सर्कस वालों, मैं
भी कम नहीं हूँ
लेखक: विक्टर
द्रागून्स्की
अनुवाद: आ. चारुमति
रामदास
मैं अक्सर
सर्कस जाता रहता हूँ. वहाँ मेरी ख़ूब पहचान हो गई है और दोस्त भी बन गए हैं. और, जब
मैं चाहता हूँ, तो मुझे बिना टिकट के भी अन्दर जाने देते हैं. क्योंकि अब मैं भी
सर्कस-आर्टिस्ट जैसा हो गया हूँ. एक लड़के के कारण. ये अभी हाल ही में हुआ था. मैं
दुकान से घर जा रहा था – अब हम नए क्वार्टर में रहते हैं, जो सर्कस के पास ही है,
वहीं कोने पे एक बड़ी दुकान भी है. तो, मैं कागज़ की बैग लिए दुकान से जा रहा हूँ,
उसमें पड़े हैं डेढ़ किलो टमाटर और कार्डबोर्ड के ग्लास में तीन सौ ग्राम दही. अचानक
देखता हूँ कि सामने से आ रही है दूस्या आण्टी, पुरानी बिल्डिंग से, वो बहुत भली
है, उसने पिछले साल मुझे और मीश्का को क्लब के टिक़ट दिए थे. मैं बहुत ख़ुश हुआ, वो
भी ख़ुश हो गई. उसने कहा:
”कहाँ से आ रहा
है?”
मैंने कहा:
“दुकान से. टमाटर ख़रीदे! नमस्ते, दूस्या आण्टी!”
वो हाथ नचाकर
बोली:
”क्या तू ख़ुद
दुकान में जाता है? अभी से? समय तो कैसे उड़ रहा है!”
उसे अचरज होता
है. इन्सान नवें साल में है, और उसे अचरज हो रहा है.
मैंने कहा;
“अच्छा, फिर मिलेंगे, दूस्या आण्टी.”
और मैं चल पड़ा.
वो पीछे से चिल्लाई:
“रुक जा! कहाँ जा रहा है? मैं तुझे अभ्भी सर्कस
में छोड़ती हूँ, दिन वाले ‘शो’ में. क्या तू देखना चाहता है?”
ये भी कोई
पूछने की बात है! अजीब है. मैंने कहा:
“बेशक, चाहता हूँ! इस बारे में दो राय हो ही
नहीं सकती!...”
उसने मेरा हाथ
पकड़ा और हम चौड़ी-चौड़ी सीढ़ियों पर चढ़े. दूस्या आण्टी कंट्रोलर के पास गई और बोली:
“लो, मारिया निकोलायेव्ना, अपने नौजवान को लाई
हूँ, देखने दो. ठीक है?”
वो भी
मुस्कुराई और मुझे अन्दर छोड़ दिया, मैं अन्दर गया, आण्टी दूस्या और मारिया
निकोलायेव्ना पीछे-पीछे आ रही थीं. मैं कुछ अंधेरे में चल रहा था, और मुझे ये
सर्कस की ख़ुशबू फिर से बहुत अच्छी लगी – ये एक ख़ास तरह की ख़ुशबू है, और जैसे ही
मैंने उसे सूंघा, मेरे दिल में न जाने क्यों एक ही साथ ख़ुशी और बेचैनी के भाव आ
गए. कहीं म्यूज़िक बज रहा था, मैं उस तरफ़ लपका, उसकी आवाज़ की दिशा में, और अचानक
मुझे गेंद वाली लड़की की याद आ गई, जिसे मैंने यहाँ कुछ ही दिन पहले देखा था - गेंद
वाली लड़की, उसकी चाँदी जैसी चमचमाती ड्रेस, और ‘केप’, और उसके लम्बे-लम्बे हाथ; वह
कहीं दूर चली गई है, मेरे दिल में अजीब से भाव आए, पता नहीं, कैसे समझाऊँ...और, अब
हम किनारे वाले दरवाज़े तक पहुँच गए, मुझे आगे धकेला जा रहा था, और मारिया
निकोलायेव्ना फुसफुसाई:
“बैठ जा! पहली लाईन में ख़ाली सीट है, बैठ जा...”
मैं फ़ौरन बैठ
गया. मेरी बगल में एक लड़का बैठा था, मेरे जैसी ही कद-काठी का, वैसे ही स्कूल के
यूनिफॉर्म में, नाक तोते जैसी, आँखें चमक रही थीं. उसने काफ़ी ग़ुस्से से मेरी तरफ़
देखा, कि एक तो मैं देर से आया हूँ और अब डिस्टर्ब कर रहा हूँ, वगैरह, वगैरह, मगर
मैंने उसकी ओर ध्यान ही नहीं दिया. मैंने अपना पूरा ध्यान आर्टिस्ट पर लगा दिया,
जो इस समय अपना प्रोग्राम पेश कर रहा था. वो अरेना के बीचों बीच खड़ा था, सिर पर
बड़ी भारी कैप थी, और उसके हाथों में क़रीब आधा मीटर लम्बी सुई थी. सुई में धागे के
बदले थी एक लम्बी और पतली रेशमी रिबन. इस आर्टिस्ट के पास खड़ी थीं दो लड़कियाँ और
वो किसी को भी नहीं छू रही थीं. अचानक वो बिना बात के उनमें से एक लड़की के पास गया
और – खच्! – अपनी लम्बी सुई से उसका पेट सी दिया आर-पार, सुई उसकी पीठ से बाहर
निकली! मैंने सोचा कि अब लड़की ज़ोर से चिल्लाएगी, मगर नहीं, वो ख़ामोशी से खड़ी रही
और मुस्कुराती रही. अब आर्टिस्ट बिल्कुल दूर हट गया – खच्च! – और दूसरी के भी
आर-पार सुई घुसा दी! ये भी नहीं चिल्लाई, बल्कि सिर्फ अपनी पलकें झपकाती रही. तो
वो दोनों इस तरह सिली-सिलाई खड़ी हैं, उनके बीच में है रिबन, और वो ऐसे मुस्कुरा
रही हैं, जैसे कुछ हुआ ही न हो. अरे, मेरी प्यारियों, क्या बात है!
मैंने कहा:
“वो चिल्लाती क्यों नहीं हैं? क्या बर्दाश्त कर
रही हैं?”
बगल वाला लड़का
बोला:
“चिल्लाएँगी क्यों? उन्हें दर्द नहीं हो रहा
है!”
मैंने कहा:
“तेरे साथ होता तो कैसा होता! मैं सोच सकता हूँ
कि तू कितनी ज़ोर से चिल्लाता...”
वो मुस्कुराने
लगा, जैसे कि वह मुझसे कुछ बड़ा हो, फिर बोला:
“पहले मैंने सोचा कि तू सर्कस वाला है. तुझे
माशा आण्टी बिठा कर गई थी ना... मगर, लगता है कि तू सर्कसवाला नहीं है... हमारा
नहीं है.”
मैंने कहा:
“एक ही बात है कि मैं कौन हूँ – सर्कस वाला या
बिना सर्कस वाला. मैं नागरिक हूँ, समझा? और सर्कस वाला – क्या अलग होता है?”
उसने
मुस्कुराते हुए कहा:
“नहीं, सर्कस वाले – ख़ास होते हैं...”
मुझे ग़ुस्सा आ
गया:
“उनके क्या तीन पैर होते हैं?”
मगर वो बोला:
“तीन होते हैं या नहीं होते, मगर फिर भी वे औरों
से ज़्यादा फुर्तीले होते हैं – कोई मुक़ाबला ही नहीं! – और ज़्यादा ताक़तवर, और
ज़्यादा हाज़िरजवाब होते हैं.”
मुझे एकदम
गुस्सा आ गया और मैंने कहा:
“चल, ज़्यादा गप न मार! यहाँ भी कोई कम नहीं है!
तू, क्या, सर्कसवाला है?”
उसने आँख़ें
झुका लीं:
“नहीं, मैं मम्मा का बेटा हूँ...”
और होठों के
कोनों से मुस्कुराने लगा, चालाकी से. मगर मैं इसे समझ नहीं पाया, ये मैं अब समझ
रहा हूँ, कि वो चालाकी कर रहा था, मगर तब मैं ठहाका मार कर हँस पड़ा था, और उसने
अपनी चंचल नज़रें मुझ पर गड़ा दीं:
“तू प्रोग्राम तो देख!... घुड़सवार!...”
सही में,
म्यूज़िक ज़ोर से और तेज़-तेज़ बजने लगा, और अरेना में उछलते हुए एक सफ़ेद घोड़ा आया,
इतना मोटा और चौड़ा, जैसे कोई दीवान हो. घोड़े के ऊपर खड़ी थी एक आण्टी, और उसने
भागते हुए घोड़े पर अलग-अलग तरह से कूदना शुरू कर दिया: कभी वो एक पैर पे कूदती,
हाथ साइड में, कभी दोनों पैरों पर, जैसे रस्सी कूद रही हो. मैंने सोचा, कि इतने
चौड़े घोड़े पर कूदना - बकवास है, ये ऐसा ही है, जैसे तुम लिखने की मेज़ पर कूद रहे
हो; और ये, कि मैं भी ऐसा कर सकता हूँ. ये आण्टी बस कूदती रही, कूदती रही, और एक
आदमी, काले कपड़ों में, बस चाबुक लहरा रहा था, जिससे घोड़ा कुछ फुर्ती से चले, वर्ना
तो वो उनींदी मक्खी की तरह लड़खड़ा रहा था. वह उस पर चिल्ला रहा था और पूरे समय
चाबुक हिला रहा था. मगर, घोड़ा था कि ध्यान ही नहीं दे रहा था. कैसी-तो उदासी...मगर
आण्टी जी भर के कूद ली और परदे के पीछे भाग गई, मगर घोड़ा गोल गोल चक्कर लगाता रहा.
अब आया ‘पेन्सिल’.
मेरी बगल में बैठे लड़के ने फिर से मुझ पर जल्दी से नज़र डाली, फिर आँखें फेर लीं और
बड़ी उदासीनता से बोला:
“क्या तुमने ये प्रोग्राम पहले कभी देखा है?”
“नहीं, पहली बार देखूँगा,” मैंने कहा.
वह बोला:
“तब मेरी सीट पे आ जा. यहाँ से तुझे ज़्यादा
अच्छा नज़र आएगा. बैठ. मैं इसे पहले ही देख चुका हूँ.” वह हँसा. मैंने कहा:
“तू कर क्या रहा है?”
“ऐसे ही,” वह बोला, “कुछ नहीं. अब ‘पेन्सिल’
ऐसी-ऐसी कारनामे दिखाएगा, खूब मज़ेदार! चल, सीट बदल ले.”
जब वो इतना भला
है, तो कोई बात नहीं. मैं उसकी सीट पे बैठ गया. और वो मेरी वाली सीट पे बैठ गया,
वहाँ, सही में, ज़्यादा बुरा था, एक खंभा देखने में डिस्टर्ब कर रहा था. अब
‘पेन्सिल’ ने कारनामे शुरू कर दिए. वो चाबुक वाले अंकल से बोला:
“अलेक्सान्द्र बोरिसोविच! क्या मैं इस घोड़े पे
घूम सकता हूँ?”
और उसने कहा:
“प्लीज़, ख़ुशी से!”
और ‘पेन्सिल’
इस घोड़े पे चढ़ने लगा. वह हर तरह से कोशिश कर रहा था, अपना छोटा सा पैर उसके ऊपर
रखता, और बार बार फ़िसल जाता, और गिर पड़ता – घोड़ा बेहद मोटा था. तब वो बोला:
“मुझे इस घोड़े पे बिठा दीजिए.”
फ़ौरन सहायक आया
और झुका, ‘पेन्सिल’ उसकी पीठ पे चढ़ गया, और घोड़े पे बैठ गया, मगर उल्टा बैठ गया.
वो घोड़े के सिर की तरफ़ पीठ करके बैठा था, और मुँह पूँछ की तरफ़ था. सब लोग
हँसते-हँसते लोट पोट हुए जा रहे थे! चाबुक वाले अंकल ने उससे कहा:
“ ‘पेन्सिल’! आप ग़लत बैठे हैं.”
मगर ‘पेन्सिल’ ने जवाब दिया:
“गलत कैसे? आपको कैसे मालूम कि मुझे किस तरफ़
जाना है?”
तब अंकल ने
घोड़े के सिर को छुआ और कहा:
“सिर तो यहाँ है!”
‘पेन्सिल’ ने
घोड़े की पूँछ पकड़ ली और कहा:
“मगर दाढ़ी तो यहाँ है!”
तभी उसकी कमर
में रस्सी बांध दी गई, वो सर्कस के गुम्बद के ठीक नीचे लगे किसी पहिए से गुज़र रही
थी, और उसका दूसरा सिरा चाबुक वाले अंकल के हाथ में था. वो चिल्लाया:
“मास्टर, सरपट! हैलो!”
ऑर्केस्ट्रा गरज उठा, और घोड़ा भागने लगा.
‘पेन्सिल’ उस पर ऐसे हिल रहा था, जैसे बागड़ पे बैठी हुई मुर्गी, और वह कभी एक ओर
को फ़िसलता, तो कभी दूसरी ओर, और अचानक घोड़ा उसके नीचे से बाहर निकलने लगा, वो पूरी
सर्कस में ज़ोर से चिल्लाया:
“ओय, दोस्तों, घोड़ा ख़तम हो रहा है!”
और वो, सचमुच
में उसके नीचे से निकल गया और टप्-टप् करते हुए परदे के पीछे चला गया, और
‘पेन्सिल’, शायद नीचे गिर कर मर जाता, मगर चाबुक वाले अंकल ने रस्सी खींची और
‘पेन्सिल’ हवा में टँग गया. हमारा हँसी के मारे दम घुटने लगा, और मैं पास वाले
लड़के से कहने वाला था कि अब मेरा पेट फट जाएगा, मगर वो था ही नहीं. कहीं चला गया
था. इस बीच ‘पेन्सिल’ हाथ ऐसे नचाने लगा, जैसे हवा में तैर रहा है, और फिर उसे छोड़
दिया गया, वो नीचे आने लगा, मगर जैसे ही उसने ज़मीन को छुआ, वो फिर से इधर उधर भागा
और फिर से ऊपर उड़ने लगा. ऐसा लग रहा था कि वो लम्बे-लम्बे क़दम रखते हुए कभी ऊपर,
कभी नीचे आ रहा है, सब लोग हँसते-हँसते बेज़ार हो रहे थे. वो इसी तरह से उड़ता ही
रहा, और उसकी पतलून खिसकते खिसकते बची, मैंने सोचा कि अब तो इन ठहाकों से मेरा दम घुटने ही वाला है, मगर तभी
फिर से वह ज़मीन पे उतरा और अचानक मेरी तरफ़ देखकर ख़ुशी से आँख मारी. हाँ! उसने मुझे
ही आँख़ मारी थी. मैंने भी उसे आँख़ मारी. और, ये क्या?! उसने अचानक फिर से मुझे आँख़
मारी, अपने हाथ मले और पूरी ताक़त से भागते हुए मेरे पास आया और दोनों हाथों से
मुझे पकड़ लिया, चाबुक वाले अंकल ने फ़ौरन रस्सी खींच ली और मैं ‘पेन्सिल’ के साथ
ऊपर उड़ गया! हम दोनों! उसने मेरा सिर बगल में दबाया और पेट से चिपकाए रखा, खूब कस
के, क्योंकि हम काफ़ी ऊँचाई पर थे. नीचे लोग नहीं थे, बल्कि घनी सफ़ेद और काली
पट्टियाँ नज़र आ रही थीं, क्योंकि हम तेज़ी से घूम रहे थे, और मेरे मुँह में भी
गुदगुदी सी हो रही थी. जब हम ऑर्केस्ट्रा के ऊपर से उड़ रहे थे, तो मैं डर गया, कि
झनझनाती तश्तरियों से टकरा जाऊँगा और मैं चिल्ला पड़ा:
“मम्मा!”
फ़ौरन एक शोर
उड़ता हुआ मुझ तक आया. ये सब लोग हँस रहे थे. मगर ‘पेन्सिल’ फ़ौरन मुझे चिढ़ाते हुए
आँसू भरी आवाज़ से चीख़ा:
“म्य-म्म्या!”
नीचे से भयानक
शोर और गडगड़ाहट सुनाई दे रही थी, और हम कुछ देर इसी तरह उड़ते रहे, ऐसा लगा कि अब
मुझे आदत हो रही है, मगर तभी मेरे हाथों का पैकेट फट गया, और मेरे टमाटर उड़ने लगे,
वे बमों की तरह अलग-अलग दिशाओं में उड़ रहे थे – डेढ़ किलो टमाटर. शायद, वे लोगों के
ऊपर गिरे, क्योंकि नीचे से ऐसा शोर उठा, कि बताना मुश्किल है. मैं सोच रहा था कि
कहीं दही का गिलास भी न उड़ने लगे – तीन सौ ग्राम्स. तब तो मम्मा मेरी वो ख़बर लेगी
कि ख़ुदा बचाए! और ‘पेन्सिल’ अचानक लट्टू की तरह गोल-गोल घूमने लगा, और मैं भी उसके
साथ-साथ, और मुझे ये नहीं करना चाहिए था, क्योंकि मैं फिर से घबरा गया और उसे
मारने और खरोंचने लगा, और ‘पेन्सिल’ ने शांति से मगर कड़ाई से कहा, मैंने सुना:
“तोल्का, क्या कर रहा है?”
मैं गरजा:
“मैं तोल्का नहीं हूँ! मैं डेनिस हूँ! मुझे
छोड़िए!”
और मैं छूटने
की कोशिश करने लगा, मगर उसने और कस के मुझे चिपटा लिया, क़रीब-क़रीब मेरा गला ही
घोंट दिया, और हम बेहद धीरे उड़ने लगी, मैंने पूरी सर्कस देखी, और चाबुक वाले अंकल
भी, वो हमारी तरफ़ देख रहे थे और मुस्कुरा रहे थे. इसी समय दही का गिलास बाहर उड़ ही
गया. मुझे मालूम ही था. वो सीधे चाबुक वाले गंजे अंकल के सिर पे जा गिरा. वो चिल्लाकर
कुछ बोले, और हम धीरे धीरे नीचे उतरने लगे...
जैसे ही हम
नीचे उतरे और ‘पेन्सिल’ ने मुझे छोड़ा, मैं, ख़ुद भी न समझते हुए, पूरी ताक़त से
भागा. मगर वहाँ नहीं; मुझे पता नहीं कि मैं किधर भाग रहा था, और मैं लड़खड़ा रहा था,
क्योंकि मेरा सिर चकरा रहा था, आख़िरकार साइड वाले दरवाज़े में मैंने दूस्या आण्टी
और मारिया निकोलायेव्ना को देख ही लिया, उनके चेहरे सफ़ॆद हो रहे थे, और मैं उनकी
तरफ़ भागा, चारों ओर सब लोग पागलों की तरह तालियाँ बजा रहे थे.
दूस्या आण्टी
ने कहा:
“थैंक गॉड, सही सलामत है! चल, घर चलें!”
मैंने कहा:
“और टमाटर?”
“मैं खरीद दूँगी. चल.”
उन्होंने मेरा
हाथ पकड़ा, और हम तीनों आधे-अंधेरे कॉरीडोर में निकले. वहाँ हमने देखा कि दीवार पर
लगे लैम्प के पास एक लड़का खड़ा है. ये वो ही लड़का था, जो मेरी बगल में बैठा था.
मारिया निकोलायेव्ना ने कहा:
“तोल्का, तू कहाँ था?”
लड़के ने जवाब
नहीं दिया.
मैंने कहा:
“तू कहाँ चला गया था? जैसे ही मैं तेरी सीट पे
बैठा तो जानते हो क्या-क्या हुआ!...’पेन्सिल’ ने मुझे झपट्टा मार कर उठा लिया और आसमान
में ले गया.”
मारिया निकोलायेव्ना
ने पूछा:
“और, तू उसकी जगह पे क्यों बैठा?”
“इसीने मुझसे कहा था,” मैंने जवाब दिया. “इसने कहा
कि यहाँ से ज़्यादा अच्छा दिखाई देगा, और मैं बैठ गया. और वो ख़ुद कहीं चला गया!”
“समझ गई,” मारिया निकोलायेव्ना ने कहा. “मैं ऑफ़िस
में रिपोर्ट करूँगी. तोल्का, तुझे सर्कस से निकाल देंगे.”
लड़के ने कहा:
“नहीं, माशा आण्टी.”
मगर वो फुसफुसाते
हुए चिल्लाई:
“तुझे शरम कैसे नहीं आई! तू सर्कस वाला बच्चा है,
तूने प्रक्टिस की थी, और तूने अपनी जगह पर एक अनजान लड़के को बिठा दिया?! और, अगर
वो गिर जाता? उसे तो तैयार नहीं किया गया है!”
मैंने कहा:
“कोई बात नहीं. मैं तैयार हो गया हूँ...तुम, सर्कस
वालों से बुरा नहीं हूँ! क्या मैं फूहड़पन से उड़ रहा था?”
लड़के ने कहा:
“बढ़िया! और, वो टमाटरों वाला आइडिया भी अच्छा था,
मुझे कभी ऐसा ख़याल ही नहीं आया. मगर सब कुछ खूब मज़ाहिया था.”
“और ये आपका आर्टिस्ट भी,” दूस्या आण्टी ने कहा,
“ख़ूब है! किसी को भी पकड़ लेता है!”
“मिखाइल निकोलायेविच,” माशा आण्टी ने कहा, “पूरे
फॉर्म में था, वो पहले ही हवा में उड़ रहा था, वो भी कोई लोहे का बना हुआ नहीं है, उसे
पक्का मालूम था कि इस सीट पर, हमेशा की तरह, एक ख़ास लड़का बैठा होता है, सर्कस वाला,
ये कानून है. और ये छुटका और वो – बिल्कुल एक जैसे हैं, और यूनिफॉर्म भी एक जैसी हैं,
उसने ध्यान से नहीं देखा...”
“देखना चाहिए!:
दूस्या आण्टी ने
कहा. “ऐसे झपट्टा मर कर उठा लिया बच्चे को, जैसे बाज़ चूहे को उठा लेता है.”
मैंने कहा:
“चलो, जाएँगे?”
तोल्का ने कहा:
“सुन, अगले सण्डे को आना दो बजे. मुझसे मिलने के
लिए आना. मैं ऑफ़िस के पास तेरा इंतज़ार करूँग़ा.”
“ठीक है,” मैंने कहा, “ठीक है...उसमें क्या है!...आऊँगा.”
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