने कॉम्रेड की ओर फेंकता, और वो – सफ़ॆद एप्रन वाली सेल्स-गर्ल को, और वो – किसी और चौथे को...उनकी जैसे चेन बन गई थी: तरबूज़ गाड़ी से दुकान तक जैसे किसी बेल्ट पर लुढ़कता चला जाता. और अगर किनारे से देखो, तो ऐसा लग रहा था कि लोग हरी धारियों वाली गेंदों से खेल रहे हैं, बड़ा दिलचस्प खेल था, मैं बड़ी देर तक खड़ा-खड़ा उन्हें देख रहा था, और दुबले अंकल भी मेरी ओर देखते हुए अपने पोपले मुँह से मुस्कुरा रहे थे, अच्छे इन्सान थे. मगर फिर मैं खड़े-खड़े थक गया और घर जाने ही वाला था, कि अचानक उस चेन में कोई गलती कर बैठा, शायद उसका ध्यान हट गया या फिर चूक गया, और फ़रमाईये – त्राख़!...एक भारी तरबूज़ अचानक फ़ुटपाथ पर गिर पड़ा. ठीक मेरी बगल में. वो कुछ आड़ा-टेढ़ा फूट गया था, और बर्फ की तरह सफ़ेद पतली परत दिखाई दे रही थी, उसके पीछे लाल-लाल गूदा, शक्कर जैसी नसें, और तिरछे-तिरछे बीज, जैसे तरबूज़ की शरारती आँख़ें भीतर से ही मुझे देखकर मुस्कुरा रही हैं. और, जब मैंने इस गूदे को और तरबूज़ के रस को उछलते हुए देखा और जब ये ख़ुशबू मुझ तक पहुँची, इतनी ताज़ा और इतनी तेज़, तभी मैं समझा कि मुझे कितनी भूख लगी है. मगर मैं मुड़ गया और घर की तरफ़ चल पड़ा. मैं वहाँ से हटा ही था कि अचानक मुझे सुनाई दिया – कोई मुझे बुला रहा है:

“बच्चे, बच्चे!”

मैंने चारों ओर देखा, मेरी तरफ़ वही बिना दांतों वाला मज़दूर भागा चला आ रहा है, और उसके हाथों में फ़ूटा हुआ तरबूज़ है. वह बोला:
 “प्यारे, तरबूज़ तो ले जा, घर में खाना!”

मैं उसकी तरफ़ ठीक से देख भी नहीं पाया था कि वो मुझे तरबूज़ थमाकर वापस अपनी जगह पे चला भी गया, बाकी के तरबूज़ों को उतारने के लिए. मैंने तरबूज़ को कस के दोनों हाथों में पकड़ लिया, और मुश्किल से घर तक पहुँचा, मैंने अपने दोस्त वाल्का को बुलाया, और हम दोनों ये बड़ा तरबूज़ खा गए. आह, कितना स्वादिष्ट था! बताना मुश्किल है! मैंने और वाल्का ने बड़े बड़े टुकड़े काटे, पूरी चौड़ाई में, जब हम उन्हें खाते तो तरबूज़ के टुकड़ों के किनारे हमारे कानों को दबाते, हमारे कान गीले हो गए और उनसे लाल-लाल तरबूज़ का रस टपक रहा था. हम दोनों के पेट फूल गए और वो भी तरबूज़ की तरह हो गए. अगर ऐसे पेट पर ऊँगली से टक-टक किया जाए तो पता है कैसी आवाज़ निकलती है! जैसे ड्रम बज रहा हो. हमें बस एक ही बात का अफ़सोस था, कि हमारे पास ब्रेड नहीं है, वर्ना हम और भी मज़े ले-लेकर खाते. हाँ...”

पापा मुड़े और खिड़की से बाहर देखने लगे.

 “और, इसके बाद पतझड़ का मौसम और भी बुरा रहा,” उन्होंने कहा, “ख़ूब ठण्ड पड़ी, आसमान से सर्दियों वाली, सूखी और भुरभुरी बर्फ गिरने लगी, और सूखी और तेज़ हवा उसे फ़ौरन उड़ा देती. खाना हमारे पास खूब कम हो गया, फ़ासिस्ट मॉस्को की ओर बढ़े चले आ रहे थे, मैं हर समय भूखा रहता. अब मुझे न सिर्फ ब्रेड के सपने आते, बल्कि तरबूज़ों के सपने भी आते. एक बार सुबह मैंने महसूस किया कि मेरा पेट तो है ही नहीं, वो जैसे रीढ़ की हड्डी से चिपक गया है, और मैं खाने के अलावा किसी और चीज़ के बारे में सोच भी नहीं सकता था. मैंने वाल्का को बुलाया और उससे कहा:
 “चल, वाल्का, उस तरबूज़ों वाली अली में जाएँगे, हो सकता कि वहाँ फिर से तरबूज़ उतारे जा रहे हों, और, हो सकता है, कि उनमें से एक गिर जाए, और वो लोग फिर से हमें वो तरबूज़ दे दें.”
हम दोनों ने कोई दादियों जैसे कपड़े पहने, क्योंकि ठण्ड भयानक थी, और चल पड़े तरबूज़ों वाली गली की ओर. सड़क पर मटमैला दिन था, लोग बेहद कम थे, और मॉस्को में ख़ामोशी थी, ऐसा नहीं, जैसा अब होता है. तरबूज़ों वाली गली में कोई भी नहीं था, और हम दुकान के दरवाज़ों के सामने खड़े होकर इंतज़ार करने लगे कि कब तरबूज़ों वाला ट्रक आता है. अंधेरा होने को आया मगर ट्रक आया ही नहीं. मैंने कहा:
“शायद, कल आयेगा...”
 “हाँ,” वाल्का ने कहा, “शायद, कल आए.”

हम घर चले गए. दूसरे दिन फिर से उस गली में गए, और ये जाना बेकार ही हुआ. हम हर रोज़ जाते और ट्रक का इंतज़ार करते, मगर ट्रक आया ही नहीं...

पापा ख़ामोश हो गए. वो खिड़की से बाहर देख रहे थे, और उनकी आँखें ऐसी हो रही थीं, जैसे वो कोई ऐसी चीज़ देख रहे हैं, जिसे न तो मैं, न ही मम्मा देख पा रहे थे. मम्मा उनके पास गई, मगर पापा फ़ौरन उठ गए और कमरे से बाहर चले गए. मम्मा उनके पीछे गईं. मैं अकेला रह गया. मैं भी बैठा था, और खिड़की से बाहर उसी तरफ़ देख रहा था, जिधर पापा देख रहे थे, और मुझे लगा कि मैं पापा को और उनके दोस्त को देख रहा हूँ, कि वो कैसे ठिठुर रहे हैं और इंतज़ार कर रहे हैं, इंतज़ार कर रहे हैं, इंतज़ार कर रहे हैं...ये सब मेरी बर्दाश्त से बाहर हो गया, और मैं अपनी प्लेट पर टूट पड़ा और चम्मच पे चम्मच खाकर पूरी नूडल्स खा गया, फिर उसे अपनी ओर झुकाकर, बचा-खुचा दूध पी गया, और ब्रेड से उसकी तली भी साफ़ कर दी, और चम्मच भी चाटकर साफ़ कर दिया.

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गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016

Chicken Soup


चिकन सूप

लेखक: विक्टर द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास


मम्मा दुकान से एक मुर्गी लाई, खूब बड़ी, नीली-नीली, लम्बे हड़ीले पैरों वाली. मुर्गी के सिर पर एक बड़ी लाल कलगी थी. मम्मा ने उसे खिड़की के बाहर लटकाया और कहा:
 “अगर पापा मुझसे पहले आएँ, तो उबालने को कहना. कह देगा?”
मैंने कहा:
 “ज़रूर!”

और मम्मा इन्स्टिट्यूट चली गई. मैंने अपने वाटर-कलर्स निकाले और ड्राइंग बनाने लगा. मैं गिलहरी बनाना चाहता था, कि कैसे वो जंगल में पेड़ों पर फ़ुदकती है. पहले तो बढ़िया हो रहा था, मगर बाद में मैंने देखा कि ये तो गिलहरी नहीं बनी, बल्कि कोई अंकलजी बन गए हैं, मोयददीर जैसे (कर्नेइ चुकोव्स्की की रूसी बालकथा का एक पात्र, जो बच्चों को साफ़-सुथरा रहने पर ज़ोर देता है. इसका चित्र वाश-बेसिन्स पर लगा होता है. – अनु.). गिलहरी की पूँछ जैसे मोयददीर की नाक बन गई थी, और पेड़ों की टहनियाँ – उसके बाल, कान और हैट...मुझे बहुत अचरज हुआ, ऐसा कैसे हो गया, और, जब पापा आए, तो मैंने कहा:
 “बताओ, पापा, मैंने क्या बनाया है?”
उन्होंने देखा और सोच में पड़ गए:
 “आग?”
 “तुम भी ना, पापा? तुम अच्छे से देखो!”
तब पापा ने अच्छी तरह देखा और बोले:
 “आह, सॉरी, ये, शायद, फुटबॉल है...”
मैंने कहा:
  “तुम बिल्कुल ध्यान नहीं देते! तुम, शायद थक गए हो?”
और वो बोले::
“अरे, नहीं, बस, भूख लगी है. मालूम है, कि आज लंच में क्या है?”
मैंने कहा:
 “वो, खिड़की के बाहर मुर्गी टंगी है. उबाल लो और खा लो!”

पापा ने रोशनदान से मुर्गी को निकाला और मेज़ पर रखा.
”कहना आसान है, उबाल लो! उबाला जा सकता है. उबालना – बकवास है. सवाल ये है कि हम इसका क्या बनाकर खाएँगे? मुर्गी से कम से कम सौ तरह के बढ़िया पकवान बनाए जा सकते हैं. जैसे कि, मुर्गी के कटलेट्स बना सकते हैं, चिकन श्नीज़ेल बनाया जा सकता है – अंगूर के साथ! मैंने इसके बारे में पढ़ा था! हड्डी के ऊपर ऐसा कटलेट बनाया जा सकता है – उसे कहते हैं ‘कीएव्स्काया’ – ऊँगलियाँ चाटते रह जाओगे. मुर्गी को नूडल्स के साथ पका सकते हैं, और उसे इस्त्री से दबा कर, लहसुन मिलाते हैं और जोर्जिया का ‘तम्बाकू-चूज़ा’ बनता है. और फिर...”
मगर मैंने उन्हें रोक दिया. मैंने कहा:
 “पापा, तुम कुछ आसान सा बना लो, बिना इस्त्री के. कोई, सबसे फ़टाफ़ट बनने वाली चीज़!”
पापा फ़ौरन राज़ी हो गए:
 “सही कह रहे हो, बेटा! हमारे लिए क्या महत्वपूर्ण है? जल्दी से खाना! तूने असली बात पकड़ ली है. जल्दी से क्या बन सकता है? जवाब सीधा-सादा और स्पष्ट है: सूप!”
पापा ने हाथ भी मले.
मैंने पूछा:
 “क्या तुम्हें सूप बनाना आता है?”
मगर पापा सिर्फ मुस्कुरा दिए.
 “उसमें ‘आने’ की बात क्या है?” उनकी आँखें चमकने लगीं. “सूप – स्टीम्ड चुकन्दर से भी ज़्यादा आसान है: पानी में डालो और पकने तक इंतज़ार करते रहो, बस, इतनी सी बात है. तो, फ़ैसला कर लिया! हम सूप उबालेंगे, और बहुत जल्दी हमारे पास लंच में दो डिशेस होंगी: सूप और ब्रेड, और बॉइल्ड चिकन, गरम-गरम, भाप निकालता हुआ. तो, अब तू अपना ब्रश फेंक और मदद कर!”
मैंने पूछा:
 “मुझे क्या करना होगा?”
 “देख! देख रहा है, मुर्गी के बदन पे कैसे बाल हैं. तू उन्हें काट दे, क्योंकि मुझे बालों वाला सूप पसन्द नहीं है. तू इन बालों को काट, तब तक मैं किचन में जाकर पानी उबलने के लिए रख देता हूँ!”

और वो किचन में चले गए. मैंने मम्मा की कैंची उठाई और एक-एक करके मुर्गी के बाल काटने लगा. पहले मैंने सोचा कि ज़्यादा बाल नहीं होंगे, मगर फिर ध्यान से देखा, तो पता चला कि खूब सारे बाल हैं, बल्कि अनगिनत बाल हैं. मैं उन्हें कतरने लगा, और दनादन काटने की कोशिश करने लगा, जैसे कि हेयर सलून में करते हैं, और एक बाल से दूसरे पर जाते हुए कैंची से हवा में कच्-कच् कर रहा था.

पापा कमरे में आए, मेरी तरफ़ देखा और बोले:
”किनारों से ज़्यादा काट, वर्ना ‘ज़ीरो-कट’ जैसा हो जाएगा!”
मैंने कहा:
 “जल्दी-जल्दी नहीं कट रहा है...”
मगर पापा ने अपने माथे पर हाथ मारा:
 “माय गॉड! डेनिस्का, हम दोनों बेवकूफ़ हैं! मैं ये बात कैसे भूल गया! ये काटना-वाटना बन्द कर! उसे आग में भूनना पड़ता है! समझ रहा है? सब ऐसा ही करते हैं. हम इसे आग में भूनेंगे, और तब सारे बाल जल जाएँगे, तब उन्हें न तो कटिंग की और न ही शेविंग की ज़रूरत पड़ेगी. आ जा मेरे पीछे!”
और उन्होंने मुर्गी को पकड़ा और किचन में भागे. मैं उनके पीछे भागा. हमने नया बर्नर जलाया, क्योंकि एक पर तो पानी वाला बर्तन रखा था, और हम चारों तरफ़ से मुर्गी को आग पर भूनने लगे. वो बढ़िया जल रही थी और पूरे क्वार्टर में जले हुए रोओं की गंध बिखेर रही थी. पापा उसे एक साइड से दूसरी साइड पे पलट रहे थे और कहते जा रहे थे:
 “अभ्भी, अभ्भी! ओह, बढ़िया मुर्गी है! अब वो पूरी तरह झुलस जाएगी और साफ़-सुथरी, सफ़ेद-सफ़ेद हो जाएगी...”
मगर मुर्गी तो इसके विपरीत कैसी काली-काली तो होने लगी, कुछ कोयले जैसी दिखने लगी, और पापा ने आख़िरकार गैस बन्द कर दी.
उन्होंने कहा:
 “मेरे ख़याल से ये अचानक धुआँ छोड़ने लगी है. तुझे धुएँदार मुर्गी पसन्द है?”
मैंने कहा;
 “नहीं. ये धुँआ नहीं छोड़ रही है, ये बस कालिख से पुत गई है. लाओ, पापा, मैं इसे धो देता हूँ.”
वो एकदम ख़ुश हो गए.    
 “शाबाश!” उन्होंने कहा. “तू स्मार्ट है. ये अच्छे गुण तुझे विरासत में मिले हैं. तू पूरा मुझ पे गया है. तो, दोस्त, इस चिमनी जैसी कालिख लगी मुर्गी को उठा और उसे नल के नीचे अच्छे से धो ले, मैं तो इस भाग-दौड़ से थक गया हूँ.”
और वो स्टूल पे बैठ गए.
मैंने कहा:
 “अभ्भी, एक मिनट में!”

मैं सिंक के पास गया और नल खोला, पानी की धार के नीचे हमारी मुर्गी को रखा और पूरी ताक़त से दाएँ हाथ से उसे मल-मल के धोने लगा. मुर्गी बेहद गरम थी और बेतहाशा गंदी थी, मेरे हाथ कुहनियों तक गंदे हो गए. पापा स्टूल पे बैठे-बैठे हिल रहे थे.
 “ओह, पापा,” मैंने कहा, “तुमने उसे क्या कर दिया है. साफ़ ही नहीं हो रही है. बहुत कालिख है.”
 “बकवास,” पापा ने कहा, “कालिख सिर्फ ऊपर-ऊपर है. वो पूरी की पूरी तो कालिख से नहीं ना बनी है? रुक!”
और, पापा बाथरूम में गए और वहाँ से स्ट्राबेरी-सोप लेकर आए.
 “ले,” उन्होंने कहा, “ठीक से धोना! खूब साबुन लगा.”

और मैं इस बदनसीब मुर्गी को साबुन लगाने लगा. अब तो वो एकदम मरियल लगने लगी. मैंने उसे खूब साबुन लगाया, मगर वो साफ़ ही नहीं हो रही थी, उसके बदन से गंदगी बह रही थी, क़रीब आधे घण्टे से बह रही थी, मगर वह साफ़ हुई ही नहीं.
मैंने कहा:
 “ये भयानक मुर्गी सिर्फ साबुन में पुती ही जा रही है.”
तब पापा बोले:
 “ये रहा ब्रश! ले, उसे अच्छे ब्रश से साफ़ कर! पहले पीठ, और बाद में बाकी का हिस्सा.”
 “मैं ब्रश से साफ़ करने लगा. मैं पूरी ताकत से ब्रश कर रहा था, कहीं कहीं पर तो चमड़ी भी छील दी. मगर, फिर भी मुझे बहुत मुश्किल हो रही थी, क्योंकि मुर्गी तो जैसे अचानक ज़िन्दा हो गई और मेरे हाथों में गोल-गोल घूमने लगी, फ़िसलने लगी और हर पल उछलने की कोशिश करने लगी. और पापा थे कि अपने स्टूल से उतर ही नहीं रहे थे और बस हुक्म दिए जा रहे थे:
 “कस के घिस! हौले से! परों से पकड़! ऐह, तू भी ना! मैं देख रहा हूँ कि तुझे मुर्गी धोना ज़रा भी नहीं आता है.”
तब मैंने कहा:
 “पापा, तुम ख़ुद ही कोशिश कर लो!”
और मैंने मुर्गी उनकी तरफ़ बढ़ा दी. मगर वो उसे ले भी नहीं पाए थे, कि अचानक वह मेरे हाथों से कूदी और सबसे दूर वाली शेल्फ़ के नीचे घुस गई. मगर पापा परेशान नहीं हुए. उन्होंने कहा:
 “ ‘मॉप’ ला!”

मैं ‘मॉप’ लाया, पापा ने डंडे से मुर्गी को शेल्फ के नीचे से बाहर खींचने की कोशिश की. पहले वहाँ से पुरानी चूहेदानी बाहर आई, फिर मेरा पिछले साल वाला टीन का सोल्जर, मैं ख़ूब ख़ुश हो गया, क्योंकि मैं सोचता था कि वो गुम गया है, मगर वो वहाँ था, मेरा प्यारा सोल्जर.
इसके बाद, आख़िरकार, पापा ने मुर्गी बाहर निकाल ही ली. वो पूरी तरह धूल में सन गई थी. और पापा हो गए थे लाल-लाल. मगर उन्होंने उसका पंजा पकड़ा और फिर से सिंक में घुसा दिया. उन्होंने कहा:
 “चल, अब, पकड़. ब्लू बर्ड.”
उन्होंने उसे काफ़ी साफ़ धोया और पानी से भरे बर्तन में रख दिया. तभी मम्मा आई. उसने कहा:
 “ये क्या गड़बड़ चल रही थी?”
पापा ने गहरी साँस लेकर कहा:
 “मुर्गी पका रहे हैं.”
मम्मा ने पूछा:
 “बहुत देर से?”
“अभी-अभी रखी है,” पापा ने कहा.
मम्मा ने बर्तन का ढक्कन हटाया.
 “नमक डाला?”
 “बाद में,” पापा ने कहा, “जब पक जाएगी.”
मगर मम्मा ने बर्तन को सूँघा.
 “इसे अन्दर से साफ़ किया?” उसने पूछा.
 “बाद में,” पापा ने जवाब दिया, “जब पक जाएगी.”
मम्मा ने गहरी साँस ली और मुर्गी को बर्तन से बाहर निकाल दिया. उसने कहा:
 “डेनिस्का, मेरा एप्रन ला, प्लीज़. तुम लोगों के लिए पूरी तैयारी करनी पड़ेगी, ग्रेट-कुक्स.”
मैं कमरे में भागा, एप्रन लिया और मेज़ से अपनी बनाई हुई तस्वीर उठाई. मैंने मम्मा को एप्रन दिया और उससे पूछा:
 “देखो, मैंने क्या बनाया है? पहचानो, मम्मा!”
मम्मा ने देखा और बोली:
 “सिलाई मशीन? हाँ?”

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